वक्तव्य : लोक की जुबान में तुलसी : सोहनलाल राम रंग

लोक की जुबान में तुलसी : सोहनलाल राम रंग


           
अब सब कुछ तो कह गए लोग स्वामी जी के बारे में, मैं क्या कूहँ? पर बात ये है कि गोस्वामी जी गोस्वामी थे। वैसे तो भगवान श्री रामचन्द्र भारतीय संस्कृति के प्राण पुरूष हैं। बात ये है कि अपने श्रोताओं से संबंध स्थापित करके चलो तो आनन्द रहता है। मैं मैथिलीशरण जी के पास गया। बोले भैया हम आपको पहचानते नहीं हैं आप कौन हो?’ ये बात सन् 62-63 की है। उस समय तो मैं युवा था। तो मैंने कहा दद्दा आपको एक कविता सुनाने आया हूँ। बोले भैया देखों हम कवियों से बहुत डरते हैं। प्रारम्भ में तो कह दें कि वीणा वादिनी वर दे और फिर राम जाने क्या-क्या बक दें। अब हम प्रशंसा करे तो कैसे करे और नहीं करे तो क्या करे। पर तुम आए हो तो सुना दो। किसी प्रकार आपको टालना है।

चीन का आक्रमण हो चुका था
लक्ष्मण बाण स्वरा सुन कानू
सो-सो वारिद विजित....
ला लक्ष्मण! मेना धनुष बाण उठा ला।

        वहाँ-तक विनम्रता रहनी चाहिए जहाँ तक विनम्रता का अर्थ कायरता न मान लिया जाए और जिस विनम्रता का अर्थ कायरता मान लिया जाए उस विनम्रता को ठोकर मार देनी चाहिए। तो हमने कहा -

                            ला लखन मेरा धनुष दे
                           प्रज्जवलित विकलांग सर दे
                            इस कुशासन को हटा दे
                            जटाओं को जूट कर दे।

     गुप्त जी बोले कैसे पढ़ते हैं?’ अब कहा तो वो, ‘ढंग से पढ़ो। मुझमें हिम्मत आई। तो हमने कहा - उच्च स्वर में -

                 ला लखन मेरा धनुष दे, प्रज्जवलित विकलांग सर दे, विकलांग सर दे।
                 इस कुशासन को हटा दे, जटाओं को जूट कर दे।
                 कस रहा परिकर कमर में, अरे तु डोर कस दे।
                 सुप्त सर्पों के विविध्..........
                 प्रथम शासन हुतासन के जखानन के दुशासन में।
                 झुका दू गर्व से ग्रीवा, उठी जल जलध कि क्षण में।
                 इन पंक्ति पात्रों पर लगा ठोकर
                 वही ठोकर पड़ी जो कृष्ण की खल कंस के सिर परा।

          अब कुछ लोग कहेंगे कि इसमें तो काल-दोष हो गया। लेकिन काल-दोष हो गया, जब तक मैंने दिनकर जी का कुरूक्षेत्रनहीं पढ़ा था, तब तक काल-दोष था। उसके बाद में नहीं। जहाँ कुरूक्षेत्रमें गाँधी और गौतम की चर्चा भीष्म जी के सामने हो रही है, तो उतना बड़ा काल-दोष तो नहीं है? लेकिन गोस्वामी, गोस्वामी हैं। खैर, तीन ग्रेट हुए हैं- अलेक्जेण्डर द ग्रेट, अशोका द ग्रेट और अकबर द ग्रेट और ये तीनों एक से एक ज्यादा लुच्चे हैं। अशोक के नाम पर आपत्ति शायद कुछ लोगों को हो। है ना? जब कलिंग के युद्ध में हृदय परिवर्तित हो गया, तो फिर दक्षिण विजय कैसे हुआ?
अकबर द ग्रेटपढ़े-लिखे के नाम पर इस प्रकार बैठ के बात करते थे। गोस्वामी जी को बुलाया गया, सूरदास जी के साथ आए थे। तो मकसद ये था कि कुछ हमारे गुणगान कीजिए। जितनी जमीन चाहिए, आश्रम-वाश्रम के लिए, जो कुछ चाहिए। तो उन्होंने कहा और तो सब कुछ हो गया लेकिन ये भक्त कवि बड़े आड़े-टेढ़े हैं। कुम्भन दास जी जो अष्टछाप में सूरदास जी से वरिष्ठ हैं, उनको बुलाया गया। बोले काहे को बुलाया?’ बोले कुछ कहो,’ बोले का कहि’, बोले जो जी में जाए सो कहो।वाह रे कुम्भनदास वाह। बोले -

संतन को कहा सीकरी सो काम,
आवत जात पनहिया टूटी,
बिसर गयो हरि नाम।

बोले ये हुआ। जूती और टूट गई। वो बोले कुम्भनदास-आस गिरध्र की नहि छूटे। और बोले अब मत बुलाना। लोग तो शहंशाहों के दरबार में जाने का बहाना ढूंढते थे। इसी चक्कर में उसने कहा, गोस्वामी तुलसीदास जहाँ जाकर बैठ जाते हैं वहाँ भगवान नाम की सभा लग जाती है। गोस्वामी प्रवचन नहीं करते हैं, गोस्वामी तो अपने में होते ही नहीं हैं। और सोच विचार कर उन्होंने कहा किसको भेजूँ? तो ध्यान में आया। गोस्वामी जी उस समय काशी में विराजते थे। राजा मान सिंह पगड़ी-वगड़ी, कलगी-तोगा सब लगाकर तलवार लेकर आम्बेर नरेश आ रहे हैं। काशी घाट पर पहुँचे। समाचार भेजा ;तुलसीदास के पास आम्बेर नरेश आपके दर्शन करने आए हैं। गोस्वामी जी बोले मेरे दर्शन करने आए हैं कि मुझे दर्शन देने आए हैं? जाओ जाकर कह दो गुरुजी पूजा कर रहे हैं। मान सिंह समझ गया, मुर्ख नहीं था। अपराहृन में जो कथा होती थी, वहां पर पहुँचा। उस समय न कलगी थी न तोगा था न राजसी वस्त्र थे और न उस समय ये होता था - आइए-आइए विराजिए। जहाँ जिसको जगह मिल गई गोस्वामी जी की कथा में शामिल हो जाता।

       तो बैठ गया। गोस्वामी जी ने देख लिया बोले कि ठीक है आ गये हैं। कथाओं में भारत वर्ष का इतिहास लिखा है। ये केवल मनोरंजन की साधन नहीं है। समय काटने की बात नहीं है। तो गोस्वामी जी कथा कहा - कहते बोले कि भगवान श्रीमद् रामचन्द्र रावण को मारकर।

                     चोर सघन गम मुदित मन धनी रहीं ज्यों भेंट
                      ‘ज्यों सुग्रीव विभीषणहि मई भरत सन् भेंट’



       किसी धनवान के घर में घुस कर चोर ने बड़ा धन समेट लिया बोला आज तो किसी अच्छे भाग्यवान मुँह ऐसा कि घर का स्वामी जागा नही और मैंने सब बाँध लिया। झूमता हुआ जा रहा है चोर मार्ग में...गठरी रखी है सिम्र पर चोर सघन मग में मुदित मन जा रहा है बड़ा प्रसन्न होकर झूमता हुआ कि पीछे से धनी ने रोक लिया और पूछा कि पिता जी का माल है जो ले जा रहे हो? धनी रही ज्यों भेंट, त्यों सुग्रीन विभीषार्ह भई भरत सन भेंट माल समेत एक के सिर पर बाली का मुकुट है और एक के सिर पर मरे हुए रावण का गोस्वामी जी बोले भैया जब अनंत कोटि ब्रह्माण्ड नायक पूर्ण पुरूषोत्तम श्री राम चंद्र कलंक नही धो पाए आज भी कहते है न कि घर का भेदी लंका ढहाए विभीषण का नाम यद्यपि नारद भक्ति सूत्र में भक्ति के द्वादश अवतारों में है लेकिन बोले परम प्रभु भी विभीषण के माथे का कलंक नहीं धो पाए और विभीषण तो बड़ी सात्विकता से निकले थे तो ये सोचो आगे तुम्हें क्या कहूँ... तुम समझ रहे हो न समझने की बात ये है कि कमबख्त तू हल्दी घाटी गया था जो हल्दी घाटी में मुहँ काला करा के आया है तेरे यहाँ से भी हर-हर महादेव नारा। बीर बजरंगो और उधर से भी यही होना था और मुगल चैकसी ने पूछा कि दोनों केसरिया पहने हुए हैं दोनो हर-हर महादेव बोल रहे हैं और दोस्त दुश्मन की तमीज नहीं हो पा रही है क्या करूँ उधर छिपे सिपहससलार ने कहा कि गोले दागे जाओ एक से आज निपटना है और एक से कल निपटना है, अच्छा है दोनों का हिसाब खत्म होगा। तो अकबर ने कहा जिससे संधि हो उससे पहली शर्त ये कि तुम्हारी राजकुमारी का डोला हमारे हरम मे आएगा ध्यान में आता है न उसकी महानता का लक्षण, जब उससे कहा गया कि ऐसे कि ये वन-वे ट्रैफिक कब तक चलेगा? राजकुमारियों के डोले तो हरम में जाएगे लेकिन शहजादियों के डोले भी तो राजमहल में आने चाहिए? ये ध्यान किया कि नहीं किया तो अकबर ने कानून बना दिया मुगल शहजादियों की शादी नहीं होगी उनका विवाह नहीं होगा। बना तो दिया लेकिन उसका परिणाम क्या होगा, जो ऋषि -मुनि कंदराओं में बैठकर, सूखे पत्ते चबाकर तपस्या करते हैं उन पर कामदेव ने आक्रमण किया, जो दिन में तीन बार पोशाक बदलती है, गुलाब और चमेली का इत्र लगाती है उनकी क्या स्थिति होगी मुगल हरमों में ये विचार पनपा कि उनकी आत्म-शक्ति समाप्त हो गई। गोस्वामी तुलसीदास रण में एक दिन पहुँचे और बोले कि हाथी सूंड में धूल भरकर उछाल रहा था बोले- धूल ध्रत निज सीस पर रहीम के हि काज’- कि देखूँ तो सही, बार-बार आकर बड़े पैर-वैर छू लेता है क्या बात होगी. एक दिन रहीम बोले वो तो ठीक है आपने बहुत छंद-वंद लिखे हैं लेकिन जो बरवै छदं है, उसकी तो बात ही कुछी और है याद है किसी को बरवै!....नहीं...रबैर बरवै हमारे रहीम का बड़ा प्रिय छंद है-

           प्रेम-प्रीत कौ बिरवा जबहि लगावहि सींचन की सुधि लिहियौ, बिसर न जाहि। रहीम कहकर चले गए और प्रातः काल जो आस तपो बरवै-रामायणलिखी हुई थी। गोस्वामी जी ने एक रात में बरवै-रामायण लिखी दी।,

(सोहनलाल राम रंग, अंतर्राष्ट्रीय तुलसी संगम के संस्थापक प्रधान मंत्री)

प्रस्तुति
डॉ. हरकेश कुमार 
असिस्टेंट प्रोफेसर 
अदिति महाविद्यालय

अपनी माटी(ISSN 2322-0724 Apni Maati) वर्ष-4,अंक-27 तुलसीदास विशेषांक (अप्रैल-जून,2018)  चित्रांकन: श्रद्धा सोलंकी

Post a Comment

और नया पुराने