शोध आलेख : आत्मकथा लेखन और मूल्यबोध / डॉ. राजकुमार व्‍यास

        अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-34, अक्टूबर-दिसम्बर 2020, चित्रांकन : Dr. Sonam Sikarwar

                                       'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL) 

शोध आलेख : आत्मकथा लेखन और मूल्यबोध / डॉ. राजकुमार व्‍यास

 

अभिव्यक्ति के साथ उसका नैतिक बोध भी जुड़ा रहता है। नैतिकता के निर्वाह की सहजता से ही मानव और संस्कृति के सहज संबंध बने रहते हैं। नैतिकता बोध में सत्य का पक्ष सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। अभिव्यक्ति भी सत्य के संदर्भ में ही शोभायमान होती है और सुशोभित सत्य कालजयी होता है। आत्मकथा लेखन अभिव्यक्ति का सर्वाधिक साहसी प्रयोग है। जनसंचार के क्षेत्र में महात्मा गाँधी की आत्मकथा सत्य के साथ मेरे प्रयोग एक प्रमाण के तौर पर ग्रहण की जाती है। आत्मकथा समकालीन समय का जीवंत दस्तावेज तो होती ही है, वह रचनाकार और उसके युगबोध को भी व्यक्त करती है। हिन्दी में आत्मकथा लेखन आरंभ से ही लोकप्रिय रहा है। रचनाकारों ने कुछ आप बीती और कुछ जगबीती की शैली में अपने समय, समाज और संस्कृति के विविध पहलुओं को प्रत्यक्षतः व्यक्त किया है।

मूल्य शाश्वत और समकालीन की परिधि बनाते हैं। व्यक्ति अपने समकाल को शाश्वत समय की यात्रा का एक अंश मात्र समझता है। महाकाल की निरंतरता में जीवनकाल की लयात्मकता का अंकन ही आत्मकथा लेखन है। समय और गति के कारण जीवन और समाज का गुरुत्वाकर्षण बल बदलता रहता है। यह बदलाव ही भावों और विचारों की एकरसता को भंग करता है और नवीन प्रतिमान प्रस्तुत करता है जिन पर रचनाकार अपनी परम्परा और समकालीनता को परखता है। रुढ़ियों को पहचानता है और उनके चलन को चुनौती देता है। जीवन शैली के सामयिक संदर्भों की पड़ताल करता है। यह सब करने के लिए कोई पद्धति नहीं है, यह सब अभिव्यक्ति के सहज प्रवाह से हासिल किया जा सकता है। आत्मकथा लेखक के सामने नैतिकता और लोकप्रियता की दुरभि-संधि उपस्थित रहती है। स्वांतः सुखाय की आधारभूमि बहुत समय तक प्रभावी नहीं होती है लेखक का दायित्व आत्मकथा लेखन की प्रक्रिया में शीघ्र ही प्रासंगिक विषयों की तलाश कर लेता है। एक मिशन के रूप में आत्मकथा लेखन की प्रवृत्ति चलन में है। आत्मकथा लेखन का निहित उद्देश्‍य यदि होता है तो स्व-संपादित प्राथमिकी रपट से अलग नहीं समझी जानी चाहिए। इन सभी प्रक्रियाओं में अवरोध-गतिरोध की स्थानिकता अवबोध की व्यापकता को चुनौती देती जान पड़ती है।


सामूहिक जीवन की गति और विकास क्रम मूल्य की अवधारणा और स्वरूप को पारिभाषिक संदर्भ प्रदान करते हैं। सामाजिक-पारिवारिक जीवन और परिवेश मनुष्य के बोध को प्रभावित करता है उसकी अन्यान्य प्रक्रियाओं पर इस बोध का असर सदैव रहता है। परिवेश की सहज अभिव्यक्ति होगी तो सामाजिक मूल्यबोध को रेखांकित करने में अधिक परिश्रम नहीं करना पड़ेगा लेकिन परिवेश के विविध पक्षों को संघर्ष की भूमि पर सायास स्थापित करने से एक थोपा हुआ रोमांटिसिज्म जन्म लेता है जो आत्मकथाकार के स्वांतः सुखाय पक्ष को ही अधिक उजागर करता है। आत्मकथाकार अक्सर यह निर्णय नहीं कर पाते की उन्हें अपनी उपलब्धियों को आसान दिखाना है या कठिन। यदि वे अपने सकारात्मक पक्षों को सहजता से व्यक्त करते हैं तो नकारात्मक संदर्भ भी पूरी नैतिकता के साथ सामने आने चाहिए। इसी तरह क्षेत्र विशेष में सफलता हासिल करने के बाद अपने संघर्ष की विकट स्थितियों का कल्पित वर्णन करना भी आत्मरति का एक विवेचनीय पक्ष हो सकता है। धर्मवीर भारती अभिव्यक्ति की भूमिका और उसकी व्यापकता के संदर्भ में लिखते हैं- “...एक विराट कैनवास पर कितने ही चरित्र आते हैं जो अपनी जीवन-प्रक्रिया में आत्मन्वेषण में तल्लीन हैं। उसमें विभिन्न आर्थिक वर्ग के लोग हैं, विभिन्न आयु-स्तर के लोग हैं, विभिन्न संप्रदाय, विभिन्न राजनीतिक मत, विभिन्न पेशे और विभिन्न परिस्थितियों के लोग हैं, यही नहीं एक ही व्यक्ति अपने जीवन की विभिन्न घड़ियों में विभिन्न स्तरों पर आत्मन्वेषण करता है और विभिन्न रीतियों से अपने-आपको पाता और खोता चलता है।[1] आत्मकथा व्यक्ति और समाज के अन्योन्य आश्रित संबंध का एक स्वतः सिद्ध समीकरण है।


व्यापक संदर्भ में आत्मकथा व्यक्ति के साथ साहित्य का भी प्रतिनिधित्व करती है और एक अन्य अर्थ में ग्रहण किया जाए तो साहित्य के भीतर से निकलने वाला प्रतिरोध है। जो कोमलकांत पदबंध और सुकुमार कल्पना को दूसरे दर्जे पर रखता है। पहला दर्जा युग का यथार्थ वर्णन है जो सामाजिक चेतना के रूप में व्यक्त होता है और आत्मकथाओें का प्रकाशन उस युग सत्य के प्रति व्यक्तिगत साक्ष्यों की प्रस्तुति की तरह है। प्रतिरोध आत्मकथा का आधारभूत मूल्य है। आत्मकथा लेखन अपने आधारभूत पक्षों को स्वानुभूति के संदर्भ में व्यक्त करता है। यह आधार सांस्कृतिक और सभ्यतामूलक विमर्श को गतिमान तो रखता ही है उसे बल भी प्रदान करता है। जीवनयापन के उतार-चढ़ाव और उनमें पलती जीजिविषा साहित्य और संवेदना के स्तर पर विमर्श की विचार-वीथियों का परिचय देते हैं। मूल्य बोध की भारतीय परम्परा में मानवीयता का स्थान सर्वोपरि था। यह मूल्यबोध ग्रंथों में सहेजा गया और निरंतर सम्प्रेषित होता रहा। इनके रचयिताओं में सामूहिकता का बोध अत्यंत उच्च स्तर का था इसलिए व्यक्तिगत निधि के रूप में ये रचनाएँ नहीं मिलती हैं। यह सभ्यता की निरंतर यात्रा का पुनीत पाथेय है। आत्मकथाओं का मूल्यबोध इस परम्परा से भी भावराशि ग्रहण करता है। सत्ता, संस्कृति, परंपरा और इतिहास की विविध व्याख्याओं की आधार सामग्री आर्षग्रंथों से ही प्राप्त होती है। विगत को अस्वीकारने के लिए पहले उसके अस्तित्व को स्वीकारना पड़ता है। विगत की घटना, भावधारा या विचार के पक्ष-विपक्ष से परे उसकी अभिव्यक्ति और प्रामाणिक सामग्री का महत्व है। आत्मकथा लेखन बीते हुए समय के अनेक परोक्ष साक्ष्यों के आधार पर ही अपनी जीवन दृष्टि निर्मित करता है। भारतीय संदर्भ में इतिहास के साक्ष्यों और मान्यताओं की चुनौतियाँ बहुत अधिक है। इस आधार पर कहा जा सकता है कि आत्मकथाकार इतिहास की अपनी समझ के आधार पर अपने जीवन काल की घटनाओं का दस्तावेजीकरण कर रहा है। वर्तमान में यह साधारण प्रक्रिया की तरह लग रहा है लेकिन भविष्य में यही आत्माभिव्यक्ति इतिहास के साक्ष्य के रूप में पृष्ठांकित की जाएगी।

आत्मकथा का अभिव्यक्ति और युगबोध से इतर कोई संदर्भ तलाशना व्यक्ति और समाज के अंतर्संबंधों को पुनः परिभाषित करने जैसा होगा। सामाजिक जीवन तो व्यक्ति की प्रत्येक अनुक्रिया में अपने अनुकरणीय और उल्लेखनीय अर्थभेदों के साथ उपस्थित रहता है। लिखित अभिव्यक्ति तो अनेक शताब्दियों के विकासमान स्वरूप का स्मारक है। आत्मकथा लेखक का सामूहिक चेतना और सांस्कृतिक वैविध्य के प्रति जो भावबोध है और विशेषतः अपने जीवन संघर्ष में वह जो दृष्टिकोण विकसित करता है वही उसे शेष विश्‍व से जोड़ता भी और शेष विश्‍व से अनूठा भी बनाता है। अनोखी बात वह अभिव्यक्ति होती है जो व्यतीत और अतीत के संदर्भों के साथ वर्तमान को संबोधित कर रही होती है। डॉ. श्यामाचरण दूबे ने कहा है कि- भारतीय समाज अंतर्विरोधों का पिटारा है जिसके कुछ पहलू अत्यंत पेचीदा हैं।’’[2] सभी पहलुओं, अंतर्विरोधों और पेचीदगियों के बीच रचनाकारों ने अपने समय और समाज को व्यक्त करने का पुनीत कार्य किया और विशेष संदर्भ यथार्थ को यथावत व्यक्त करने के संघर्ष को स्वीकार किया। गुलाबराय के अनुसार- ‘‘हमारा एक जातीय व्यक्तित्व है। वह हमारी जातीय मनोवृत्ति, जीवन-मीमांसा, रहन-सहन, रीति-रिवाज, उठने-बैठने के ढंग, चाल-ढ़ाल, वेश-भूषा, साहित्य, संगीत और कला में अभिव्यक्त होता है। विदेशी प्रभाव पड़ने पर भी वह बहुत अंशों में अक्षुण्ण बना हुआ है। वही हमारी एकता का मूल सूत्र है।’’[3] व्यक्तिपरक सत्य की बुनियाद में सामाजिक परिवेश की महती भूमिका रहती है।


आत्मकथा में अपने परिवेश में पहचान के साथ ही जीवन की गतिशीलता का पक्ष भी उल्लेखनीय है। आत्मकथा व्यक्ति की सामाजिक पहचान के साथ ही उसके जीवन के कालखंड के सामाजिक आधारों की पहचान भी उजागर करती है। सामाजिक जीवन तो सामाजिक परिवर्तन के व्यक्तिगत और संस्थागत प्रयासों से निरंतर बदलता रहता है। परिवर्तन के लिए सायास और अनायास दोनों ही आयाम आत्मकथा की दृष्टि से उल्लेखनीय है। अनायास परिवर्तन सभ्यता के अग्रदूत के रूप में मनुष्य की विजय के द्योतक हैं और सायास परिवर्तन कल्याणकारी राज्य की सहज व्यवस्था प्रमाण है और व्यवस्था की यह सफलता तो उत्सव के आयोजन की तरह है कि विगत की कलुषित व्यवस्थाओं से आगे मनुष्यता वर्तमान की बुनियाद को मजबूत कर रही है।


मध्यकाल से आधुनिक काल मे प्रवेश के संधिकाल में भारतीय सामाजिक जीवन के अनेक अंतर्विरोधों को देखा जा सकता है। भारत मे यूरोपीय जीवन के प्रभाव के कारण आधुनिक चेतना का विकास हुआ। लेकिन सभी वैज्ञानिक धारणाओं और सिद्धांतों के साथ भी ब्रिटिश क्राउन की श्रेष्ठता का भाव और विचार भी सायास सम्मिलित किया गया। समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व की व्याख्या कभी निरपेक्ष नहीं रही। क्रांतियों के राजनीतिक संदर्भ अलग हैं लेकिन व्यक्ति के जीवन में उनके प्रभाव चिर स्थायी होते हैं। सफल और विफल दोनों ही तरह की क्रांतियाँ इतिहास में अपना स्थान बनाती है। विवेच्य कालखंड भारतीय जीवन विशेषकर हिन्दी भाषीयों के संदर्भ में अपनी लिखित भाषा के रूप को निश्चित करने का समय भी है। इसलिए आत्मकथा जैसा यथार्थ लेखन युगीन परिस्थितियों से पूर्णतया विलग भी नहीं हो सकता। भाव, भाषा और विचारों के परिष्कार के लिए स्वयं को खपा देनेवाले असंख्य मनीषियों की शब्द-साधना ने खड़ीबोली हिन्दी के गद्य को गढ़ा है। आत्मकथा को केवल व्यक्तिगत अनुभूति और अभिव्यक्ति के विषय के रूप में देखा जाना कृतघ्नता है। माध्यम के रूप में भाषा परिवेश से ही मिलती है इसलिए आत्मकथा की व्यक्तिपरकता का प्रारंभिक आधार ही अस्थिर हो जाता।


आधुनिक शिक्षा और नये जमाने की शिक्षण-प्रशिक्षण पद्धतियाँ प्रतिरोध को समाप्त करने को ही प्रबंधन का मूलसूत्र बताती है। प्रतिरोध और प्रतिरोध अस्वीकार्य और अक्षम्य हो गया है। नंद किशोर आचार्य का कथन है- आज हम इस बात की कल्पना करने को भी तैयार नहीं कि राज्य के हस्तक्षेप के बिना या उसके निर्देश के बिना कोई शिक्षा व्यवस्था या ऐसा ही कोई अन्य सामाजिक आयोजन सम्भव है।’’[4] आत्मकथा प्रतिरोध की परम्परा को जीवंत बनाए रखती है। लिखित अभिव्यक्ति अपनी शैली और शिल्‍प के स्तर भी अपने समय की पहचान होती है। आत्मकथा लिखने के लिए कोई रोजनामचा लेकर नहीं बैठा जाता। यह तो समय के साथ सहयात्रा का बयान है। जिसमें इतिहास चेतना का अपना महत्व है। रामस्वरूप चतुर्वेदी कहते हैं- आधुनिक भावबोध के समग्र साहित्य की एक प्रमुख विशेषता उसका स्वचेतन होना है। परिवर्तन और विकास के बीच प्रधान अंतर चेतनता का है। परिवर्तन सहज है, विकास प्रयत्न-साध्य है, और आधुनिकता विकास का स्वचेतन प्रयत्न है।’’[5] आत्मचेतस की साधना संस्कृति के परिष्कृत मूल्यों के संवर्द्धन और संरक्षण में है। रचनाकार का भावबोध आत्मकथा के लिए आवश्‍यक और मौलिक दृष्टि स्वचेतन से ही प्राप्त करता है। आधुनिककाल के सूचना माध्यमों का निहित उद्देश्‍य लोकमानस पर आधिपत्य स्थापित करना है।


वैदिक काल के गौरव, मध्यकाल का संघर्ष और आधुनिक काल की विजय प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से साहित्य में प्रकट होती ही है। इसी तरह समकालीन मूल्यबोध की विवेचना ग्रामीण और नगरीय जीवन के ध्रुवों के आधार पर की जाती है। दोनों जीवन शैलियों में बुनियादी अंतर है और यही अंतर अभिव्यक्ति को भी प्रभावित करता है। आर्थिक आधार पर मध्यवर्गीय जीवन एक अन्य प्रतिमान है जो मूल्यबोध को प्रभावित करता है। मध्यवर्गीय मानसिकताएक पारिभाषिक अर्थ में ग्रहण की जाने लगी है और यह बहुसंख्यकों के लिए हीनताबोध का पर्याय है। लोकतांत्रिक जीवन मूल्यों में भी वैश्विक प्रतिमानों और भारतीय संदर्भों में बहुत अंतर दिखाई पड़ता है। रामविलास शर्मा इस पक्ष को एक मूल्य के रूप में सामने लाते हैं- जब तक यहाँ उत्पादन के साधनों का पर्याप्त विकास नहीं हो जाता, तब तक निजी संपत्ति को समाप्त नहीं किया जा सकता। पहले सत्ता पर अधिकार करो, फिर देश का उद्योगीकरण करो, तब समाजवाद की ओर बढ़ो। रूस में यही हुआ था। यूरोप के और देश जर्मनी-फ्रांस से पिछड़े हुए थे। इसी हालत में सभी देशों के साम्यवादियों का दूरगामी लक्ष्य तो एक ही हो सकता था, पर तात्कालिक लक्ष्य उनके अलग-अलग ही हो सकते थे। प्रत्येक देश में क्रांति का स्वरूप भी अलग होता।[6] परिवर्तन के लिए परिवेश सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। वैभव अतीत में था, भविष्य में हो सकता है लेकिन वर्तमान की पतनशील दशाएँ ही युगीन सत्य है। आगत, विगत और वर्तमान का बोध व्यक्ति और नागरिक दोनों संदर्भों में उल्लेखनीय है। मूल्य चेतना व्यक्ति विशेष जो आत्मकथा विशेष का रचनाकार है उसके जीवन के कालखंड की परिधि में बँधी नहीं रह सकती। वह व्यक्ति के साथ देश और व्यापक अर्थों प्रत्येक मनुष्य के इतिहास से जुड़ी हुई है। आधुनिक और फिर उत्तर आधुनिक विमर्श के मूल में मध्यकाल की समाप्ति की घोषणा है। वह मनुष्य सभ्यता के इतिहास में युग परिवर्तन का समय था। प्राचीनकाल की महान सभ्यताएँ इस युगांतकारी घटना से बहुत गहराई से प्रभावित हुईं। नवजागरणकाल का अगले चरण के रूप में भारतीय स्वाधीनता का संघर्ष था और वह रचनाकारों के मूल्यबोध में स्थायी महत्व रखता है।


आत्मकथा लेखन का एक अन्य महत्वपूर्ण मूल्य है भाषा के प्रति संवेदनशीलता। आत्मकथा वस्तुतः अभिव्यक्ति के अदृप्त पहलुओं को उजागर करना है। मातृभाषा की आरंभिक अभिव्यक्तियों की स्मृति भी विचार और भावनाओं के अनेक आयाम उपस्थित कर देती है। आत्मकथा की भाषा कोई भी हो बचपन की स्मृतियों के लिए मातृभाषा और उसके परिवेश तक की यात्रा तो अनिवार्यतः करनी ही होती है। खड़ी बोली के गद्य के लिए आत्मकथाकारों की सेवाएँ उल्लेखनीय हैं लेकिन मातृभाषा और उसके परिवेश के लिए यह प्रामाणिक संदर्भ अमूल्य हैं। अपने जीवनानुभवों को उकेरता प्रत्येक मनुष्य सभ्यता की अनंत यात्रा का सार्थवाह हैं। बच्चन सिंह ने कहा है  मानव एक ओर व्यक्ति है, और दूसरी ओर, सामाजिक प्राणी। व्यक्ति और समाज के अंतर्वैयक्तिक संबंधों पर ध्यान न देने के कारण कुछ लोग व्यक्ति स्वातंत्र्य पर जोर देते हैं तो कुछ लोग सामाजिकता पर। मनुष्य होने का अर्थ स्वतंत्र होना है। घिसी-पिटी परम्पराओं, रूढ़ियों के विरुद्ध स्वयं का निर्णय मनुष्य को मनुष्य बनाता है। इसी को कुछ लोग अंतरात्मा का विवेक कहते हैं। अंतरात्मा का विवेकका कोई ठोस अर्थ नहीं होता। मानव की यह परिकल्पना मार्क्सवादी नियतिवाद से मुक्ति की परिकल्पना है- अंतरात्मा का विवेकरोमैंटिक परिकल्पना है, जितने व्यक्ति उतनी परिकल्पनाएँ।[7] आत्मकथा अपने यथार्थ बोध के कारण मानविकी के साथ समाज विज्ञान के लिए भी दस्तावेज की भूमिका निभाती है।


आत्मकथा के लेखन में रचनाकार अनेक सम-विषम परिस्थितियों से गुजरता है। यह आलेख मनुष्य सभ्यता में आत्मकथाकार दायित्व के संदर्भ में है। इतिहास बोध की भूमिका तो महत्वपूर्ण है ही उससे भी अधिक महत्व निरेपक्षता का है। आलेख में भी रचनाकार के किसी भी संदर्भ का उल्लेख नहीं है। अस्मितामूलक विमर्श में आत्मकथा एक प्रभावी उपकरण है। इसलिए भी आत्मकथ्य का महत्व बढ़ जाता है। समग्रतः युगबोध, भाषागत संवेदनशीलता, नैतिकता और प्रतिरोध आत्मकथा लेखन के आधारभूत मूल्य हैं। इन्हीं आधारों पर ही आत्मकथा अनोखी होती है और यथार्थ ही वह शाश्‍वत मूल्य है जो समकालीन संदर्भों में उजागर होता है।


डॉ. राजकुमार व्‍यास

सहायक प्रोफेसर, हिंदी विभाग, मोहनलाल सुखाड़िया विश्‍वविद्यालय, उदयपुर।

सम्पर्क : 9928788995,  rajkumarvyas@gmail.com

 

संदर्भ :



[1]  धर्मवीर भारती, मानव मूल्‍य और साहित्‍य, पृ.116, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्‍ली, सं.1999

[2]  श्‍यामचरण दूबे, भारतीय समाज, अनुवाद- वंदना मिश्र, पृ.107, नेशनल बुक ट्रस्ट, दिल्‍ली, सं.2011

[3] गुलाबराय, भारत की सांस्‍कृतिक एकता, सं.मूलचंद गौतम, भारतीय साहित्‍य, पृ.21, दिल्‍ली, सं.2009

[4] नंद किशोर आचार्य, परम्‍परा और परिवर्तन, पृ.29, कविता प्रकाशन, बीकानेर, सं.1995

[5] रामस्‍वरूप चतुर्वेदी, हिंदी साहित्‍य और संवेदना का विकास, पृ.268, इलाहाबाद, सं.2001

[6] रामविलास शर्मा, भारतीय नवजागरण और यूरोप, पृ.259, दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय, सं.1996

[7] बच्‍चन सिंह, आधुनिक हिंदी आलोचना के बीज शब्‍द, पृ.87, वाणी प्रकाशन, दिल्‍ली, सं.2016

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