स्त्री प्रतिरोध की आवाज : तिरिया चरित्तर -प्रमोद कुमार यादव

                     स्त्री प्रतिरोध की आवाज : तिरिया चरित्तर/ प्रमोद कुमार यादव          
         
तिरिया चरित्तरकी विमली, जो बड़ी हिम्मत और जतन से स्वयं को अपने अदेखे पति के लिए सुरक्षित रखती है, अपने ही ससुर के धार्मिक कपट और वासना का शिकार हो, दंड भोगती है किंतु वह प्रतिरोध भी करती है। यही प्रतिरोध उसे प्रेमचंद की धनिया, नागार्जुन की उग्रतारा या रांगेय राघव की गदल से जोड़ता है। शिवमूर्ति के कथा-संसार में भिन्न-भूमि, चिंतन आग्रह से उठाए गए काफ्काया वोजैसे कल्परूपक न होकर, खौलती-खदबदाती स्थितियों में तपते, झुलसते हाड़-मांस के पात्र हैं। उनमें भी स्त्रीप्रमुख है।”

                        - महेश कटारे, साभार मंच’, जनवरी-मार्च,2011, पृ.71
       ‘तिरिया चरित्तरएक स्त्री-प्रधान कथा-पात्र वाली शिवमूर्ति की सबसे प्रसिद्ध कहानी है। प्रसिद्ध इसलिए की यह हिंदी कथा-साहित्य की अब तक की आई सभी कहानियों की लीकसे हटकर एक स्त्री की संघर्ष-गाथा है। इस कहानी की नायिका एक विमलीनामक लड़की है, जिसके पिता एक घरेलू दुर्घटना में अपाहिज हो चुके हैं और माँ बूढ़ी तथा लाचार होकर गरीबी की मार झेल रही है। विमली का बचपन में ही ब्याह हो चुका है, पति का अता-पता नहीं और उसकी तरफ से भी कोई खोज-खबर नहीं। इकलौता भाई शादी करके जोरू का गुलाम बनकर माँ-बाप से अलग ससुराल में जाकर रहने लगा था। इतना ही नहीं, पतोहूं सारे जेवर भी लेकर चली गई थी। घर पर अतिरिक्त कमाई का कोई जरिया नहीं। इसलिए माँ-बाप की सारी जिम्मेदारी अवयस्क विमली के ऊपर आ पड़ी। माँ-बाप और खुद का पेट पालने के लिए विमली गाँव के सरपंच के घर में काम पर लग जाती है। मजदूरी के नाम पर दोनों समय की रोटी और सरपंच की बिटिया के पुराने कपड़े मिलते हैं।

           विमली के अपाहिज पिता के हाथों पर पलस्तर चढ़वाने के लिए उसकी माँ पूरे गाँव में घूम-घूम कर मदद मांगती है, लेकिन कोई भी व्यक्ति मदद को तैयार नहीं हुआ। हार-थककर सरपंच जी की घरवाली से सहायता मांगती है किंतु सरपंच की पत्नी कुछ गिरवी लिए बिना सहायता देने से मना कर देती है, जिसका वर्णन शिवमूर्ति जी ने इन शब्दों में किया है - ‘‘सरपंच की औरत ने साफ कह दिया - बिना कोई चीज गिरवी रखे कानी कौड़ी नहीं दे सकती वह!... और गिरवी रखने की चीजें लेकर पतोहूं मायके जा चुकी थी... विमली टुकुर-टुकुर माँ का रोना देख रही थी ।”[1]

       माँ-बाप एवं खुद के पेट की भूख विमली को समय से पहले समझदार बना देती है। किसी विद्वान का कथन है की अभावों भरा बचपन व्यक्ति को समय से पहले ही समझदार बना देता है और बड़े-बुजुर्गों की तरह व्यवहार करने के लिए विवश कर देता है। मात्र नौ साल की उम्र में उसे यह सोचना पड़ता है की वह अपने माता-पिता का पेट कैसे भरे? अवयस्क विमली पहले तो सबसे आसान रास्ता चुनती है, सरपंच के घर से रोटी चुराने का। इस घटना को कहानीकार की कलम के ही शब्दों में देखें - ‘‘लेकिन पहर रात आई थी विमली। नौ साल की बच्ची! फराक में दोपहर की बनी दो मोटी रोटियां छिपाए हुए। एक विमली का हिस्सा और एक सरपंच जी की दोनों भैंसों का। भैंसों के हौदे में न डालकर वह रोटियां लेकर माँ के पास दौड़ी आई थी और किसी को संदेह न हो इसलिए उसे दौड़ते हुए ही वापस भाग जाना था ।[2]  लेकिन इस घटना ने विमली को अहसास करवा दिया की दो रोटियों से वह तीन लोगों की क्षुधा शांत नहीं कर सकती है। रातभर वह सोचती रही की सरपंचजी के यहाँ काम करे या नहीं। और सुबह होते ही अपनी झोंपड़ी में लौट आई। तथा अपनी माँ से कहती है - ‘‘नहीं करना उसे ऐसी जगह गोबर-झाड़ू जहाँ मांगने पर भीख भी नहीं मिल सकती ।[3]  एक तरह से यह एक अवयस्क लड़की के विद्रोह के तीखे स्वर भी हैं। यहीं से विमली एक लड़के की भाँति घर का, परिवार का दायित्व संभालने के लिए कमर कस लेती है। किंतु क्या सचमुच एक लड़के की भांति सबकुछ आसान था उसके लिए? इस बिंदु पर शिवमूर्ति आर्थिक दृष्टि से भारतीय निम्नमध्यम परिवार परिवार की उस मानसिकता को सामने रखते हैं जहाँ भूखों मरने की नौबत भी है और अपनी घिसी-पिटी मान्यताओं एवं दकियानूसी विचारों के चलते बेटी को स्वावलंबी बनने से रोकना भी है।

            विमली मेहनत-मजूरी की तरफ मुड़ती है। जिस काम को औरतें नहीं करती हैं, उसे करने की ठान लेती है। वह खानसाहब के भट्ठे पर ईंटें ठोने का काम पकड़ लेती है। इससे गाँव की औरतों में खलबली मच जाती है। सबसे पहले मिर्च यदि किसी को लगती है तो वह है - सरपंच की घरवाली। उसने मुँह बिचकाकर पूरे गाँव में कहना शुरू कर दिया - ‘‘सठिया गई है क्या बुढ़िया? अच्छे भले खाते-पीते घर में पड़ गई थी लड़की। जूठा-कूठा खाकर पूरे घर पर सोंकर भी चार साल में बाछी से गाय हो जाती। अब भट्ठे पर टरेनिंगदेगी बिटिया को।... ले टरेनिंग। बहुत लोग टरेनिंगदेने के लिए लोकलेने को बैठे हैं वहाँ।[4] यहाँ पर एक स्त्री ही एक स्त्री की दुश्मन नजर आ रही है।
          गाँव वालों की आलोचनाओं, आरोपों, प्रत्यारोपों से जब विमली नहीं मानी, तब लोगों ने उसके बाप को उसके खिलाफ भड़काना शुरू कर दिया। इसका नमूना खुद शिवमूर्ति जी के ही शब्दों में देखिए - ‘‘दुनिया भर के चोर-चाई का अड्डा है भट्ठा। लौंडे-लपाड़े ! गुंडा-बदमाश ! रात-बिरात आते-जाते रहते हैं। नौ-दस साल की लड़की छोटी नहीं होती, आन्हर हो गई बुढ़िया। ईंट पथवाएगी। पाथेगाकोई ढंग से? तब समझ में आएगा ।[5]  गाँव में आज भी सबसे बड़ी दिक्कत यह है की लोग अपने दुःख से कम, दूसरे के सुख से ज्यादा दुखी रहते हैं। दूसरों की जिंदगी में तांक-झांक करना अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझते हैं।

          गाँव वालों की बातों में आकर विमली का पिता भी भड़क उठा। उसने विमली की माँ को डांटते हुए कहा - ‘‘नाक कटवाने पर तुल गई हैं दोनों माँ-बेटी... नहीं करवाना उसे हाथ पर पलस्तर। खुला ही रहेगा। भूखों ही मरेगा...।[6]  ये विमली का बाप नहीं, उसके भीतर उपस्थित पिता का रोब बोल रहा है जो गाँव वालों की कान भराई से जागा था। झूठे आन-मान का दिखावा गाँव वालों पर इस कदर हावी है की विमली के ईंट भट्ठे पर काम करने से गाँव की बहू-बेटियों की मर्यादा संकट में दिखाई देने लगी। वे एकजुट होकर विमली के बाप का कान भरते हैं, लेकिन अपने मकसद में कामयाब नहीं हो पाते हैं।

          विमली का बाप जोश में आकर लंबा-लंबा जरूर बोल देता है, लेकिन भूख की पीड़ा से वह अनजान नहीं है। उसके अंदर वह भूख भी छिपी हुई थी, जो इंसान को भली-भाँति समझा देती है की भूखों मरना भी इतना आसान, इतना सरल नहीं है जितना की जोश में आकर भूखों मरने की बात कहना। अपनी हेठी को बनाए रखने का प्रयास करता हुआ विमली का पिता विमली को काम पर जाने से नहीं रोक पाता है। उसकी मौन सहमति उसकी बेटी के लिए जीवन संघर्ष का एक द्वार खोल देती है जिससे गुजर कर उसे तमाम कठिनाईयों से अकेली ही जूझना है।

       बाप के हतोत्साहित करने के बावजूद भी विमली की माँ उसे सहारा देती है, प्रोत्साहित करती है। वह विमली को गाँव की जलनखोर औरतों की परवाह न करने के लिए प्रेरित करती है। वह जलनखोरों पर नमक छिड़कने के लिए पहली ही मजदूरी के पैसों में एक बोरा नमक खरीदकर लाने जैसी व्यंग्योक्ति करती है। शिवमूर्ति ने यहाँ विमली की माई के उद्गार बड़े ही तीखे ढंग से व्यक्त कीए हैं - ‘‘जलती हैं तो जलें सब। सारा गाँव जले। वह सबके जले पर नमक छिड़कवाने का इंतजाम कर देगी। इस बार हफ्ता बँटने पर वह एक बोरा नमक छिड़कवाना हो, आकर छिड़कवा जाए... मेरी बिटिया जनमभर दूसरे की कुटौनी-पिसौनी, गोबर-सानी करे। फटा-उतारा पहिरे। तब इनकी छाती ठंडी रहेगी... एक टूका रोटी के लिए दूसरे का लरिका सौंचाए... भट्ठे पर कौन बिगवा (भेड़िया) बैठा है।... ई गाँव के लोग केहू के चूल्हा की आग बरदास नहीं कर सकते। ... तू लूल तो भेवै हो, अन्हरौ होई गए हौ का? कुछ सोचौ-समझौ ।[7]  पति और समाज दोनों को एक साथ लताड़ती विमली की माई का यह एक विद्रोही रूप है, जो अब पितृसत्ता के दबाव में झुकने को तैयार नहीं।

         विमली जब से भट्ठे पर काम करना शुरू कर देती है तब से उसके घर की आर्थिक स्थिति में धीरे-धीरे काफी सुधार आ जाता है। इसका वर्णन खुद कहानीकार के ही शब्दों में - ‘‘झोंपड़ी में था क्या। पहले! टूटी चारपाई तक नहीं थी। बासन के नाम पर फूटा तवा।... विमली की ही कमाई से उसका बाप फिर से हाथ वाला हुआ है। बाप की रजाई अलग। माई की अलग।... लेकिन इतने समय में एक-एक करके तीन-चार थान गहने बनवा लिए हैं विमली ने...।[8]

       ईंट-भट्ठे पर काम करते हुए विमली को पुरुषों की गिद्ध-दृष्टि, लोलुप-दृष्टि से हमेशा पाला पड़ता रहता है। इस कारण वह शीघ्र ही भरे-बुरे, अपने-पराये की पहचान करना सीख जाती है। विमली की निकटता पाने के लिए उसको अपनी आगोश में लेने की इच्छा रखने वाले पुरुष तमाम तरह के नैतिक-अनैतिक हथकंडे अपनाकर अपने-अपने ढंग से विमली को रिझाने का प्रयास करते हैं। इस कहानी के अंतर्गत ये तीन पुरुष पात्र हैं – ट्रैक्टर ड्राइवर बिल्लर, ईंट-भट्ठे का मिस्त्री कुइसा और ट्रक-ड्राइवर डरेवर जी’ ।
       विमली युवा है। उसकी देह की अपनी माँग है, मन में किसी को पा लेने की आकुलता है किंतु मस्तिष्क उसे स्मरण कराता रहता है की उसका बियाहउससे  बहुत दूर कलकत्ता में उसकी प्रतीक्षा कर रहा होगा। विमली का विवाह बचपन में ही दूसरे गाँव के बिसराम के लड़के से कर दिया गया था। विवाह को हुए कई वर्ष बीत गए, किंतु उसका गौना कराने अर्थात् उसे विदा कराकर ले जाने के लिए न तो उसका बियाहआया और न उसका ससुर बिसराम। किंतु विमली का स्त्री-मन अपने बियाह’ के प्रति समर्पित हो चुका था ।[9]  इसलिए उसे जब कोई पुरुष किसी भी तरह अपने दिखावे के प्रेम जाल में फंसाना चाहता है, रिझाने का प्रयास करता है, आदर्शवादी बातें करता है तो उसे ओंछा लगता है।

       विमली जब प्रारंभ में भट्ठे पर काम करने गई, तब भट्ठे के मालिक खान साहबने उसे डरेवर जी, जो भट्ठे पर ट्रक से कोयला लेकर आता रहता है, के लिए खाना बनाने का जिम्मा सौंपा था। धीरे-धीरे विमली का डरेवर जी के प्रति खिंचवा होने लगता है। इसका परिणाम यह होता है की विमली मन-ही-मन डरेवर जी को चाहने लगती है। यह चाहना बिल्कुल अलग तरीके का है, जैसी राधा की कृष्ण के प्रति थी। एक स्त्री द्वारा एक पुरुष के साथ एक दोस्त की तरह की रहने-बरतने वाली चाहत। लेकिन हमारी भारतीय मानसिकता इस बात की इजाजत कहाँ देती है? दिक्कत यही है की हमारे यहाँ एक लड़की की पुरूष मैत्री की चाहत को अक्सर उसकी यौन लिप्सा से ही जोड़ दिया जाता है। इससे अधिक या कमतर हम कुछ सोच ही नहीं पाते। डरेवर जी और विमली के आकर्षित संबंधों की कुछ बातें स्वयं शिवमूर्ति जी के ही शब्दों में देखिए -

        “आज फिर लाल साड़ी पहनकर जाएगी विमली। डरेवर बाबू को लाल साड़ी बहुत पसंद है।डरेवर बाबू की याद से ही सारे शरीर में गुदगुदी लगती है।”[10]

     विमली ने डरेवर बाबू के हाथ का जमा हुआ खून पिघलाने के लिए हल्दी-तेल की मालिश क्या की, की स्वयं डरेवर बाबू के आकर्षण में पिघलती चली गई। “फूल छाप लुंगी। लम्बी नोंक वाला जूता। बड़ी-बड़ी काली मूँछे ! नीली बनियान ! काला शरीर ! भरा हुआ ! गले में पतली-सी सोने की सिकड़ी ।”[11] गहराई से अवलोकन करें तो पता चलता है की डरेवर बाबू को लेकर विमली के मन में इच्छा भी है और कामेच्छा भी; किंतु  विमली के भीतर बैठी सचेत ब्याहता स्त्री उसे बार-बार सीमा की याद दिलाती रहती। स्त्री स्वतंत्र नहीं है अपनी देह की भाषा और मन की परिभाषा समझने और बाँचने के लिए। उसे तो एकाग्र रहना है अपने ‘पति-परमेश्वर’ के प्रति। यहाँ पर स्त्री की अस्मिता हाशिए पर है।
      विमली की शादी बचपन में ही सीताराम नामक लड़के से हो गई थी जिसकी अब उसे कोई याद नहीं, लेकिन वह एक पारंपरिक भारतीय पत्नी कर तरह बस अपने पति के लिए अपने को सुरक्षित रखना चाहती है। आखिर जिस समाज में वह रहती है उसे उस समाज को भी तो देखना-सहना है और पति परमेश्वरहोता है की परंपरा भी तो तन-मन से निभानी है। इतनी सावधानी बरतने के बावजूद भी समाज है की बिना सोचे-समझे विमली पर तमाम तरह की टीका-टिप्पणी करता रहता है। लेकिन विमली सजग-सतर्क है। वह पल-पल बदलती समाज की नजरों एवं उसकी नियति को अच्छी तरह पहचानती है।

      इसी क्रम में एक दिन से देर घर लौटते हुए विमली को पहुंचाते समय बिल्लर जब बदमाशी पर उतर आता है तो वह उसको दाँत काट लेती है। वह अपनी अस्मिता की रक्षा करना बखूबी जानती है। लेकिन भेड़ियों से भरे समाज में वह कब तक अपनी रक्षा कर पाएगी। भारतीय परिप्रेक्ष्य में महिलाओं के संदर्भ में आज भी यह एक यक्ष प्रश्न है जिसका जवाब अब किसी युधिष्ठिर के पास भी नहीं है और अनुत्तरित सवालों के साथ जीने के लिए अभिशप्त हैं हमारी स्त्रियाँ ।[12]

       बिल्लर जानता है की भट्ठे पर ट्रक ले कर आने वाले डरेवर जी के प्रति विमली के मन में कोमल भाव एवं आकर्षण है। इसी बात का फायदा उठाकर वह उसे दबाव में लेने का प्रयास करता है- ‘‘डरेवर बाबू की देह महकती है और मेरी गंधाती है?’’[13]  इस बात से विमली न घबराती है, न सकुचाती है। वह बिल्लर को दो टूक जवाब देती है - ‘‘रमकल्ली के भतार ! न तू हमार वियहा हो न डरेवर बाबू। खबरदार ।”[14]  करारा जवाब सुनकर बिल्लर भयभीत हो जाता है। लेकिन फिर भी वह हिम्मत नहीं हारता है। और वह विमली की माई को लालच में फंसाकर विमली को पाने की नाकाम कोशिश करता है। वह अपनी बहन के माध्यम से विमली की माई के लिए नया हुक्का व तंबाकू भरी हांडी भेजता है। माई खुश हो जाती है। वह विमली को उसके बचपन के ब्याहे पति की उपेक्षापूर्ण व्यवहार तथा उसकी अल्प-कमाई की याद दिलाकर उसे बिल्लर से दूसरी शादी करने के लिए प्रेरित करती है। इसका वर्णन कहानीकार ने इन शब्दों में किया है - ‘‘सुनते हैं विमली का आदमी तीन साल से घर नहीं आया कलकत्ते से। रूपया-पैसा भी नहीं भेजता बाप के पास। दिहाड़ी मजदूरी करता है। गुन का न सहूर का। अगर विमली की माई विमली को बिल्लर के साथ विदा कर दे... सौ लड़कों में एक लड़का है बिल्लर। डरेवरी करता है। चार पैसा कमाता है। राम-जानकी जैसी जोड़ी रहेगी दोनों की...।[15]
          निःसंदेह बिल्लर की भी अपनी एक आकांक्षा है। विमली को पत्नी के रूप में पाने की आकांक्षा। वह विमली को अपनी पत्नी बनाना चाहता था। इसीलिए वह अपनी बहन के द्वारा विमली की माँ के पास विवाह प्रस्ताव भेजता है। विमली की माँ को उसका प्रस्ताव पसंद आता है क्योंकी वह जानती है की बिल्लर विमली को उसके वियाहसे छुटकारा दिलाने के लिए समाज-पंचायत में जुर्मानाभी भर देगा।”[16]
            किंतु विमली को जब इस बात का पता चलता है तो वह कड़े शब्दों में प्रतिरोध करती है - ‘‘यह आज सोच रही है। पहले क्यों नहीं सोचा? क्या जरूरत थी बचपन में ही किसी के गले से बांध देने की?... कल को कोई दस बीघे वाला लड़का आ जाएगा तो तू कहेगी की मैं उसी के साथ बैठ जाऊं ।”  जब उसकी नजर बिल्लर द्वारा भेजे गए नए हुक्के व तंबाकू की हाँड़ी पर पड़ती है तो वह एकदम ही विद्रोह पर उतर आती है - ‘‘दस रूपये के हुक्के-तंबाकू पर तूने अपनी बिटिया को रांड़ समझ लिया रे? बोल! कैसे सोच लिया ऐसा? जिसकी औरत उसे पता भी नहीं और तू उसे दूसरे को सौंप देगी? गाय-बकरी समझ लिया है?’’[17] इतनी बातें सुनकर उसकी माँ निरूत्तर हो जाती है।

      इस कहानी का एक और पात्र विमली को अपनी जीवन संगिनी बनाना चाहता है। वह है खान साहब के ईंट-भट्ठे का मिसतरीकुइसा। इसकी बातें शिवमूर्ति जी के शब्दों में - ‘‘कुइसा कहता है की विमली के आने से भट्ठे पर उजियार हो जाता है। उसके जाते ही अंधियार!... और अंधियार होते ही रतौंधीशुरू हो जाती है कुइसा को। विमली अगर रात में भट्ठे पर रहे तो कुइसा रात में भी बोझाई कर सकता है।[18]  कुइसा विमली को सुख-सुविधा देना चाहता था, उससे विवाह करके, अपनी घरवाली बनाकर। अपने घर को उजियार करना चाहता था, विमली को अपने घर ले जाकर। इसीलिए बात चलाने के लिए ‘‘दो-तीन बार गया वह विमली के बाप के पास, चिलम पीने के बहाने। कुछ मन-मुँह मिले तो बात आगे बढ़ाए। लेकिन कीतनी जलती हुई आँखें हैं बूढ़े की। बात करने जाइए तो घायल होकर लौटिए। आँखों से ही दाग देता है।[19]  इस तरह तमाम प्रयासों के बाद कुइसा बोझवा भी अपने उद्देश्य में सफल नहीं हो पाता है।

     वस्तुतः ‘‘कहानीकार ने इस बिंदु पर गाँव में दाग देनेकी प्रथा की सहज भाव से झलक दिखा दी। इच्छानुसार कार्य न होने पर प्रताड़ना के साथ दण्ड देने का रिवाज रहा है। दागने का कार्य अपने अधिकार्य का ठप्पा लगाने के रूप में अर्थात् अधिकार का प्रदर्शन करने के लिए भी कहा जाता है, विशेषरूप से पशुओं पर अपने अधिकार की मुहर लगाने के लिए। लोहे की आकृतियों को भट्ठे में सूर्ख लाल तपा कर अपने अधिकार के पशुओं की देह पर दाग अपने अधिकार की छाप अंकीत कर दी जाती है। उस समय पल भर को यह नहीं सोचा जाता है की उस जीवित पशु को तपे हुए लोहे की आकृति से दागने पर उसे कितनी पीड़ा होती होगी। इसी तरह संकुचित विचार वाले पुरूषों के लिए भी स्त्री का अस्तित्व किसी गाय-गोरू की भाँति ही होता है। स्त्री घर की चौखट के भीतर रहे या चौखट के बाहर जाए, उस पर उसके मालिकपुरूष का ठप्पा लगाना होना चाहिए। तिरियाचरित्तरके कथानक से ही स्पष्ट है की कहानीकार शिवमूर्ति ने इस तथ्य को बहुत करीब से अनुभव किया है की ग्रामीण अंचल में प्रत्येक स्त्री को किसी-न-किसी रूप में पुरूषों की सरपंचीझेलनी पड़ती है। जो स्त्री दबाव में आने से इनकार करती है, उसे दागाजा सकता है।[20]

      पता नहीं, कीसने विमली द्वारा बिल्लर के ट्रैक्टर पर बैठकर मेला देखने की बात एवं अन्य तरह की अफवाहपूर्ण बातें उसके ससुर बिसराम के पास पहुंचा दीं। वह भागा दौड़ा आ गया विमली के बाप के पास उसके गौने का दिन निश्चित करने के लिए। वह कहता है - ‘‘देखिए समधी भाई? बात को समझिए! ना-नुकूर करने में इज्जत नहीं है। चावल सिरजा’  जाता है, ‘भातनहीं। चावल भात बना नहीं की दूसरे दिन ही सड़ने लगता है। लड़की सयानीहुई तो भात हो गई। उसे तो ससुराल भेजने में ही इज्जत है।[21]

      और धीरे-धीरे समय बीतने के बाद वह दिन भी आ गया, जब विमली को अपने ससुराल जाना पड़ा। इस दृश्य का वर्णन खुद कहानीकार के ही शब्दों में- ‘‘गाँव भर की औरतें झोपड़ी के अंदर घेरा बनाकर ससुराल से आई एक-एक चीज की पड़ताल कर रही हैं। हाथ की अंगूठी ! नाक की नथ! दो थान सोने के ! पायल ! बिछुए और हबेल! तीन थान चाँदी के ! विमली की जाति में इतना जेवर कम ही लोगों को मिलता है। दुलहिन के कपड़े-लत्ते के साथ समधी-समधिन की पियरी धोती अलग से।... सबेरे बिदाई के समय खान साहब ने भी साड़ी भिजवाया। डरेवर जी ने एक चादर और इक्यावन रुपए नकद दिए। पांडे खलासी ने ग्यारह रुपए। ... लेने-देने में विमली का बाप भी समधी से उन्नीस नहीं रहा। घड़ी, साइकील, रेडियो, पांच कुड़ा बतासा, एक बोरा लाई... गिरते-पड़ते दो ऊँट की लदनी ।”[22] जब डोली उठती है तो वह चीत्कार कर उठती है –
‘‘आपन देशवा छोड़ावा मोरे बपई...’’
‘‘आपन दुअरिया छोड़ाइउ मोरी माई...’’[23]

        भारतीय नारी का प्रतिनिधित्व करने वाली सीता द्वारा गाया गया अमर गीत। गीत जो उत्तर भारत के गाँवों में आज भी बहुत लोकप्रिय है, स्त्री की अंतर्वेदना को पूरी तरह व्यक्त कर सकने में सक्षम है, सुनकर मन व्याकुल हो जाता है। एक बार फिर कहना पड़ता है की स्त्री मन की परख रखने वाले शिवमूर्ति ने अपने कथा-कौशल से अपने पाठकों का मन मोहा है।

      जो विमली अपने माँ-बाप के लिए बेटा बनकर रहती थी, उनके लिए कमाती थी, हमेशा हँसती-मुस्कराती रहती थी, वही विमली ससुराल में जाकर गुमसुम हो जाती है। उसका खिलदड़ स्वभाव एकदम शांत हो जाता है। जो विमली ट्रैक्टर ड्राइवर बिल्लर जैसे उदण्ड पुरुष को छेड़ने पर सबक सिखाती है, वही विमली अपने ससुर के सामने असहाय बन जाती है। बिसराम के बारे में गाँव वाले तरह-तरह की बातें करते हैं की उसने बेटे को वापस क्यों नहीं बुलाया, उसने बहिन को विदा क्यों कर दिया। एक ही झोपड़ी में क्यों सोता है वह? और एक दिन उसका रहस्य खुलता भी है जब उसकी झोपड़ी में टूटी बोतल, बीड़ी के टुकड़े मिलते हैं। बात खुलने के बाद भी गाँव के मर्द उसकी बातों पर विश्वास नहीं करते हैं। गाँजे-चरस की चिलम पिलाने वाला बिसराम एक-एक बात का जवाब देना उसे आता है और धीरे-धीरे गाँव वालों को अपने पक्ष में करता जाता है।

      जब से विमली अपने ससुराल आई है, तब से वह धीरे-धीरे अपने ससुर बिसराम की गलत मानसिकता को समझ जाती है और अपनी इज्जत बचाने के लिए लगातार संघर्ष करती है। इस संघर्ष का चित्रण करते समय शिवमूर्ति बड़ी ही प्रभावी व धारदार भाषा का इस्तेमाल करते हैं - ‘‘शुरू-शुरू में तो नई पतोहू जैसा शरम-लिहाज था। रीं-रीं करके रोना- हम बिटिया बराबर अही। आप बाप बराबर। रो-रोकर पैर छान लेती थी दोनों हाथों से। लगता था अब ढीली पड़ी की तब। लेकिन बाद में तो बिल्ली जैसी खूंखार। वैसी ही गुर्राहट ! पंजे मारना। हाथ झटकना। बिल्ली जैसे नाखून। सारा मुँह, नाक, कान नोंच लिया है। पूरा चेहरा परपरारहा है। जलन ।[24]

      ससुर होते हुए भी विसराम की बुरी नजर अपनी ही बेटी समान पतोहू विमली पर है। इस कहानी को पढ़ते समय हमें शिवप्रसाद सिंह की कहानी कर्मनाशा की हारकी याद आ रही है, जिसमें भैरो पांडे अपने बेटे की प्रेमिका(जो पहले से ही विधवा है) एवं उसके नवजात शिशु को बचाने के लिए पूरे गाँव वालों से लड़ पड़ता है और एक ससुर बिसराम है जो अपनी बेटी समान पतोहू को बिस्तर की वस्तु समझता है। वह जब-तब विमली से जोर जबरदस्ती करता रहता है। विमली इस कौटुम्बिक यौन प्रताड़ना का अपने स्तर से लगातार प्रतिरोध करती है। स्वाभाविक रूप से इसकी कीमत उसे चुकानी पड़ती है तरह-तरह के लांछनों के रूप में। आखिर एक स्त्री यहाँ बेबस दिखाई पड़ती है। कहाँ  जाए, किससे अपनी दास्तां सुनाए, किसके कंधे पर अपना सिर रखकर रोये? किस अदालत में अर्जी लगाए, जब उसके घर-परिवार का परिजन ही उसकी आबरू उतारने पर उतारू हो जाएं तो फिर वह अपनी सुरक्षा के लिए किस सहारे को खोजे।

     कहा जाता है कि जब मेड़ ही खेत को खाने लगे तो फिर दोष कीसको देना? शिवमूर्ति के ही शब्दों में कहें तो ज्यादा प्रासंगिक होगा - ‘‘जान सांसत में पड़ी है विमली की। किसी तरह पत-पानी के साथ मायके पहुँच पाती अगर... या उसका आदमी आ पहुँचता अचानक। नही तो हर रात- जंगल की रात ! एक रात – एक युग। किसी से कहे भी तो क्या ? क्या करेगा कोई सुनकर हँसने के सिवा ? भरी पंचायत में खड़ा होना पड़ेगा अलग। और ऐसे-ऐसे नंगा कर देने वाले सवाल पंचायत के चौधरी लोग, रस ले-लेकर पूछते हैं की उसे खूब पता है। नैहर तक बदनामी अलग से ।[25]

    यहाँ पर शिवमूर्ति ने आत्मरक्षा के लिए संघर्षरत विमली का वर्णन करते-करते एक अनुपम उपमा की सृष्टि की है- ‘‘पैर सिकोड़कर घुटने को अंकवार में बांधकर, उसी से सिर गड़ाए बैठी है विमली। जैसे कोई साही दुश्मन के आक्रमण की आशंका में बैठी हो काँटा फुलाकर। दूर से ही भूँक रहा है बिसराम। पास जाते ही एक काँटा तीर की तरह छूटेगा-सन्न !’’[26]  विमली का यह अनवरत संघर्ष हमें आए दिन अपने आस-पास यथार्थ रूप में घटित होता हुआ दिखता है। गाँवों में ही नहीं, शहरों में भी।

       बिसराम का अहंचोट खाया हुआ है। इस बार वह बलसे नहीं जीतता है तो छलपर उतर आता है। वह अपने कीए की माफी माँगता है। वह दिखावे के लिए पूजा-पाठ करने लगता है तथा अलग झोपड़ी बनाकर सोने लगता है। एक बार वह शिवाले में सत्यनारायण की कथा सुनने के बाद चरनामृत लेकर आता है जिसमें पहले से ही नशीला पदार्थ मिला रखा है। वह जोर देकर धोखे से विमली को चरनामृत पीने के लिए कहता है और विमली उस पर विश्वास करके चरनामृत पी जाती है। चरनामृत पीते ही विमली का सिर धीरे-धीरे घूमने लगता है और अंततः वह बेहोश हो जाती है। यहाँ पर शिवमूर्ति का दृश्यांकन काफी हृदय-विदारक है - ‘‘ऐ! क्या हो रहा है? झोंपड़ी हिल रही है या खटिया? मुंह नोच लेगी वह। आंखें फोड़ देगी। लेकिन हाथ पैर में जुम्बिस क्यों नहीं होती? बिसराम के शरीर में बाघ की ताकत आ गई है। डाकगाड़ी का इंजन-झक् ! झक् ! झक् ! झक् ! बप्पा रे ए-ए ! वह चीखना चाहती है लेकिन सिर्फ गों-गों करके रह जाती है। कोई वश नहीं। जैसे अतल समंदर में डूबी जा रही हो ।[27] यहाँ पर यह बात ध्यान देने योग्य है कि चारित्रिक पतन सिर्फ समाज के उच्च वर्ग में हीं नहीं है; बल्कि समाज के निम्न वर्ग में भी यह मौजूद है।

       होश में आते ही विमली की रूलाई छूटने लगती है - ‘‘धोखा ! छल ! कहाँ-कहाँ से कीन-कीन खतरों से बचाती आई थी वह पराई अमानत। कीतने बीहड़? कीतने जंगल? कीतने जानवर? कीतने शिकारी? और मुकाम तक सुरक्षित पहुंचकर भी लुट गई वह! मेंड़ ही खेत खा गई छल से! ऐसी बेहोश कर देने वाली नींद आई कैसे? उसकी खुद समझ में नहीं आ रहा है।[28]  सब कुछ लुट जाने के बाद भी विमली हताश नहीं होती। वह प्रतिकार के लिए तत्पर होती है। उसके भीतर प्रतिशोध की ज्वाला भड़क उठती है - ‘‘सहसा रूलाई गायब हो जाती है। बुझी-बुझी आँखों से चमक उभरती है। क्रमशः दीप्त होती चमक! बिल्ली की आँखों  की चमक देखा है कभी अंधेरे में? नीली चमक! जलती आँखें ![29]’  वह मिट्टी का तेल और माचिस उठाकर बिसराम के बिस्तर के पास जाती है लेकिन खटिया सूनी देखकर वापस आकर मन-ही-मन फैंसला लेती है की चुपचाप अपने पति के पास कलकत्ता चली जाएगी।

       सुबह सोने पर जब बिसराम को झोपड़ी में विमली नहीं मिलती है, तो वह एक चाल चलता है। गाँव भर में यह खबर फैला देता है की विमली रात को अपने यार यानी डरेवर के साथ सोयी थी और उसका सारा पैसा, जेवर लेकर भाग गयी है। लोग उसे खोजकर लाते हैं और गाँव भर में यह चर्चा होती है की गाँव की नाक कटाने वाली औरत को कड़ी से कड़ी सजा दी जानी चाहिए। उसे पंचायत के बीचों-बीच खड़ा किया जाता है। फिर शुरू होता है सवाल-जवाब।

      आज आए दिन देश के सभी भागों से खाप पंचायतों व ऐसे ही अन्य जातीय व धार्मिक संगठनों द्वारा लिए जाने वाले तमाम ऊट-पटांग फैंसले हमारे सामने आ रहे हैं। शिवमूर्ति जी ने इस प्रकार की अंधी पंचायतों की अन्यायपरक गतिविधियों की एक बेबाक एवं दिल दहला देने वाली झलक बड़ी सहजता से दिखाई है। ससुर बिसराम धोखे से उसकी इज्जत भी लूटता है और उसी के खिलाफ पंचायत में आरोप भी लगा देता है। विमली फिर भी उससे डरती नहीं है, वह इस हालत में भी प्रतिरोध का स्वर बुलंद करती है। जब बिसराम गहने चुराने का आरोप लगाकर उसके बाल नोचने लगता है तो वह फिर जब पंचायत जुटती है तो वह बड़ी निर्भीकता से उसके सामने का सच बयान करती है-

      “तू मिट्टी के तेल की बोतल और माचिस लेकर बिसराम की मंड़ई में गई थी, यह सच है की झूठ है?’’
                                      “सच है!’’
                                   क्यों गई थी?’’
                      “गई थी मिट्टी का तेल डालकर फूँकने ।
                                        “काहे?’’

        “क्योंकि मेरी झोंपड़ी में दारू पीने वाला, मछली खाने वाला और मेरे साथ मुँह काला करने वाला जानवर यही था। मैं इसे जिंदा जलाना चाहती थी लेकिन वह बच गया। अब मैं इसका कच्चा मांस खाऊँगी ।[30]  एक औरत का यह दुस्साहस। बिसराम सहित गाँव के सारे पुरूष कैसे बर्दाश्त कर सकते हैं। सवाल-जवाब में विमली कहीं भी झुकती नहीं है। सच्चाई को परत-दर-परत काटता पुरूषों का समाज विमली के अपने प्रेमी के साथ भागने के झूठ को नकारता हुआ सजा सुनाने का फैंसला लेता है क्योंकी विमली ने पूरे गाँव की नाक कटवायी है।
       हमारे समाज में लड़का अगर कुछ भी करें, कोई गलती करें तो उसके सातों खून माफ और अगर किसी लड़की पर कोई झूठा इल्जाम भी लग गया तो उसकी खैर नहीं। वह सबकी आँखों  में चुभने लगती है और अपने भी उसके साथ बेगाने का व्यवहार करने लगते हैं। आखिर पंचायत फैंसला करती है, जिसमें पंच की तरफ से बोधन महतो फैसला सुनाते हैं - ‘‘गाँव के नाक कटाने वाली, गाँव की इज्जत में दाग लगाने वाली जनाना को बेदाग नहीं छोड़ा जा सकता... दागी जनाना को दागकरके ही नैहर भेजा जाएगा ।”[31]

            पंचायत के फैसले का विरोध वहाँ उपस्थित लोगों में से एक महिला मनतोरिया की माई ही करती है, ‘‘ई अंधेर है। दगनी दागना है तो बिसराम और बोधन चौधरी के चूतर पर दागना चाहिए। कोई काहे नहीं पूछता की बोधन की बेवा भोजाई दस साल पहले काहे कुएं में कूद कर मर गई थी। गाँव की औरतें मुंह खोलने को तैयार हो जाएं तो बिसराम की घटियारी के वह एक छोड़ दस परमानदे सकती हैं। वही आदमी बेबस बकसूर लड़की को दागेगा?... यही नियाव है? ई पंचायत नियाव करने बैठी है की अंधेर करने?’’[32]  लेकिन उसकी आवाज नक्कारखाने में तूती की आवाज बनकर रह जाती है। पंचायत पुरूषों की, न्याय पुरूषों का। इज्जत के बारे में फैसला करने का अधिकार पुरूषों का। स्त्री के पास तो जेसे अपना कुछ भी नहीं। न तो अपनी देह, न अपनी इज्जत न अपना चरित्र ही। फैसला करने के अधिकार के बारे में सोचा तक नहीं जा सकता।

        विमली फैसला मानने से इंकार कर देती है। वह भरी पंचायत में निर्भीकता से अपना विरोध दर्ज कराते हुए कहती है- ‘‘मुझे पंच का फैसला मंजूर नहीं। पंच अंधा है। पंच बहरा है। पंच में भगवान का सतनहीं है। मैं ऐसे फैसले पर थूकती हूँ- आ-क-थू...! देखूं कौन माई का लाल दगनी दागता है।”[33]  नारी के विद्रोह का ऐसा रूप स्त्री-विमर्श के संपूर्ण कथा-साहित्य में विरहे ही दिखता है। शायद इसी कारण यह कहानी हिंदी साहित्य में मील का एक पत्थर बनी है।

       अंततः बिसराम को ही अपनी दागी बहू विमली को दागने का काम सौंपा जाता है। ‘‘कलछुल लाल होते ही कई नौजवान पतोहू का हाथ-पैर और सिर पकड़कर लिटा देते हैं। कसकर दबाओ। जो जहाँ पकड़े वहीं मांसलता का आनंद लेना चाहता है। नोचते-कचोटते, खींचते, दबाते हाथ। पतोहू जिबह होती गाय की तरह अल्लानेलगती है। सोने वाले बच्चे जगकर रोने लगते हैं। जगे हुए बच्चे डरकर घर की तरफ भाग चले हैं।[34]

  “छन्न ! कलछुल खाल से छूते ही पतोहू का चीत्कार कलेजा फाड़ देता है। कूदती लोथ। मांस जलने की चिरायंध। चीत्कार सुनकर एकाध कुत्ते भौंकते हैं, एकाध रोने लगते हैं।”[35]  और इसी के साथ चीखते-चीखते विमली बेहोश हो जाती है। ऐसे में पुजारी का यह कहना की तिरिया चरित्तर को समझना आसान नहीं है, पूरे पुरूष समाज की हैवानियत का प्रतीक बन जाता है। आखिर तिरिया चरित्तर समझना इतना आसान कहाँ ? इससे न्यायसंगत ठहराने के लिए हम पुरूषों के पास राजा भरथरी का सूक्ति वाक्य है ही - तिरिया चरित्रम् पुरुषस्य भाग्यम्। ... स्त्रियों के पास क्या है, वे तो आज भी हजारों साल पहले की तरह पिता, पति और पुत्र के अधीन रहने के लिए अभिशप्त हैं- पिता क्षति कौमारे, भर्तार क्षति...।

        वस्तुतः तिरिया चरित्तर कहानी का जहाँ समापन बिंदु होता है, पाठक तिलमिला जाता है। व्यवस्था में आग लगाने का मन भी करता है। मानसिक विद्रोह कुछ ऐसे ही बिंदुओं पर लाकर छोड़ देता है। कभी नई कविता के पुरोधा डॉ. जगदीश गुप्त ने कहा था की रचना की सार्थकताउसके रिझानेमें नहीं बल्कि सतानेमें होती है, उसका ताल्लुक वाहसे अधिक आहसे होता है। तिरिया चरित्तरका यह बिंदु कुछ ऐसा ही है। नारी-विमर्श के इस दौर में यह कथानक मौजू और आवश्यक है, क्योंकि अब बंद होना ही चाहिए सैद्धांतिक बकवासों का मिजाज और बेहूदी परंपराएं ।[36] अन्यथा अपनी अस्मिता, अपने अधिकार एवं स्वाभिमान हेतु स्त्री का विप्लव की राह पर जाना तय है।

       वैज्ञानिक प्रगति, महाशक्ति एवं आधुनिक होने का चाहे हम जितना भी दावा कर लें, आजादी के इतने सालों के बाद भी हम सामंती सोच, रूढ़िवादीमानसिकता एवं दकियानूसी विचारधारा से एक इंच भी आगे नहीं बढ़ पाये हैं। आज भी कदम-कदम पर स्त्रियों के साथ अन्याय, अत्याचार एवं अमानवीय कृत्य होना आम बात है। घर हो, पंचायत हो, कोर्ट-कचहरी हो या थाना परिसर - हर जगह स्त्री को ही प्रताड़ना, अपमान और जलालत झेलनी पड़ती है। संदेह केवल और केवल उसी पर किया जाना है। दोषी उसी को ठहराया जाना है। रामायण युग से लेकर आज तक शक करने की परंपरा है हमारे पास। तो यही परंपरा में विमली के साथ यही होता है।

       भारतीय संविधान में भले ही महिलाओं की सुरक्षा एवं अधिकार के लिए दर्जनों कानून बने हों, लेकिन उसकी परिणति शायद ही यथार्थ के धरातल पर हो पाती है। एक तो ग्रामीण महिलाओं में इतनी जागरूकता नहीं आ पाई हैं की वे अपने मूलभूत अधिकारों को जान सकें। दूसरी और महिलाओं से संबंधित कानूनों को लागू करने की जिन पर जिम्मेदारी है, वे लोग निष्क्रिय हैं।

         “समस्त संसार में स्त्रियाँ मनुष्य होने के बावजूद सबसे ज्यादा यातनाओं की जद में आने वाली प्राणी हैं। स्त्रियाँ जिन यातनाओं का शिकार पूरे संसार में होती हैं, उन यातनाओं की प्रकृति और चरित्र में एक वैश्विक एकरूपता है। अंतर है तो बस राष्ट्रीयता और धर्मों का ।”[37]

        इस कहानी में शिवमूर्ति जी ने ऐसे वहशी समाज का जुगुप्सा भरा चेहरा हमारे सामने रखा है, जो आज भी संविधान, कानून-पुलिस और सजा की परवाह न करके अपने ‘जंगली कानून’ चलाता एवं थोपता है। यहाँ औरतों की कोई इज्जत नहीं होती है, यहाँ वहशी भेड़िये, दरिंदे पुरूष अपनी काम वासना की आग में जलते हुए स्त्री को काबू में लाने के लिए साम-दाम-दंड-भेदके साथ-साथ झूठ, फरेब एवं मक्कारी का पुरजोर सहारा लेता है। इस कहानी में भाषिक चमत्कार अपने चरमोत्कर्ष पर है। परिवेश का जबरदस्त सजीव चित्रण है। आज के ग्रामीण भारतीय समाज का कड़वा यथार्थ है, यथार्थ की विद्रुपताएं हैं। स्त्री विमर्श की तमाम जीवंत बहसें इस कालजयी कहानी में समाहित हैं।                                                       



[1]शिवमूर्ति, केशर-कस्तूरी(क.सं.), पहला संस्करण : 2007, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ 99
[2]वहीं, पृष्ठ 99
[3]वहीं, पृष्ठ 99
[4]वहीं, पृष्ठ 100
[5]वहीं, पृष्ठ 100
[6]वहीं, पृष्ठ 100
[7]वहीं, पृष्ठ 100
[8]वहीं, पृष्ठ 101
[9]ऋत्विक राय(सं.), लमही, अक्टूबर-दिसबर : 2012, श्रीमंत शिवम् आर्ट्स, लखनऊ, पृष्ठ 83
[10]वहीं, पृष्ठ 103
[11]वहीं, पृष्ठ 103
[12]ऋत्विक राय(सं.), लमही, अक्टूबर-दिसबर : 2012, श्रीमंत शिवम् आर्ट्स, लखनऊ, पृष्ठ 50
[13]शिवमूर्ति, केशर-कस्तूरी(क.सं.), पहला संस्करण : 2007, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ 110
[14]वहीं, पृष्ठ 110
[15]वहीं, पृष्ठ 115
[16]ऋत्विक राय(सं.), लमही, अक्टूबर-दिसबर : 2012, श्रीमंत शिवम् आर्ट्स, लखनऊ, पृष्ठ 83
[17]शिवमूर्ति, केशर-कस्तूरी(क.सं.), पहला संस्करण : 2007, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ 116
[18]शिवमूर्ति, केशर-कस्तूरी(क.सं.), पहला संस्करण : 2007, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ 95
[19]वहीं, पृष्ठ 11
[20]ऋत्विक राय(सं.), लमही, अक्टूबर-दिसबर : 2012, श्रीमंत शिवम् आर्ट्स, लखनऊ, पृष्ठ 83
[21]शिवमूर्ति, केशर-कस्तूरी(क.सं.), पहला संस्करण : 2007, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ 112
[22]वहीं, पृष्ठ 118
[23]वहीं पृष्ठ 118
[24]वहीं, पृष्ठ 122
[25]वहीं, पृष्ठ 124
[26]वहीं, पृष्ठ 124
[27]वहीं, पृष्ठ 128
[28]वहीं, पृष्ठ 129
[29]वहीं पृष्ठ 129
[30]वहीं, पृष्ठ 139
[31]वहीं, पृष्ठ 141
[32]वहीं, पृष्ठ 142
[33]वहीं, पृष्ठ 143
[34]वहीं, पृष्ठ 143
[35]वहीं, पृष्ठ 144
[36]मयंक खरे(सं.), मंच, जनवरी-मार्च 2011, मंच प्रकाशन, बांदा, पृष्ठ 26
[37]ऋत्विक राय(सं.), लमही, अक्टूबर-दिसबर : 2012, श्रीमंत शिवम् आर्ट्स, लखनऊ, पृष्ठ 40 
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) वर्ष-5, अंक 28-29 (संयुक्तांक जुलाई 2018-मार्च 2019)  चित्रांकन:कृष्ण कुमार कुंडारा

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