आत्मकथ्य: सामाजिक व्यवस्था के मेरे अनुभव / मुकेश चौरसिया

                                सामाजिक व्यवस्था के मेरे अनुभव 

सामान्यतः जब भी हम शोषण शब्द को सुनते हैं और इस शब्द को सुनते ही हमारे दिमाग में एक छवि बनने लगती है जैसे कि किसी समाज के तथाकथित उच्च वर्ग के द्वारा किसी सामाजिक और आर्थिक परिपाटी पर पिछड़ी जाति के लोगो का शोषण, किसी पुरुष द्वारा किसी महिला का शारीरिक और मानसिक शोषण, किसी विकृत मानसिकता के व्यक्ति के द्वारा छोटे बच्चों का शोषण आदि

 हमारे देश में इन सभी प्रकार के शोषण में जातिगत शोषण सामान्यतः बहुत ही अधिक सुनने को मिलता है और उसके पीछे एक सर्वमान्य विश्वास होता हैं कि जरुर किसी ऊँची जाति के लोगों ने निचली जाति के लोगो के साथ भेदभाव किया होगा या शोषण किया होगा बात गलत भी नहीं हैं हम चारो तरफ इस प्रकार की परिस्थितियां देख भी रहे हैं।  इन परिस्थियों को देख कर मुझे लगने भी लगता है कि यही सही हैं और मुद्दा सच में जाति का ही हैं लेकिन, शिक्षा के क्षेत्र में जमीनी स्तर पर कार्य करना प्रारम्भ किया तो मुझे कई बार ऐसी परिस्थितियों का सामना करना पड़ा जिनको देख कर कभी-कभी सच में भरोसा ही नहीं होता था कि ऐसा भी हैं जैसे कि बात सरकारी विद्यालय में वर्तमान में पढ़ रहे बच्चों की और उनके प्रति सोच की अगर मैं बात यह करूँ कि किसी ऊँची जाति के शिक्षक ने अछूत कहलाने वाली जाति के बच्चों के साथ भेदभाव किया है और विद्यालय में उन बच्चों से वह कार्य करवाए जाते है जो कि कई सदियों से उनकी जाति के लोगो से करवाए जाते रहे हैं तो हमें विश्वास करने में कोई आश्चर्य नहीं होगा लेकिन अगर बात यह कही जाए कि कोई शिक्षक जो उन्ही भेदभाव पूर्ण परिस्थितियों से संघर्ष करते हुए, पिछड़ेपन से उभर कर मुख्य धारा में शामिल हुआ हैं और उसे शिक्षा के माध्यम से उन बच्चों के उत्थान का कार्य मिला जो अभी भी पिछड़े है और मुख्यधारा से बहुत पीछे हैं लेकिन वह उत्थानकर्ता बनने के स्थान पर वह भी मुख्यधारा में आकार एक शोषणकर्ता बन गया, वह भी अन्य बच्चों के साथ या अपने समाज के प्रति वैसे ही भावना रखने लगा जैसे समाज का तथाकथित उच्च वर्ग उनके प्रति रखते आये हैं तो यह बात एक आम बात नहीं रह जाएगी कई बार कई जगह इन परिस्थितियों को देखने के बाद मुझे यही लगता हैं कि शोषण या भेदभाव का मुद्दा केवल जातिगत नहीं है इसके अन्य कारण भी हो सकते हैं इन अन्य कारणों में संभवतः झूठा सम्मान,  झूठा घमण्ड, आत्मप्रशंसा, शक्ति, लालच, डर और सबसे ज्यादा मानवता की कमी शामिल हो सकता है
  
ऐसा नहीं हैं कि इन सब बातों से केवल स्वर्ण हिन्दू ही ग्रसित हो सकते हैं, यह एक ऐसी बीमारी हैं जिससे कोई भी व्यक्ति चाहे वह कसी भी जाति या समुदाय का हो ग्रसित हो सकता है और संभवतः वह भी एक शोषणकर्ता के रूप में कार्य कर सकता हैं क्योकि वह उन्ही शोषणकर्ताओं को देखते हुए पला बढ़ा होगा और संभवतः उसके दिमाग में यह छवि बन गयी हो कि यही जिंदगी हैं मैं भी मुख्यधारा में जाकर वही सब काम करूंगा जो एक शोषणकर्ता करता आया हैं| हुक्म चलाना,  लोगो को अपने सामने झुकते देखना, अपने आप को मालिक सुनना किसे बुरा लगता होगा शायद केवल उन्हें ही अच्छा नहीं लगता होगा जो अपने आप को इंसान समझते होगे लेकिन आज अपने आप को इंसान समझता कौन है, कोई शिक्षक हैं, कोई पंडित हैं, कोई ठाकुर हैं, कोई दलित है, कोई गरीब हैं और कोई अमीर. कोई हिन्दू हैं कोई मुस्लिम हैं और भी पता नहीं क्या-क्या| | कोई भी इंसान जब किन्ही कठोर परिस्थितियों से उभर कर आता है तब उससे यह उम्मीद की जा सकती हैं कि वह उस परिस्थितियों से अच्छी तरह अवगत होगा और उन परिस्थितियों की पीड़ा समझता होगा लेकिन आश्चर्य तब होता हैं जब उनके सामने उन्ही परिस्थितियों से घिरे हुए गरीब और पिछड़े बच्चे आते है और वह उनकी मनोदशा और परिस्थितियों को समझ कर भी अनजान बनते है और सभी कमियों का जिम्मेदार बच्चों और उनके परिवार के लोगो को ही बना देते हैं 

सभी को यह मालूम होता हैं कि वर्तमान परिस्थिति में केवल वह बच्चे सरकारी विद्यालय में आते हैं जो इन पिछड़ी परिस्थितियों के शिकार हैं और उनके घर पर कोई भी व्यक्ति इतना सक्षम नहीं हैं जो उन्हें इन परिस्थितियों से निकाल सके इसी लिए उन्होंने अपने बच्चों को आपके हाथों में दिया है लेकिन हम क्या कर रहे हैं यही कि अपने प्रयास और सोच के अनुरूप जब परिणाम नहीं दिखता या बदलाव नहीं दिखता तो हम भी बच्चों के ऊपर दोष देकर अपना पल्ला झाड लेते है और उनको शिक्षा जैसे अमूल्य चीज से वंचित कर रहे हैं क्या यह उनके शिक्षा पाने के अधिकार का शोषण नहीं हैं ??? (हम शब्द का प्रयोग सभी पढ़े लिखे मुख्यधारा से जुड़े हुए लोगो के लिए हैं जो इस तरह कि विचारधारा रखते हैं)

मैंने खुद राजकीय विद्यालय में शिक्षण के दौरान कई ऐसे शिक्षकों जो कि खुद समाज के पिछड़ी जाति से आते हैं और खुद के मूत्र विसर्जन के बाद टॉयलेट में पानी विद्यालय के उन्ही पिछड़े समुदाय के बच्चों से डलवाते हैं (यह कोई नयी बात नहीं है यह एक आम उदहारण हैं मैंने यहाँ इस उदहारण को इस लिए यहाँ शामिल किया हैं क्योकि जब हम TV पर यह खबर सुनते है कि स्वर्ण वर्ग के शिक्षक बच्चों से ऐसे काम करवाते हैं तो तुरंत विश्वास कर लेते है कि ऐसा हो सकता हैं लेकिन इसका एक और पहलु भी हैं ), भोजन करने के बाद अपने भोजन के बर्तन बच्चों से साफ़ करवाते है या उनको बर्तन धुलने के स्थान तक ले जाने के लिए देते हैं, विद्यालय में साफ-सफाई और स्वच्छता की आड़ में बच्चों से झाड़ू लगवाना तो एक आम बात हैं जिसको तो सभवतः सभी ने देखा ही होगा | क्या यह शोषण नहीं हैं? क्या यहाँ पर सभी जाति या वर्ग के लोग शामिल नहीं हैं?

बाजपुर ब्लॉक में सरकारी विद्यालयों के साथ कार्य करने के दौरान कई बार जब शिक्षकों और अन्य लोगो से इस बात पर चर्चा हुई कि आखिर क्यों वह लोग जो थोडा आर्थिक स्थिति से मजबूत हो रहे है या मुख्य धारा में आ रहे हैं वह अपने बच्चों को निजी विद्यालयों में भेज रहे हैं तब बहुत से कारणों में से कुछ कारण यह भी थे जैसे पहले जब निजी विद्यालयों का विकल्प नहीं था तब सभी लोगो का अपने बच्चों को एक ही विद्यालय में पढ़ाना मजबूरी थी, मजबूरी यह कि मालिक को अपना बच्चा उसी विद्यालय में पढ़ाना पड़ रहा था जहाँ उसके नौकर का पढता था, गरीब का भी पढता था और अमीर का भी

एक सामाजिक मुद्दा जैसे की लोग क्या कहेगे, समाज क्या कहेगा क्या गुरु जी इतना रुपया कमाते हो और बच्चों को कहा सरकारी विद्यालय में भेजते हो जहाँ ज्यादातर गरीबों और दिहाड़ी मजदूरी करने वाले बच्चे आते है, बच्चा वहां क्या करेगा पिछड़े जाती के बच्चों के साथ रहेगा तो पिछड़ा ही हो जायेगा

अब सवाल यह है कि इन सब बातों से जो अमीरी गरीबी, सोच का अंतर, सम्मान जाने और ताने सुनने का डर आदि चीजों का भय क्या केवल जाति विशेष के लोगो के लिए होगा? या यह हर जाति के लोगो के साथ होगा?

यहाँ शोषण किस प्रकार हैं इस बात को इस प्रकार समझाने का प्रयास करता हूँ, अगर कोई व्यक्ति जो मुख्य धारा में जुड़ा है और उसे अपने अधिकारों और कर्तव्यों कि समझ हैं तो वह अपने बच्चे को उन्ही विद्यालयों में भेज सकता है जहाँ अन्य पिछड़े समुदाय के बच्चे आते है और वह अपने बच्चे की सही शिक्षा के लिए विद्यालय का नियमित भ्रमण और फीडबैक, शिक्षकों से वार्तालाप और विद्यालय की परिस्थिति सुधारने में मदद कर सकता है, कुछ गलत होने पर वह आवाज उठा सकता हैं और यह शायद वह यह सब प्रयास केवल अपने बच्चे के लिए कर रहा होगा लेकिन इन प्रयासों का लाभ संभव है विद्यालय के अन्यबच्चों को भी तो मिल सकता हैं |”

लेकिन नहीं, कोई भी मुख्य धारा का व्यक्ति या उच्च वर्ग का व्यक्ति इसको नहीं करेगा, क्योकि ऐसा करते ही उसे समाज में मिलने वाली झूठी प्रशंसा, झूठे सम्मान, अमीर होने के गर्व आदि चीजो से हाँथ धोना पड़ सकता हैं|

क्या कोई भी व्यक्ति जो किसी भी जाति या धर्म से हो यह सब अपनी जिम्मेदारी न निभा कर गरीब बच्चो के शिक्षा के हक का शोषण नहीं कर रहे हैं? क्या इसमें केवल किसी जाजाति विशेष के लोग ही शामिल है?

आज जब भी मैं किसी डाकघर, बैंक, सार्वजानिक हितकारी योजनाओं के ऑफिस, या फिर विद्यालय जैसी पवित्र कहलाने वाली जगह पर भी जाता हूँ तो वहां पर भी मैं संभवतः यही देखता हूँ वहाँ प्रत्येक जाति के लोग कार्य करते हैं, कुछ ऑफिसर शायद उनमे ऐसे होते हैं जो शोषण जैसी परिस्थितयों से निकल कर ऑफिसर बने है लेकिन उनका लोगो के साथ या ऐसा कहा जाए अपने ही जाति या समुदाय के लोगो के प्रति व्यवहार कैसा होता हैं इस पर मुझे यहाँ कुछ कहने की जरुरत नहीं हैं आप ज्यादातर लोग इन परिस्थितियों से परिचित होगे कई बार एक ही जाति के लोग अपने ही जाति के लोगो के साथ बैठ कर भोजन करना भी पसंद नहीं करते केवल अपनी आर्थिक स्थिति में अंतर होने के कारणतो क्या यह मुद्दा भेदभाव का नहीं हैं?

मैं बस यही कहना चाहता हूँ कि अगर हम सामाजिक भेदभाव, सामाजिक आर्थिक शोषण, अमीरी गरीबी और भी बहुत से कारणों को व्यापक नजरिये से नहीं देखेगे और सही मानवीय शिक्षा के द्वारा इसका उपचार नहीं करेगे और समाज केवह नागरिक जो इस बीमारी से ग्रसित नहीं हैं अपनी आवाज आगे नहीं करेगे  तो यह भेदभाव, शोषण कभी ख़त्म नहीं होगा हम केवल जातिगत मुद्दों में हमेशा फंसे रहेगे और संभवतः एक ही समाज और वर्ग के लोगो के बीच और नई खाइयाँ पैदा होती रहेगी और समय-समय पर कोई ना कोई जाति शोषणकर्ता और अन्य शोषित बनती चली जाएगी साथ ही साथ स्वार्थी संगठन चाहे वह राजनैतिक हो या धार्मिक हमारा मानसिक शोषण करते चले जायेगें  जैसे वर्तमान में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण देखने के लिए मिलता हैं। 


मुकेश कुमार चौरसिया
(लेखक अज़ीम प्रेमजी फाउंडेशन, सागर में शिक्षक प्रशिक्षक हैं)

          अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) शिक्षा विशेषांक, मार्च-2020, सम्पादन:विजय मीरचंदानी, चित्रांकन:मनीष के. भट्ट

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