शोध : भारतीय रंगमंच में वैकल्पिक रंग दृष्टि के रूप में हबीब तनवीर का रंग मुहावरा / सुनील कुमार

           अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-35-36, जनवरी-जून 2021, चित्रांकन : सुरेन्द्र सिंह चुण्डावत

        UGC Care Listed Issue  'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL) 

भारतीय रंगमंच में वैकल्पिक रंग दृष्टि के रूप में हबीब तनवीर का रंग मुहावरा / सुनील कुमार

 

शोध-सार -

    (भारत में रंगमंच का इतिहास जितना पुराना है उतना ही यहां के रंगमंचीय इतिहास के अतीत और वर्तमान में विरोधाभास दृष्टिगोचर होता है। यह बात र्निविवादात्मक रूप से कही जा सकती है कि भारतीय रंग परम्परा संसार की रंग संस्कृतियों में महत्वपूर्ण स्थान रखती है। किन्तु इतिहास के परिवर्तन के साथ ही यह परम्परा नष्ट भ्रष्ट हो गयी और अवरुद्ध हो गयी। आज के परिवेश में क्या इसका पुर्नचिन्तन हो सकता है और यदि हो सकता है तो किस रूप में हो सकता है। जब यर्थाथवादी रंगमंच आज के परिवेश में पूर्णता हावी हो गया है तो इस रूप में इस दृष्टि को कहाँ तक न्याय मिलेगा और इसके प्रयोग की क्या सीमाएँ होंगी?  इस संदर्भ में हबीब तनवीर के रंगमंच के माध्यम से देखा जाने का यह एक प्रयास है। किन्तु उनका रंगमंच शास्त्रीयता की अपेक्षा लोक के साक्षात्कार को महत्व देता है। उनका रंगमंच पारम्परिक नाट्य का प्रयोगकर्ता होने के साथ साथ यर्थाथवादी रंगमंच को भारतीय रंगमंच के परिप्रेक्ष्य में उचित नहीं मानता। यह यर्थाथवादी रंग सीमाओं से परे भारतीय रंगदृष्टि की तलाश में नये वैकल्पिक रंगमंच का विकल्प रखता हुआ प्रतीत होता है। हबीब तनवीर की नयी रंगदृष्टि लोक को अवलोकित करती है। उनके लिए यह कोई रूढ़ या गंवार परम्परा नहीं है। यह जीवंत परम्परा है। उसके साक्षात्कार के साथ ही भारतीय रंगमंच सम्यकता और टोटेलिटी की ओर अग्रसर हो सकता है। हबीब तनवीर का रंगमंच इसका प्रमाण है। वह आधुनिक भारतीय रंगमंच में लोक के प्रथम प्रयोक्ता तो हैं ही साथ ही वह थिएटर ऑफ रूट्स के पहले हस्ताक्षर भी हैं।)


बीज शब्द - पारम्परिक नाट्य, यथार्थवादी रंगमंच, परम्परा, आधुनिकता और हबीब तनवीर।

    

मूल आलेख -


    भारतीय रंगदृष्टि एक ऐसी दृष्टि है जो रंगमंच को भारतीय जीवन और भारतीय रंगकला के परिप्रेक्ष्य में देखने का एक प्रयास है। आधुनिक रंगमंच के परिप्रेक्ष्य में इसकी आवश्यकता पर यदा कदा रंगकर्मियों तथा रंग आलोचकों का ध्यान इस ओर बार बार जाता है। इसकी पहचान आत्मसाक्षात्कार से प्रत्यक्ष रूप में जुड़ी हुई है। यह आत्मसाक्षात्कार रंगमंच के परिप्रेक्ष्य से देखने की आवश्यकता है। इसके बिना ‘जड़ों के रंगमंच’ की सार्थक पहचान नहीं हो सकती। भारत में अगर आधुनिक रंगमंच की बात की जाए तो इसका सीधा संबंध पाश्चात्य रंगमंच से है। पाश्चात्य रंगमंच के फलस्वरूप ही यहां आधुनिक रंगमंच का निर्माण हुआ। समय समय पर इसकी प्रेरणा पाश्चात्य नाट्य पद्धतियाँ ही रही हैं। पाश्चात्य रंगमंच का प्रवेश भारत में एक विजित शासक के रूप में हुआ। भारत जब अंग्रेज़ों  का उपनिवेश बन गया तो अपने शासन को सुदीर्घ और सुनियोजित ढंग से चलाने के लिये उपनिवेशी शक्तियों ने हमारी परम्पराओं को हीन, रूढ़ आदि करार देकर पिछड़ा घोषित कर दिया। इस प्रकार उपनिवेशी शक्तियों ने न केवल भूमिगत रूप से उपनिवेश बनाया बल्कि भारतीय मानस को भी उपनिवेश बनाया और हमारी ही परम्पराओं के साथ एक सस्ता व्यापार शुरू हुआ। इस व्यापार में भारत की सांस्कृतिक हानि हुई जिसके परिणामस्वरूप भारतीय रंगकला का भी ह्रास होता गया। जैसा कि नेमिचन्द्र जैन लिखते हैं कि “भारत में रंगमंचीय शून्य की स्थिति मानकर ‘सभ्य’ अंग्रेज़ों द्वारा ‘पिछड़े हुए’ भारतीयों को नये सिरे से रंग संस्कृति में दीक्षित करने का या स्वयं भारतीयों द्वारा इस संस्कृति को हासिल करने का अभियान चल पड़ा।’’[i]  इस तरह जो रंगमंच यहाँ विकसित हुआ वह मूल भारत के शास्त्रीय और पारम्परिक रंगमंच से पूर्णतया भिन्न है, वह पश्चिम की ही नकल था। भारतीय चिंतन और रंगकला का उद्देश्य मनुष्य की विभिन्न स्थितियाँ, अवस्थाओं और भावों के द्वारा आनंद और रस की स्रष्टि है वहीं पश्चिमी नाटक का उद्देश्य जीवन के संघर्ष को दिखाना है और बिना किसी संघर्ष के नाटक की कल्पना ही नहीं जा सकती।


    भारत में मुख्यता दो प्रकार के ही रंगमंच सक्रिय रहे हैं, एक जिसे संस्कृत रंगमंच कहा जाता है और दूसरा लोक रंगमंच जिसे जगदीशचन्द्र माथुर परम्पराशील रंगमंच का नाम देते हैं। संस्कृत रंगमंच समय के अवसान के साथ धूमिल हो गया जिसके पीछे राजनीतिक कारण थे किन्तु लोक रंगमंच आज तक अपनी अस्मिता को जीवित रखे हुए है। बुद्धिजीवियों ने इन दोनों नाट्यधाराओं पर पिछड़ेपन की मुहर लगाकर रंगमंचीय डिस्कोर्स से ही निष्कासित कर दिया। इस प्रकार जिस लीगेसी के अर्न्तगत आधुनिक भारतीय रंगमंच का उदय हुआ वह पश्चिम से प्रेरित था न कि भारतीय सौंदर्यशास्त्र से। यही कारण है कि आज़ादी के बाद भारतीय रंगचेताओं ने अपनी जड़ों की ओर देखना शुरू किया क्योंकि जड़ें ही आपकी नींव हो सकती हैं जहाँ से आप अपने सुंदर भवन का निर्माण कर सकते हैं। रतन थियम मानते हैं कि ‘‘कोई भी चीज़ अपनी जड़ों के बगैर उग नहीं पाती’’[ii] । यही कारण है कि जब भारतीय रंगचेता अपनी जड़ों की ओर जाने का प्रयास करते हैं तो वह अपनी जड़ों का साक्षात्कार या तो नाट्यशास्त्र के माध्यम से करते हैं या तो लोक रंग की अविरल परम्परा में अपनी अस्मिता का दर्शन करते हैं। हबीब तनवीर का रंगमंच इसका साक्षी है जिनका रंगकर्म लोकरंग में फलीभूत होता है। यह लोक ही उनकी रंगचेतना का हस्ताक्षर है। कई बुद्धिजीवियों ने लोक की प्रयोगशीलता को लेकर कई सवाल पैदा किए किन्तु हबीब तनवीर के रंगकर्म ने यह सिद्ध किया कि लोक आउटडेटेड नहीं है। इसका यह कारण है कि यह लोक पाश्चात्य के लोक से भिन्न है वह भी खासकर रंगमंच के संदर्भ में। परम्परा से अलगाव में रंगमंच की स्थिति कृत्रिम और आरोपित प्रतीत होती है आधुनिक भारतीय रंगमंच को इससे कतराने की बजाए इससे साक्षात्कार में ही भलाई हो सकती है और भारतीय रंगमंच के परिप्रेक्ष्य में सम्यक रंगमंच की नींव स्थापित हो सकती है। हबीब तनवीर का मानना था कि ‘‘जब तक हम अपनी परम्पराओं की ओर नहीं लौटेंगे और दुनिया को अपनी परम्पराओं की जानकारी नहीं देंगे, तब तक हम अभिव्यक्ति का वह स्वरूप विकसित नहीं कर सकेंगे जो आज के तकनीकी युग में ज़रूरी है, जहाँ नए किस्म की मांग बढ़ रही है। इसलिए जहाँ तक शैली, तकनीक और प्रस्तुतिकरण का प्रश्न है, हमें कुछ ऐसा चाहिए जो देशज हो, अपनी सम्पूर्णता में देशज हो। लेकिन साथ ही कथ्यात्मक रूप से विश्वजनीन, आधुनिक, समसामयिक हो, हमारे अपने युग का हो, इस स्पेस एज का हो।”[iii]  इस प्रकार परम्परा में आधुनिक विचार निहित होने की पूरी संभावना होती हैं। परम्परा और आधुनिकता के बीच आपसी संवाद आवश्यक है। साठ के दशक के बाद जब नाटककारों ने अपनी रंग अस्मिता पर चिंतन करना शुरू किया तो इस दिशा में जो रंगमंच हमारे सामने आया इसे नये मुहावरे का रंगमंच कहा गया। सुरेश अवस्थी के शब्दों में ‘‘मौटे तौर पर हिन्दी में इस नये मुहावरे की शुरूआत 1954 में हबीब तनवीर द्वारा लिखित और निर्देशित ‘आगरा बाज़ार’ से होती है।”[iv]  यह एक ऐसा नाटक है जिसमें मेनस्ट्रीम के भारतीय रंग इतिहास में पहली बार यथार्थवादी रंगमंचीय तत्वों को नकारा गया और लोक रंग की परम्परा में इस नाटक को प्रस्तुत किया गया। इस नाटक के प्रर्दशन के साथ ही भारतीय रंगमंच में नयी उथल पुथल मच गई और विद्वानों का एक ऐसा वर्ग भी सामने आया जिसने इसे नाटक होने की फेहरिस्त से ही खारिज कर दिया। इस प्रकार हबीब ने इस नाटक के माध्यम से एक नई ज़मीन जोड़ी और एक नया मुहावरा भारतीय रंगमंच को प्रदान किया जो भारतीय रंगमंच में एक नई शैली के रूप में विकसित हुआ। ‘आगरा बाज़ार’ की पहल में भारतीय रंगमंच में जड़ों का उत्खनन आरम्भ हो गया जिसके फलस्वरूप आगरा बाज़ार, चरनदास चोर, घासीराम कोतवाल, नागमंडल, बरनम वन, हयवदन, मध्यम व्यायोग, चक्रव्यूह, मिट्टी की गाड़ी आदि नाटक हमारे सामने आते हैं जिन्होंने क्षेत्रीय धरातल के साथ साथ अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति अर्जित की।


    यद्यपि‘नया थिएटर’ रंगमंडल की बात की जाए तो इसकी स्थापना हबीब तनवीर के द्वारा 1959 में की गई थी। यह रंगमंडल जैसे कि नाम से ही ज्ञात होता है कि ‘नया’। यह नया क्या है? यह रंगमंडल लोक कलाकारों, भाषा, संरचना और यथार्थवादी रंगशैली की अपेक्षा लोक शैली में रंग क्रियाकलापों में संलग्न था। छत्तीसगढ़ के रायपुर में जन्में हबीब तनवीर वह नाम है जिसने रंगमंच की दुनिया में जड़ हो रही परम्परा के विरुद्ध अपनी आवाज़ को बुलंदी दी। इनके नाटको व रंगमंच में जो सांस्कृतिक नवोन्मेष, जड़ों की ओर जाने का प्रयास और परम्परा के साथ साक्षात्कार दिखाई पड़ता है वह कोई पुरातनपंथी संकल्पना या चेतना नहीं है। यह पश्चिम के नव-उपनिवेशवाद व नव-साम्राज्यवाद के विरुद्ध एक जाग्रत चेतना है। जिसके परिणामस्वरूप रंगचेताओं ने नाट्यशास्त्र और परम्पराशील नाट्यों की ओर झाँकने के सारे किवाड़ खोल दिए। जिन पारम्परिक शैलियों को स्वतंत्रता के पहले पतनशील व अनगढ़ मानकर तिरस्कृत किया गया था ख़ासतौर से आज़ादी के बाद हमारे देश का अभिजात्य वर्ग अंग्रेज़ी सभ्यता और विचारों से इतना आक्रांत था कि गांव की संस्कृति को वह हेय की द्रष्टि से देखते थे वही सन साठ के दशक में अपना विशेष स्थान बनाते जाते हैं। इसी प्रकार के प्रयोग हबीब ने अपनी रंग मंडली ‘नया थिएटर’ में ‘नाचा’ के माध्यम से किये। हबीब अपने रंगमंचीय जीवन के आरम्भ के दिनों में ‘इप्टा’ के साथ जुड़े थे। यहीं से पहले पहल वह लोक नाट्य रूपों से परिचित हुए। उन्होंने विदेश से रंगमंच की शिक्षा ग्रहण की जिसमें रॉयल अकेडमी ऑफ ड्रामेटिक आर्टस् (राडा), ब्रिस्टल ओल्ड विक थिएटर आदि रंग पीठ उल्लेखनीय हैं। वह जिस प्रकार के रंगमंच का अध्ययन करके आये थे वह पूर्णता विदेशी प्रशिक्षण पर आधारित था किन्तु अपनी सृजनात्मकता को लेकर वह सतर्क थे। देश विदेश का रंगमंच देखने के बाद उन्होंने लोक रूपों लोक कलाकारों के साथ काम करने का निर्णय लिया। उनका मानना था कि ‘‘ठेठ हिन्दुस्तानी तरीके से थिएटर करने में हमारी आइडेंटीटी हो सकती है और कोई जगह बन सकती है। थिएटर को मीनिंगफुल सार्थक बनाया जा सकता है। नक़ल करना निहायत ग़़लत हैं।”[v] 


इस प्रकार हबीब तनवीर जब स्वदेश अपने रंगानुभवों का पिटारा लेकर आये तो उन्होंने लोक कलाकारों के साथ काम करने का निश्चय कर लिया और नया थिएटर ऐसे ही कलाकारों से भरा हुआ था। जिसमें कोई आदिवासी है, कोई दलित है, कोई जनजातीय है। जो कलाकार होते हुए भी अपनी कृषि व अन्य व्यवसायों से जुड़े हुए हैं। उन्हें इन लोक कलाकारों के साथ काम करते हुए लग रहा था कि भारतीय रंगमंच के पुनर्परिष्कार का माध्यम इस प्रकार के अभिनेता हो सकते हैं जिनकी अभिनय क्षमता, नृत्य तथा संवाद आदि पारम्परिक रंगमंच के प्राण तत्व हैं। हबीब तनवीर इन लोक कलाकारों के बारे में कहते हैं कि ‘‘छत्तीसगढ़ के उन कलाकारों के साथ काम करके मुझे लगा कि ये तो कमाल के आर्टिस्ट हैं। नाच भी लेते हैं, गा भी लेते हैं, अभिनय कर लेते हैं, बिना किसी संकोच के अनहिबिटेड- मुझे इसी टोटेलिटी की तलाश थी, टोटल थिएटर की”।[vi]  इनके नाटक इंप्रोवाइज़ेश्न पर आधारित थे। ये तथाकिथत आलेखीय संरचना का हिस्सा नहीं बने जो कि आज के नाटकों का मानक रूप है। इनके नाटकों की बनावट ठीक वैसी है जैसा कि पारम्परिक नाटकों की होती थी जो मौखिक परम्परा का अटूट हिस्सा हुआ करते हैं, जो पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित हुआ करते थे। इस प्रकार इनका रंगमंच टोटिलिटी के इस नये रूप में वैकल्पिक रंगमंच के रूप में एक नया मुहावरा था। इनके नाटकों पर आधुनिकता के संबंध में कई प्रश्न चिह्न उठाये गये जिस कारण उनके कई नाटक असफ़ल भी रहे और कई ऐसे नाटक भी हुए जिन्होंने वैश्विक धरातल पर अपनी अमिट छाप लगाई जिसमें ‘चरनदास चोर’ का नाम लिया जा सकता है। इनके नाटक परम्परा से ग्रस्त नहीं हैं और न ही किसी रूढ़ परम्परा का अवलोकन करते हैं इस संदर्भ में यह समझा जाना चाहिए कि इनके नाटकों की रंगशैली पारम्परिक है और जिसे अपनाने के पीछे उनकी अपनी रंगद्रष्टि थी। विदेशी संस्थानों से प्रशिक्षण सीखे हबीब ने यथार्थवादी रंगशैली का अंधानुकरण नहीं किया। उन्होंने भारतीय रंगमंच मे रंग अस्मिता के निमित्त पारम्परिक नाट्यों का अवलोकन किया और लोक के साथ कई प्रयोग किये,  इनके ये प्रयोग केवल लोकनाट्यों व लोक गीत संगीत तक ही सीमित नहीं थे बल्कि लोकथानकों तथा लोक कलाककारों के साथ मिलकर नये मुहावरे की नींव रखी जो उनके निजी मुहावरे की पहचान के रूप में स्थापित हुआ। अभिव्यक्ति का यह नया मुहावरा समसामयिक होने के साथ विश्वजनीन भी है। उनके ही शब्दों में देखा जाए तो वह कहते हैं कि ‘‘यह बात हमें शुरूआती तौर पर ही अब अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि शहरी रंगमंच ने जो स्वरूप हमारे सामने प्रस्तुत किया है वह पश्चिमी थिएटर से माँगा हुआ है और हमारे देश की सामयिक बुनियादी समस्याओं, सांस्कृतिक बुनावट, जीवन पद्धतियों और सामाजिक अपेक्षाओं को पूरा करने में एकदम असमर्थ है। भारतीय संस्कृति के स्वरूप की सही पहचान हमें भारत के देहातों, गांवों और कस्बों में मिलती है”।[vii]  


इस प्रकार उन्होंने अपनी भाषा में, अपनी सांस्कृतिक अस्मिता को ध्यान में रखते हुए, लोक कलाओं, लोकनाट्यों और लोककलाकारों के माध्यम से अपनी सर्जनात्मकता का नया पहलू स्थापित किया। शास्त्र की अपेक्षा उनकी दृष्टि लोक की ओर अधिक रमी। इसका सबसे महत्वपूर्ण कारण यह था कि शास्त्र में तब तक रिवाइवल तो हुआ था किन्तु लोक रंगमंच में जो निरन्तरता विद्यमान थी वह शास्त्र में नहीं थी। वह मध्ययुग में ही रूक गया था। ‘नया थिएटर’ में आधुनिकता नये परिवेश में है, वह इस आधुनिकता को नये ढंग से स्थापित करते हैं। आधुनिकता के बारे में अजीब सी गलतफहमी पाई जाती है। आमतौर पर आधुनिकता को बहुत से लोग कुछ इस तरह मान लेते हैं कि जैसे एक अजीब सी चीज़ है जो कि आसमान से उतरी है। आधुनिकता के लिये यह आवश्यक नहीं है कि हम पश्चिम का मुँह ताकते रहें। यह हमारी ज़मीन में पनप सकती है, इसका अवलोकन परम्परा में भी किया जा सकता है क्योंकि किसी भी विचार का जन्म परम्परा में ही होता है। इसलिये उन्होंने अपने नाटकों में परम्परा का अवलोकन किया और परम्परा में नाटकों का विकास किया किन्तु इससे यह भी नहीं समझा जाना चाहिए कि उनका रंगमंच पारम्परिक है। इनके नाटक परम्परा में आधुनिकता को व्याख्यायित करते हैं। इनके नाटकों में यदि ‘आगरा बाज़ार’ को देखा जाए तो यह भारतीय रंगमंच में एक ऐसा प्रयोग था जिसे अपने समय में कई आलोचनाओं का सामना करना पड़ा। यह नाटक नज़ीर अकबराबादी पर केन्द्रित नाटक है, जिसमें 17 नज़्मों के माध्यम से नाटक की रचना की गई है। यथार्थवादी संरचना से अलग भारतीय रंगमंच की पहली लोक प्रस्तुति है। जिसमें कहीं होली का उत्सव, पतंगबाज़ी, बलदेव जी का मेला आदि से लबरेज़ रंगारंग प्रस्तुति के रूप में यह नाटक शुमार है। इस नाटक की रचना उन्होंने तब की थी जब वह भारत में ही थे उन्होंने तब तक किसी संस्था से विधिवत प्रशिक्षण नहीं लिया था किन्तु वह योरोप से प्रशिक्षित होने पर भारत लौटते हैं तो इसी धारा के रंगमंच करते हैं क्योंकि वह मानते थे कि सांस्कृतिक रूप से वह भारत के हैं और उन्होंने मन में यह ठान लिया था कि रंगमंच में नकल का पहलू नहीं होना चाहिए। इस प्रकार अगर भारतीय रंगमंच का सही रूप यदि विकसित करना है तो जड़ों की ओर लौटना पड़ेगा। यह नाटक उनकी रचना में पहले क्रम पर तो है ही साथ में यह उनका पहला माइलस्टोन भी है।


    इनके किसी भी नाटक को यद्यपि अवलोकन किया जाए तो इनके नाटक इन्हीं निम्न मानकों के आधार पर अपनी समकालीनता को ढूंढ निकालते हैं जिसमें भाषा, कलाकार, शैली आदि बुद्धिजीवियों के लिये निम्न मानक हैं। जिसमें परम्परा का पुट भी है और आधुनिकता भी, जिसमें पारम्परिक सामाजिक ढांचे पर व्यंग्य भी है और समकालीन समस्याओं पर दृष्टिपात भी है। समकालीनता और आधुनिकता के संदर्भ में इनके नाटक ऐसे विमर्शों का भी स्पर्श करते हैं जिन्हें आज की डेट तक मुख्यधारा के साहित्य में स्थान नहीं मिला है चाहे उनमें आदिवासियों से संबंधित उनके राजनीतिक ढांचे का प्रश्न हो, विकास का प्रश्न हो, भीड़तंत्र या लिंचिंग आदि के प्रश्न हों। इस प्रकार उनके नाटक नाटक साहित्य में पथ प्रदर्शक का काम करते हैं। ‘गांव के नांव ससुरार मोर नांव दामाद’ नाटक एक छोटी सी स्किट है जिसे लोक कथाओं के माध्यम से पिरोया गया है। इस नाटक में पहली बार हबीब ने छत्तीसगढ़ी बोली को साहित्यिक माध्यम के रूप में अपनाया और पाया कि बोली के माध्यम से इन कलाकारों के अभिनय में निखार तो आया साथ ही अभिजात्य दर्शक वर्ग भी इस बोली के माध्यम से कम्यूनिकेट कर रहा है। वह भाषा के संबंध में निश्चित थे। उनका मानना था कि ‘‘भाषा का अभिनय के साथ गहरा संबंध होता है और कोई एक्टर एक दूसरी भाषा में जो उसकी मातृभाषा नहीं है- अच्छा अभिनय कर ही नहीं सकता। बात केवल संवाद रटकर बोल लेने की तो नहीं है, भाषा का उतार चढ़ाव, उच्चारण में स्ट्रेस,  वज़न सब सही न हो तो सुनने में बहुत तकलीफ़ होती है। मैं तो भाषा के बारे में बहुत पर्टिकुलर हूँ। जो जुबाँ बोलो, सही बोलो।”[viii]  यही कारण है कि इसके अगले पड़ाव का नाटक ‘चरनदास चोर’ उनका अगला मील का पत्थर साबित हुआ। 


यह नाटक उनकी रचनाधर्मिता का दूसरा मील का पत्थर है। यह सत्य और सत्ता के द्वंद्ध को दर्शाता है, जिसमें सत्य को सत्ता के सामने झुकने को विवश किया जाता है और जब चरनदास अपने जीवन मूल्यों से समझौता नहीं करता तो उसे सत्ता के कोपभाजन का शिकार होना पड़ता है। इसमें अंधविश्वास, धर्मगुरूओं के पाखण्ड, सत्ता की निरंकुशता तो दिखाई ही गई है साथ ही आज के युग में नैतिक मूल्यों, सदाचार तथा सत्य आदि का निर्वाह करने वाले व्यक्ति की त्रासदी को भी रूपायित किया है। माना जाता है कि हबीब के नाटक में वर्णित रानी के रूप में इंदिरा गांधी की निरंकुश सत्ता का ही वर्णन है। सड़क नाटक में हबीब ने आदिवासियों के विकास की समस्या को उठाया है। नाटक में कुछ आदिवासी बताते हैं कि सड़क के आते ही जीव जन्तु, वनस्पति आदि समाप्त होते जा रहे हैं। इतना ही नहीं उनकी संस्कृति में भी बदलाव आ रहा है। इस प्रकार यह नाटक तथाकथित विकास पर एक प्रश्न चिह्न भी उठाता है कि क्या विकास के मायने सभी लोगों के लिये एक से हो सकते है ? हबीब के इस नाटक में इनके  विकास को आदिवासियों के संदर्भ में देखे जाने का आग्रह है। इस प्रकार आधुनिकता का यह पहलू एकरूपता को महत्व देता है और जिसमें अस्मिता और विविधता का लोप होता है। इस प्रकार यह नाटक उपभोक्तावाद पर भी प्रहार है। ‘ज़हरीली हवा’ नाटक में निजीकरण, वैश्विकरण पर एक प्रश्न चिह्न है। यह नाटक मूलतया भोपाल गैस त्रासदी पर आधारित है। जिसमें कार्बाइड इंटरनेशनल कम्पनी हरित क्रांति के नाम पर लोगों का शोषण करती है। इसमें यह दिखाया गया है कि इन मल्टी नेशनल कम्पनियों का उद्देश्य किसी देश का विकास नहीं बल्कि इनका ध्येय केवल मुनाफे तक ही सीमित होता है जिस कारण भोपाल जैसी गैस त्रासदी भारत में होती है जिसका भुगतान गरीब जनता को अपनी जान गंवा कर देनी पड़ती है। देख रहे हैं नैन नाटक में श्रम, शोषण, दासता, कर्म-धर्म, सामंतवाद, एकतंत्र तथा युद्धों के मूलभूत कारणों तथा उनसे उपजे मोहभंग आदि पर प्रकाश डालते हुए दार्शनिकता के उच्चतम सोपानों को छू लेने वाला नाटक है-


देख रहे हैं नैन बावरे, देख रहे हैं नैन

दस घर गिराके मलबे से एक अपना महल बनाया

दस को भूखा मारा दस का भोज अकेला खाया

दस को भी बैचेन किया और, खुद भी रहा बैचेन

देख रहे हैं नैन”[ix]


    एक औरत हिपेशिया‘ नाटक में प्राचीन ग्रीक की एक ऐतिहासिक घटना को आज के युगीन परिवेश में दिखाया गया है। इस नाटक में धर्म परिवर्तन, अल्पसंख्यक विमर्श, अस्मिता, पलायन तथा मॉब लिंचिंग आदि की समस्या को दिखाया गया है। जिसमें हिपेशिया नायिका इस तंत्र का विरोध करती है किन्तु सत्ता के शक्ति के सामने स्वयं को असहाय पाती है। इस पर भी वह अपने आदर्शों का परित्याग नहीं करती जिसका परिणाम यह होता है कि भीड़, जिसे सत्ता का संरक्षण प्राप्त है, उसकी लिंचिंग कर देती है। इसी घटना के माध्यम से नाटककार इस नाटक में बाबरी मस्जिद विध्वंस तथा दंगों पर भी प्रकाश डालते हैं और सियासत से प्रश्न करते हैं-


‘‘देखो अपने बाज़ीगरो, गुरू भी कैसा बेढब था

ऐसा ज़माना इससे पहले, हमने भी देखा कब था

बाबरी मस्जिद के पीछे, सियासत थी या मज़हब था”[x]


    इस प्रकार कहा जा सकता है कि हबीब तनवीर का रंगमंच केवल लोक तक ही सीमित नहीं था। हाँ, इतना अवश्य है कि अपनी रंग अस्मिता के लिये इन्होंने जड़ों की ओर जाने की पहल की और जहाँ इनका साक्षात्कार लोक से होता और इसी के माध्यम से नाटकों का सर्जन किया चाहे वह नाटक का रूप पक्ष हो या कला पक्ष। इस प्रकार यह रंगमंच अपनी परम्परा में आधुनिकता के बीज बोने लगता है और इसे नये ढंग से व्याख्यायित करता है और समकालीन भारतीय रंगजगत में नये प्रकार के रंगमंच का विकल्प भी समकालीन रंगचेताओं के सामने रखता है। जिसके परिणामस्वरूप थिएटर ऑफ रूट्स का सिद्धांत आता है और पारम्परिक शैलियों को पुनः भारतीय रंगमंच में अपनाया जाता है और ब. व कारन्त, के. एन. पन्निकर, रतन थियम, विजय तेंदुलकर तथा गिरीश कार्नाड आदि नाटककार इसी बीज में अपने नाटकों का सर्जन करते है। किन्तु इस रंगदृष्टि में यह बात भी ध्यान रखने योग्य बात है कि ये रंगमंच को सजाने वाले शो-केस तक सीमित न रह जाए इनका सार्थक प्रयोग परम्परा की सार्थकता को सिद्ध कर सकता है। इस प्रकार यह जड़ों से जुड़ा रंगमंच नाट्यशास्त्र की परम्परा से जुड़ता है तथा पारम्परिक नाट्यों की जीवंत परम्परा के साक्षात्कार के साथ जुड़ता हुआ उसके नवीनीकरण के द्वारा इसे समकालीनता प्रदान करता है।


संदर्भ -

 


[i] नेमिचन्द्र जैन : रंग परम्परा भारतीय नाट्य में निरन्तरता और बदलाव, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 1996, पृ. 56

[ii] संगीता गुंदेचा : नाट्यदर्शन, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2012, पृ. 104

[iii] भारतरत्न भार्गव : रंग हबीब  हबीब तनवीर की रंगयात्रा, राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, नई दिल्ली, 2006, पृ.  82

[iv] सुरेश  अवस्थी : ‘रंगमंच का नया मुहावरा और नाट्य परम्परा’, नटरंग, खंड 13, अंक 50-52, मार्च-दिसंबर, 1989, पृ. 182

[v] प्रतिभा अग्रवाल : हबीब तनवीर एक रंग व्यक्तित्व, नाट्य शोध संस्थान, कलकत्ता, 1993,  पृ.  27

[vi] वही, पृ.  31

[vii] भारतरत्न भार्गव : रंग हबीब हबीब तनवीर की रंगयात्रा, राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, नई दिल्ली, 2006, पृ.  43

[viii] प्रतिभा अग्रवाल : हबीब तनवीर एक रंग व्यक्तित्व, नाट्य शोध संस्थान, कलकत्ता, 1993,  पृ.  55

[ix] हबीब तनवीर : देख रहे हैं नैन, पुस्तकायन, नई दिल्ली, 1996, पृ.  36

[x] हबीब तनवीर : एक औरत हिपेशिया भी थी, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2009, पृ.  88


सुनील कुमार

पीएच.डी. शोधार्थीहिन्दी विभागजम्मू विश्विद्यालय, 9622053224

Sunilkthakur092@gmail.com

Post a Comment

और नया पुराने