शोध : तमस उपन्यास की भाषिक संवेदना / प्रदीप कुमार एवं डॉ. सुनीता रानी घोष

तमस उपन्यास की भाषिक संवेदना / प्रदीप कुमार एवं डॉ. सुनीता रानी घोष  

शोध-सार

     भीष्म साहनी के भाषा की प्रमुख विशेषता सहजता और सरलता है। इनकी भाषा में उर्दू, हिन्दी और पंजाबी के शब्दों की बहुलता है। भाषा में सरसता लाने के लिए इन्होंने अपनी रचनाओं मे गीतों का भी प्रयोग किया है। तमस उपन्यास की भाषा में गाली-गलौज के शब्द, आक्रोश युक्त शब्द, संवेदनहीनता की बहुलता दिखाई देती है। वातावरण में संप्रदायिकता का जहर घुल जाने बाद जो लोग आपस मे प्रेम और सौहार्दपूर्ण वार्तालाप का प्रयोग करते थे, वही लोग अशोभनीय, गंदी गालियों और क्रूरतायुक्त भाषा का प्रयोग करने लगते है। भाषा में भय, शंका, आकुलता और आक्रोश व्याप्त दिखाई देता है। 

बीज-शब्द : संप्रदायिकता, अलगाववाद, अमर्यादित भाषा, धर्म परिवर्तन, असुरक्षा, सहजता। 

मूल आलेख 

    भीष्म साहनी एक बड़े रचनाकार इसलिए हैं क्योंकि उनकी भाषा उनकी अनुभूतियों की सशक्त संवाहिका  है। उनकी भाषा जीवन की सजीवता की गवाही देती है। उनकी हिंदी भाषा उर्दू एवं पंजाबी के हाथ में हाथ डालकर चलती है। यही कारण है कि पाठक को बाँध लेने का जो अद्भुत गुण उनकी रचनाओं में है वह विरल है। कल्पना और यथार्थ, अतीत और वर्तमान को एक साथ बुनते हुए ऐसे प्रस्तुत करते हैं कि सब कुछ जीवंत हो जाता है। भीष्म साहनी जी की विशेषता यह है कि वह भाषा को असहज नहीं होने देते क्योंकि भाषा उनके लिए साध्य नहीं है साधन है। साहनी जी के लिए भाव संवेदनाएं महत्वपूर्ण हैं, अनुभूतियां महत्वपूर्ण हैं, इसी कारण भाषा को किसी बाहरी आडंबर की आवश्यकता नहीं पड़ती। यह थोपी हुई कोई चीज नहीं है। तमस के संदर्भ में प्रस्तुत कथन द्रष्टव्य है -     "तमस में एक परंपरागत किस्म की वर्णनबहुलता मौजूद है। उसके पात्रों के निजी व्यक्तित्व से अधिक उनका सामूहिक प्रभाव ही उपन्यास को महत्वपूर्ण बनाता है। वस्तुतः आदमी की सदप्रवृत्तियों पर छा जाने वाला तमस ही इस पूरे उपन्यास पर छाया हुआ है लेखक का सारा कौशल इसी में निहित है कि एक ओर जहाँ उसने इस अंधेरे में छिपे चेहरों की वास्तविकता को उद्घाटित किया है वहीं दूसरी ओर इन चेहरों के पारस्परिक क्रियाकलाप द्वारा घने होते इस अंधेरे के स्वरूप को भी स्पष्ट कर सका है।"[i]

             वैसे तमस उपन्यास पाँच दिन की ही कथा है लेकिन इन पाँच दिनों में आने वाले सभी चरित्र अपने असली रूप को दिखा जाते हैं जिस तरह से आग लगने पर उसे महीनों का समय नहीं चाहिए बस कुछ ही घंटों या कुछ ही दिनों में सब कुछ तहस-नहस कर देती है, इसी तरह दंगे कराने के लिए बहुत बड़े कारण की जरूरत नहीं पड़ती उसके लिए बस एक छोटी सी चिंगारी की आवश्यकता होती है। मुराद अली और नत्थू चमार की वार्तालाप की भाषा से ही स्पष्ट दिखाई देता है कि इनका मंसूबा कुछ साफ नहीं, यह किसी बड़ी साजिश का भाग लगता है। "हमारे सालोत्तरी साहब को एक मरा हुआ सुअर चाहिए डॉक्टरी काम के लिए…. हमने कभी सुअर मारा नहीं मालिक और सुनते हैं सुअर मारना बड़ा कठिन काम है हमारे बस का नहीं होगा हुजूर खाल बाल उतारने का काम तो कर दे मारने का काम तो पिगरी वाले ही करते हैं... पिगरी वालों से करवाना होता तो तुमसे क्यों कहते यह काम तुम ही करोगे और मुराद अली ने पाँच रुपये का चर्मराता नोट जेब से निकालकर नत्थू के जुड़े हाथों के पीछे उसकी जेब में ठूस दिया था।"[ii] यहाँ नत्थू चमार की बातों में छुपी हुई लाचारी नजर आ रही है वह चाहकर भी मना नहीं कर सकता, क्योंकि मुराद अली जैसे लोगों को मना करना जल में रहकर मगर से बैर करने जैसा है और उस पर भी मुराद अली ने उसकी जेब में पाँच रुपये का नोट भी दिया है। अपनी आत्मकथा आज के अतीत में भीष्म साहनी ने लिखा है- "मुझे ठीक से याद नहीं कि कब मुंबई के निकट भिवंडी में हिंदू मुस्लिम दंगे हुए पर मुझे इतना याद है कि उन दंगों के बाद मैंने तमस लिखना आरंभ किया था भिवंडी में दाखिल हुए तो मुझे लगा जैसे मैं उस नगर का दृश्य कहीं देख चुका हूं पर मैंने यहाँ चुप्पी और इस वीराने का ही अनुभव नहीं किया मैंने, पेड़ पर बैठे गिद्धौ और चीलों को भी देखा था। आधे आकाश में फैली आग की लपटों की लौ को भी देखा था। रोंगटे खड़े कर देने वाली चिल्लाहटो को भी सुना था और जगह-जगह उठने वाले धर्मांध लोगों के नारे भी सुने थे, चीत्कार भी सुनी थी। भिवंडी की सूनी गलियों से लौटते हुए मैं तरह-तरह की आवाजें सुनने लगा था।"[iii] साठ के दशक में भारत के कई स्थानों पर सांप्रदायिक दंगे हुए। अहमदाबाद, जबलपुर, जलगाँव, भिवंडी, इसके ज्वलंत उदाहरण थे। इन स्थानों पर अमानुषिक कृत्य के साथ, भाषा का घटिया से घटिया रूप भी देखने को मिला। भाषा अपनी सहजता खो चुकी थी।  "1962 के जबलपुर दंगों ने पूरे राष्ट्र को झकझोर दिया यह आजाद भारत में पहला बड़ा सांप्रदायिक दंगा था। 1969 के बाद अहमदाबाद और गुजरात के दंगों के बाद 1970 में भिवंडी और जलगाँव में दंगे हुए, इस तरह साठ के दशक के अंतिम चरण में साम्प्रदायिक हिंसा का घटिया से घटिया जो रूप नजर आया वह देश में पहले कभी देखने में नहीं आया था।"[iv]

    सांप्रदायिकता का प्रमुख कारण धार्मिक कट्टरपंथ एवं अलगाववाद  की भावना का प्रबल होना होता है। जिस समाज में लोग धर्म को स्वार्थ और राजनीति से जोड़ देते हैं, वहाँ पर ऐसी परिस्थिति उत्पन्न हो जाती है कि लोगों की अमर्यादित भाषा, सोचने का स्वार्थी नजरिया, बात-बात में ही उग्र रूप धारण कर लेना, हिंसा पर उतारू हो जाना दिखाई देने लगता है। "पंजाब में हिंदू और मुसलमान साथ मिलकर रहा करते थे। 1947 से पहले धार्मिक आधार पर समुदायों के बीच किसी बड़ी झड़प की जानकारी नहीं मिलती। पंजाब में बसे हिंदू मूलत: व्यापारी या महाजन थे जिनका वहाँ के खेतिहर वर्ग से घनिष्ठ संबंध था। यह लोग आखिरी वक्त तक पश्चिमी पंजाब से पूरब की ओर आने के इच्छुक नहीं थे। आखिरी समय तक उनको कहीं न कहीं यह उम्मीद थी कि विभाजन टल जाएगा। बंगाल के हिंदुओं के विपरीत पंजाब के सिख विभाजन का अर्थ और उसका यथार्थ बहुत देर से समझ पाए।"[v] ऐसा नहीं है कि कहीं बाहर से लोग आते हैं और मारपीट करते हैं और वातावरण को दूषित करते हैं अपितु अपने आस-पास के ही लोग होते हैं जिनके साथ में अभी कल ही अपना धंधा-व्यापार, प्यार-मोहब्बत की बातें करते थे, वही लोग आज खून के प्यासे हो जाते हैं। खुद को ही विश्वास नहीं होता है कि सामने वाला, बगल वाला या हमारे मोहल्ले वाला हमारे बारे में क्या सोचता है यहाँ तक कि खुद पर भी नियंत्रण नहीं रहता कि हम दूसरों के बारे में सही सोच पाएं। सांप्रदायिकता में सबसे पहले विचारों में जहर घुलता है। अपने आप को बचाना और दूसरे को नष्ट करना लक्ष्य बन जाता है। दूसरे को चोट पहुंचाना चाहे वह बातों के द्वारा हो, भाषा के द्वारा हो, चाहे कार्य या व्यवहार के द्वारा। अपनी किताबसांप्रदायिकता एक प्रवेशिकामें सांप्रदायिक विचारधारा का अर्थ बताते हुए बिपिन चंद्र लिखते हैं- "सांप्रदायिकता का आधार ही यह धारणा है कि भारतीय समाज ऐसे संप्रदायों में बँटा हुआ है, जिनके हित न सिर्फ अलग हैं बल्कि एक-दूसरे के विरोधी भी हैं। अलग-अलग समुदायों के लोग धर्म से परे मामलों में भी एक निश्चित समुदाय की तरह आचरण करेंगे। धर्म से परे इन मामलों में राजनीति भी है।"[vi]

           भीष्म साहनी ने अपने अधिकतर उपन्यासों में भाषा में सजीवता  एवं  सरसता लाने के लिए गीतों का प्रयोग किया है, लेकिन इस तमस उपन्यास में गीतों का प्रयोग वे चाहकर की भी ना कर सके क्योंकि कोई भी चरित्र गीतों को गाने की भावना में नहीं दिखता। सभी में मारने की या मारे जाने की आशंका व्याप्त है केवल एक जगह ऐसी है जहां पर गीतों के एक दो  बोल आ सके हैं वह जगह है कांग्रेसी व्यक्तियों द्वारा प्रभात फेरी का समय


" जरा वी लगन आजादी दी

लग गई जिन्हा दे मन दे विच

ओह मजनूँ बण फिरदे ने

हर सेहरा हर बन दे विच "[vii]

    कांग्रेसियों का रास्ता रोकते हुए एक मुसलमान कहता है कि हम आप सबको अपनी बस्तियों में नहीं जाने देंगे, क्योंकि कांग्रेस हिंदुओं की जमात है इस पर बख्शी जी ने कहा कि देखिए यह अजीज और हकीम भी तो हमारी कांग्रेस के ही साथ जुड़े हैं और मौलाना आजाद भी कुछ दिन तक कांग्रेस के साथ रहे हैं। इस पर वयोवृद्ध मुसलमान ने कहा हमें हिंदुओं से नफरत नहीं है हमें तो उन मुसलमान कुत्तों से नफरत है जो हिंदुओं का साथ देते हैं और हिंदुओं के पीछे दुम हिलाते फिरते रहते हैं। नफरत का नकाब ओढ़े हुई यह भाषा स्पष्ट करती है कि वातावरण में जहर फैलने ही वाला है। "अजीज और हकीम हिंदुओं के कुत्ते हैं। हमें हिंदुओं से नफरत नहीं इनके कुत्तों से नफरत है।…. मौलाना आजाद क्या हिंदू है या मुसलमान वयोवृद्ध ने कहा। वह  तो कांग्रेस का प्रेसिडेंट है । मौलाना आजाद हिंदुओं का सबसे बड़ा कुत्ता है। गांधी के पीछे दुम हिलाता फिरता है जैसे यह कुत्ते आपके पीछे दुम हिलाते फिरते हैं।"[viii]

             विभाजन की कहानी का सबसे कलंकित अध्याय है स्त्रियों के साथ हुई यौन पाशविकता का घिनौना कृत्य। मौखिक इतिहास के सहारे भारत-पाकिस्तान के विभाजन पर विस्तृत काम करने वाली पाकिस्तानी लेखिका यास्मीन खान लिखती हैं- "1947 की सभी भयानक कार्रवाइयों में बलात्कार की शिकार हुई महिलाओं के अनुभव के बारे में लिखना बहुत कठिन है। यह टूटे जिस्म और टूटी हुई जिंदगीयों का इतिहास है। बलात्कार को एक हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया गया था। महिलाओं की सुरक्षा से या दबाव में की गई आत्महत्या या रिश्तेदारों की गोली मारकर जहर देकर या पानी में डूबकर प्राण त्यागने की घटनाएं आम हो गई। बलात्कार जैसी घटना के बाद लोग अपमानजनक जिंदगी के बदले मौत को प्राथमिकता देने लगे।"[ix] वैसे जब भी कभी दंगा फसाद होता है तो सबसे ज्यादा प्रभावित होने वाला वर्ग महिला वर्ग होता है, क्योंकि वह पुरुषों की अपेक्षा बहुत संवेदनशील होता है और पूरे समाज की इज्जत का जिम्मा उसके ही सर पर मढ़ दिया जाता है। उस समय अपनी जान की परवाह किये बिना अपनी इज्जत को बचाना लक्ष्य बन जाता है। उर्वशी बुटालिया लिखती हैं कि- "हमेशा की तरह यहाँ भी यौन पाशविकता हुई थी। समझा जाता है कि करीब 75000 महिलाओं का उनके अपने धर्मों से भिन्न धर्मों के पुरुषों और वास्तव में कभी-कभी उनके अपने ही धर्म के पुरुषों द्वारा अपहरण और बलात्कार किया गया।"[x] इसीलिए तो सिख औरतें अपने आप को बचाने के लिए गुरुद्वारे में शरण लेती हैं लेकिन जब देखती हैं कि अब उनकी जान और उनकी इज्जत नहीं बच पाएगी तो वे उस कुएं की तरफ बढ़ना शुरू कर देती हैं जहां वे मिलकर कपड़े धोया करती थी बातें करती थी। "किसी को ध्यान नहीं आया कि वह कहां जा रही हैं क्यों जा रही हैं छुटकी चांदनी में कुएं पर जैसे अप्सराएं उतरती आ रही हैं। सबसे पहले जसबीर कौर कुएं में कूद गई। उसने कोई नारा नहीं लगाया किसी को पुकारा नहीं केवल वाहे गुरु कहा और कूद गई उसके कूदते ही कुएं की जगत पर कितनी ही महिलाएं चढ़ आई। हरि सिंह की पत्नी पहले जगत के ऊपर जाकर खड़ी हुई फिर उसने अपने 4 साल के बेटे को खींचकर ऊपर चढ़ा लिया फिर एक साथ ही उसे हाथ से खींचती हुई नीचे कूद गई। देव सिंह की  घरवाली  अपने दूध पीते बच्चे को छाती से लगाए ही कूद गई। प्रेम सिंह की पत्नी खुद तो कूद गई पर उसका बच्चा पीछे खड़ा रह गया उसे ज्ञान सिंह की पत्नी ने मां के पास धकेल कर पहुंचा दिया देखते ही देखते गांव की दसों औरतें अपने बच्चों को लेकर कुएं में कूद गई।"[xi] बलवाई लोगों के आने से पहले सभी स्त्रियां कुए पर चढ़कर अपनी जान दे देती हैं क्योंकि उन्हें आशंका है कि दंगाई लोग उन्हें मारेंगे तो हैं ही उनसे पहले उनकी इज्जत के साथ खिलवाड़ करेंगे घिनौना कृत्य करेंगे। "यह महज संयोग नहीं है कि उपन्यास में विभाजन से पूर्व के पंजाब का ऐसा ही चित्र खींचा गया है गंगा जमुनी तहजीब का लगभग आदर्श चित्र विभाजन को लेकर लिखे गए अधिकांश साहित्य का स्वर यही है।"[xii]    

     दंगा शुरू होने के बाद हर कोई महफूज जगह पर जाना चाहता है। जहाँ वह सुरक्षित रह सके। सब के हाव-भाव बदले हुए से नजर आ रहे हैं। भाषा बदली हुई सी नजर आ रही है, उनकी भाषा से ही पता चलता है कि उनके दिलो-दिमाग में कौन से विचार घूम रहे हैं। एक तनाव का माहौल पूरे वातावरण में व्याप्त हो जाता है। इक़बाल सिंह जो कि अपनी जान बचा कर भागा था वह मुस्लिमों द्वारा पकड़ा जाता है तथा मुस्लिमों के द्वारा उसके साथ अमानवीय बर्ताव किए जाते हैं। वे लोग उसको पकड़ कर पहले तो मारते हैं फिर गाली गलौज करते हैं उसका धर्म परिवर्तन करते हैं। उसके नाम को बदलकर इकबाल अहमद रख देते हैं और कहते हैं कि अब तुम हमारी जमात में आ गए हो। अब हम तुम्हारी शादी भी अपने जमात में करेंगे और अब तुमको हमसे डरने की जरूरत नहीं है। इकबाल सिंह के साथ  किए गए अमानवीय कृत्य की भाषा इस कदर है कि पाठ को पढ़कर पाठक के मन में एक अजीब सी खीझ और नफरत पैदा होने लगती है कुछ उदाहरण इस तरह है- 

बोल कलमा पड़ेगा कि नहीं?’

रमजान ने कहा वह अभी भी बड़ा सा पत्थर हाथ में उठाए हुए था।

मुंह से बोल मादर... नहीं तो देख लिया पत्थर अभी तेरी खोपड़ी पर पड़ेगा।

इसकी सलवार उतार दो इसे नंगा गांव में ले चलो। यह हमसे बहुत छिपता था और उसने आगे बढ़कर इकबाल सिंह की सलवार में हाथ डाल दिया। कुछ लोग हंसने लगे।

बाएं हाथ से इकबाल सिंह का मुंह खोला और दाएं हाथ में पकड़ा मांस का बड़ा सा टुकड़ा जिसमें टप टप खून की बूंदे गिर रही थी, इकबाल सिंह के मुंह में डाल दिया। इकबाल सिंह की आंखें बाहर आ गई उसकी सांस रुक रही थी।

खोल मुंह तेरी मां की…. खोल मुंह मादर…’[xiii]      

    सोचने वाली बात तो यह है कि सभी अपनी जान बचाना चाहते हैं तो जान लेना कौन चाहता है। हिंदू मुस्लिमों से अपनी जान बचाना चाहते हैं और मुस्लिम हिंदुओं से और दोनों अपनी-अपनी तरफ से कोशिश करते हैं कि अधिक से अधिक हथियार औजार असलहे इकट्ठा किए जाएं, जिससे वह जिंदा रहे और उनका शत्रु मारा जाए। कैसी विडंबना है कि हथियार इकट्ठा करने के लिए प्रशिक्षण दिया जा रहा है। मारने के लिए लोगों पर खौलते तेल डालने के लिए कड़ाही की व्यवस्था की जा रही है। यहाँ पर आग में घी डालना मुहावरा चरितार्थ होता है, जब पूरे समाज में सांप्रदायिकता की आग लगी हुई है तो ऐसे कट्टरपंथी स्वार्थी  लोगों को कत्ल करने का तरीका बताया जा रहा है। बाकायदा प्रशिक्षण भवन बनाया जा रहा है जिसमें लाठी चलाना, चाकू चलाना सिखाया जाना है। जिन बच्चों को धर्म, कर्म, व्यवहार, भाईचारा का पाठ पढ़ाना चाहिए उन्हें कत्ल करने का तरीका सिखाया जा रहा है। इस सिखाने में प्रयोग की गई भाषा सच्चे गुरुओं की भाषा नहीं है। यह एक कट्टरपंथी मतान्ध गुरु की  भाषा है जो नवयुवकों को दंगा फैलाने का प्रशिक्षण देता है। रणबीर इसका जीता जागता उदाहरण है- "इधर दीवार के पास बैठ जाओ रणबीर और इस मुर्गी को काटो। दीक्षा से पहले तुम्हें अपनी मानसिक दृढ़ता का परिचय देना होगा।"[xiv]       

     मुशीरुल हसन लिखते हैं- “यह तथ्य है कि एक ऐसी घड़ी में जब अंग्रेजों का भारत से प्रस्थान तय हो चुका था। प्रशासन अपने अंग्रेज अफसरों के जीवन को किसी किस्म के जोखिम में डालने को तैयार नहीं था। अंग्रेज अफसरों ने खुद को नागरिक जीवन से बाहर कर लिया था और अपने बंगलो या छावनीयों की  सुरक्षा में चले गए थे। ऐसे समय में जब देश का बड़ा हिस्सा धू-धू करके जल रहा था, वे क्रिकेट खेला करते थे संगीत सुनते थे और किपलिंग को पढ़ा करते थे। पंजाब में हुए नरसंहार के बड़े हिस्से में पंजाब  सीमा बल को बैरकों में  ही रखा गया।"[xv] डिप्टी कमिश्नर रिचर्ड और उसकी पत्नी लीजा की बातें अंधकार के स्रोतों को खोलती हैं जो चारों तरफ फैल रहा है इसमें वे अपने भावों को व्यक्त करने के लिए अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग करते हैं तथा अंग्रेजीनुमा हिंदी का भी प्रयोग करते हैं। रिचर्ड बड़ी आसानी से कहता है कि हुकूमत करने वाले यह नहीं देखते की प्रजा में कौन-कौन सी समानता पाई जाती है, उनकी दिलचस्पी तो यह देखने में होती है कि वह किन-किन बातों में एक-दूसरे से अलग हैं। हुकूमत करने वाले सांप्रदायिकता का जहर फैलने पर उसे शांत नहीं करते बल्कि वे धर्म को निजी मामला बताकर उसे खुद सुलझाने के लिए कहते हैं। प्रजा को आपस में लड़ाने में ही शासक सुरक्षित रहता है जिस समय शहर में दंगे के कारण मारकाट हो रही है तब अंग्रेज अफसर रिचर्ड अपनी पत्नी के बालों को सहलाता हुआ कह रहा है हम इन धार्मिक झगड़ों में दखल नहीं देते लीजा तुम जानती तो हो। 

     तमस के पात्रों की भाषा उनके खौफ को भी व्यक्त करने की सामर्थ्य रखती है। हरनाम सिंह और उसकी पत्नी बंतो अपना घर बार छोड़ कर के जान बचाने के लिए निकल पड़ते हैं। रात होने पर तथा दंगाइयों के पास आने पर वह किसी घर में शरण लेना चाहते हैं।  बंतो पंजाबी भाषा में अपनी बातों को बयां करती है। वह एक घर पर रूकती है और उसका दरवाजा खटखटाती है और कहती हैं "करमावालियों दरवाजा खोलो, असी मुसीबत दे मारे आए हाँ।"[xvi] इस प्रकार तमस की भाषा पात्रानुकूल एवं प्रभावी है। पात्रों के संवादों में नाटकीयता का गुण भाषा को जीवंतता प्रदान करता है। तमस की भाषा उपन्यासकार भीष्म साहनी के चिंतन एवं अनुभूति को अभिव्यक्त की सामर्थ्य रखती है। 


 

संदर्भ 

[i] मधुरेश, हिंदी उपन्यास का विकास, लोक भारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 2016, पृष्ठ 135

[ii] भीष्म साहनी, तमस ,राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2016, पृष्ठ 7-8

[iii] भीष्म साहनी, आज के अतीत, राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली, 2003, पृष्ठ 255

[iv] असगर अली इंजीनियर, भारत में सांप्रदायिकता: इतिहास और अनुभव, साहित्य उपक्रम प्रकाशन, 2004, पृष्ठ 115

[v] रामचंद्र गुहा, इंडिया आफ्टर गांधी, पृष्ठ संख्या 12 -13

[vi] बिपिन चंद्र, सांप्रदायिकता एक प्रवेशिका, 2008, पृष्ठ 3

[vii] भीष्म साहनी, तमस, राजकमल प्रकाशन, 2016, पृष्ठ 18

[viii] वही, पृष्ठ 20

[ix] यास्मीन खान ,भारत और पाकिस्तान का उदय, पेंग्विन यात्रा प्रकाशन, 2009 पृष्ठ 156- 157

[x] उर्वशी बुटालिया, खामोशी के उस पार, राजकमल प्रकाशन 2002, पृष्ठ 15

[xi] भीष्म साहनी, तमस, राजकमल प्रकाशन, 2016, पृष्ठ 126

[xii] अशोक भल्ला, मेमोरी हिस्ट्री एंड फिक्शनल रिप्रेजेंटेश ऑफ़ पार्टीशन, ईपीडब्ल्यू वॉल्यूम 34 अंक 44 अक्टूबर 30 नवंबर 5 1999

[xiii] भीष्म साहनी, तमस, राजकमल प्रकाशन, 2016, पृष्ठ 120-121

[xiv] वही, पृष्ठ 42

[xv] मुशीरुल हसन, सोशल साइंटिस्ट, वॉल्यूम 3 अंक 7 -8 पृष्ठ 35 

[xvi] भीष्म साहनी, तमस, राजकमल प्रकाशन, 2016, पृष्ठ 120-121

 

प्रदीप कुमार प्रजापति
शोधार्थी,
हिंदी विभाग, आगरा कॉलेज, आगरा

डॉ सुनीता रानी घोष
शोध निर्देशक
(एसोसिएट प्रोफेसर)
हिंदी विभागाध्यक्ष, आगरा कॉलेज, आगरा)

pp197413@gmail.com7379637245

     अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)

अंक-35-36, जनवरी-जून 2021

चित्रांकन : सुरेन्द्र सिंह चुण्डावत

        UGC Care Listed Issue

'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' 

( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL) 

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