समीक्षा: ‘पिछले पन्ने की औरतें’: बेड़िया औरतों की समस्याएं/स्तुति राय

              


‘पिछले पन्ने की औरतें’: बेड़िया औरतों की समस्याएं

पिछले पन्ने की औरतेंशरद सिंह का शोधपरक उपन्यास है। इस उपन्यास का प्रकाशन सन् 20090 में हुआ था। यह उपन्यास मध्य-प्रदेश के बुंदेलखण्ड इलाके के बेड़िया समुदाय की स्त्रियों के जीवन पर आधारित है। लेखिका ने बेड़िया समुदाय के इतिहास, संस्मरणों, लोक-कथाओं एवं किंवदन्तियोंके माध्यम से बेड़नियों (बेड़िया स्त्रियाँ) के जीवन के नंगे यथार्थ को उपन्यास में चित्रित किया  है। लोक-प्रचलित किस्सों एवं स्वयं के अनुभव के वर्णन के साथ-साथ अध्ययनपरक तथ्यों के विश्लेषण ने इस उपन्यास को एक समस्या केन्द्रित उपन्यास बना दिया है जिसकी प्रामाणिकता पर संदेह नहीं किया जा सकता। बेड़िया समुदाय की उत्पत्ति, विकास, उसका राजनैतिक सम्बन्ध, वर्तमान स्वरूप एवं भारतीय संविधान में उसकी स्थिति इन सभी पहलुओं पर उपन्यास में विस्तार से प्रकाश डालने की कोशिश की गई है।

       भारत की अन्य खानाबदोश जनजातियों की तरह बेड़िया जनजाति भी घूमन्तू जाति है। ‘‘अंग्रेज अधिकारी आर.बी.रसेल ने बेड़ियों के बारे में सन् 19160 में टिप्पणी करते हुए लिखा था कि जिप्सियों की भाँति पीढ़ी-दर-पीढ़ी खानाबदोश एवं जन्मजात घूमक्कड़ समूहों को बेड़िया कहा जाता हैं।’’1 (पृ., सं. 6 पिछले पन्ने की औरतें-शरद सिंह)

       वर्तमान समय में बेड़िया समुदाय मध्य-प्रदेश के सागर जिले और उसके आस-पास और विशेषतः पथरिया बेड़नीनाम के गाँव में बसा हुआ है जिसका नाम इसके समुदाय के नाम पर पड़ा है। रसूबाई नाम की एक बेड़नी पर दिल आ जाने के कारण सागर जिले के एक बड़े जमींदार ने उन्हें  अपनी जमीन पर बसाया और उन्हें संरक्षण प्रदान किया। धीरे-धीरे  यह जगह उनके नाम से ही प्रसिद्ध हो गई। इस समाज की स्त्रियाँ राई’(नृत्य-विशेष) नाचती हैं और इसी नृत्य के लिए वह लोक प्रसिद्ध हैं। बुंदेलखंड के इलाके में सामाजिक-पारिवारिक उत्सवों में राई का नाच प्रसिद्ध और इसके लिए बेड़नियों को विशेष तौर पर बुलाया जाता है। द्वार पर बेड़नी का नाच यहाँ सामाजिक प्रतिष्ठा का प्रतीक माना जाता है।

        बेड़िया समाज में स्त्री की हैसियत पुरुष की अपेक्षा अधिक महत्व रखती है क्योंकि समाज की मुख्य आर्थिक स्त्रोत स्त्रियाँ ही हैं। बेड़नी स्त्रियाँ टोली बनाकर राई नाचने जाती हैं जिसमें मुख्य भूमिका नर्तकी की होती है। वह अपने नृत्य-कौशल के बल पर दर्शकों से ज्यादा पैसे निकलवा लेती हैं। उनके माध्यम से ही उनके टोली के गाने-बजाने वाले पुरुषों को भी रोजगार मिलता है अतः बेड़नियों का महत्व इस समुदाय में अधिक है।

      बेड़नियाँअपने समाज में परम्परानुमोदित नृत्य के माध्यम से अपने परिवार का भरण-पोषण करती हैं। इनके यहाँ आय का कोई दूसरा साधन न होने की वजह से बेड़िया पुरुष चोरी-डकैती जैसे अपराधिक कामों में संलिप्त रहते हैं अथवा अपनी पत्नियों या पुत्रियों के ऊपर निर्भर रहते हैं।अपनी इस परनिर्भरता को लेकर उनमें कोई संकोच नहीं है और ना ही बेड़नियाँ इसे गलत समझती हैं। छोटी उम्र में ही बेड़नियाँ राईनाचना शुरु कर देती हैं और अपने परिवार की आर्थिक मदद करने लगती बेड़नियों में विवाह सम्बन्ध तो प्रचलित है लेकिन राईनृत्य करने वाली स्त्री विवाह नहीं करती, वह चाहे तो किसी भी पुरुष के साथ अपना शारीरिक सम्बन्ध रख सकती है अथवा पुरुष रखैल रख सकती है। ऊपर-ऊपर से देखने पर बेड़नियों का जीवन काफी उन्मुक्त और स्वतंत्र दिखती हैं लेकिन सच्चाई का यह केवल एक पक्ष है।

राईनृत्य के बहाने बेड़नियाँ देह-व्यापार में संलग्न है और इसी के लिए तथाकथित भद्र समाज में प्रसिद्ध हैं। राईनृत्य में भी कामुकता और अश्लीलता का प्राधान्य रहता है और इस नृत्य के माध्यम से वह भद्र पुरुषों को रिझाने का पूरा प्रयास करती हैं ताकि उनके माध्यम से वह आय अर्जित कर सकें। ये बेड़नियाँ उन पुरुषों की काम-भावनाओं की पूर्ति करती हैं और इसके बदले वह उन्हें पैसा देते हैं। बेड़नियों की सुन्दरता और नृत्य-कौशल पर रीझकर पहले के सामंती पुरुष उन्हें रखैल रख लिया करते हैं। रखैल बनने की पहली क्रिया को सिर ढँकनाप्रथा का नाम दे दिया गया है। इस प्रथा में एक रईस पुरुष बेड़नी का भरण-पोषण करता है और संरक्षण प्रदान करता है। वह बेड़नी चाहे तो उससे अपनी संतान पैदा कर सकती है, लेकिन वह बच्चा अवैध संतान ही कहलायेगा।इन पुरुषों के घर में अपनी पत्नियाँ और बच्चे रहते हैं। वह बेड़नी उसकी पत्नी नहीं हो सकती। बाद में कभी-भी वह पुरुष उससे अपना सम्बन्ध तोड़ सकता है और इसके बाद बेड़नी स्वतंत्र हो जाती हैं।

      प्रश्न यह है कि आधुनिक समय में भी बेड़िया समुदाय की स्त्रियाँ क्योंकर नृत्य करने और देह-व्यापार जैसे अवैध कृत्य को करने के लिए मजबूर हैं? दरअसल राईएक लोक नृत्यकला है और यह कोई अवैध काम नहीं है, लेकिन उसके माध्यम से पुरुषों को आकर्षित कर वेश्यावृत्ति को अंजाम देना अवैध है, परन्तु बेड़िया समुदाय की औरतों को मजबूरीवश यह काम करना पड़ता है जो अब उनके समाज में परम्परा से स्वीकृत हो चुका है। उपन्यास में उल्लिखित है कि इन स्त्रियों ने यह जीवन स्वेच्छा से नहीं चुना था। बेड़िया समुदाय का इतिहास यह बतलाताहै कि कभी इस समुदाय के पूर्वज पृथ्वीराज चैहान और उनके जमींदारों से सम्बन्ध रखते थे। युद्ध में हार के बाद जब इनके पुरुष मारे गये तब कुछ औरतों ने तो जौहर कर लिया, लेकिन कुछ औरतों ने किसी तरह जीवन जीने की हिम्मत दिखाई, समाज में उन स्त्रियों की जीवन जीने की महत्वाकांक्षा की कीमत उनकी अस्मत थी। अतः उन्होंने इसके बल पर धनवान पुरुषों को रिझाना आरम्भ कर दिया। धीरे-धीरे यही उनका पेशा बन गया।इससे निकलने की कोशिश न तो बेड़िया समाज ने स्वयं की और ना ही सभ्य समाज ने इसके लिए आवाज उठाई। बेड़नी किसी एक पुरुष के साथ बंधना नहीं चाहती क्योंकि यह उसके पेशे व व्यवसाय की नैतिकता के खिलाफ है।

बेड़िया समाज की औरतों की समस्यायें उसके दैहिक शोषण से जुड़ी हुई है। चूंकि अपने समाज में आय का प्रमुख स्त्रोत उसका नृत्य और देह ही है। अतः समस्याओं के मूल में भी वही मौजूद है। रजस्वला होने के बाद ही वह इस धंधे के लायक समझी जाती हैं और सिर ढंकनाकी प्रथा के बाद उसे किसी ठाकुर अथवा रईस पुरुष की रखैल बनना पड़ता है। वह पुरुष उसका इस्तेमाल अपनी सम्पत्ति की तरह ही करता है। उसकी मांग पर प्राकृतिक अथवा अप्राकृतिक तरीके से यौन-इच्छाओं को उन्हें पूरा करना पड़ता है। उस पुरुष के पारिवारिक उत्सवों में जाकर नाचना और वहां उपस्थित रिश्तेदारों का मनोरंजन करना बेड़नी के लिए अनिवार्य है और उसकी इच्छा-अनिच्छा का कोई प्रश्न नहीं उठता। उपन्यास की एक पात्र नचनारी ठाकुर के बच्चे को जन्म देती है। जन्म के एक महीने के बाद ही ठाकुर के घर से राईनृत्य के लिए बुलावा आ जाता है। अभी उसका शरीर कमजोर ही है, परन्तु ठाकुर की आज्ञा को वह टाल नहीं सकती और नृत्य करने जाती है। ठाकुर की क्रूरता उसके गर्भावस्था के दौरान भी देखने को मिलती जब वह गर्भ के सातवें-आठवें महीने में भी उसके साथ यौन-सम्बन्ध बनाता है और एक बार जब नचनारी बिल्कुल ही इसके लिए राजी नहीं होती तब वह अपना लिंग जबरन उसके मुँह में डाल उसे मुख-मैथुन के लिए बाध्य करता है। नचनारी मन ही मन बहुत क्रोधित होती है, लेकिन प्रत्यक्ष रूप से कुछ कह नहीं पाती क्योंकि वह जानती है कि ठाकुर अपनी इच्छा पूरी न होने पर उसे और उसके बच्चे को मौत के घाट उतारने से भी नहीं हिचकेगा।

    एक पुरुष की रखैल रहते हुए बेड़नी पुरुष की अनुमति के बिना किसी अन्य पुरुष से प्रेम-सम्बन्ध भी नहीं बना सकती। वैसे तो बेड़नियाँ आमतौर पर ऐसे मानवीय सम्बन्धों से दूर ही रहती हैं और उनकी यह विशेषता मालिकों की पत्नियों से उनका भावनात्मक रिश्ता जोड़ती हैं। बेड़नियाँ रखैल हैं और उनके बच्चे सेवक। ये कभी-भी पुरुष-मालिक से पत्नी और पुत्र का हक नहीं माँगते हैं। अतः मालिक की पत्नियों को इनसे ईर्ष्या नहीं होती और ना ही इनसे उन्हें डर महसूस होता है। हालांकि बेड़नी की स्थिति निम्नतर ही होती है। वे केवल आर्थिक संरक्षण के बदले अपने सभी बुनियादी हकों को स्वेच्छा से छोड़ अपने-आप हाशिए पर चली जाती हैं।

         अविवाहित मातृत्व इनकी एक अन्य प्रमुख समस्या है। इनके संपर्क में आने वाले पुरुष इनकी कोख में अपना बीज तो डाल देते हैं, लेकिन बच्चे के प्रति अपनी सभी जिम्मेदारियों से अपने-आप को मुक्त कर लेते हैं। सभ्य समाज में बच्चे का अधिकांश उत्तरदायित्व पिता निभाता है, लेकिन उनकी स्त्रियाँ पालने-पोसने के सिवा अन्य कोई महत्वपूर्ण भूमिका नहीं अदा करतीं परन्तु बेड़िया औरतों के पास इस समस्या का कोई हल नहीं है। बच्चे की सम्पूर्ण जिम्मेदारी केवल माँ के ऊपर है। इनके बच्चे अवैध कहलाते हैं और बेड़नियों को कोई फर्क भी नही पड़ता कि बच्चे कें पिता के बारे में सोचे।अगर उसे पता भी है कि बच्चे का पिता कौन है तब उसे कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि स्वयं पिता ही उसके बच्चे कोअपना बच्चा स्वीकार करने में हिचकते हैं। बेड़नियों द्वारा बच्चे के पितृत्व की उपेक्षा उन सभी पुरुषों के गाल पर तमाचा है जो अपने ही अंश को स्वीकारने की हिम्मत भी नहीं रखते। लेखिका यह सुनकर स्तब्ध रह जाती है कि बेड़नियाँ स्कूल में बच्चे के पिता का नाम पूछे जाने पर रूपया’, ‘पैसाकुछ भी लिखवा देती हैं। यह सही भी है क्योंकि वह रुपये’, ‘पैसेके लिए ही तो माँ बनने पर मजबूर हैं अन्यथा वह उन बगैरत मर्दों के साथ सम्बन्ध रखती ही क्यों जिन्हें अपना वीर्यदान करने में संकोच नहीं होता लेकिन उससे उत्पन्न बच्चे को स्वीकारने में लज्जा का अनुभव होता है। वर्तमान समय में भी बेड़नियों अथवा वेश्याओं के पास जाने वाले पुरुष गर्भ-निरोध की सारी जिम्मेदारी स्त्रियों के ही ऊपर छोड़ देते हैं और स्वयं को मुक्त कर लेते हैं। यदि स्त्री इसके प्रति सचेत न रहें तो वह अनचाहा मातृत्व स्वीकार करे अथवा उल्टे-सीधे तरीके से गर्भपात करवा हमेशा के लिए स्वास्थ्य-सम्बन्धी समस्याओं से जूझती रहे।

देह व्यापार की लगातार आवश्यकता ने बेड़िया औरतों के जीवन में कभी स्थायित्व नहीं आने दिया। इसलिए बचपन से ही वह इसी के बारे में सोचने लगती हैं।शादी-ब्याह कर घर बसाने को लेकर वह अधिक उत्सुक नहीं रहती,क्योंकि सभ्य समाज का कोई पुरुष उन्हें पत्नी के रूप में स्वीकार करना पसंद नहीं करता और यदि वे अपने समाज के पुरुष से विवाह रचाती भी हैं तब भी धंधे पर उन्हें लौटना ही पड़ता है, क्योंकि उनके समाज में इसके अलावा और कोई चारा ही नहीं है। उपन्यास में एक बेड़नी धंधा नहीं करना चाहती और सामूहिक विवाह आयोजन में उसका विवाह तथाकथित सभ्य घर के लड़के से होता है। विवाह के कुछ समय पश्चात ही घर की सभ्यता सामने आ जाती है, क्योंकि पति अपने ही दोस्तों के साथ शारीरिक सम्बन्ध बनाने के लिए मजबूर करने लगता है वह उससे कहता है-‘‘तू क्या समझती है कि तुझे अपनी बीबी बनाये रखने को तुझसे शादी किया मैंने! अरे, चल हट! तुझे तो मैं इसलिए ब्याहकर लाया हूँ कि तुझसे धंधा करा सकूँ’’ उसका यह वाक्य उसकी तमाम सभ्यता के ढकोसले को सामने रख देता है जिसके लिए बीबी पहले बेड़नी है और बाद में पत्नी या शायद वह भी नहीं, महज यौन-इच्छाओं की पूर्ति की साधन-मात्र।

बेड़िया स्त्रियों की समस्याओं को हल करने के लिए उसक इलाके में चंपा बहन नाम की समाजसेवी महिला ने पथरिया ग्राम में सत्य-शोधन आश्रमकी स्थापना की जिसमें बेड़िया समाज के बच्चे पढ़ने जाया करते थे। यही पात्र उपन्यास में एक मात्र वास्तविक पात्र है। धीरे धीरे इन्हीं चम्पा बहन ने बेड़नियों को जागरूक करना शुरू कियाऔर उन्हें देह व्यापार छोड़कर कोई अन्य कार्य करने के लिए प्ररित किया।बेड़िया औरतें न तो शिक्षित थीं और ना ही अन्य कोई ऐसा हुनर उन्हें आता था जो आसानी से उनकी आर्थिक समस्याओं को हल कर सकें। बेड़नियों देह व्यापार करके अच्छा पैसा कमा लेती थीं और ऐसो-आराम से रहा करती थीं।चूकि दूसरा कोई काम उन्हें आता नहीं था इसलिए देह व्यापार ही उनके लिए सहज और भरपूर पैसे वाला काम था।चम्पा बहनद्वारा बताया गया सिलाई-कटाई जैसा काम उन्हें उबाउ लगता था और उसमें एैसे भी कम पैसे मिलते थे जिससे उनकी अपव्ययियता पर असर पड़ता था|वेश्यावृति के धन्धे में बेड़नियों को हर समय साज-श्रृंगार कर बैठना पड़ता था और ग्राहकों के साथ शराब पीने की लत भी उन्हें लग चुकी होती है।अतः इसके लिए उन्हें बहुत पैसे खर्च करने पड़ते थे जिससे उन्हें अधिक धन खर्च करने की आदत पड़ जाती थी। रोज कमाओ और रोज खाओवाली उनकी आदत भी इसके लिए जिम्मेदार थी|

बेड़नियों के जीवन की जटिलताओं को जो सदियों से अपरिवर्तनशील रही है वास्तव में इतनी आसानी से सुलझाया नहीं जा सकता। बेड़िया समाज के बच्चे पढ़ते-लिखते हैं। जाबाली योजनाके अन्तर्गत उन्हे छात्रवृति प्रदान की जाती है लेकिन शिक्षा के बावजूद वह बाहरी समाज में आकर नौकरी पाने की गलाकाट होड़ में बहुत पीछे रह जाते हैं। कई लड़कियां राईलोकनृत्य को विदेशों में सांस्कृतिक कार्यक्रम के रूप में प्रस्तुत कर चुकी हैं लेकिन वहां से अपने देश में लौटने पर वह फिर गुमनाम और देह धन्धे के पुराने पेशे में लौटने पर विवश हो जाती हैं क्योंकि भारतीय समाज की नजर में ये बेड़नियां अभी भी पतुरियाही हैं कोई नामी कलाकार नहीं।उनके इलाके के दबंग पुरूष अभी भी गांव की लड़कियों को जबरन अपने घर में रखैल रख लेते हैं अथवा अपने घर के नौकर या गांव के किसी गरीब लड़के से विवाह करवा कर उसका उपभोग स्वयं करते हैं अतःवस्तुस्थिति तब-तक नहीं बदलेगी जब-तक बेड़नियों को मात्र शरीर समझने वाले लोगों की मानसिकता नहीं बदलेगी।जब देह का सौदा करने वाले लोग ही नहीं बचेंगे तो देह व्यवसाय करने वाली औरतें कैसे बचेंगी।

इस व्यवसाय को फलने-फूलने का मौका सरकारें भी खूब देती हैं जिसमें उनके अपने स्वार्थ निहित होते हैं। इसे रोकने के लिए न तो सरकार के पास कोई योजना है और ना ही दृढ़-इच्छाशक्ति। यही वजह है कि आम वेश्याओं की तरह बेड़नियों का जीवन भी तिरस्कृत और अभिशप्त है।साधारण स्त्री की भांति वह सामाज में सम्मानजनक जीवन नहीं जी पातीं और ना ही उनकी तरह उन्हें कोई अधिकार ही मिला हुआ है। यदि कोई बेड़नी ग्राम प्रधान या सरपंच बन भी जाती है तो सवर्ण लोगों द्वारा उसे बात-बात में बेड़नी होने का एहसास भी दिलाया जाता है। अतः उसके जीवन में बदलाव के लिए उसके परिवेश का बदलना आवश्यक है। उसकी आर्थिक समस्याओं को दूर करने के लिए उसे ऐसा काम दिया जाना चाहिए जिसे वह सुगमता से कर सके और धनार्जन भी हो। उसे शिक्षित कर जागरूक बनाया जाना चाहिए जिससे वह आने वाली संतति को स्वस्थ माहौल दे सके। वह चाहे तो राईको बतौर नृत्य अपना सकती है लेकिन इसकी आड़ में होने वाले देह-व्याापार पर रोक लगाया जाना चाहिए।

स्तुति राय,शोधार्थी,भारतीय भाषा संस्थान,भाषा संस्थान, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय 

अपनी माटी(ISSN 2322-0724 Apni Maati)         वर्ष-4,अंक-26 (अक्टूबर 2017-मार्च,2018)          चित्रांकन: दिलीप डामोर 

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