शोध : एनसीएफ-2005 पर आधारित माध्‍यमिक स्‍तर के हिन्‍दी पाठ्यक्रम में मध्‍यकालीन बोध / अनुसुइया शर्मा और डॉ. प्रवीण दोसी


एनसीएफ-2005 पर आधारित माध्‍यमिक स्‍तर के हिन्‍दी पाठ्यक्रम में मध्‍यकालीन बोध / अनुसुइया शर्मा और डॉ. प्रवीण दोसी


शोध सार -


    संस्‍थानिक शिक्षा पद्धति में भाषा-शिक्षण मुख्‍यत: भाषा के लिखने और पढ़ने के व्‍यवहार पर केन्द्रित है। बोलना और सुनना पारिवारिक और सामाजिक जीवन के दायरे में अनुकरण की सहज प्रक्रिया में सम्‍पन्‍न होता है। भाषा शिक्षण का माध्‍यमिक स्‍तर बोलने, सुनने, पढ़ने और लिखने के कौशल के साथ ही आलोचनात्‍मक दृष्टि के बीजवपन की अपेक्षा भी करता है। राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा-2005[i] ज्ञान का समग्र आनंद, बहुभाषिकता की प्रेरणा और मातृभाषाओं के प्रति संवेदनशीलता के लिए प्रतिबद्ध है। इसके साथ ही पाठ्यसामग्री से सामाजिक समरसता की भावना, शांति की कामना, लोकतांत्रिक भावबोध, न्‍यायपूर्ण संस्‍कृति और समाजीकरण के भावबोध की अपेक्षा की गई है। भाषा शिक्षण की आधार सामग्री की आपूर्ति साहित्यिक रचनाओं से होती है। हिन्‍दी साहित्‍य में अध्‍ययन की सुगमता के लिए आदिकाल, मध्‍यकाल और आधुनिक काल का वर्गीकरण किया गया है। आधुनिक काल की प्रधान प्रवृत्ति गद्य-साहित्‍य की रही है। पद्य शिक्षण की सामग्री के लिए आदिकालीन और मध्‍यकालीन रचनाओं की सहायता भी ली जाती है। आधुनिक कविता की पृष्ठभूमि के लिए मध्‍यकाल की कविता का परिचय आवश्‍यक है। हिन्‍दी की खड़ीबोली की कविता मध्‍यकाल की कविता का ही विस्‍तार और विकास है। इसलिए काव्‍य-शिक्षण की निरंतरता में मध्‍यकाल की कविता का पाठ्यसामग्री में महत्‍वपूर्ण स्‍थान है। मध्‍यकाल की भक्ति और रीति की कविताओं से मध्‍यकालीन बोध का आधार तैयार होता है। राष्‍ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद् के माध्‍यमिक स्‍तर के पाठ्यक्रम में कबीर, ललद्यद, रसखान, सूरदास और तुलसीदास की रचनाओं से मध्‍यकाल के भक्ति विषयक संदर्भ उजागर होते हैं और देव की कविता रीतिकालीन पद्धतियों का परिचय देती है। रचनाएँ अपेक्षित भावबोध का प्रतिनिधित्‍व तो करती ही हैं, भाषा की सुकुमारता, गेयता और सौन्‍दर्य से परिचित होने का माध्‍यम भी बनती हैं। सगुण और निर्गुण की विविध भावधाराओं में मानवीय मूल्‍यों को सर्वोपरि रखा गया है। भक्तिकाल की कविता सद्व्‍यवहार के लिए प्रेरित करती है।  काव्‍यशिल्‍प और भावबोध दोनों ही स्‍तरों पर मध्‍यकाल की चयनित रचनाएँ राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की  रूपरेखा-2005 के सुझावों और अपेक्षाओं को पूरा करती है।

 

बीज-शब्‍द- राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा (एनसीएफ)-2005, माध्‍यमिक स्‍तर, भाषा-शिक्षण, हिन्‍दी पाठ्यक्रम, मध्‍यकालीन बोध, सगुण धारा, निर्गुण धारा, महाकाव्‍य बोध।

 

परिसीमन-

     माध्‍यमिक स्‍तर का आशय उच्‍च प्राथमिक कक्षा-8 के बाद दो वर्षीय अध्‍ययन प्रणाली कक्षा-9 और कक्षा-10 से है। पाठ्यक्रम का आशय माध्‍यमिक स्‍तर की दो वर्षीय अध्‍ययन प्रणाली कक्षा-9 और कक्षा-10 में हिन्‍दी भाषा के प्रथम भाषा के रूप में शिक्षण के लिए प्रस्‍तावित पाठ्यक्रम से है, जिसका उल्‍लेख पाठ्यक्रम के रूप में किया गया है। भाषा-शिक्षण का आशय प्रथम भाषा के रूप में हिन्‍दी भाषा के शिक्षण से है। मध्‍यकालीन बोध का आशय हिन्‍दी साहित्‍य के काल-विभाजन (रामचन्‍द्र शुक्‍ल)[ii] के अनुरूप मध्‍यकाल के साहित्‍य के बोध से है।


शोध - प्रविधि - 

    शोध-आलेख में व्‍याख्‍यात्‍मक और ऐतिहासिक समीक्षा-पद्धति के आधार पर  विषयवस्‍तु के विश्‍लेषण की प्रविधि अपनाई गई है।


मूल आलेख -


     भाषा अभिव्यक्ति का प्राचीनतम माध्यम है। मनुष्य सभ्यता ने सम्प्रेषण के लिए समय के साथ अनेक भाषा माध्यमों और रूपों का निरंतर विकास किया है। समय के साथ इन विकसित माध्यमों और रूपों के शिक्षण और अभ्यास के लिए विशिष्ट पद्धतियाँ भी अपनाई जाने लगी। लोक चेतना भी अभिव्यक्ति के अपने अलग माध्यमों के साथ विकसित होती रही। भाषा शिक्षण के सांस्थानिक माध्यमों के साथ ही वैधानिक प्रावधानों की आवश्यकता भी महसूस की जाती रही है। शिक्षण के लिए पाठ्यक्रम की रूपरेखा की भूमिका भी निर्विवाद रूप से महत्वपूर्ण है। 1986 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति के तहत शिक्षा के लिए एक राष्ट्रीय प्रणाली की रचना करने के निरंतर प्रयास किए जा रहे हैं। इस शिक्षा प्रणाली से यह अपेक्षा की गई कि वह अकादमिक घटकों के सामान्य आधारभूत मूल्यों का प्रतिनिधित्व करे। शिक्षण संस्थान, उनका पाठ्यक्रम और पद्धतियाँ भाषा के अध्ययन और शिक्षण का एक नियोजित वातावरण निर्मित करती है। इसी के समानांतर शिक्षार्थियों की अभिव्यक्ति में एक खास तरह की बेबाकी होती है। भाषा शिक्षण उसे निश्चित आकार प्रदान करता है। शिक्षण की विभिन्न पद्धतियों के साथ शिक्षार्थियों के लिए स्वयं को अभिव्यक्त करने का कौशल विकसित होता है। अभिव्यक्ति के इस अपरिभाषित दायरे में शिक्षक और शिक्षार्थियों का भावबोध महत्व रखता है। प्रस्तुत शोध आलेख में हिन्दी भाषा शिक्षण हेतु राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा-2005 पर आधारित माध्‍यमिक स्‍तर के हिन्‍दी पाठ्यक्रम में मध्‍यकालीन बोध का विवेचन प्रस्‍तुत करता है। शोध-दृष्टि के संदर्भ में ही यह शोध  आलेख अपने महत्व को विज्ञापित करता है। मनुष्य सभ्यता के विकास में शिक्षण, अध्ययन, अध्यापन और अधिगम की अद्वितीय भूमिका रही है। प्रस्तुत शोध आलेख इस भूमिका के महत्वपूर्ण पक्षों के साथ हिन्‍दी साहित्‍य के मध्‍यकाल की रचनाओं के विविध संदर्भों को सामने रखता है। मानवीय सरोकारों की दृष्टि से भी मध्‍यकाल की रचनाओं का महत्‍व निर्विवाद है। कालांतर में माध्‍यमिक क‍क्षाओं का भावबोध ही उच्‍च-माध्‍यमिक अध्‍ययन के लिए रुचि वैशिष्‍ट्य और पूर्वज्ञान का आधार बनता है। इस दृष्ट‍ि से भी माध्यमिक स्‍तर के पाठ्यक्रम में मध्‍यकाल के बोध का विवेचन आवश्‍यक है।


    माध्‍यमिक स्‍तर का पाठ्यक्रम एक-एक वर्ष के दो सत्रों में विभाजित है प्रथम सत्र, कक्षा-9 और द्वितीय सत्र, कक्षा- 10 ।  राष्‍ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद् ने प्रत्‍येक वर्ष के लिए दो पुस्‍तकें शामिल की है– क्षितिज (भाग-1 और 2) तथा कृतिका (भाग-1 और 2)। कृतिका की आयोजना द्रुत-पठन के लिए की गई है और पारंपरिक गद्य-पद्य शिक्षण के लिए क्षितिज श्रृंखला में दो पुस्‍तकें हैं। भाग-1 कक्षा 9 के लिए और भाग-2 कक्षा 10 के लिए। इन दोनों वर्षों के पद्य शिक्षण में कुल 18 कवियों की रचनाएँ शामिल की गईं हैं। क्षितिज- भाग-1 में  9 कवि हैं जिनमें से 3 कवि कबीर, ललद्यद और रसखान हैं और क्षितिज- भाग-2 में 9 कवि हैं जिनमें से कुल 3 कवि सूरदास, तुलसीदास और देव मध्‍यकाल के हैं। कविता शिक्षण के लिए अनेक पद्धतियों की आवश्‍यकता होती है। पाठ्यक्रम निर्माण समिति के अनुसार –  ‘‘मध्‍यकालीन कविताओं में अलंकार, छंद विधान, तुक आदि के प्रति विशेष आग्रह रहा है जबकि आज की कविता में लय और प्रवाह का महत्‍व है, परंपरागत छंद और तुक आदि का नहीं।’’[iii] राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा-2005 में ज्ञान को स्‍कूल के बाहरी जीवन से जोड़ने की बात कही गई है। मध्‍यकाल की कविता भक्तिभाव की कविता है और भक्ति‍ लोकजीवन में रची बसी है। बाहरी जीवन को कक्षा से जोड़ने के माध्‍यम के रूप में भक्ति की कविता को पाठ्यक्रम में शामिल किया गया है। काव्‍य-शिल्‍प के संदर्भ में अलंकार, छंद विधान और तुक के शिक्षण और अधिगम के लिए मध्‍यकाल की कविता आधारभूत सामग्री उपलब्‍ध कराती है।


    हिन्‍दी साहित्‍य के मध्‍यकाल को दो भागों में विभाजित किया जाता है– पूर्व मध्‍यकाल और उत्‍तर मध्‍यकाल। पाठ्यक्रम में मध्‍यकाल के कुल 6 रचनाकार हैं। जन्‍म के क्रम से ललद्यद (1320-1391 ई.), कबीर (1398-1518 ई.), सूरदास (1478-1583 ई.) तुलसीदास (1532-1623 ई.) और रसखान (1548-1628 ई.) पूर्व मध्‍यकाल अर्थात भक्तिकाल के कवि हैं। उत्‍तर मध्‍यकाल अर्थात् रीतिकाल के एक ही कवि पाठ्यक्रम में शामिल हैं और वे हैं देव (1673-1767 ई.)। भक्तिकाल की रचनाओं में सगुण भक्त‍ि और निर्गुण भक्ति का स्‍वर मिलता है और रचनाकारों ने भी अपने मत और सम्‍प्रदाय की शिक्षाओं पर आधारित कविताओं की रचना बड़े मनोयोग से की है। सूरदास, तुलसीदास और रसखान साकार ईश्वर की आराधना और आराधना पद्धति के रचनाकार हैं तो ललद्यद[iv] (वेदांत) और कबीर (ज्ञानमार्ग) निराकार ईश्‍वर की आराधना और आराधना पद्धति के रचनाकार हैं। यहाँ कालक्रमानुसार उपशीर्षकों के साथ पाठ्यक्रम में शामिल कवियों और उनकी रचनाओं के आधार पर विश्‍लेषण प्रस्‍तुत है।

 

ललद्यद (1320-1391 ई.) -


    भक्तिकाल का विस्‍तार और प्रसार समय और स्‍थान दोनों ही आयामों में विस्‍तीर्ण था। भक्ति‍काल के अखिल भारतीय प्रसार को देश के विभिन्‍न क्षेत्रों के रचनाकारों का संकेत और उल्‍लेख दोनों आवश्‍यक है। पाठ्यक्रम में इसी उद्देश्‍य की पूर्ति के लिए कश्मीरी भाषा की लोकप्रिय संत-कवयित्री ललद्यद की रचनाओं को स्‍थान दिया गया है। ‘‘ललद्यद का जन्म सन 1320 के लगभग कश्मीर स्थित पांपोर के सिमपुरा गांव में हुआ था। उनके जीवन के बारे में प्रामाणिक जानकारी नहीं मिलती। ललद्यद को लल्लेश्वरी, लला, लल योगेश्वरी, ललारिफा आदि नामों से भी जाना जाता है। उनका देहांत सन 1391 के आसपास माना जाता है।’’[v] ललद्यद के चार वाखों का हिंदी अनुवाद पुस्‍तक में शामिल किया गया है, यह अनुवाद मीरांकात ने किया है। पाठेतर सक्रियता के लिए भक्ति की कविता लिखने वाली तमिलनाडु की आंदाल, कर्नाटक की अक्‍क महादेवी और राजस्‍थान की मीरा का परिचय प्राप्‍त करने की अपेक्षा की गई है। विशेषत: इन रचनाकारों के समय और उसकी सामाजिक परिस्थितियों की चर्चा की प्रेरणा भी दी गई है जो मध्‍यकाल के बोध के प्रति संवदेनशील बनाती है। ‘‘ललद्यद की काव्य शैली को वाख[vi] कहा जाता है। अपने वाखों के जरिए उन्होंने जाति और धर्म की संकीर्णताओं से ऊपर उठकर भक्ति के ऐसे रास्ते पर चलने पर जोर दिया जिसका जुड़ाव जीवन से हो। उन्होंने धार्मिक आडंबरों का विरोध किया और प्रेम को सबसे बड़ा मूल्य बताया।’’[vii] ललद्यद ने ईश्वर प्राप्ति की अपनी उत्‍कट इच्‍छा प्रकट की है। वे बाह्य आडंबरों का विरोध करती हैं और आत्‍मज्ञान को मनुष्‍य का सच्‍चा साथी बताती हैं। समभावी अंत:करण से मनुष्‍य अपनी चेतना को उच्‍च स्‍तर तक ले जा सकता है। वे संसार के मायाजाल से बचने की शिक्षा देती हैं। वे अपनी रचनाओं में शुभकर्म के लिए प्रेरित करती हैं और ईश्वर की सर्व व्यापकता को अनुभव करती हैं। ‘‘लोक जीवन के तत्वों से प्रेरित ललद्यद की रचनाओं में तत्कालीन पंडिताऊ भाषा संस्कृत और दरबार के बोझ से दबी फारसी के स्थान पर जनता की सरल भाषा का प्रयोग हुआ है। यही कारण है कि ललद्यद की रचनाएँ सैकड़ों सालों से कश्मीरी जनता की स्मृति और वाणी में आज भी जीवित है। वे आधुनिक कश्मीरी भाषा का प्रमुख स्तंभ मानी जाती है।’’[viii] भक्तिकाल की निर्गुण धारा में ललद्यद की उपस्थिति भक्ति‍ के अखिल भारतीय प्रसार का प्रमाण है और साथ ही लोकचित्‍त की सरल और सहज अभिव्‍यक्ति‍ का अनूठा उदाहरण भी।


कबीर (1398-1518 ई.) -


    ‘‘कबीर के जन्म और मृत्यु के बारे में अनेक किंवदंतियां प्रचलित है। कहा जाता है कि सन 1398 में काशी में उनका जन्म हुआ और सन 1518 के आसपास मगहर में देहांत। कबीर ने विधिवत शिक्षा नहीं पाई थी परंतु सत्संग, पर्यटन तथा अनुभव से उन्होंने ज्ञान प्राप्त किया था।’’[ix]  कबीर के देशाटन पर यहाँ विशेष जोर दिया गया है। सत्‍संग और व्‍यक्तिगत अनुभवों के साथ कबीर की देश-देशांतर की यात्राओं का कबीर की रचनाओं और उनके भावबोध को समझने के लिए बड़ा महत्‍व है। उनकी रचनाओं में अनेक भाषाओं और बोलियों के शब्‍द मिलते हैं। इसका बड़ा कारण उनका देशाटन और सत्‍संग ही है। कवि परिचय में सहजता से दी गई यह सूचना विद्यार्थियों के बोध और तर्क को बढ़ावा देती है। ‘‘कबीर अत्यंत उदार, निर्भय तथा सद गृहस्थ संत थे। राम और रहीम की एकता में विश्वास रखने वाले कबीर ने ईश्वर के नाम पर चलने वाले हर तरह के पाखंड, भेदभाव और कर्मकांड का खंडन किया। उन्होंने अपने काव्य में धार्मिक और सामाजिक भेदभाव से मुक्त मनुष्य की कल्पना की। ईश्वर-प्रेम, ज्ञान तथा वैराग्य, गुरु भक्ति, सत्संग और साधु महिमा के साथ आत्मबोध और जगत बोध की अभिव्यक्ति उनके काव्य में हुई है। कबीर की भाषा की सहजता ही उनकी काव्यात्मकता की शक्ति है। जन भाषा के निकट होने के कारण उनकी काव्य भाषा में दार्शनिक चिंतन को सरल ढंग से व्यक्त करने की शक्ति है।’’[x] माध्‍यमिक कक्षा के स्‍तर पर विद्यार्थियों का इतिहास बोध भी आकार लेने लगता है, ऐसे में वे कबीर के जीवन दर्शन और उसकी कालावधि दोनों को समझते हैं। ‘‘यहाँ संकलित साखियों में प्रेम का महत्व, संत के लक्षण, ज्ञान की महिमा, बाह्य आडंबरों का विरोध एवं अपने भीतर ही ईश्वर की व्याप्ति का संकेत है तो दूसरे सबद में ज्ञान की आँधी के रूपक के सहारे ज्ञान के महत्व का वर्णन है। कबीर कहते हैं कि ज्ञान की सहायता से मनुष्य अपनी दुर्बलताओं से मुक्त होता है।’’[xi] कबीर की रचनाओं में संगीत और गेयता अंतर्निहित है। प्रेम का महत्व, संत के लक्षण, ज्ञान की महिमा और बाह्य आडंबरों का विरोध का पाठ जब काव्‍य के माध्‍यम से ग्रहण किया जाता है तो उसका रोमांच ही अलग होता है। गेयता के कारण यह भावबोध स्‍मृति में सहजता से स्‍थान बना लेता है। लोक जीवन में भी कबीरपंथ की स्‍वीकार्यता और व्‍याप्ति अधिगम को नये स्‍तर पर ले जाती है।


सूरदास (1478-1583 ई.) -


    सूरदास ने कीर्तन के गीतों की परंपरा को अपने रचना कर्म से समृद्ध किया। सूरसागर के भ्रमरगीत के पदों के माध्‍यम से काव्‍य-शैली, कथन, भाव-योजना और व्‍यंजना का अध्‍यापन सहज ही किया जा सकता है। ‘‘सूरदास का जन्म 1478 ई. में माना जाता है। एक मान्यता के अनुसार उनका जन्म मथुरा के निकट रुनकता या रेणुका क्षेत्र में हुआ जबकि दूसरी मान्यता के अनुसार उनका जन्म स्थान दिल्ली के पास सीही माना जाता है। महाप्रभु वल्लभाचार्य के शिष्य सूरदास अष्टछाप के कवियों में सर्वाधिक प्रसिद्ध हैं। वे मथुरा और वृंदावन के बीच गऊ घाट पर रहते थे और श्रीनाथजी के मंदिर में भजन कीर्तन करते थे। सन 1583 में पारसोली में उनका निधन हुआ।’’[xii] सूरदास की कविता लोकजीवन की कविता है। कृष्‍ण की अवतार-गाथा लोक में व्‍याप्‍त है। उनके जीवन के विविध प्रसंगों से लोकजीवन को सहज शिक्षा मिलती है। ‘‘खेती और पशुपालन वाले भारतीय समाज का दैनिक अंतरंग चित्र और मनुष्य की स्वाभाविक वृत्ति‍यों का चित्रण सूर की कविता में मिलता है। सूर 'वात्सल्य' और 'श्रृंगार' के श्रेष्ठ कवि माने जाते हैं। कृष्ण और गोपियों का प्रेम सहज मानवीय प्रेम की प्रतिष्ठा करता है।’’[xiii] निर्गुण ब्रह्म एवं योग के  उपदेश के स्‍थान पर गोपियाँ प्रेम-मार्ग का चयन करती हैं और उद्धव को ताना मारती हैं कि कृष्ण ने अब राजनीति पढ़ ली। लोकधर्म और राजधर्म के मर्म का संकेत पाठकों को रोमांचित करता है और मध्‍यकाल के राजनीतिक संदर्भों को भी उजागर करता है।

 

तुलसीदास (1532-1623 ई.) -


    रामचरितमानस के रूप में तुलसीदास ने मर्यादा और आदर्श का अमरकाव्‍य रचा है। मध्‍यकाल की परिस्थितियों को तुलसी ने अपने काव्‍य में विशेष स्‍थान दिया है । ‘‘तुलसीदास का जन्म उत्तर प्रदेश की बांदा जिले के राजापुर गाँव में सन् 1532 में हुआ था। कुछ विद्वान उनका जन्म स्थान सोरों (जिला-एटा) भी मानते हैं। तुलसी का बचपन बहुत संघर्षपूर्ण था। जीवन के प्रारंभिक वर्षों में ही माता-पिता से उनका बिछोह हो गया। कहा जाता है कि गुरु कृपा से उन्हें राम भक्ति का मार्ग मिला। वे मानव मूल्यों के उपासक कवि थे। राम भक्ति परंपरा में तुलसी अतुलनीय है। रामचरितमानस कवि की अनन्य राम भक्ति और उनके सृजनात्मक कौशल का मनोरम उदाहरण है। अवधि और ब्रज दोनों भाषाओं पर उनका समान अधिकार था। सन् 1623 में काशी में उनका देहावसान हुआ।’’[xiv]  पाठ्यक्रम में लक्ष्‍मण-परशुराम संवाद के माध्‍यम से रामकथा का परिचय दिया गया है। राम के जीवन के महाकाव्‍य का बोध होता है। जीवन की विविध घटनाओं में राम का महानायकत्‍व शनै:शनै: उभरता है। लक्ष्‍मण और परशुराम के मध्‍य संवाद के माध्‍यम से क्रोध और व्‍यंग्‍य की स्थितियों और उनकी रचनात्‍मक अभिव्‍यक्ति से विद्यार्थियों का परिचय होता है। मध्‍यकालीन कविता के बोध के साथ ही महाकाव्‍य बोध के लिए भी यह पाठ्य सामग्री अनुकूल विषयवस्‍तु उपलब्‍ध कराती है।


रसखान (1548-1628 ई.) -


    रसखान भक्ति की कविता की गेयता के प्रतिनिधि कवि है। सवैया छंद की सिद्ध‍ि ने रसखान की लोकप्रियता में वृद्धि की। ‘‘रसखान का जन्म सन् 1548 में हुआ माना जाता है। उनका मूल नाम सैयद इब्राहिम था और वे दिल्ली के आसपास के रहने वाले थे। कृष्ण भक्ति ने  उन्हें ऐसा मुग्ध कर दिया कि गोस्वामी विट्ठलनाथ से दीक्षा ली और ब्रजभूमि में जा बसे। सन्  1628 के लगभग उनकी मृत्यु हुई।’’[xv] रसखान का कृष्‍ण के प्रति अनुराग और भक्ति की अनूठी अभिव्‍यक्ति‍ इन रचनाओं में मिलती है। कृष्ण की रूप माधुरी, बृज महिमा, राधा कृष्ण की प्रेम लीलाओं का रससिक्‍त वर्णन पाठकों को मुग्‍ध कर देता है। रचनाओं की गेयता से अधिगम में प्रयोग की स्थिति भी बन जाती है। रसखान की कविता की भाषा ब्रज है जो मध्‍यकाल की प्रतिनिधि काव्‍य भाषा है। जो सहज और सरल है और लोकलुभावनी भी है। लोक जीवन में कृष्‍ण के प्रति सखा और माधुर्य दोनों प्रकार की भक्ति‍ की स्‍वीकार्यता है। काव्‍य शिल्‍प की दृष्टि से भी रसखान की रचनाएँ रस, छंद और अलंकार के अध्‍ययन-अध्‍यापन के अनुकूल हैं।


देव (1673-1767 ई.) -


    मध्‍यकालीन भावबोध में उत्‍तर मध्‍यकाल- रीतिकाल की कविता के प्रतिनिधि के रूप में देव की कविता को शामिल किया गया है। भक्ति‍ की कविता के शिल्‍प और भावबोध के उत्‍तरकाल में रीतिकाल की कविता का विकास हुआ और माध्‍यमिक स्‍तर के विद्यार्थियों को कविता के क्रमानुसार विकास का बोध कराने के लिए इस रचना सामग्री को पाठ्यक्रम में शामिल किया गया है। ‘‘देव का जन्म इटावा (उत्तर प्रदेश) में सन 1673 में हुआ था। उनका पूरा नाम देवदत्त द्विवेदी था। देव के अनेक आश्रय दाताओं में औरंगजेब के पुत्र आजम शाह भी थे परंतु देव को सबसे अधिक संतोष और सम्मान उनकी कविता के गुरु ग्राही आश्रय दाता भोगीलाल से प्राप्त हुआ। उन्होंने उनकी कविता पर रीझ कर लाखों की संपत्ति दान की। ...उनकी मृत्यु सन् 1767 में हुई।’’[xvi] देव उत्‍तर मध्‍यकाल के कवि हैं और भक्ति‍काल की उत्‍तरवर्ती काव्‍य प्रवृत्तियों ने जब रीतिकालीन कविता की पहचान ग्रहण की तो देव उसके प्रतिनिधि कवि के रूप में सामने आए। दरबारी जीवन, सामंतों के नाज-नखरे, आश्रय दाताओं की भावनाएँ और आवश्‍यकताएँ सभी का ध्‍यान देव को रखना था और वे अपनी भूमिका के प्रति आश्‍वस्‍त थे। इन सीमित दायरों के बाहर भी उनकी रचनाएँ अपने सहज प्रवाह में काव्‍य-रसिकों को गहरे से छू जाती है। ‘‘संकलित कवित्त-सवैयों में एक और जहाँ रूप सौंदर्य का अलंकारिक चित्रण देखने को मिलता है, वहीं दूसरी ओर प्रेम और प्रकृति के प्रति कवि के भावों की अंतरंग अभिव्यक्ति भी। पहले सवैये में कृष्ण के राजसी रूप सौंदर्य का वर्णन है जिसमें उस युग का सामंती वैभव झलकता है। दूसरे कवित्त में बसंत को बालक रूप में दिखाकर प्रकृति के साथ एक रागात्मक संबंध की अभिव्यक्ति हुई है तीसरे कवित्त में पूर्णिमा की रात में चाँद तारों से भरे आकाश की आभा का वर्णन है। चाँदनी रात की काँति को दर्शाने के लिए देव दूध में फैन जैसे पारदर्शी बिंब काम में लेते हैं, जो उनकी काव्य कुशलता का परिचायक है।’’[xvii]  माध्‍यमिक स्‍तर पर विद्या‍र्थी समकालीन भारत के इतिहास बोध के संदर्भ में भारतीय नवजागरण और समाज सुधार आंदोलन की पृष्‍ठभूमि से परिचित होने लगते हैं। देव का रचना समय आधुनिक काल के बहुत नजदीक का है। साहित्‍य को कालक्रम की दृष्ट‍ि से समझने में सहायक है।


निष्‍कर्ष -


    पाठ्यक्रम में शामिल रचनाओं के माध्‍यम से मध्‍यकालीन कविता के शिल्‍प, भाव-पक्ष और प्रवृत्तियों के प्रति रुचि जागृत होती है। साहित्‍य के मध्‍यकाल से आधुनिक काल में संचरण को संकलित रचनाओं के आधार पर सहज ही समझा जा सकता है। भक्तिकाल, रीतिकाल और फिर आधुनिक काल का साहित्‍य आकार ग्रहण करता है। खड़ी बोली का गद्य और खड़ी बोली की कविता हिन्‍दी साहित्‍य के आधुनिक काल की प्रमुख विशेषताएँ हैं। ‘‘मध्‍यकालीन कविताओं में अलंकार, छंद विधान, तुक आदि के प्रति विशेष आग्रह रहा है जबकि आज की कविता में लय और प्रवाह का महत्‍व है, परंपरागत छंद और तुक आदि का नहीं।’’[xviii] राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा-2005 में ज्ञान को स्‍कूल के बाहरी जीवन से जोड़ने की बात कही गई है। मध्‍यकाल की कविता भक्ति भाव की कविता है और भक्ति‍ लोकजीवन में रची बसी है। बाहरी जीवन को कक्षा से जोड़ने के माध्‍यम के रूप में भक्ति की कविता को पाठ्यक्रम में शामिल किया गया है। काव्‍य-शिल्‍प के संदर्भ में अलंकार, छंद विधान और तुक के शिक्षण और अधिगम के लिए मध्‍यकाल की कविता आधारभूत सामग्री उपलब्‍ध कराती है। मध्‍यकाल की रचनाओं में इनकी उपस्थिति को पहचाना जा सकता है और रचना-शिल्‍प के स्‍तर पर मध्‍यकाल का यही बोध इतिहास-बोध के लिए सहायक साबित होता है। मध्‍यकाल के रचनाकार चौदहवीं शताब्‍दी से अठारहवीं शताब्‍दी तक विस्‍तृत हैं। समय की सीमा के अतिरिक्‍त मध्‍यकालीन कविता अपने विस्‍तार में अखिल भारतीय है। संकलित पाठ्य सामग्री मध्यकालीन बोध के अपेक्षित संदर्भों की पूर्ति करती है।


संदर्भ -


[i].  राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा- 2005, राष्‍ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद्, नयी दिल्‍ली।  

[ii].  आदिकाल (वीरगाथा काल संवत् 1050 से 1375), पूर्व मध्‍यकाल (भक्तिकाल संवत् 1375 से 1700) उत्‍तर मध्‍यकाल (रीतिकाल संवत्. 1700 से 1900) आधुनिक काल (गद्यकाल संवत्. 1900 से अद्यतन)  आचार्य रामचन्‍द्र शुक्‍ल, काल विभाग, हिन्‍दी साहित्‍य का इतिहास, पृ.1, श्‍याम प्रकाशन, जयपुर, संस्‍करण-2002 

[iii].  क्षितिज, भाग-2, कक्षा-10, ‘पाठ्यक्रम के लिए हिंदी की पाठ्यपुस्‍तक, पृ. vii,  राष्‍ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद्, नयी दिल्‍ली, प्रथम संस्‍करण, जनवरी-2007 

[iv].  वेदराही, ललद्यद, डोगरी से लेखक द्वारा स्‍वयं अनूदित, पृ.6,  नेशनल बुक ट्रस्‍ट, नयी दिल्‍ली, प्रथम संस्‍करण, जनवरी-2008 

[v].  क्षितिज, भाग-1, कक्षा-9,  पाठ्यक्रम के लिए हिंदी की पाठ्यपुस्‍तक, पृ. 95,  राष्‍ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद्, नयी दिल्‍ली, प्रथम संस्‍करण, जनवरी-2006 

[vi]. ललद्यद के वाख़ काव्‍य शिल्‍प का एक प्रकार है। दोहा, चौपाई, कवित्‍त और पदों की तरह यह भी प्रसिद्ध हैं।

[vii].  क्षितिज, भाग-1, कक्षा-9,  पाठ्यक्रम के लिए हिंदी की पाठ्यपुस्‍तक, पृ. 95,  राष्‍ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद्, नयी दिल्‍ली, प्रथम संस्‍करण , जनवरी-2006 

[viii].  क्षितिज, भाग-1, कक्षा-9,  पाठ्यक्रम के लिए हिंदी की पाठ्यपुस्‍तक, पृ. 95,  राष्‍ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद्, नयी दिल्‍ली, प्रथम संस्‍करण , जनवरी-2006 

[ix].  क्षितिज, भाग-1, कक्षा-9, ‘पाठ्यक्रम के लिए हिंदी की पाठ्यपुस्‍तक, पृ. 89,  राष्‍ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद्, नयी दिल्‍ली, प्रथम संस्‍करण, जनवरी-2006 

[x].  क्षितिज, भाग-1, कक्षा-9,  पाठ्यक्रम के लिए हिंदी की पाठ्यपुस्‍तक, पृ. 89,  राष्‍ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद्, नयी दिल्‍ली, प्रथम संस्‍करण, जनवरी-2006 

[xi].  क्षितिज, भाग-1, कक्षा-9,  पाठ्यक्रम के लिए हिंदी की पाठ्यपुस्‍तक, पृ. 90,  राष्‍ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद्, नयी दिल्‍ली, प्रथम संस्‍करण , जनवरी-2006 

[xii].  क्षितिज, भाग-2, कक्षा-10,  पाठ्यक्रम के लिए हिंदी की पाठ्यपुस्‍तक, पृ. 3,  राष्‍ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद्, नयी दिल्‍ली, प्रथम संस्‍करण, जनवरी-2007 

[xiii].  क्षितिज, भाग-2, कक्षा-10,  पाठ्यक्रम के लिए हिंदी की पाठ्यपुस्‍तक, पृ. 3,  राष्‍ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद्, नयी दिल्‍ली, प्रथम संस्‍करण, जनवरी-2007 

[xiv].  क्षितिज, भाग-2, कक्षा-10,  पाठ्यक्रम के लिए हिंदी की पाठ्यपुस्‍तक, पृ. 10,  राष्‍ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद्, नयी दिल्‍ली, प्रथम संस्‍करण, जनवरी-2007 

[xv].  क्षितिज, भाग-1, कक्षा-9,  पाठ्यक्रम के लिए हिंदी की पाठ्यपुस्‍तक, पृ. 100,  राष्‍ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद्, नयी दिल्‍ली, प्रथम संस्‍करण, जनवरी-2006 

[xvi].  क्षितिज, भाग-2, कक्षा-10,  पाठ्यक्रम के लिए हिंदी की पाठ्यपुस्‍तक, पृ. 19, राष्‍ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद्, नयी दिल्‍ली, प्रथम संस्‍करण, जनवरी-2007 

[xvii].  क्षितिज, भाग-2, कक्षा-10,  पाठ्यक्रम के लिए हिंदी की पाठ्यपुस्‍तक, पृ. 19, राष्‍ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद्, नयी दिल्‍ली, प्रथम संस्‍करण, जनवरी-2007 

[xviii].  क्षितिज, भाग-2, कक्षा-10, ‘पाठ्यक्रम के लिए हिंदी की पाठ्यपुस्‍तक, पृ. vii,  राष्‍ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद्, नयी दिल्‍ली, प्रथम संस्‍करण, जनवरी-2007 


अनुसुइया शर्मा (शोधार्थी)

शिक्षा विभागमोहनलाल सुखाडिया विश्‍वविद्यालयउदयपुर।

9829022995anusuiyasharma1616@gmail.com

 

डॉ. प्रवीण दोसी (शोध निदेशक)

भूतपूर्व प्राचार्य एवं अधिष्‍ठाता,

लोकमान्‍य शिक्षण प्रशिक्षण महाविद्यालय,

डबोकउदयपुर

           अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-35-36, जनवरी-जून 2021, चित्रांकन : सुरेन्द्र सिंह चुण्डावत

        UGC Care Listed Issue  'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL) 

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