त्रैमासिक ई-पत्रिका
अपनी माटी
(ISSN 2322-0724 Apni Maati)
वर्ष-4,अंक-25 (अप्रैल-सितम्बर,2017)
किसान विशेषांक
दर्द का दूसरा जन्म: सफेद मेमने/डॉ.राज कुमार व्यास
निर्मला जैन कहती हैं- ’’ हर रचना का अस्तित्व इतिहास में स्थित एक इकाई के रूप में होता है। अपने रचना-क्षण से वर्तमान क्षण अर्थात आलोचना-क्षण तक वह एक जीवन पूरा जीती है। वह एक ऐसी इकाई होती है, जो एक युग में एक प्रकार के बोध के प्रति और दूसरे युग में दूसरे प्रकार के बोध के प्रति अपने आप को समर्पित करती चलती है पर हर युग में उसकी शक्ति, उसकी प्रभाव क्षमता की पहचान अलग होती है। इस तरह किसी रचना को हम उसकी समग्रता में समझ लेने का दावा कभी नहीं कर सकते। उसका एक अंश हमारे लिए हमेशा रहस्य का विषय, अलभ्य और अगम्य बना रहता है। रचना की यह अगम्यता भी उसकी कलात्मक विशेषता होती है।’’1 इन्हीं संदर्भों में मरुस्थल के एक छोटे से गाँव का इतिहास भी अपने अस्तित्व को एक युग से दूसरे युग तक ले जाता है। समय के साथ बोध बदलता है और साधारण से पात्र भी वर्ग विशेष के प्रतिनिधि की तरह बर्ताव करने लगते हैं। सफेद मेमने के पात्रों का संघर्ष और रचनाकार का यथार्थबोध पाठकों को व्यक्तिगत कुंठाओं और सामाजिक धरातल के बीच पेंडलुम की तरह झुलाता रहता है। देहाती जीवन में ये पात्र नगरबोध को पोषित करते हैं- ’’इस उपन्यास के कुछ पात्र या मेमने जो सफेद हैं, नगरबोध को लिए हुए हैं। राजस्थान के छोटे से गाँव नेगिया में रहते हैं जिसका खालीपन भी पराया-पराया सा लगता है।’’2
उपन्यास में सभी पात्र पूरे रेगिस्तान की दिशा-दशा के प्रवक्ता से लगते हैं और अकेलपन के एकालाप में बयान दर्ज कराते रहते हैं- सहसा रक्खे को लगा, जाने क्यूँ लगा के रेत के इन ढूहों में रहने वाले सभी लोगों का जीवन बाँस की फटी खपच्चियों की तरह है। उन्होंने अपने आपको निरीह मोरचंगों की शक्ल में बाँध लिया है और सूखी धुनें निकाल रहें हैं। वे धुनें आपस में टकराती हैं, घुलती हैं, बिखरती हैं, पर ऊपर से कुछ महसूस नहीं होता। लगता है सब ठीक है। लेकिन अंदर ही अंदर धुनें जल रहीं हैं। मोरचंग धुआँ दे रहे हैं। क्या जस्सू, क्या डॉक्टर, क्या पोस्टमास्टर, क्या बन्ना और क्या वह खुद, सब मोरचंग हैं, एक-दूसरे को बजा रहे हैं। जो जितना हलाल होता है, वह उतना ही तेज बजता है। छुटके मिनिया से लेकर बुढ़ऊ रक्खे तक यही विवशता का संबंध है, और कोई धर्म या गठबंधन नहीं।’’3
उपन्यास में एक प्रमुख पात्र है रामौतार जो पोस्टमास्टर है। कौसानी का रहनेवाला है। अधेड़ है, अपने से काफी छोटी उम्र की बन्ना से उसका विवाह होता हेै। बेमेल विवाह है और इस विवाह के परिणाम भी वैसे ही हैं। रामौतार और बन्ना का दाम्पत्य जीवन स्त्री-पुरुष संबंधों के कई संदर्भ उजागर करता है। विवाह भी है, प्रेम भी है, विवाहेत्तर संबंध भी हैं और वीरानी सी वीरानी भी है। बन्ना को रामौतार पर प्रेम भी आता है और उससे दुराव भी रखती है। बदली हुई परिस्थितियों में थोड़े समय तो लोकतंत्र के गीत गाता है और फिर एक नए परिवर्तन की राह पकड़ता है- ..रामौतार ने गजसिंहपुर जाकर नौकरी छोड़ दी और कौसानी लौट गया। वहाँ उसने एक महान नेता बनने के लिए स्वयं को मुक्त कर दिया।’’4
जानवरों का डॉक्टर भानमल पहले नागपुर में पत्रकार था। हत्या कर चुका है। गाँव में ’जिनावरों की बीमारी’ दूर करता है। जस्सू डाकिया है। छोटी उम्र में ही घर से भाग आया था। ब्याह-शादी नहीं की। रक्खे डाकखाने का बुढ़ा मुलाजिम है। बचपन में ही अनाथ हो गया था। कभी घर नहीं बसाया- ’’नौ साल तक अकाल पड़ा। रक्खे का बाप बूंद-बूंद पानी के लिए तरसता मर गया। पानी कहीं नहीं था, न कुएँ में और न रक्खे और उसकी माँ की आँख में। एक रात को जब वह करीब-करीब बेहोश था, माँ भी उसे छोड़कर अपने रास्ते चली गई। तब वह आठ साल का था।’’5 रक्खे के लिए पूरी जिंदगी एक खत्म नहीं होने वाली यातना थी और खुशी भी मिली तो यह कि बिना विवाह के उसकी तीसरी पीढ़ी जन्म लेनेवाली है’’ संदों का बच्चा यानी। रक्खे की तीसरी पीढ़ी जन्म लेनेवाली है। .. जिस व्यक्ति ने न कभी ब्याह किया, न गृहस्थी जमाई, न घर का कोई दन्द-फन्द किया। जिन्दगी भर अकेला और अपने में सिमटा-सिमटा रहा और फिर भी उसका वंश खत्म नहीं हुआ। वह एक अनजाने बहाव में शामिल है और पूरी गति से बढ़ रहा है।’’6 यह गति आखिरकार उसे मौत के मुहाने तक ले जाती है- ..रक्खे मर गया उसी अनंत प्यास में तड़प-तड़पकर, जैसे उसका बाप मरा था। ... ’ भीमा रिटायर्ड फौजी है और विक्षिप्त सा है। सुरजा पुश्तैनी दुश्मनी में यौन-हिंसा की शिकार होती है। सन्दो और उसके साथी सुरजा के साथ बलात्कार करते हैं। सुरजा का कथन है- ’’ सन्दो रोज अपने दोस्त ले आता है, मुझ पर चढ़ाई कराने के लिए। वह सोचता है इसमें मेरा नुकसान होगा। मैं हलाल हो जाऊँगी ... वह मेरी आँख में आँसू देखना चाहता है ... रोएगी मेरी जूती। मुझमें सामरथ है।’’7
रंजिश में औरत आसान शिकार है। यहाँ भी दुश्मनी के कारण दूसरी बिरादरी की स्त्री को शिकार बनाया गया है। ताकतवर मर्द यह काम लगातार करते रहते हैैं। घिसती-पिसती सिर्फ औरत है। पुलिस के मामले से बचने के लिए सन्दो सुरजा को ही थानेदार को सौंप देता है। लेखक अंत में खबर देता है कि उसे लगता है कि सुरजा चंबल के बीहड़ों में डाकुओं के गिरोह में शामिल हो गई है - ’’जब भी धौलपुर की तरफ कोई डकैती पड़ती है मेरे सामने सुरजा का बदहवास चेहरा आ खड़ा होता है।’’9
सन्दो औरत का लालच देकर एक व्यक्ति को वीराने में ले आता है और फिर उसका सिर काट लेता है, कहता है - मुझे भैंरु जी का इष्ट है और उसी के परताप से सैंकड़ों बार मौत की खाई में जाता हुआ बचा हूँ। भैरुजी ने नरबलि माँगी और मैंने दे दी.....।10 जिंदगी और मौत यहाँ बस एक खबर है। सूचना भर है। उपन्यासकार इसी प्रवृत्ति पर व्यंग्य भी करता है - ’’इस इलाके के कण-कण में एक ओज और जादुई चमक है। लोगों के बीच मोह और अपनापा है भी तो इस हद तक कि वे एक दूसरे को पीस डालने में जरा भी नहीं हिचकते।’’11 डॉ. भानमल भी हत्यारा है। समय बीताने के लिए पशु चिकित्सक बना हुआ है। सब मोहग्रस्त हैं और समय-समय उनका मोह भी भंग होता है। डॉ. भानमल नस चढ़ी भैंस के साथ संभोग करता है। उसका अंत भी अकाल की दुर्दिन देखते-देखते ही होता है - ... डाक्टर ने मवेशियों के कच्चे-पक्के माँस पर कुछ वक्त निकाला पर अंत में उसे भी भुखमरी ने घेरकर पींच दिया। ...12
जस्सू के लिए आनेवाले दिनों के लिए आशा ओर उत्साह का पूरा नक्शा है- ’’अलग रहने में आजादी रहती है। सूरतगढ़ के पास जमीन लूँगा। वहाँ नहर है न, इसलिए पानी की कमी नहीं है। मेहनत करों तो पैदावार अच्छी हो जाती है। एक आदमी को बोल रखा है वह किस्तों में पैसा लेने को राजी हो जाएगा।... वह समझाता हुआ बोला, एक मुरब्बा जमीन भी उधर ज्यादा मानी जाती है। चने, गेहूँ, ईख, कपास जो मर्जी आए, बो डालो। फिर देखो। खेत कैसे उफन के आता है। अनाज रखने को कोठे नहीं मिलते। सरकंडों के ठाँव बनाने पड़ते हैं। ’’13 लेकिन परिणति यह होती है कि नशे में आधी रात को जंतरी को टीले पर ले जाता है और जबरदस्ती करता है और लेखक बताता है कि जस्सू ने तो नेगिया से निकलते ही फिर भागमभाग की जिंदगी अपना ली थी ... वह इन दिनों नक्सलवादियों के एक ग्रुप के साथ जेल काट रहा है।’’14
बन्ना के लिए संदों को समझना मुश्किल है - ’’बन्ना को इसी बात का पश्चाताप था कि वह संदों को कभी समझ नहीं पाई।जो मरद उसके सामने इतना मीठा, इतना प्यारा बनकर आता था। वह पलोपल में मारकाट मचा सकता था, बन्ना सोच भी नहीं पाई थी।’’15 बन्ना के लिए बेमेल विवाह भी दुख का कारण है। रेगिस्तान का उचाट विस्तार भी उसे दुखी करता है और विभाजन की दर्दनाक कहानियां भी दुख देती है। दूसरे धर्म के लोगों ने उसके परिवार की महिलाओं पर भारी अत्याचार किए ’’मामी ने ही उसे सैंतालीस के दंगोें की कहानी सुनाई थी...सुनते हुए बन्ना बेहोश सी हो गई थी। उसे अपने चारों और का संसार क्रूर, डरावना और बर्बर लगने लगा। उस रोज से वह अधिक अकेली अधिक अनमनी हो गई थी।’’16 वह इन सब से भागती है और दूर बहुत दूर निकल जाना चाहती है। पोस्टमास्टर की पिटाई खाती है। भानमल के साथ वक्त बिताती है। सन्दो से संबंध बनाती है लेकिन मन के कोने में उदासी पाले रहती है - धूप के चौंधे मैले और पेचीदे होते जा रहे थे। बन्ना के जी में आया कि वह अपने-आपको गेंद की भाँति आसमान में उछाल दे,और उन तमाम स्थितियों के बीच से तीर की तरह निकल जाए।....रेगिस्तान की इस मनहूसियत ने उसकी छलछलाहट को छीन लिया था।17
दर्द और बर्बरता की बोध की विसंगति यह है कि अंत में वह इस्लाम कबूल कर बार्डर के पार चली जाती है। देहाती जीवन की विसंगतियों ओर विदु्रपताओं की इन तस्वीरों के संदर्भ में स्वयंप्रकाश कहते हैं - ’’सोच की सीमा का परिणाम यह है कि देहाती जीवन के विधायक पक्ष मणि मधुकर की नजर से ओझल ही रह गए हैं। .... इसका रहस्य क्या है, यह जानने प्रयत्न का मणि मधुकर कभी नहीं करते । ’’19
मणि मधुकर मौत की सूचना देते चले जाते हैं और बहुत ही उदास परिवेश रचकर अचानक उपन्यास का अंत कर देते हैं- ’’ इस कहानी के घट चुकने के बाद, एक कठिन समय आया, अकाल का। भूख प्यास का, न सुनी न जानी बीमारियों का। ढाणियों का वह पूरा देश उजड़ गया। ’’20 यह पूरे परिवेश के दर्द की कथा है और दर्द उठता ही रहता है, मिटता ही रहता है। इसीलिए वे कहते हैं उन्होंने इसे उदासी में लिखा है। डॉ इन्द्रनाथ मदान ने लिखा है- ’सफेद मेमने’ का परिवेश महानगर न होकर रेगिस्तान है जिसके एकांत में और नगर की भीड़ में अकेलेपन, अजनबीपन, बेगानेपन के बोध में अंतर मात्र इतना है कि रेगिस्तान के एकांत मेें यह अधिक गहरे में है। स्वाधीनता के बाद के रेगिस्तानी परिवेश में शोषण, असमानता निराशा और कुंठा की अनेक तस्वीरें इसमें उतारी गईं हैं। सब दुखी हैं, सब दुख से भाग रहेें हैं, सब दुखी होते हैं और सब दुखी करते भी हैं। उपन्यास में दर्द ही दर्द भरा है। जो इतिहास के सफर पर समय की इकाइयों को लांघता हुआ फिर-फिर उभर आता है, मिटता है मरता और जन्मता भी है।
मणि मधुकर की रचना प्रक्रिया भी ऐसी है और जीवन भी कमोबेश ऐसा ही रहा। प्रकाश आतुर के अनुसार - ’’कभी वे रचना के स्तर पर चर्चित होते है, कभी और किसी कौतुक के कारण। प्रशंसकों और निंदकों की अच्छी खासी जमात मणि मधुकर ने अपने इर्द-गिर्द खड़ी कर ली है। ... उन्होंने काफी महत्वपूर्ण लिखा है और महत्वपवूर्ण बने रहने की कला भी उन्हें आती है। अनेक विवादों के घेरे में घेरे जाने के बावजूद न वे हौंसलापस्त हुए न अपने सृजन की आँच को हल्का होने दिया, हमारे लिए मणि मधुकर का कृतिकार सर्वोपरि है, जिसने साहित्य की विविध विधाओं में अपनी लेखनी के जौहर से चमत्कृत किया है और जिसकी सृजन-क्षमता निरंतर चौंका देनेवाले नये-नये आयाम उद्घाटित करती रहती है। ’’23 यह उपन्यास भी इन्हीं संदर्भों में अपने प्रकाशन की आधी सदी पूरी करनेवाला है। यह लेखक का प्रथम उपन्यास है और पुरस्कृत भी। सफेद मेमने पर मणि मधुकर को प्रेमचन्द पुरस्कार प्राप्त हुआ। उन्होंने पहले ही उपन्यास से आलोचकों का ध्यान आकर्षित किया। डॉ. कृष्णदत्त पालीवाल के शब्दों में - पुरानी पीढ़ी के उपन्यासकार....नये पाठक की चेतना को तृप्ति नहीं दे सके। इसलिए नये उपन्यासकारों की एक पीढ़ी इनके बाद नवीन सृजन सम्भावनाओं के साथ उभरकर सामने आयी। डॉ. कृष्णदत्त पालीवाल ने मणि मधुकर का उल्लेख सातवें और आठवें दशक के प्रतिनिधि उपन्यासकार के रूप में किया है। डॉ. बच्चन सिंह ने भी इस उपन्यास के संदर्भ में मणि मधुकर की रचनात्मकता को रेखांकित किया है। .......गाँव के जीवन की इस बदलती-टूटती रीढ़ को, उसकी विसंगतियों-विद्रूपताओं को इधर......सफेद मेमने... जैसे उपन्यासों ने काफी गहराई की पकड़ से चित्रित किया है।26
उपन्यास में गाँव का परिवेश इस गहराई से उकेरा गया है कि वह सभी पात्रों के साथ एकमेक सा हो गया है। यह रचनाकार के शिल्प का चमत्कार ही है। अनेक स्थानों पर जब मणि मधुकर रेगिस्तान का वर्णन करते हैं तो बहुत शायराना हो जाते हैं - जैसे - ’’आसपास के धूसर धुंधलके में तमाम चीजें डूब सी गई थीं। फोग झाड़ियों के बीच में से किसी तरह जगह बनाकर निकलता हुआ रास्ता बार-बार अपनी पहचान खो देता है। अचानक रेत के टीले फोड़ों की भाँति उभर आते थे और उनकी ढलानों मे दरख्तों के डुूगडुगी सिर हिलने लगते थे। माघ माह की ठण्डी ठर हवा लचीली बेंत के से थपाके लगाती हुई चल रही थी।’’27 रेगिस्तान और फिर रात और उस पर भी ठंड का मौसम। मणि मधुकर के लिए रेगिस्तानी रातों का सर्द अहसास पाठक तक पहुँचाने की चुनौती थी और उन्होंने इस चुनौती को बहुत खूबी से निभाया भी- ’’टीले पर चाँद उग आया था-कांसी की थाली-सा,धूमिल। उसका उजाला रेत पर सफेद चूरे की तरह बरस रहा था,झिर-झिर। अरनों की परछाइयाँ निढाल पड़ी थीं। सर्द झौंके जिस्म को चीरते हुए चले जाते थे। बेबाक।’’28 रेगिस्तान के वातावारण और जनजीवन के वर्णन की चुनौती एक बात है यहाँ मणि मधुकर का मन खूब रमा है वे स्वीकार भी करते हैं - ’’जमीन के प्रति रेगिस्तानी आदमी में अटूट मोह है। ...मैं एक मामूली परिवार में जन्मा, पला, इसलिए मेरा मानस ग्रामीण परिवेश से अधिक जुड़ा है । जब मैं ग्रामीण परिवेश की कोई रचना लिखता तो उसमें सहज रहता हूँं।’’29 मणि मधुकर का यह कथन इस उपन्यास के प्रकाशन से पूर्व का है। संभव है इसकी रचना प्रक्रिया के दौर का हो। लेकिन सफेद मेमने की स्थितियाँ अलग हैं। व्यक्ति और रचना की स्थितियाँ होती भी अलग ही हैं। इन्हीं परिस्थितियों के बीच रचना जन्म लेती है, पलती है, बढ़ती है इसलिए प्रकाश आतुर कहते हैं - ’’नितांत वैयक्तिक कारणों से वे आलोचना के पात्र बनते हैं, लेेकिन जहाँ तक रचनात्मक क्षमता और दक्षता का प्रश्न है, उनसे असहमत होने के बावजूद उसे न तो अनदेखा किया जा सकता है, न उसके महत्व को नकारा जा सकता है। ’’30
’सफेद मेमने ’में मरुस्थल का वर्णन तो बहुत काव्यमयी भाषा में है और जब गाँव नेगिया का जिक्र आता है तो वे उसे कोसते से मालूम होते हैं।’’रेत की शाम में ललाइयाँ उड़ने लगीं। टीलों की ’तलाई’ में नेगिया गाँव, कोलाहल के एक गोल टुकड़े-सा तैरने लगा। उसकी मरियल मैली धड़कनें तेज हो गईं 31और ’’नेगिया का आकाश का नेगिया जैसा ही था, गंदला।’’32 और ’’नेगिया में तो बारिश ही मुश्किल से होती थी। चारों और ऊबड़-खाबड़ रेगिस्तान, जो धूल भरी मुट्ठियों के सिवाय कुछ नहीं देता था।33 देहाती जीवन की संवेदनाएँ पात्रों के चरित्र चित्रण और जीवन संदर्भों में सहज व्यक्त होती रहीं हैं। यहाँ उपन्यास में कथ्य के स्तर पर कुछ खास करने की आवश्यकता नहीं थीा। आंचलिकता को एक आधुनिक भावबोध से रचना था और उन्होंने ऐसा ही किया - ’’सफेद मेमने से प्रशंसनीय औपन्यासिक संरचना, काव्यात्मक भाषा और अब तक अपरिचित रहे रेगिस्तानी जीवन को सामने लानेवाले कथाकार के रूप में मणि अपनी अलग पहचान बनाने लगते हैं। सफेद मेमने में तत्कालीन समस्त साहित्यिक प्रवृत्तियाँ - अकेलापन, संत्रास, ऊब, निरर्थकताबोध, आंचलिकता, सेक्स आदि एक साथ मिल जाती है। आंचलिक रेणु के पास तथाकथित आधुनिक मुहावरा नहीं था, मणि ने रेगिस्तान का आधुनिकीकरण कर दिया है।’’34 इस आधुनिकीकरण में जीवन अपने आप में एक पहेली है - ’फिर ये लोग कैसे जी रहे हैं’ ? डॉक्टर ने कुढ़कर सोचा। वह देख रहा था, लोगों में एक सपाट निश्चिन्तता थी और वे बिना अपने आप पर नजर डाले, एक जगह की जड़ता को दूसरी जगह ले जा रहे थे। गोखे में खड़ी हुई एक स्त्री अपनी हथेली को इस तरह देख रही थी, मानो वह कोई खाने की चीज है।’’35
वातावरण की निस्तब्धता रेगिस्तान की पहचान है। हम सब के मन के किसी कोने में एक मरुस्थल है विद्यमान है और निस्तब्धता उसकी भी पहचान है। वह भी उतना ही बंजर है, उतना ही अकेला और उतना ही उजाड़ भी। दर्द भी उसमें सफेदे मेमने के माफिक ही फिर-फिर निपजता है। दर्द को गाने से राहत मिलती है शायद इसी लिए निविड़ एकांत में ऐसे स्वर डूबते उतरते रहते हैं जैसे - ’’रक्खे गोगाजी पीर की भगती में कुछ गा रहा था। उसकी भिंची-खिंची आवाज रात की निस्तब्धता को अजब ढंग से खुरच रही थी - सूत्यो रे गूगो म्हारो मदछक सरवरियै री पाल ... लवै रे हिलोला जलधार ..’’36 नगरीय बोध तो गाँव और देहात की सीमाओं तक पहुँच गया है। गाँव के दुखदर्द शहर के लिए अजनबी से होते हैं और शहर के भगोड़े मेमनों को गाँव पनाह देता ही है और यदि गाँव नेगिया हो तो पनाह की क्या फिक्र करनी।
संदर्भ:
- निर्मला जैन, निर्मला जैन संचयिता, सम्पादक - रामेश्वर राय,संस्करण - 2013
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डॉ.राज कुमार व्यास
असिस्टेंट प्रोफ़ेसर,हिंदी विभाग,मोहन लाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय,उदयपुर,राजस्थान
मो. 99287 88995 ई-मेल:rajkumarvyas@gmail.com