आलेख : नई सदी के कथाजगत में विविधरूपी संवेदना के शिल्पी 'तरुण भटनागर' / कुशल माली

        अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-34, अक्टूबर-दिसम्बर 2020, चित्रांकन : Dr. Sonam Sikarwar

                                       'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL) 

आलेख : नई सदी के कथाजगत में विविधरूपी संवेदना के शिल्पी 'तरुण भटनागर' / कुशल माली

 

साहित्य का यथार्थ जीवन की वास्तविकता पर आधारित होता है और यह जीवन की वास्तविकता एकांगी एवं स्थिर न होकर जीवन के साथ बदलती रहती है। वर्तमान समय में लिखी जा रही कहानियों में तरुण भटनागर का एक विशिष्ट स्थान है। उनकी कहानियों में नई सदी का महानगर है तो ठेठ अंचल विशेष का गाँव भी और इसी अनुरूप उनके पात्रों का गठन किया गया है साथ ही उन पात्रों की भाषा को भी विशेष रूप से प्रदर्शित किया गया है। उनके कहानियों के केंद्र में युवा, स्त्री, वृद्ध सभी पात्र दिखाई देते हैं। उनकी कहानियों के कथानक, संवाद एवं पात्रों की रचना उनके चित्त एवं भोगे गए यथार्थ की दृष्टि की उपज है। साथ ही उनके कथाजगत की रचना कल्पनाप्रसूत न होकर मनोवैज्ञानिक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण की समझ के अनुरूप अनुभूतियों के सांचे में ढली हुई है। वे अपनी कहानियों के कथानक, संवाद, कथोपकथन, पात्र इत्यादि को नवीन एवं यथार्थ परिप्रेक्ष्य में गढ़ने की क्षमता रखते हैं। समाज विविध एवं बहुरंगी धरातल पर तरुण जी अपनी लेखनी का जादू चलाते हैं। उनकी दृष्टि समाज के उच्च वर्ग-निम्न वर्ग, अमीर-गरीब, स्त्री-पुरूष, मजदूर, किसान, इत्यादि पर सदैव रहती है और वे उसी वातावरण से अपनी रचना का सृजन करते हैं एवं तत्कालीन परिस्थितियों के साथ सामंजस्य बरकरार रखते हुए समाज के ताने-बाने को चित्रित करते हैं एवं उस समाज में व्याप्त विषमताओं एवं विडम्बनाओं का प्रकटीकरण करते हैं।


लेखक तरुण भटनागर का जन्म 24 अक्टूबर 1968  को रायपुर छत्तीसगढ़ में हुआ है। इनके पिता स्व. सतीश चन्द्र भटनागर एवं माता का नाम श्रीमती रमा भटनागर हैं। भटनागर जी बाल्यकाल से ही खोजी प्रवृति के रहे हैं। अपने जन्म स्थान के इर्द-गिर्द पहाड़ियों, तालाब एवं जंगल में नई नई चीजों की खोज में घूमते रहते थे। बचपन में इनकी बुआ के सानिध्य में कहानियां सुनते थे जिससे साहित्य एवं कहानियों के प्रति इनका लगाव बढ़ता रहा। छतीसगढ़ के ग्रामीण जनजातीय क्षेत्रों में पिछड़ापन सर्वत्र व्याप्त था। आपके माता-पिता शिक्षक रहे जिससे उन्हें शिक्षा ग्रहण करने में कोई परेशानी नहीं हुई। शिक्षित परिवार के इस प्रभाव से उनमे हिंदी एवं अंग्रेजी साहित्य के प्रति लगाव होने लगा। तरुण जी विज्ञान विषय में एम एस. सी. हैं किन्तु प्रशासनिक सेवा में जाने के लिए एम. ए. इतिहास में किया। इतने पर भी वे साहित्य से अपना लगाव रखते थे और कविताएँ, कहानियों इत्यादि पढने में समय व्यतीत करते थे। तरुण जी की पत्नी भी एम्. एस. सी. हैं किन्तु वे तरुण जी की साहित्यिक रूचि को पहचान रखती हैं और उनके लिखे साहित्य का आलोचनात्मक अध्ययन भी करती हैं। अपने कार्य क्षेत्र के प्रति आपकी दृष्टि सकारात्मक रही है। आपका झुकाव हमेशा प्रशासनिक सेवाओं के प्रति रहा है यद्यपि आपने उच्च श्रेणी शिक्षक के तौर पर अध्यापन का कार्य भी किया है। इस दौरान भी आप प्रशासनिक सेवाओं में जाने की तयारी करते रहे पर अपने साहित्यिक परिवेश और साहित्यिक अभिरुचि को अपने में सदैव कायम रखा। जुलाई 1996 में डिप्टी कलेक्टर के तौर पर आपने प्रशासनिक सेवाओं में पदार्पण किया और प्रदेश के विभिन्न हिस्सों में सेवाएँ दीं और अपने इस सेवाकाल में आपने राजनीति, सरकारी तंत्र, मिडिया और समाज से जुड़े रहे तथा कर्तव्यनिष्ठा से कार्य किया है। प्रशासनिक सेवाओं के अनुभवों की झलक आपके रचित साहित्य में यत्र-तत्र दिखाई देती है। कहा जा सकता है जो आपने जिया वही अपने अपने कथा सर्जन में प्रकट किया है और दोनों ही क्षेत्रों चाहे वो राजकीय सेवा हो या अपना साहित्यिक लगाव हमेशा ही निरपेक्ष रहकर न्याय किया है। आपके शब्दों में "एक जुलाई 1996 को मैंने डिप्टी कलेक्टर के पद से इस नई नौकरी की शुरुआत की। साहित्यिक जीवन के नजरिये से इसे मैं एक नए समय की शुरुआत के रूप में देखता हूँ। इस नौकरी में मध्य प्रदेश के कई क्षेत्रों में रहकर काम करने का मौका मिला। चूँकि यह काम बहुआयामी किस्म का है, जिसमें तंत्र, समय और राजनीति को बहुत पास से देखने और उसके साथ से बाबस्ता होने का अवसर मिलता है, इस लिहाज से इसने कुछ भिन्न और ऐसे अनुभव दिए जो कहीं और रहकर हो ही नहीं सकते। बहुत सी कहानियों की पृष्ठभूमि यहीं से आती है। बहुत सी कहानियों की पृष्ठभूमि यहीं से आती है। इस नौकरी में रोज ही कहानियां मिलती है और उसमे से बहुत कम को अभी मैं लिख पाया हूँ।"[1] इस प्रकार आप अच्छे प्रशासक तो हैं ही साथ ही साहित्यकार के रूप में निरपेक्ष रहते हुए अपनी रचनाओं में समाज के यथार्थ को सदैव प्रकट रखने का प्रयास करते हैं।


तरुण जी के व्यक्तित्व में संवेदनशीलता है जो उनके लेखन में प्रकट होती है। उनके रचनाकर्म में आम आदमी की विवशता, अभावों और पीड़ा का दर्शन होता है। उनकी कहानियों में समकालीन साहित्य जगत के परिप्रेक्ष्य में सामाजिक समस्याएँ, दूषित राजनीति और भ्रष्ट तंत्र, विस्थापन एवं विभाजन, स्मृति लोप, प्रकृति एवं पर्यावरण, जनजातीय स्वर एवं मानवीय मूल्य, बाल मनोविज्ञान, नारी शोषण, एवं प्रेम के विविध रूपों का दर्शन होता है।


      तरुण जी की रचनाएँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में समय समय पर प्रकाशित होती रही है। वे कहानी के अतिरिक्त हिंदी की विविध विधाओं जैसे कविता, उपन्यास आदि में भी लेखन कार्य करते हैं। उनकी रचनाओं को चहुंओर प्रसिद्धि एवं प्रशंसा प्राप्त हुई है साथ ही उन्हें कई बड़े सम्मान भी मिले हैं। जिनमें प्रमुख रूप से उनके कहानी संग्रह 'गुलमेहंदी की झाड़ियाँ' को मध्य प्रदेश साहित्य अकादमी की ओर से युवा रचनाशीलता का 'वागीश्वरी पुरस्कार' 2009 में मिला था। उनकी कहानी 'भूगोल के दरवाजे पर' को 'शैलेश मटियानी' सम्मान मिला हुआ है। तरुण जी अपने राजकीय दायित्वों को पूर्ण निष्ठा से निभाने उपरांत अपनी साहित्यिक अभिरुचि के लिए समय निकाल कर विभिन्न साहित्यिक गतिविधियों में भाग लेते रहे हैं एवं विभिन्न अवसरों पर व्याखान देते हैं। तरुण जी की कहानियों का एक अलग ही कलेवर है जिसमें सहजता, निरंतरता और सामाजिक जागरूकता का दर्शन होता है। उनका साहित्य जनसाधारण से जुड़े रहने का आभास कराता है। जिस आदिवासी अंचल में उनका समय व्यतीत हुआ उस अंचल की गहरी पकड़ उनके साहित्य में दिखाई देती है। साथ ही उन्होंने अपने राजकीय अनुभवों का भी साहित्य रचना में गहराई एवं व्यापकता के साथ प्रदर्शन किया है। ये उनकी बहुमुखी प्रतिभा का परिचायक है।


तरुण जी के कथा साहित्य में प्रमुख कहानी संग्रह में 'गुलमेहंदी की झाड़ियाँ' का अहम् स्थान है। जिसमें 'हैलियोफ़ोबिक', 'गुणा-भाग', 'गुलमेहंदी की झाड़ियाँ', 'बीते शहर से फिर गुजरना', 'फोटो का सच', 'कौन सी मौत', 'हंसोड़ हँसुली' शीर्षक से सात कहानियों को लिया गया है। यह संग्रह भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन द्वारा सन 2008 में प्रकाशित हुआ था। उनका दूसरा प्रसिद्ध संग्रह 'भूगोल के दरवाजे पर' भी प्रसिद्ध रहा है। जिसमें 'ढिबरियों की कब्रगाह', 'सब्जेक्ट: फ्लेट नम्बर टू थर्टी वन', 'दादी', 'मुल्तान और टच एंड गो', 'पतलून में जेब', 'लार्ड इरविन ने इग्नोर किया', 'चाँद चाहता था धरती रुक जाए', 'द रोयल घोस्ट' इत्यादि। एक अन्य कहानी संग्रह 'जंगल में दर्पण' है जिसमें मुख्य कहानियां 'रोना', 'जहर बुझे तीर के बाद भी', 'जंगल में दर्पण', 'प्रथम पुरुष', 'दवा', 'साझेदार और एक आदमी', 'टेबिल' और 'गुम' हैं। तरुण जी अन्य कहनियाँ 'खिड़की वाला संसार', 'ढंकी हुई बातें', 'धूल की एक परत', 'चेहरे के जंगल' और 'भटकाव' भी चर्चित रही हैं। तरुण जी की कहानियों में संवेदना के विविध रूप दिखाई देते हैं। सामाजिक समस्याओं का विस्तृत लेखा जोखा है। भारत के हर वर्ग चाहे वो उच्च वर्ग, चाहे मध्य वर्ग और चाहे वो निम्न वर्ग ही क्यों न हो, हर समाज में सामाजिक समस्या विद्यमान रहती आई है। इन समस्याओं के विस्तृत फलक से कोई भी रचनाकार अपने को विलगित नहीं मान सकता। सामाजिक समस्याओं में भुखमरी, गरीबी, बालश्रम, बेरोजगारी एवं अशिक्षा से एक बड़ा वर्ग पीड़ित है। तरुण जी ने अपने अनुभवों के आधार पर सामाजिक समस्याओं की उत्पत्ति में असंतुलित विकास को मूल कारण माना है। प्रशासनिक रूप से आप बेहतर समझ रखते हैं और आर्थिक नीतियों की असफलताओं को अपनी रचनाओं में यत्र-तत्र दर्शातें हैं।


उनकी कहानी 'गुलमेहंदी की झाड़ियाँ' में बालश्रम को प्रकट किया गया है। कहानी में एक बालक सुंदर बालश्रम से पीड़ित है- "वह यहाँ वर्तन साफ करने वालों की मदद करता था। साबुन और राख से प्लेट, गिलास माँजने-धोने का काम। पहले होटल के मालिक ने उसे पानी लाने के काम में लगाया था। पर वह पानी की बाल्टी उठा नहीं पाता था, सो उसे बर्तन माँजने का काम मिल गया। उसको महीने के ढाई सौ रुपए मिलते थे।"[2] इसी तरह 'गुलमेहंदी की झाड़ियाँ' कहानी में कचरा बीनने वाली लड़की की पीड़ा बताई है- "वह पूरी तन्मयता से अपने काम में लगी रहती है। उसके सामने सब हार जाते हैं, तपती, झुलसा देने वाली लू, आग उगलता सूरज, सब उसके सामने हार जाते हैं, वह तपते सूरज और झुलसाने वाली लू को ठेंगा दिखा देती है। बीच-बीच में थककर वह थोडा रुक लेती है। उसका तांबई चेहरा, सूरज की रौशनी में दमकता है। कचरे से बटोरी हर चीज वह अपने बोरे में बेतरतीब धन से भरती जाती है।"[3] इस प्रकार इस संग्रह की विभिन्न कहानियों में बालश्रम की विभिन्न परतों को उधेड़ने का प्रयास है।


इसी प्रकार उनकी कहानी 'गुणा-भाग' में गरीबी, बेरोजगारी एवं भुखमरी झेलते एक संपेरे की पीड़ा भी व्यक्त की गई है। सरकार द्वारा सांप पकड़ने की पाबंदी के चलते संपेरे का परिवार बेरोजगार हो भुखमरी और गरीबी से ग्रस्त हो जाता है। उसके सामने रोजी-रोटी का संकट आ पड़ा है। कहानी का एक दृश्य -"हाँ ..........अब कभी नहीं। जव घर में चूल्हा नहीं जलता है और पतोहू रात को चुपके से सो जाती है ........... काहे कि मैं उससे रोटी न मांग लूँ........तब वे दिन बहुत याद आते हैं। अभी दो रोज पहले रात को रोटी नहीं थी और पतोहू के कमरे से उसके सुबकने की आवाज आ रही थी.........ये बाल ऐसे ही सफ़ेद नहीं हुए हैं, चंपा ......... मैं सब समझता हूँ.........कलेजा मुँह को आता है। पता नहीं था, ये दिन देखना पड़ेगा ......। पतोहू बताती नहीं है ............... बस अकेले में रो लेती है..............।"[4] ठीक इसी तरह की बेबसी का जिक्र उनकी कहानी 'पतलून में जेब' में अनाथ बालक गोलू के सन्दर्भ में आता है। अनाथ बालक अपने बचपन में ही जेबकतरा बन जाता है। इस तरह तरुण जी ने सामाजिक यथार्थ को प्रकट करने में पूरा न्याय किया है।


उनकी कहानियों में राजनीतिक भ्रष्ट तंत्र का भी प्रकटीकरण है। 'फोटो का सच' कहानी में फौजी जीवेन्द्र के शहीद होने उपरांत उसके असहाय एवं वृद्ध माता-पिता द्वारा सरकारी लाभ प्राप्त करने हेतु विभिन्न सरकारी कार्यालयों में स्वयं को शहीद के माता-पिता प्रमाणित करने में जो परेशानी आती है उसका दृश्य बड़ा ही मार्मिक है- "वह दफ्तर बिल्डिंग की तीसरी मंजिल पर था। वे कुछ दिनों से कई बार यहाँ आते रहे हैं। वे बड़ी मुश्किल से सीढियाँ चढ़कर इस दफ्तर पहुँच पाए हैं। ........................ तीसरी मंजिल तक पहुँचते-पहुँचते वे थककर चूर हो जाते हैं।....... पूरे कपडे पसीने में भीग जाते हैं और एक बार जो छाती की धौंकनी चलनी चालू होती है, वह फिर घंटों तक बंद नहीं होती।"[5] 


सरकारी कार्यालयों की इस प्रकार की संवेदनहीनता इन बूढ़े माता-पिता की पीड़ा को और भी बढाती है। "देखों ये हम दोनों हैं और ये शालिनी है। देखों........ क्या अब भी किसी प्रमाण की जरुरत है। .................... ये फोटुएं कहती हैं, कि मैं ही जीवेन्द्र का पिता। हाँ, वे ही..............कितना साफ है कि वे ही जीवेन्द्र के पिता हैं और यूँ सोचते हुए उनका मन भारी हो जाता है।"[6] 


घिनौनी राजनीतिक तुष्टीकरण के चलते अपनी महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए नेता कितना गिर जाते हैं उसका वर्णन उनकी कहानियों 'हँसोड़ हँसुली' और 'जंगल में दर्पण' में दिखाई देता है। अपनी राजनीतिक पैठ स्थापित करने के लिए राजनेताओं द्वारा भोली जनता को शिकार तक बना लेते हैं। इस प्रकार उनकी कहानियों में रजनीतिक विद्रूपताओं का सहज और यथार्थ दर्शन होता है।


तरुण जी ने अपनी कहानियों में विस्थापन एवं विभाजन की त्रासदी से उपजी पीड़ा को भी व्यक्त किया है। 'भूगोल के दरवाजे पर' कहानी में चीन द्वारा प्रताड़ित होकर भारत में शरणार्थी बनकर रहने वाले तिब्बत के लोगों के दर्द को बयाँ किया है। इसी तरह 'हैलियोफ़ोबिक' कहानी में भी शरणार्थी केम्पों में रहने वाले लोगो की विभीषिका दिखाई देती है। कहानी का एक प्रसंग - "नार्थ वेस्ट फ्रंटियर स्टेट की पुलिस और पाकिस्तानी आर्मी के सैनिक जो ज्यादातर पखतून है या लोकल बाशिंदे, रोज बेदर्दी से जानवरों की तरह इस अनियंत्रित भीड़ पर लाठियां लेकर टूट पड़ते हैं। ................इस कातिलाना भीड़ में कभी-कभी कोई कुचलकर-दबकर मारा जाता है।"[7] तरुण जी एक अन्य कहानी 'दादी, मुल्तान और टच एंड गो' में देश विभाजन के कारण लोगों के दुख, दर्द एवं वेदना को व्यक्त किया गया है।


उनकी कहानियों में प्रकृति एवं पर्यावरण की चिंता भी जाहिर की गई है। चूँकि वे जिस क्षेत्र से आते हैं वो क्षेत्र प्राकृतिक रूप से संपन्न क्षेत्र है किन्तु वहाँ के लोगों का जीवन स्तर अति न्यून है। 'जंगल में दर्पण', 'जहर बुझे तीर के बाद भी', 'चाँद चाहता था कि धरती रुक जाय', एवं 'प्रथम पुरुष' कहानियां प्रकृति एवं पर्यावरण पर आधारित हैं। आज व्यक्ति की भूख इतनी बढ़ गई है कि वो प्रकृति के प्रति अमानवीय हो गया है और जल, जंगल एवं जमीन का अंधाधुंध दोहन कर उसका विनाश कर रहा है। जिससे वहाँ रहने वाले जनजाति लोगों के जीवन पर खासा असर हो रहा है। जंगलों और पेड़ों की कटाई को लेकर वे लिखते हैं-"दोरला मुँह फाडे भौचक्का-सा यह सब देखता रहा। वे पहिये सागौन के लट्ठों को पटरों में बदल देते। मिल के पीछे पटरों का विशाल ढेर था, जो बैलगाड़ियों में चढ़ाये जा रहे थे। चारों ओर सागौन के लट्ठों और पटरों के ऊँचे-ऊँचे ढेर लगे थे।.................. अब तो मनोगे कि एक दिन यह जंगल खत्म हो जायेगा। बोलो-बोलो। दोरला ने हामी भरी।"[8] इसी पर्यावरण चिंता को उजागर करती उनकी कहानी 'प्रलय में नाव' की चर्चा की जा सकती है। उक्त कहानी ज्ञानोदय पत्रिका में प्रकाशित हुई और आलोचक रोहिणी अग्रवाल के शब्दों में "तरुण भटनागर की कहानी ‘प्रलय में नावएक अर्थ में पौराणिक कथा का पुनराख्यान कही जा सकती है, जहां नूह के अवतार में एक जुझारु कर्मठ ईश-अनुयायी संहारक शक्तियों के प्रकोप से पूरी प्रकृतिपारिस्थितिकी और मनुष्यता को बचा लेना चाहता है. ....................प्रलय प्राकृतिक कोप भर नहींन्यायशीला प्रकृति द्वारा मनुष्य के भीतर उग्रतर होती बर्बरताओं से मुक्ति पाने की चाहत है। मां की तरह प्रकृति एक सीमा के बाद अपनी बिगड़ैल संतान को लाड़-दुलार देकर अपने परिवेश को दूषित करती नहीं रह सकतीबेहतरी की आशा में अपनी ही कोख पर कुठाराघात कर डालती है. .......................पारिस्थितिकी की रक्षा का दायित्व मनुष्य पर है। कहानी अपनी सांकेतिक व्यंजनाओं के जरिये यदि हमारे आज की विभीषिकाओं को उनके नग्न क्रूर रूप में उघाड़ सकी है तो यह कहानीकार के कथा-कौशल की सफलता है। अलबत्ता यह तथ्य जरूर दिमाग में रहना चाहिए कि कहानी लेखक की एकल कृति नहीं होती। पाठ के दौरान पाठक की मेधाबोधसंवेदना और अंतर्दृष्टि के साथ जुड़ कर वह निरंतर अपना समृद्धतर पुनर्लेखन होता देखती है।"[9] इस कहानी में प्रकृति विनाश पर कहानीकार में बेबाक दृष्टि से अपनी बात कही है- "पर जो कुछ भी बच गया था उसे बचाना उसकी जिम्मेदारी थी. जो कुछ बच गया है वह भी बचा रहे। प्रलय के बाद भी कम से कम वह नष्ट न हो। ईश्वर का आदेश है. सबको बचाना ही है।"[10] इसी प्रकार उनके रचना संसार में जनजाति जीवन एवं मानवीय मूल्यों, नारी-शोषण, बाल-मनोविज्ञान और प्रेम का भी विस्तृत लेखा मिलता है। नारी शोषण से संबंधित उनकी प्रसिद्ध कहानियां 'हंसोड़-हँसुली' और 'ढिबरियों की कब्रगाह' में शोषण और प्रतिरोध झेलती स्त्री पीड़ा का को व्यक्त किया गया है।


रघुवंशी ने उनके कृतित्व पर सटीक विचार व्यक्त किए हैं- "तरुण भटनागर जीवन और यथार्थ के सघन कथाकार हैं। जो देखा और अनुभव किया। उसे मूलताप और आकृति में संवेदनशीलता के साथ कहानी में दर्ज करके पाठकों को अपनी ही जमीनी दुनिया से परिचित कराना तरुण भटनागर की खासियत है। फिर चाहे कथा विषय प्रेम हो, स्मृतियां हों, जनजातीय जीवन हो अथवा एक 'कॉमन' जीवन संघर्ष: लेकिन तरुण भटनागर एक जीवंत दृश्य आपकी आँखों के सामने लेट हुए लेखक के तौर पर सीधे आपके दिल में उतरते हैं। उनकी कहानियां भी इसी कथन की पुष्टि करती हैं। यहाँ तरुण भटनागर का कवि उनके कथाकार के लिए बेहद मददगार है- भाषा और भावाभिव्यक्ति में। इसलिए उनकी कहानी कई बार कविता का अनंत विस्तार भी लगती है। इसी कारण तरुण भटनागर हिंदी के समकालीन कथाकारों में अग्रिम पंक्ति के कथाकार हैं।"[11]


इस प्रकार कहा जा सकता है कि तरुण जी का रचना संसार विविधरूपी है। जिसमें जीवन के अनुभव हैं, जीवन की यथार्थ छवि है, मानवीय मूल्य हैं तो स्त्री पीड़ा का स्वर भी है। पर्यावरण की चिंता है तो प्रेम का विशद चित्र भी है। 



[1]  आरती चौहान: तरुण भटनागर का कथा साहित्य और समकालीन कथा सृजन, शोध प्रबंध : पृ. सं. 63-64

[2]  तरुण भटनागर : गुलमेहंदी की झाड़ियाँ, पृ. सं. 42

[3]  वही, पृ. सं. 47

[4]  वही, पृ. सं. 35-36

[5]  वही, पृ. सं. 76

[6]  वही, पृ. सं. 78

[7] तरुण भटनागर : भूगोल के दरवाजे पर,  पृ. सं 20

[8]  तरुण भटनागर : जंगल में दर्पण, पृष्ठ संख्या 22-23

[9]  रोहिणी अग्रवाल : https://samalochan.blogspot.com/2019/09/blog-post_6.html

[10]  तरुण भटनागर : प्रलय में नाव, समालोचन वेब पत्रिका

[11]  सुरेन्द्र रघुवंशी : जनपक्ष वेब पत्रिका

 

 

कुशल माली,शोधार्थी

मानविकी संकाय, मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर

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