आलेख : अलका सरावगी के उपन्यास त्रयी में जनसंचार विमर्श / मैना शर्मा

        अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-34, अक्टूबर-दिसम्बर 2020, चित्रांकन : Dr. Sonam Sikarwar

                                       'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL) 


आलेख : अलका सरावगी के उपन्यास त्रयी में जनसंचार विमर्श / मैना शर्मा

( एक ब्रेक के बाद, जानकीदास तेजपाल मेंशन और एक सच्ची-झूठी गाथा )              

               

मानव जीवन में सामूहिक भावना के विकास में जनसंचार माध्यमों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। जनसंचार के माध्यम किसी समाज के लोक व्यवहार की नींव का पत्थर होते हैं। किसी सूचना को एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँचाने के लिए यह एक सेतु के सामान कार्य करता है I संचार द्विआयामी प्रक्रिया है जिसमें संप्रेषक द्वारा भेजे गए सन्देश को प्राप्तकर्ता प्राप्त करता है और तत्पश्चात उचित अनुक्रिया दर्शाता है। जनसंचार में वृहद् जनवर्ग तक सम्प्रेषण किया जाता है। आजकल जनसंचार माध्यमों में समाचार पत्र, रेडियो, टेलीविजन, फिल्म, इन्टरनेट आदि आते हैं।

          आज भूमंडलीकरण ने विश्व की विभिन्न संस्कृतियों तथा अर्थव्यवस्थाओं का एकरूपीकरण किया है जिसने दुनिया को सिकोड़ दिया है। भूमंडलीकरण के दौरान हार्डवेयर तथा सॉफ्टवेयर की जो क्रांति हुई, उसने जनसंचार माध्यमों के स्वरूप में आधारभूत परिवर्तन कर दिए। इसने मीडिया को बहुत अधिक शक्तिशाली बना दिया। पहले मीडिया को स्वायत्तता प्राप्त नहीं थी I लेकिन अब जनसंचार के माध्यम संदेश के पुनरूत्पादन की प्रक्रिया में संदेश को गढ़ने तथा उसे नया रूप देने हेतु स्वायत्त है। इसने साहित्य और संस्कृति को भी काफी प्रभावित किया है I  आज विविध सांस्कृतिक उत्पादों में साहित्य भी एक उत्पाद बन गया है जिसकी मार्केटिंग हो रही है।  आज के दौर में प्रकाशन व्यवसाय का भी कार्पोरेटराइजेशन हो रहा है तथा हिंदी के प्रकाशक अब प्लेयर की भांति बाजार में उतर रहे हैं। ऐसे में साहित्यकारों द्वारा भी अपने साहित्य में जनसंचार माध्यमों का बाजारवाद के प्रभाव के कारण अपने मकसद से भटकी व्यवसायिक व उपभोक्तावादी स्थिति का विश्लेषण खुल कर  किया जाने लगा है।

                अलका सरावगी आधुनिक युग की एक सजग कथाकार रहीं हैं और इस कारण उन्होंने अपने समय के यथार्थ के उपर्युक्त पहलू को अपनी कथा साहित्य में प्रस्तुत किया है I इनकी प्रमुख कथा साहित्य में कलिकथा वाया बाईपास(1995), शेष कादंबरी(2001), एक ब्रेक के बाद(2008), जानकीदास तेजपाल मेंशन(2010) और एक सच्ची-झूठी गाथा(2018) हैं I इनमें से विशेषकर उनके तीन उपन्यास - एक ब्रेक के बाद, जानकीदास तेजपाल मेंशन और एक सच्ची-झूठी गाथा उल्लेखनीय हैं I इनमें सरावगी जी ने कथा के स्वाभाविक विकास के साथ मीडिया के अनेक पहलुओं को पकड़ने की कोशिश की है I आज के दौर में समाज में जनसंचार के माध्यमों ने विज्ञापनों के द्वारा अपनी कमाई सुनिश्चित करना शुरू कर दिया है I जनसंचार के विभिन्न माध्यमों द्वारा प्रचारित-प्रसारित विज्ञापनों का समाज पर बहुत अधिक प्रभाव नजर आता है। ये जनता के मन में बाजार के विभिन्न उत्पादों के प्रति आकर्षण का भाव पैदा करते हैं I ये लोगों में उत्पादों की खरीद हेतु प्रतिस्पर्धा को जागृत भी करते हैं I जनसंचार माध्यमों द्वारा प्रस्तुत विज्ञापनों के समाज पर पड़ने वाले इस आक्रामक प्रभाव को अलका सरावगी पहचान लेती हैं - “बस्तर के गांव में अपनी झोपड़ी में बैठकर आदिवासी टी.वी. पर वाशिंग मशीन में कपड़े धुलते देख रहा है और डबल-डोर फ्रिज में जाने कबसे रखी ताजा लौकी और टमाटर की गाथा सुन रहा है इस देश की एक अरब जनता अब एक साथ सपने देख रही है - फर्क यही है कि किसी के सपने छोटे तो किसी के ज्यादा बड़े सपने।“1

`              इस प्रकार एक औसत व गरीब व्यक्ति भी विज्ञापनों से प्रभावित होकर उन्हें खरीदने के सपने देखने लगता है।  आज भूमंडलीकरण के नाम पर जनसंचार माध्यम ज्ञान, धन और हिंसा तीनों के साथ  मिलकर प्रभाव जमा रहे हैं। यहां यह कहना ठीक ही होगा कि “व्यापारतंत्र को भारत जैसा बहुसंख्यक उपभोक्ता वाला देश माल बेचने का सबसे अच्छा बाजार दिखाई देता है इसलिए हमें विश्व बाजारवाद की नई ताकतों, उन योजनाओं और उनके पैटर्नों को समझना जरूरी है|2 टीवी चैनल देखने वाला एक बड़ा वर्ग निम्न मध्यव र्ग है। परंतु इन जनसंचार माध्यमों द्वारा सुख-दुख, समस्याओं एवं संघर्षों को नहीं दिखाया जाता बल्कि उनका उपयोग तो मात्र उपभोक्ता के रूप में किया जा रहा है तथा विज्ञापन द्वारा विभिन्न वस्तुओं की खरीद के प्रति उनके मन में लालसा जागृत की जाती है।

           बाजारवाद व भूमंडलीकरण के इस दौर में मनुष्य के मन में भौतिक चकाचौंध के कारण विभिन्न वस्तुओं की खरीद हेतु अदम्य लालसा व आकर्षण की भावना जनसंचार माध्यमों द्वारा प्रस्तुत विज्ञापनों के कारणपैदा हुई है तथा उन्हें पूरा करने के प्रयत्न ने मनुष्य के जीवन को यांत्रिक व आपाधापी से भरा बना दिया है। इसी बात को चित्रित करते हुए अलका सरावगी ने लिखा है - “किसे फुर्सत है कि आदमियों को रखने के लिए कोई शहर-शहर भटके, कभी मुंबई दौड़े, तो कभी बेंगलुरु जाए फील्ड सेल्स ऑफिसर की नौकरी के लिए एक दर्जन आदमियों का इंटरव्यू करना है कंप्यूटर पर वीडियो कॉन्फ्रेंस से सबको देखो, सवाल-जवाब करो, रखना है तो वहीं ‘कंफर्म’ करो| नहीं तो मामला चलता करो  ........ अब यह दुनिया असली रही कहां? कंप्यूटर की ‘वर्चुअल रियलिटी’ की जिंदगी की सच्चाई है| वह जमाना गया कि आप किसी को नौकरी पर रखने के पहले उसकी शक्ल-सूरत देखकर उसके अंदर तांक-झांक करने की कोशिश करें कि यह आदमी भलामानुष है कि नहीं3

       लेखिका ने अपने उपन्यास में यह बताया है कि आज के बाजारवाद और भूमंडलीकरण इस दौर ने मनुष्य के जीवन को यांत्रिक बना दिया है।  इन माध्यमों ने आमजन के जीवन को सरल व सुगम बनाने के साथ आपराधिक  वृत्ति व्यक्तियों के मन में भय का भाव भी पैदा किया है। “अब तो खैर पानवाले, सब्जीवाले और नाई-मोची भी मोबाइल रखने लगे हैं इस मोबाइल ने आदमी के कहीं से बचने के लिए कोई सुराग नहीं छोड़ा है जब जिसका मन आए, उसको पकड़ सकता है भले ही आप कामोड  पर बैठे हो या गाड़ी चला रहे हो आपके दिन का कोई समय आपके लिए नहीं बचा है।”4

                  आजादी से पहले जनसंचार माध्यमों के समक्ष भी कई तरह की चुनौतियां थी लेकिन उन्होंने उन चुनौतियों के समक्ष कभी भी घुटने नहीं टेके भले ही उन्हें अखबार बंद ही क्यों न करना पड़ा हो। लेकिन आज के भूमंडलीकरण और बाजारवाद के दौर में वह सारे आदर्श धूमिल पड़ गए हैं। ये जनता को प्रतिस्पर्धा की अंधी खाई में धकेलने वाले साबित हुए है। ये माध्यम सामाजिक सरोकारों से दूर व उनका उद्देश्य मात्र विज्ञापन कंपनियों के मुनाफे के साथ स्वयं का मुनाफा दिखाई देता है।  जनसंचार माध्यमों द्वारा प्रस्तुत किए जाने वाले विज्ञापनों के इस आक्रामक प्रभाव की ओर संकेत करते हुए अलका सरावगी ने लिखा है -”दक्षिण भारत और दुनिया में फैले तमाम तमिलभाषी लोगों का चहेता हीरो रवि कांत उस दिन तीस साल का हुआ था अपने जन्मदिन पर वह स्टोरमास्क के लगाए वही शानदार सूट पहने मौजूद रहेगा, जिसका विज्ञापन पूरे शहर भर में लगा हुआ था और हर अखबार में पूरे पृष्ट पर फैला हुआ था ................ रविकांत ने अपनी चाहने वाली जनता के लिए यह डिस्काउंट सेल रखा था...........यह बात रविकांत हर टी.वी. चैनल और रेडियो से बोल रहा था उसकी सच्चाई में बातों में सच्चाई और चेहरे पर मासूमियत थी ............ रविकांत के  जन्मदिन पर सुबह सात बजे से लोग ‘एम्बर डिपार्टमेंटल स्टोर\ के बाहर बीवी-बच्चों सहित लाइन लगाकर खड़े हो गए थे, जैसे तिरुपति बालाजी के दर्शन के लिए खड़े हो ............. लोगों के चहरे भारी भीड़ के कारण एयर कंडीशनिंग के फेल हो जाने से पसीने और खुशी से चमक रहे थे।”5 यह आज के समाज में  एक जनसंचार माध्यम के व्यावसायीकरण का चित्र प्रस्तुत करता है I यह केवल कथाकार का सत्य नहीं है बल्कि मीडिया विशेषज्ञ भी कुछ ऐसा ही सोचते-समझते हैं I “आधुनिक अखबार, अखबार नहीं, विभिन्न स्वार्थों के होल्डाल (तथाकथित टेबलायडीकरण) बनकर रह गए हैं ..................... आज  अखबार  का कोई संपादक नहीं है और विभिन्न संस्करणों के संपादक विज्ञापन-प्रबंधकों को अपने कामकाज का ब्यौरा देते हैं जो अखबार के विभिन्न प्रभागों को संगठित करके उसके सामाजिक-राजनीतिक दर्शन अपनाने की संभावनाएं खत्म कर देते हैं सच बात तो यह है कि नियमित स्तंभ की जगह तक विज्ञापन-प्रबंधक ही तय करते हैं अधिकतर अखबारों ने यही रवैया अपना लिया है और विज्ञापन दाताओं की अखबार की जगह बेच रहे हैं।”6

              आज के दौर में जनसंचार माध्यम अपने सामाजिक सरोकारों को भूल अब येन-केन-प्रकारेण अधिक से अधिक मुनाफा कमाना बना लिया है। अब विज्ञापनों के माध्यम से वे उसे एक ऐसे ख्याली जगत में ले जा रहा है। इसके पीछे उसका उद्देश्य विविध विज्ञापन कंपनियों की वस्तुओं का अधिक से अधिक प्रचार प्रसार कर उनके मुनाफे के साथ स्वयं का मुनाफा भी निश्चित करना है। “शहर के सबसे बड़े अखबार ने एक रपट छापी थी कि किस तरह एक विज्ञापन ‘ओनली टीयर्स फ्रॉम एल्सवेयर’से शहर के दो सबसे बड़े डिपार्टमेंटल स्टोर्स में से एक की बिक्री ने आज तक के सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए थे विज्ञापन में सजीला लोकप्रिय फ़िल्मी हीरो रविकांत शानदार सूट पहने हुए था और एक पीली साड़ी वाली सुंदरी के आंसू को, जो मोती में बदल रहे थे, एक पीले छींट के टिशू पेपर में इकट्ठे कर अपनी सूट की जेब में डाल रहा था और उसी जेब से एक शानदार मोतियों की माला निकाल कर सुंदरी को पहना रहा था विज्ञापन के अनुसार सभी चीजें - मोतियों की माला, सूत, जूते-चप्पल, साड़ी और टिशू पेपर एक छत के नीचे ‘डिपार्टमेंटल स्टोर’ में उपलब्ध थे, सिर्फ आंसू कहीं और जाने पर ही आ सकते थे - ‘ओनली टीयर्स फ्रॉम एल्सवेयर’।”7

         अलका सरावगी ने जनसंचार माध्यम द्वारा प्रचारित - प्रसारित विभिन्न उत्पादों के विज्ञापनों का जनता पर पड़ने वाले प्रभाव का अंकन करते हुए लिखा है कि अब आम जनता वही उत्पाद खरीदना पसंद करते है जो जिनके विविध संचार माध्यमों पर दिखाई व सुनाई देते हो I लेखिका ने अपने उपन्यास में दिखाया है कि विविध बड़ी-बड़ी कंपनियां अपनी वस्तुओं का अधिक से अधिक प्रचार-प्रसार करने हेतु एवं दूसरे उत्पाद कंपनियों को नीचा दिखाने हेतु विज्ञापनों का सहारा लेती है। “तभी उसे पता चला कि कंपनी ने शेयर बाजार के किसी बड़े खबरिये  को पटाकर उससे टी.वी. पर कहलवा दिया था कि ‘यशोदा डेयरीज’ के शेयर के दाम दोगुने होने वाले हैं शेयरों की खरीद बढ़ने से शेयर के दाम बढ़ते ही सुयश परिवार ने अपने ज्यादातर शेयर बेचकर कंपनी में लगाया हुआ अपना पैसा लगभग पूरा उठा लिया।”8

                  अलका सरावगी ने स्पष्ट संकेत दिया है कि आज के युग में मनुष्य दया, प्रेम, सहानुभूति, संवेदनशीलता जैसे मानवीय गुणों को खो चुका है एवं मशीन व  यांत्रिक दुनिया में स्वयं भी एक मशीन की भांति बन चुका है I  बेटी ने पढ़ाई की है एम.बी.ए. की पर पत्रकार बनी किसी टी.वी. चैनल के साथ ............... जयपुर में कोई बच्चा कहीं गड्ढे में गिर गया है, तो चौबीस  घंटे तक टी.वी. में चिल्ला-चिल्ला कर बता रही है कि वह अभी तक जिंदा है और उसे निकालने के लिए क्या-क्या किया जा रहा है निमोनिया होकर अस्पताल में भर्ती अपनी मां अभी तक जिंदा है या नहीं, यह जानने की उसे फुर्सत नहीं है।”9

              भारत में मनुष्य की परंपराओं के साथ उनकी रुढ़िवादी मानसिकता को बदलना इतना आसान नहीं है। लेकिन बाजारवाद के इस दौर में जनसंचार माध्यमों द्वारा प्रचारित-प्रसारित विभिन्न विज्ञापनों ने लोगों की मानसिकता में यह परिवर्तन कर दिखाया है – ‘‘ लोगों की आदतें और दिमाग का ढांचा बदलना उन्हें फिर से जन्म देने के बराबर है लोग टी.वी. पर सामान देखकर उसे खरीदने के लिए ड्राफ्ट  और चेक भेज दे और वह भी भारतवर्ष में ? यहां तो लोगों को आलू भी खरीदना हो तो हर आलू को घुमा-फिराकर देखकर खरीदते हैं ऐसे लोग खाली टी.वी. पर भरोसा कर सामान ऑर्डर करेंगे, इसमें सबको शक था ............. वही के.वी. को पता रहता है कि उसी में वे सौ प्रतिशत सफल होंगे।”10

              लेखिका ने बताया है कि वर्तमान समय पर जनसंचार माध्यमों द्वारा प्रचारित-प्रसारित विज्ञापनों का प्रभाव समाज के हर वर्ग पर पड़ रहा है और विज्ञापनों की सफलता में ही देश की और समाज की सफलता को देखा जा रहा है।”के.वी. ने धीरे-धीरे सौ-डेढ़ सौ कंपनियों के बनाए हुए तरह-तरह के सामान इंडियन स्काई शॉप से बेचे कम-से-कम पाँच सौ  तरह की चीजें लाखों घरों में उनकी आकाश की दुकान से बिके ..............तो इसका मतलब यह है कि इंडिया एक ऐसी ‘जंप’ यानी छलांग लगा चुका है भविष्य की ओर छलांग।”11  

       आज के दौर में हर व्यक्ति चाहे वह गरीब हो या अमीर जनसंचार माध्यमों की गिरफ्त में आ चुका है। आज वह सब कुछ त्याग सकता है लेकिन जनसंचार के विविध माध्यम - अखबार, टेलीविजन, मोबाइल,, इंटरनेट इत्यादि को किसी भी स्थिति में नहीं त्यागा जा सकता। इस स्थिति को चित्रित करते हुए लेखिका ने लिखा है कि “एक आदिवासी से भी कह कर देखो कि अपना टी.वी. हटा दे, वह आपको अपने घर से हट जाने के लिए कहेगा।”12

लेखिका ने अपने उपन्यास में यह स्पष्ट किया है कि आज के कॉरपोरेट युग में जब बड़ी -बड़ी मल्टीनेशनल कंपनियों ने अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया है, ऐसे युग में जनसंचार के विविध माध्यम भी उनके प्रभाव में दिखाई देते हैं| आज जनसंचार के विविध माध्यम अपने सामाजिक सरोकारों से दूर, स्व-हित से जुड़े सरोकारों से जुड़े हुए नजर आते  हैं। आज आम जनता से संबंधित विविध घटनाएं इन माध्यमों में अपना स्थान नहीं पा रही है। इसके विपरीत राजनीति, फिल्म-स्टार, अभिनेता एवं क्रिकेट से जुड़ी हुई विविध खबरों को बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत किया जाता है| के.वी. ने अखबार की हेडलाइन पर निगाह डाली जो कोई नई बात नहीं बताती थी............... राजनीतिक पार्टियों की फिजूल पैंतरेबाजी में कुछ भी ऐसा नहीं था, जिसमें दिमाग को कुछ खुराक मिलती ठीक उसी तरह जैसे तीसरे इंडियन आयडल को लेकर पूरे देश को मोबाइल से करोड़ों रुपए के एस.एम.एस. करने की खबर में के.वी. दो मिनट से ज्यादा यह  बेहूदगी  बर्दाश्त नहीं कर पाते थे जहाँ  गायन से ज्यादा महत्व पूरे कार्यक्रम को एक इमोशनल ड्रामा बनाने को दिया जा रहा था अब तो ट्वेंटी-ट्वेंटी क्रिकेट अखबारों पर कब्जा किए हुए था, जो एक दूसरी तरह का उत्तेजक ड्रामा या बेस्टसेलर था।”13 

आज के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के युग में जनसंचार के विभिन्न माध्यमों ने अपना विस्तार किया है। आज कई तरह की  समाचार पत्र-पत्रिकाएं देखने को मिलती है, टी.वी. पर रोज नित्य नए नए चैनल देखने को मिलते हैं। इन सब का उद्देश्य अधिक से अधिक टी.आर.पी. बटोर कर मुनाफा कमाना नजर आता है। “इस माध्यम में एक बात यह आ गई है कि मुनाफा जरूरी है, उसके लिए टी.आर.पी. की होड़ में बने रहना जरूरी है, विज्ञापन जरूरी है| इसके बावजूद इतने खर्च उठा कर जो खबर तैयार की जाती है और उस खबर का लाभ उसमें नहीं मिल रहा है, तो इसको दिखाने का क्या लाभ है? यहां एक चीज समझ लेनी होगी कि हर चीज बजट से होती है।”14  यही  कारण यह है कि किसी भी क्षेत्र से जुड़ी हुई प्रत्येक घटना के हर पहलू  को कुरेद-कुरेद कर उसे खबर के तौर पर प्रस्तुत किया जाता हैं। क्योंकि 24 घंटे चलने वाले इन न्यूज़ चैनलों को कुछ-न-कुछ तो जनता के सामने  प्रस्तुत करना ही होता है| आज के न्यूज़ चैनलों की इस स्थिति पर प्रकाश डालते हुए लेखिका ने लिखा है कि “के.वी. की पत्नी ने यह निश्चित किया कि कल से रोज सुबह उठकर अखबार को देखेंगी ही, दिनभर 24 घंटे चलने वाले टी.वी. के न्यूज़ चैनल को घर और दफ्तर में खुला छोड़ देंगी गुरु चरण का कुछ पता चला तो, सबसे पहले वे ही के.वी. को खुशखबरी देंगी हो सकता है कि टी.वी. वाले अब तक गांव पहुंच गए हो और हर घड़ी, हर पल की छोटी-सी-छोटी बात टी.वी. पर दिन-रात दोहरा रहे हो आखिर टी.वी. चैनलों को कोई न्यूज़ तो चाहिए वरना के दिन-रात दिखाएंगे भी क्या ?15    

       आज के बाजारवाद के युग में जनसंचार के विविध माध्यम अपनी आदर्श स्थिति को खो चुके हैं। वह किसी एक बात पर या एक खबर पर टिके दिखाई नहीं देते है। उन्हें घनचक्कर की भांति जैसे उन्हें घुमाया जाता है वैसे वह घूमते रहते हैं। ऐसा प्रतीत होता है जैसे उनका स्वाभिमान एवं व्यक्तित्व ही खत्म हो चुका है।”के.वी. जानते हैं कि भारतीय पुलिस इतने सस्ते में बिक जाती है ................. पत्रकारों का भी क्या, उनके संपादक के पास एक फोन मालिक का आ जाए, तो बस खबर बदल जाएगी आखिर मालिकों को भी को भी रोजी-रोटी कमानी  है बड़े लोगों और बड़ी कंपनियों से विज्ञापन लेने हैं, नेताओं को खुश रखना है, चाहे वे  सरकार चला रही पार्टी के हों या विपक्ष के कुल मिलाकर अखबार में छपता है, या नहीं छपता है, उसमें न जाने कितने लोगों की रजामंदी और ताकत जुड़ी रहती है 16  

      आज के दौर में अन्य व्यवसायियों की तरह लोकतंत्र के प्रहरी कहलाने वाले जनसंचार के विविध माध्यम भी महज एक व्यवसाय बनते नजर आ रहे हैं। इनका उद्देश्य भी अब मिशन के स्थान पर कमीशन पर केंद्रित हो गया है और इस कमीशन की प्राप्ति हेतु वह किसी भी हद तक जाने के लिए तैयारनजर आते हैं। आज के दौर के समाचार पत्रों में हमें ऐसी कई चीजें नजर आती है जो यह स्पष्ट संकेत करती हैं कि यह जनसंचार के विविध माध्यम अपना कारोबार चलाने हेतु कालाबाजारी तथा ब्लेकमेलिंग  तक कर सकते हैं। “मिंटू  चौधरी बड़ा बाजार युवक संघ में हमेशा बैडमिंटन में जयदीप का सबसे कठिन मुकाबले का खिलाड़ी हुआ करता था उसके पिता कोई छोटा-मोटा हिंदी किताबों का प्रेस चलाते थे बाद में उसने सुना था कि मंटू चौधरी हिंदी के एक अखबार में पत्रकार हो गया थाबड़ा बाजार से दो बड़े हिंदी अखबारों के साथ-साथ कई छोटे-मोटे अखबार निकला करते थे, जिनकी मुख्य आय न्यूज़प्रिंट को सरकार से सस्ते में प्राप्त कर ऊंचे दामों में बेचने से थी इसके अलावा ये अखबार एक तरह का ब्लैकमेल का धंधा भी चलाते थे उन्हें किसी के बारे में कुछ न छापने के लिए पैसे मिल जाते थे और किसी के बारे में कुछ छाप देने के लिए भी हर ऐसे अखबार की कोई न कोई पार्टी रहनुमा हुआ करती थी और मौके – बेमौके ये अखबार भी अपनी पार्टी बदल लिया करते थे|17

अलका सरावगी ने अपने उपन्यास में बताया है कि आज बाजारवाद के युग में भले ही जन संचार के विभिन्न माध्यम अपने आदर्शों एवं आधारभूत मूल्यों को खो चुके हैं परंतु आज भी समाज द्वारा उन्हें सम्मान एवं आदर के साथ देखा जाता है। आज भी साधारण जनता जन संचार के विभिन्न माध्यमों को एक विश्वास भरी निगाह से देखती है।”पत्रकार कैसा भी हो, उसकी एक तरह की इज्जत होती है आखिर उसके पास शब्द होते हैं, कोई चाकू-छुरा-पिस्तौल नहीं ............ पत्रकार की पहचान सिर्फ कागज पर काले हरूफ से बन जाती है यदि वह किसी सेठ, व्यापारी या पार्टी ऑफिस या थाने तक में कहता है कि वह ‘संवाददाता’ या ‘विचार-शक्ति’ के दफ्तर से आया है और अपना प्रेस कार्ड दिखाता है, तो सामनेवाला उसे अदब से पेश आता है भले ही उस अखबार की असल ग्राहक-संख्या पाँच सौ भी न हो।”18    

साधारण जनता आज भी जन संचार के विभिन्न माध्यमों को एक विश्वास भरी निगाह से देखती हैं। लेकिन यह विविध माध्यम जनता के विश्वास के साथ छल करता नजर आ रहा है। वह अपने  स्वार्थों पर आदर्शों का मुखौटा या पर्दा डालकर जनता के साथ विश्वासघात करने से नहीं कतरा रहा Iअरे भैया, हर पत्रकार दीन-दुनिया को बदलने का सपना लेकर लिखने वालों की बिरादरी में आता है उसे लगता है कि उसकी कलम कुछ ऐसा लिख सकती है, जो किसी ने नहीं लिखा है ........... वरना क्या मैं अपने बाप की तरह प्रेस चलाकर स्कूल की किताबें छापने और बेचने का धंधा ही नहीं करता ? तुझको क्या लगता है कि मैं जिस-तिस स्केंडल का भंडाफोड़ करने के लिए अखबार निकालता हूं ? मैं क्या कोई ब्लैकमेलर हूं ? सुभाषचंद्र बोस के भक्त थे मेरे पिताजी ............. वह जो कर रहा है, वह इसलिए कि उसे ऐसा करना पड़ रहा है| यदि वह ऐसा ना करें तो जमाना उसे पैरों तले कुचल डालेगा‘ईसामसीह ने कहा था कि कोई तुम्हें एक तमाचा मारे, तो दूसरा गाल आगे कर दो अरे भाई, अब तो ऐसा करोगे, तो सामने वाला दूसरे गाल पर चार तमाचे मार देगा ’’ - मंटू चौधरी अपने अखबार के संपादकीय में इसी बात को रोज अलग-अलग शब्दों में लिखता है वह हर समय जमाने को कोसता रहता है कि आदमी को उसने आदमी नहीं रहने दिया।”19 

         उपभोक्तावाद एवं व्यवसायीकरण के इस दौर में जनसंचार के विविध माध्यम मुनाफा कमाने के लिए व अपने कारोबार को बढ़ाने के लिए धर्म जैसे संवेदनशील मुद्दों को भी नहीं छोड़ते। वह हर एक उस मुद्दे को अपना हथियार बनाते हैं, जिससे अधिक से अधिक उन्हें मुनाफा मिलता हो। “इधर मंटू चौधरी की सलाह पर जयदीप हर धार्मिक आयोजन में जाने लगा था  ................. जिनके बारे में सूचनाएं ‘विचार-शक्ति’ में छपती रहती ...............किसी कार्यक्रम की फोटो-सहित कवरेज यदि ‘विचार-शक्ति’ में छपती, तो जयदीप के अंदाजे से कम-से-कम पाँच हजार रुपये मंटू चौधरी को मिल जाते थे ‘चुनाव के समय नेताओं की कवरेज में भी इतना फायदा नहीं होता 20 

इस प्रकार लेखिका ने जनसंचार माध्यमों की वर्तमान मुनाफाखोर प्रवृत्ति पर व्यंग्य करते हुए उसकी वास्तविकता को उजागर किया है। ये माध्यम अपनी परम्परागत आदर्श छवि को भूलकर अधिक से अधिक लाभ कमाने हेतु हर उस मुद्दे को बढ़ा-चढ़ा कर पेश करते हैं जिनसे उन्हें अधिक से अधिक पाठक एवं दर्शक मिल सके। लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहलाने वाले इस माध्यम को महज एक धंधा मान लिया गया है, जिसमें लाभ कमाने हेतु सब कुछ जायज है।“मंटू चौधरी को इधर एक नया धंधा सूझ गया था वह अपने अखबार में मालिश करने वाली औरतों या सैलून किस्म की जगहों के बारे में अधिक विज्ञापन देने लगा था जयदीप को मालूम था कि कई लोग सिर्फ इसी वजह से ‘विचार-शक्ति’ मंगवाते थे।”21  

आज धनवान सेठों द्वारा एक कारोबार के रूप में विविध पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन किया जाता है जिनका उद्देश्य धन कमाना होता है। जनसंचार माध्यमों की इन्हीं प्रवृत्तियों के कारण धीरे-धीरे उनकी साख गिरती जा रही है तथा जनता का उन पर से विश्वास उठता जा रहा है। दीपा ने उससे पूछा था कि यह इतने सारे अखबार यहां क्यों पड़े हैं वह नेपाली औरत इस बात पर हंस पड़ी थी - ‘हमारे मालिक का ही तो अखबार है देखिए मालिश करने के लिए मेरा भी फोन नंबर दिया हुआ है22  

लेखिका ने अपने उपन्यास में जनसंचार माध्यमों के समाज पर पड़ने वाले प्रभाव को अंकित करते हुए लिखा है कि आज के युग में जनसंचार के विविध माध्यमों ने मनुष्य को पूरी तरह से अपने बस में कर रखा है। अब इनके बिना उनका एक पल भी नागवार गुजरता है। “और जानते हो जयंत भाई ने क्या कर रखा है ? एक टी.वी. सामने वाले छोटे कमरे में चलता है जो उसकी ऑफिस है और दूसरा टी.वी. उसी प्रोग्राम को कुछेक सेकंड बाद भीतर के ड्राइंग-कम-डाइनिंग हॉल में चला कर रखता है यानी जयंत भाई जब ऑफिस के कमरे से निकलकर खाने के लिए डायनिंग रूम में जाता है, तो भी उसका एक डायलॉग ‘मिस’ नहीं होता हिंदुस्तान के हर टी.वी. सीरियल को वह देखता है और एक-एक चरित्र को अच्छी तरह जानता है इतना तो वह अपने बहु-बेटे को भी नहीं जानता होगा।”23 

लेखिका ने अपने उपन्यास में बताया है कि जन संचार के विभिन्न माध्यम चाहे वह अखबार हो, टेलीविजन हो, कंप्यूटर हो या इंटरनेट| ये सभी माध्यम वर्तमान के भौतिक चकाचौंध एवं बाजारवाद के युग में अपना-अपना हित साधने में लगे हैं। “इक्कीसवीं सदी में एक तरफ कंप्यूटर और मोबाइल हर धोबी-सब्जीवाले और दूधवाले के पास है और बच्चे ‘गूगल’ पर अपना होमवर्क कर रहे हैं, पर टी..वी. में बेजान दारूवाला ग्रह-नक्षत्रों की बातें कर न जाने कितने पैसे कमा रहा है अखबारों में विज्ञापन भरे पड़े हैं जो आपकी हर समस्या को तंत्र-मंत्र-रत्न से एक दिन में सुलझाने का दावा कर रहे हैं इस तरह इस देश में इस सबकी दुकानें बेधड़क चल रही है और शायद इसीलिए कि यहां आप अपने भाग्य के अलावा किसी पर भरोसा नहीं कर सकते।”24

इस प्रकार लेखिका ने स्पष्ट किया है कि ये सभी माध्यम अपनी-अपनी दुकानें खोलकर अधिक से अधिक धन कमाने की होड़ में बैठे हैं। वर्षों के प्रतिष्ठित विविध जन संचार माध्यम भी बाजारवाद की इस अंधी दौड़ में अपनी प्रतिष्ठा खोते नजर आ रहे है - अंग्रेजी अखबारद स्टेट्समैन में एक छोटा-सा विज्ञापन दिया था और ऑर्डरों की भरमार हो गई थी।”25  पत्रकारिता से जुड़े लोग इस तथ्य की पुष्टि करते नजर आते हैं I वरिष्ठ पत्रकार आलोक मेहता बेबाक ढंग से कहते हैं कि   आज  बड़े-से-बड़े  प्रतिष्ठित अखबार और पत्रिकाएं भी अनैतिक विज्ञापनों की बुराई का शिकार हैं इसका सामना अखबार के मालिकों और संपादकों को विवेक का परिष्कार करके ही किया जा सकता है यह परिष्कार नौसिखिया संपादक के प्रभाव वश नहीं हो सकता यह तो तभी होगा जब इस बढ़ती हुई बुराई के खिलाफ उनका अपना विवेक जागृत होगा या जनता की प्रतिनिधि सरकार के नैतिक आदर्शों के प्रति जागरूक होकर उन पर अपना विवेक आरोपित करेगी26

 इस प्रकार लेखिका ने बताया है कि आज के बाजारवाद के दौर में बड़े-बड़े और प्रतिष्ठित जनसंचार के माध्यम भी आपसी प्रतिस्पर्धात्मक माहौल में अपनी साख खोते नजर आ रहे हैं। आज के युग में ये माध्यम नेता, अभिनेता, राजनेता व बड़े-बड़े स्टार से जुड़ी हुई खबरों को बढ़ा चढ़ाकर मसाला लगाकर पेश कर रहे हैं। आज अखबार के फ्रंट पेज पर यही छाए हुए दिखाई देते हैं, जबकि समाज का हाशिये का वर्ग नदारद नजर आता है। “बड़ा बाजार का एक छोटा-मोटा नेता अगर देश के तमाम अखबारों के पहले पन्ने पर पहुंचता है, तो इसमें उसकी समझ और सूझ-बूझ के अलावा उसके पास क्या साधन है ? ...........विरोध-प्रतिरोध कब करना काम करते हैं और कब चुप्पी साध कर बैठ जाना होता है, वह सब जानता है नेता, अभिनेता और उद्योगपति - वह तीनों के काम का आदमी नहीं है, वह इन तीनों को एक सूत्र में बांधनेवाला भी है।”27  

      उदारीकरण के दौर में सोशल मीडिया व उससे जुड़ी उन तमाम परेशानियों को देखकर आज का साहित्यकार भी सजग हो उठा जिसने एक वायरस की भांति पूरे मानव समाज को ग्रसित कर लिया। यह सोशल मीडिया रूपी वायरस धीरे-धीरे मनुष्य के तन-मन-आत्मा व बुद्धि को प्रभावित कर उसे खोखला करने लगा।  लेकिन एक साहित्यकार जो समाज को आईना ही नहीं दिखाता बल्कि उस आईने में दिखने वाली वीभत्स तस्वीरों से भी समाज को रूबरू करवाता है तथा अपने साहित्य के माध्यम से समाज को आगाह करने का कार्य करता हुआ इस लाइलाज बीमारी से समाज को सावधान करता है।

उदारीकरण के दौर में साहित्यकार के लिए यह कार्य चुनौतीपूर्ण रहा है। लेकिन इस चुनौती को स्वीकार कर अपने कथा साहित्य के माध्यम से कथाकार ने समाज को सजग करने का प्रयास किया है कि सोशल मीडिया– फेसबुक, ट्विटर, व्हाट्स एप पर जो भी दोस्त बनाता है वह एक आतंकवादी खुफिया एजेंसी से जुड़ा खतरनाक इंसान भी हो सकता है। क्योंकि यह वह माध्यम है जिन पर अंतरराष्ट्रीय जगत का कोई भी व्यक्तिफेक आईडी बनाकर किसे भी फ्रेंड रिक्वेस्ट भेज सकता है। कथाकार अलका सरावगी अपने उपन्याससच्ची-झूठी गाथा की कथा के माध्यम से इस बात का परिचय करवाती है। उपन्यास का शीर्षक सच्ची-झूठी गाथा ही इस मायावी सोशल मीडिया जगत का बोध करवाता है। कितना आसान है कंप्यूटर, लैपटॉप के पीछे अपना नाम और पता बदल कर कुछ और बन जाना। उपन्यास की नायिका गाथा ऐसे ही सोशल मीडिया (ईमेल, फेसबुक) के जरिए एक ऐसे आतंकवादी व्यक्ति से जुड़ बैठती है जो उसे एक लेखक के नाम से अपना परिचय देकर फ्रेंड रिक्वेस्ट भेजता है। उपन्यास का यह पात्र प्रमित सान्याल जो कि एक लेखक न होकर एक आतंकवादी है जिसके मायावी फेसबुकिया चँगुल में उपन्यास की नायिका व प्रसिद्ध लेखिका फँस जाती है। “गाथा ने सिर कुर्सी पर पीछे टिका आँखें मूँद ली हैं ......... प्रमित सान्याल से उसका परिचय महज एक संयोग था एक ऐसा संयोग जो पिछली बीती हुई दुनिया में असंभव था, और आज की कंप्यूटर-मोबाइल की दुनिया में बहुत आसान और आमफहम।”28 यहाँ अलका सरावगी ने सोशल मीडिया के भयावह परिणाम से लोगों को सचेत व सावधान रहने का संदेश प्रेषित किया है। आज के युवा ने सोशल मीडिया को सोने की नकेल की भाँति धारण कर रखा है  जिससे वह स्वयं ही मुक्त नहीं होना चाहता है। इसी वास्तविकता का चित्रण उपन्यासकार ने अपने उपन्यास में किया है कि साधारण जनता मूर्ख बन रही है तथा सोशल मीडिया की भाँति-भाँति की कम्पनियाँ मालामाल हो रही है - “अरे नहीं वे फिर एक सोने की नकेल बना लेते हैं ना जैसे कि यह इंटरनेट जिसके आर-पार हम अंट-शंट-आयं-बायं बोलते जा रहे हैं और ये कंपनियां मालामाल हो रही है।”29   

सोशल मीडिया की चमक-दमक में फँसी आज की युवा पीढ़ी आँखें मूंदे जिस मार्ग की और बढ़ी जा रही है उसे यह भी नहीं पता कि उसकी मंजिल क्या है ? पहले हर रिश्ते की बुनियाद होती थी। उनका कोई न कोई आधार होता था। रिश्ते आभासी व बेबुनियाद न होकर विश्वास की नींव पर टिके होते थे। आज के दौर में सोशल मीडिया के जरिए आभासी व बेबुनियाद बने रिश्ते जोड़ना तो बहुत आसान गया है| इन माध्यमों से जितना आसानी से रिश्ता बनाया जा सकता है, उतना ही शीघ्रता से थोड़ा भी जा सकता है।

 यांत्रिक माध्यमों से रिश्ता जोड़ने वाले लोग  हाड़-मांस के बने होते हैं। अतः उन पर इनका अंतिम परिणाम के रूप में प्रभावित होना स्वाभाविक है। इन माध्यमों से जुड़े गैरजरूरी रिश्ते मनुष्य की पूरी जिंदगी को ध्वस्त कर सकते हैं। सूचना-क्रांति भी अपने ढंग से राजनीति को सड़कछाप बनाने में योगदान कर रही है| नेता-बिरादरी देश और दुनिया की समस्याओं का कोई ठोस समाधान ढूंढने के बजाय रोजाना किसी मामूली सी बात को लेकर ऐसा गगैर मामूली हंगामा करना चाहती है कि टीवी समाचारों को दिखाने के लिए कुछ मिल सके| बड़े से बड़े मसले को वे टी.वी. कैमरे के आगे की गयी गर्माहट, चटपटी और हमलावर तेवर तथा  हंसी-ठट्ठे से भरी नोकझोंक में उड़ा देते हैं।”30  इन माध्यमों ने मनुष्य से उसका मनुष्य होने का हक भी छीन लिया है। इसकी  पीड़ा  बयां करने में अलका सरावगी अपनी बेबाकी का परिचय देती हैं I वे लिखती हैं - “इस सदी ने आदमी से उसके आदमी होने का हक छीन लिया है टी.वी. अखबारों की आधी सच्ची, अधपकी, गैरजरूरी और बचकानी खबरें ही क्यों, तुम देखो, तो शहर की गुत्थमगुत्था भीड़ में, टेक्नोलोजी को अपने आँख-कान बेचकर आदमी कैसे कीड़े-मकोड़े की तरह जी रहा है तुम्हारे सोच में तुम्हारा अपना क्या है ? तुम्हारा चेहरा, तुम्हारे कपड़े, तुम्हारा खाना,तुम्हारी धार्मिकता या अधार्मिकता, तुम्हारा वोट-कुछ भी तुम्हारा नहीं है तुम खाली एक खोल हो आदमी का तुम्हारे अंदर भूसा भर दिया गया है।”31 

उपन्यास के इस अंश में लेखिका ने टेक्नोलोजी (सोशल मीडिया) के विपरीत प्रभावों का चित्रण कर बेबाक रूप में कर कहा है कि मनुष्य ने अपने आपको टेक्नोलॉजी के हवाले कर दिया है। इसने मनुष्य के दिमाग में भूसा भर दिया है तथा मनुष्य महज अपने शरीर के खोल को ढोता हुआ जी रहा है। सोशल मीडिया ने बेशक आज की युवा पीढ़ी को अपनी योग्यता दिखाने का मंच प्रदान किया है। इसके द्वारा कोई भी साधारण से साधारण व्यक्ति अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन कर रातों-रात प्रसिद्धि प्राप्त कर सकता है। लेकिन साथ ही इस माध्यम ने फेक न्यूज़ को भी बढ़ावा दिया है। जिससे आज की अति व्यस्त दिनचर्या में उन्हें पढ़ने, सुनने, देखने से समय की बर्बादी होती है। “इसलिए भी हम अभिशप्त हैं कि हमें वह सब सुनना, पढ़ना और देखना पड़ता है जो हमारे न काम का है,न जिस पर हम भरोसा कर सकते हैं यकीन न हो, तो एक घंटा टी.वी. के चार चैनलों पर न्यूज़ सुनिए और बताइए कि उसमें कितना कचरा है।”32

           इस प्रकार अलका सरावगी ने अपने इन तीनों उपन्यासों में आज की मीडिया के बहुआयामी पहलुओं को उपस्थित किया है I ऐसा लगता है कि अब लोगों के बीच  मीडिया नहीं है बल्कि  मीडिया के बीच लोग हैं I मीडिया की सशक्तता हर क्षेत्र में बढ़ी है I इसके सकारात्मक और नकारात्मक दोनों पहलू हैं I लेकिन कथाकार ने समाज के प्रति जबाबदेही निभाते हुए विशेष रूप से इसके नकारात्मक अंदाज को चित्रित करते हुए पाठकों को सचेत करने का काम किया है I जनसंचार के विभिन्न माध्यमों का उपयोग मनुष्य जीवन को प्रगतिगामी  बनाने, सांस्कृतिक जीवन मूल्यों की रक्षा करने व समाज में व्यापक सरोकारों को समझने में किया जाता रहा है। लेकिन आज के बढ़ते बाजारवाद का प्रभाव इन माध्यमों पर भी पड़ा है I इस कारण भावनाओं का उपयोग भी धन-हित के लिए किया जाने लगा है I आज भी जनसंचार के विभिन्न माध्यमों में जनसरोकार को लेकर एक प्रकार की कमी का अहसास दिख जाता है I अलका सरावगी के ये उपन्यास कुछ इसी तरह के संकेत छोड़ते हैं I

सन्दर्भ

1-       अलका सरावगी : एक ब्रेक के बाद, राजकमल प्रकाशन, 2008,पृ. 11

2-       कृष्णदत्त पालीवाल : उत्तर आधुनिकता और दलित साहित्य, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ.14

3-       अलका सरावगी : एक ब्रेक के बाद, राजकमल प्रकाशन, 2008,पृ. 15

4-       वही, पृ.55-56

5-       वही,  पृ.68

6-       प्रांजलि बंधु : भारतीय प्रसार माध्यम, विदेशी पूंजी की गुलामी का दौर, अनुवाद-विजय प्रकाश, प्रथम संस्करण 2006, संवाद प्रकाशन, मुम्बई : मेरठ पृ. 107-108

7-       अलका सरावगी : एक ब्रेक के बाद, राजकमल प्रकाशन, 2008,पृ.59-60

8-       वही, पृ.83

9-       वही , पृ.72

10-   वही ,पृ.117

11-   वही ,पृ.120

12-   वही, पृ.151

13-   वही, ,पृ.153

14-   प्रसून वाजपेयी : ब्रेकिंग न्यूज़,  वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2006, पृष्ठ 19

15-   वही, पृ.158

16-   वही , पृ.160

17-   अलका सरावगी: जानकीदास तेजपाल मेंशन, राजकमल प्रकाशन, 2010, पृ. 73

18-   वही , पृ. 74

19-   वही, पृ. 75-76.

20-   वही, पृ. 78

21-   वही, पृ. 79

22-   वही , पृ. 80

23-   वही , पृ. 88

24-   वही , पृ. 90

25-   वही , पृ. 144

26-   आलोक मेहता : समय के साथ बदलते तेवर, राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत, नई दिल्ली, 2006, पृ. 9

27-   अलका सरावगी: जानकीदास तेजपाल मेंशन, राजकमल प्रकाशन, 2010, पृ. 168

28-   अलका सरावगी : एक सच्ची-झूठी गाथा, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2018, पृष्ठ 11

29-   वही , पृष्ठ 91

30-   मनोहर श्याम जोशी : सावधान ! लोकतंत्र खतरे में है, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2003, पृ.150

31-   अलका सरावगी : एक सच्ची-झूठी गाथा, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2018,, पृष्ठ 13

32-   वही , पृष्ठ 11

मैना शर्मा

शोधार्थी, हिंदी विभाग, मोहन लाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर

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