शोध आलेख : पंचायती राज व्यवस्था एवं महिला सशक्तीकरण / आशीष कुमार चौरसिया

पंचायती राज व्यवस्था एवं महिला सशक्तीकरण
- आशीष कुमार चौरसिया

शोध सार : भारत के बारे में प्रसिद्ध विद्वान मार्क ट्वैन ने कहा था कि भारत मानव जाति के विकास का उद्गम स्थल तथा मानव बोली का जन्म स्थान है और साथ ही साथ यह देश गाथाओं और प्रचलित परंपराओं का कर्मस्थल तथा इतिहास का जनक है। केवल भारत में ही मानव इतिहास की सबसे मूल्यवान और शिक्षाप्रद सामग्री ख़जाने के रूप में सहेजी गई है। संसार की प्राचीन एवं महान सभ्यताओं में भारतीय सभ्यता और संस्कृति बेमिसाल है तथा मार्क ट्वैन के उपरोक्त कथन को पूर्णतया सही साबित करती है। भारत की अधिकांश आबादी गाँवों में निवास करती है। अतः भारत की उन्नति और प्रगति गाँवों की उन्नति और प्रगति पर ही निर्भर करती है। भारत विश्व का वृहद्तम लोकतांत्रिक देश है जिसमें सत्ता के व्यापक विकेन्द्रीकरण के तहत शासन की बागडोर ग्राम स्तर से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक जनता द्वारा निर्वाचित जन प्रतिनिधियों के हाथों में सुरक्षित रहती है। भारत में सत्ता की बागडोर जहाँ शीर्ष पर संसद के हाथों में है वहीं ग्राम स्तर पर पंचायतों में निहित है।

मूल आलेख : भारत में पंचायती राज का इतिहास अति प्राचीन है। भारत जैसे विशाल ग्रामीण आबादी वाले देश में गाँवों के विकास सम्बन्धी तमाम कार्यों का प्रबन्ध गाँवों की पंचायतें पहले भी करती आई हैं, और आज भी पूर्ण कर रही है। इस सम्बन्ध में राजीव गांधी का एक कथन है कि पंचायती राज एक ऐसी क्रांति है जो लोकतंत्र को करोड़ों भारतीयों के द्वार तक ले जाएगी। यह एक ऐसी क्रांति है जो विकास की ज्योति को हमारे लाखों ग्रामों तक पहुंचाएगी।

            यह ऐसी क्रांति है जो अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों के लाखों और हमारे देश की आधी जनसंख्या अर्थात् भारतीय महिलाओं के उत्थान के लिए नए अवसरों के द्वार खोल देगी। यह वह क्रांति है जो लोगों को उनके विकास में शामिल करेंगी। पंचायतें प्राचीन काल से ही भारतीय ग्रामीण समाज का अभिन्न अंग रही है। पंचायत शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत भाषा के (पंचायतन्) शब्द से हुई है जिसका अर्थ है (पांच पंचों की पंचायत)। वैदिक काल से लेकर अंग्रेजों के आगमन तक पंचायतें अपना कार्य पंचों के माध्यम से करती थी। प्रत्येक ग्राम सभा से पांच पंच चुने जाते थे जो सामाजिक, व्यावसायिक, व न्यायिक आदि फैसले लेने में सक्षम हो मनुस्मृति के अनुसार ग्राम में एक अधिकारी होता था जिसे (ग्रामिक) के नाम से जाना जाता था। उसका कार्य ग्राम से कर वसूल करना होता था।

        आधुनिक भारतीय चिंतन में पंचायत की अवधारणा को विकसित करने का श्रेय राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को ही दिया जा सकता है। वे इसे ग्राम स्वराज का संस्थागत स्वरूप तथा भारत की भावी राजनीतिक व्यवस्था का आधारभूत ढांचा मानते थे। वे चाहते थे कि इसमें अधिक से अधिक शक्तियां ग्राम पंचायतों के पास हो और कम से कम केंद्रीय सरकार के पास। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी पंचायत की जैविक (ऑर्गेनिक) अवधारणा में भी आस्था रखते थे। उनका कहना था की हर एक ग्राम के द्वारा सर्वसम्मति से ग्राम पंचायत चुनी जाए, ग्राम पंचायतों के सदस्य इसी ढंग से मंडल पंचायतें चुने और इस विधि से जिला पंचायतें चुने जाएं और वे इसी तरीके से प्रांतीय पंचायत चुने और उनके द्वारा राष्ट्रीय पंचायत (संसद) भी इसी ढंग से चुनी जाए तथा सभी स्तरों की पंचायतें अपने निर्णय स्वयं सर्वसम्मति से ही लें। 

            भारत विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के रूप में अपनी सशक्त उपस्थिति को प्रदर्शित करता है। प्राचीन कालीन भारत में स्थानीय स्वशासन के प्रमाण मिलते हैं। अनेक ऐतिहासिक स्रोतों से स्थानीय स्वशासन व्यवस्था की जानकारी मिलती है। ग्राम सभा और ग्रामीण जीवन का वर्णन वैदिक काल के विभिन्न धर्म ग्रंथों में भी मिलता है। पंचायती राज संस्थान ऐसा नहीं था कि अचानक अस्तित्व में आ गया। इसके पीछे दशकों की मेहनत, प्रयास और राजनीतिक इच्छाशक्ति ने काम किया। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान भी देश में स्थानीय स्वशासन की वकालत विभिन्न विद्वानों द्वारा की जाती रही थी। भारतीय संविधान के निर्माताओं ने भी संविधान के नीति निर्देशक तत्वों में अनुच्छेद 40 के अंतर्गत राज्यों को ग्राम पंचायत के गठन का निर्देश दिया गया। स्वतंत्र भारत में पहली बार बलवंत राय मेहता समिति ने 2 अक्टूबर 1959 को राजस्थान के नागौर जिले में नेहरू द्वारा पंचायती राज संस्थाओं का उद्घाटन एक ऐतिहासिक कदम था और जनता में बहुत बड़ी आशा जगी थी कि यह सही रूप में जनता का, जनता द्वारा और जनता के लिए शासन का मार्ग प्रशस्त करेगा। और बहुमुखी विकास और लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण की ज्योति देश के हर गांव के कोने कोने में पहुंचेगी।

लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण -

        लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण का तात्पर्य है कि शासन सत्ता को एक स्थान पर केंद्रित करने के बजाय, उसे स्थानीय स्तरों पर विभाजित किया जाए ताकि शक्ति एक स्थान पर केंद्रित ना हो, जिससे शासन सत्ता में हर आदमी की भागीदारी सुनिश्चित हो सके और वह अपने हितों व आवश्यकताओं के अनुरूप शासन संचालन में अपना योगदान दे सकें। लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण का सिद्धांत इस धारणा पर आधारित है कि स्थानीय मामलों में समुदाय की अधिक भागीदारी से सरकार द्वारा विशेष रूप से समाज में गरीब और वंचित समूह के जीवन में सुधार लाने के उद्देश्य से प्रदान की जाने वाली सेवाओं की गुणवत्ता में सुधार होगा। 73वें संविधान संशोधन ने ग्रामीण भारत के लिए विकेंद्रीकृत स्थानीय शासन का औपचारिक त्रिस्तरीय ढांचा तैयार किया है। इसमें महिलाओं अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अन्य सुविधा विहीन समुदायों को शासन में भागीदार के रूप में शामिल करने पर विशेष जोर दिया गया है। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 243G    पंचायत प्रणाली की समावेशी समुदाय संचालित और समग्र नियोजन प्रक्रिया के माध्यम से आर्थिक विकास और सामाजिक न्याय को अनिवार्य करता है जिससे संस्थान स्थानीय स्वशासन निकायो के रूप में विकसित होते हैं।   

महिला सशक्तीकरण -

          महिला सशक्तीकरण का अभिप्राय महिलाओं के सामाजिक उन्नति से संबंधित है महिला सशक्तीकरण का विचार राजनैतिक, आर्थिक एवं सामाजिक, सांस्कृतिक है बल्कि यह सोचना की महिला सशक्तीकरण का तात्पर्य मात्र राजनैतिक है, तो यह भ्रम है। राजनैतिक शक्ति को पंचायती राज्य के माध्यम से दिए जाने का तात्पर्य है महिलाओं द्वारा सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, शक्ति का ग्रहण किया जाना या विकसित होना। महिला सशक्तीकरण का अभिप्राय उन्हें अधिक शक्ति या सत्ता दिया जाना है अर्थात् महिला को अधिक सुविधापूर्वक कार्य करने देने के लिए उनमें चेतना एवं क्षमताओं का विकास किया जाना ताकि वे जीवन की प्रत्येक क्षेत्र में अपनी सहभागिता निभा सकें। सशक्तीकरण महिलाओं को व्यक्तिगत और सामाजिक रूप से विकसित होने के साथ-साथ सामाजिक चुनौतियों के बारे में उनकी समझ बढ़ाने के लिए ज्ञान, योग्यता और कौशल सीखने की अनुमति देता है। महिला सशक्तीकरण का तात्पर्य महिलाओं में आत्मशक्ति की भावना स्वयं के विकल्पों को निर्धारित करने की क्षमता, स्वयं और दूसरों के लिए सामाजिक परिवर्तन को प्रभावित करने के लिए उनके अधिकार एवं उनमें समानता और उपलब्धियों के प्रति जागरूकता है।

          महिला सशक्तीकरण एक मानसिक अवधारणा है। शिक्षा इस अवधारणा का विकास एवं प्रोत्साहन करती है। महिला सशक्तीकरण किसी वैयक्तिक उन्नति की बात नहीं है वरन् एक शांतिपूर्ण, उन्नत, विकसित एवं खुशहाल समाज, देश और विश्व के निर्माण के लिए आवश्यक शर्त है। महिला शिक्षा और सशक्तीकरण संपूर्ण मानवता के लिए महत्वपूर्ण है। स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि "वे देश और राष्ट्र जो महिलाओं का सम्मान नहीं करते हैं, वे कभी महान नहीं बने और नहीं न ही भविष्य में कभी होंगे।" यहां महिलाओं का सम्मान सशक्तीकरण  से सीधे-सीधे संबंधित है। लोकतंत्र केवल एक शासन प्रणाली मात्र नहीं है बल्कि विशिष्ट सामाजिक व्यवस्था और विशेष मनोवृति है। लोकतंत्र की इस भावना को व्यवहारिकता पंचायती राज द्वारा प्रदान की जा सकती है। पंचायती राज्य से तात्पर्य है कि ग्रामीण स्तर पर स्थानीय स्वशासन की संस्थाएं स्थापित करना।

          महिला सशक्तीकरण की अवधारणा समाज और राष्ट्र में लैंगिक समानता और सामाजिक न्याय स्थापित करने की वकालत करती है। महिला सशक्तीकरण वह प्रक्रिया है, जिसके द्वारा उनको संसाधन सामग्री, बौद्धिकता (ज्ञान, सूचना, और विचार) और वित्तीय संसाधनों और घरेलू समुदाय, समाज और राष्ट्र में निर्णय निर्माण प्रक्रिया में अधिक से अधिक हिस्सा और नियंत्रण की शक्ति प्राप्त होती है। इस प्रकार यह समाज से पारंपरिक रूप से वंचित महिलाओं को आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक रूप से सशक्त करने की प्रक्रिया है। महिला सशक्तीकरण न केवल महिलाओं के हित में है बल्कि पुरुषों परिवार समाज वह राज्य के हित के हित में भी है, इस विचार को समाज में सकारात्मक रूप से विकसित एवं समाज में प्रचारित प्रसारित किया जाएगा की महिला सशक्तीकरण व्यक्तिगत, पारिवारिक व सामाजिक भलाई, सुख व विकास के लिए जरूरी है।

73 वें संविधान संशोधन और महिला सशक्तीकरण -

          पंचायतें शुरू से ही भारतीय गांवों में जमीनी स्तर के लोकतंत्र की रीढ़ रही हैं। 73वें संशोधन अधिनियम, 1992 ने सामान्य रूप से ग्रामीण पुनर्निर्माण में लोगों और विशेष रूप से महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए त्रि-स्तरीय पंचायती राज प्रणाली की शुरुआत की। 73वें संशोधन अधिनियम में महिलाओं के लिए सीटों की कुल संख्या का कम से कम एक-तिहाई (अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित सीटों की संख्या सहित) आरक्षण का प्रावधान है। इसके अलावा प्रत्येक स्तर पर पंचायतों में अध्यक्षों के पदों की कुल संख्या का कम से कम एक तिहाई महिलाओं के लिए आरक्षित किया जाएगा। 73वें संशोधन अधिनियम के माध्यम से महिलाओं ने  संसाधनों, अधिकारियों और सबसे बढ़कर, पुरुषों को चुनौती देकर उन पर नियंत्रण स्थापित करके सशक्तीकरण की भावना प्राप्त की है। वे अपनी शक्ति के प्रति मुखर और सचेत हो गई हैं। इस प्रकार यह अधिनियम महिलाओं के लिए सीटों की कुल संख्या का कम से कम एक तिहाई आरक्षण का प्रावधान करता है। यह प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से चुनाव प्रक्रिया में महिलाओं की अधिक से अधिक भागीदारी सुनिश्चित करने का एक प्रयास है। यह राष्ट्रीय राजनीति के लिए महिला राजनेताओं को तैयार करने की नर्सरी होगी। यहां तक कि विभिन्न गतिविधियों जैसे ग्राम सभा की बैठक में भाग लेने आदि में आम महिला नागरिकों की भागीदारी भी कथित तौर पर बढ़ी है (68-78 प्रतिशत)। इस प्रकार महिलाएं समाज में परिवर्तन के एजेंट के रूप में कार्य कर रही हैं और अन्याय और अत्याचार के खिलाफ आवाज उठा रही हैं। महिलाओं की भूमिका ने घरेलू हिंसा और अन्य अत्याचारों के खिलाफ महिलाओं को आवाज उठाने के लिए प्रेरित किया है। महिलाओं को उनके अधिकारों और शक्ति के बारे में सक्रिय भागीदारी और जागरूकता के लिए सशक्त बनाया जा रहा है। महिला प्रधान या सरपंच के कारण घरेलू हिंसा में काफी कमी आई है। ये महिला प्रतिनिधि ऐसी हिंसा को सक्रियता से उठाती हैं।

          राज्यों के अनुभवों को देखते हुए भारत सरकार ने एक और संविधान संशोधन प्रस्ताव लाने का निर्णय लिया। वर्ष 2009 में संविधान के अनुच्छेद 243(डी) में संशोधन करके नागालैंड, मेघालय, मिजोरम, असम के आदिवासी क्षेत्रों, त्रिपुरा व मणिपुर के पहाड़ी क्षेत्रों को छोड़कर शेष सभी राज्यों तथा केंद्रशासित प्रदेशों में महिला आरक्षण को 50% तक लागू करना सुनिश्चित किया गया। यह बढ़ी हुई आरक्षण सीमा सीधे निर्वाचित पदों, पंचायत अध्यक्ष तथा आदिवासी अनुसूचित जाति व जनजाति क्षेत्रों की पंचायतों पर भी लागू होना तय हुआ। पुरुष प्रधान मानसिकता के बीच यह निर्णय कितना मुश्किल और असाधारण रहा होगा। इससे समता हासिल करने के अवसर और बढ़े। आरक्षण अवसर दे सकता है, किंतु क्षमता तो खुद के संकल्प से ही हासिल होती है। इस प्रकार हमारे देश में पीआरआई की स्थापना से एक महिला को एक अच्छी प्रशासक, निर्णय-निर्माता या एक अच्छी नेता के रूप में अपनी योग्यता साबित करने का अवसर मिलता है। 73वां संवैधानिक संशोधन अधिनियम, 1992 इस संबंध में एक मील का पत्थर है। इससे महिलाओं को आगे आने का मौका मिलता है। सरकार को 73वें संशोधन के प्रावधानों के प्रभावी कार्यान्वयन में अनुसंधान और विकास को प्रोत्साहित करना चाहिए।

भारत के विभिन्न ग्रामीण क्षेत्रों में महिला सशक्तीकरण पर केस अध्ययन -

           ग्रामीण क्षेत्रों में विशेषकर अवसरों की कमी के बावजूद महिलाएं सशक्तीकरण के कई महत्त्वपूर्ण उदाहरण पेश कर रही हैं। उदाहरण के तौर पर, प्रतापगढ़ जिले के अरनोद उपखंड के वीरावली गांव की पंचायत में महिलाओं का दबदबा है। गांव की सरपंच, ग्राम सेवक पदेन सचिव, पटवारी व चार वार्ड पंच महिला हैं, जो बखूबी और बहादुरी के साथ अपने कार्यों में संलग्न हैं। वे गृह कार्यों में भी दक्ष हैं और दूसरी तरफ सरकारी कार्यों और जनहित के मुद्दों में पुरुषों से आगे हैं। वीरावली पंचायत समिति के नौ में से चार वार्डों में महिला पंचायत है। इसमें सरपंच नंदूबाई मीणा, वार्ड पंच निर्मला पत्नी पुष्कर लाल मीणा, निर्मला पत्नी देवी लाल मीणा, कांता बाई लोहार, सुहागी बाई मेधवाल, ग्राम सेवक पद पर जमना मीणा तथा पटवारी के रूप में भी विमला देवी मीणा कार्यरत हैं।

            इन सभी महिलाओं की एकजुटता, तन्मयता और दक्षता इन गांवों की महिलाओं के लिए सशक्तीकरण के कई नए रास्ते खोल रही है। एक और उदाहरण में सीतापुर शहर से लगभग 43 किलोमीटर दूर बेनीपुर गांव की रहने वाली अनामिका अपने गांव से लगभग तीन किलोमीटर दूर सोनारी गांव में खुले बीपीओ में तीन वर्षों से रोज 8 घंटे डेटा एंट्री का कार्य करती हैं और साथ ही पढ़ाई भी कर रही हैं। अनामिका का मन खेतों और रसोई के कार्यों को छोड़कर डेटा एंट्री में लगता है। उसी प्रकार सोनारी गांव में भी बीपीओ में 23 लोगों में से 12 लड़कियां काम करती हैं। इसी प्रकार राजस्थान, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश आदि इन राज्यों में ग्रामीण क्षेत्रों में बीपीओ में ग्रामीण बालिकाओं का रुझान बहुत तेजी से बढ़ रहा है।

          अजीमनगर गांव में रहने वाली रूबीना बानो 20 वर्षीय को मोबाइल के बारे में सब पता है। वो मोबाइल को ठीक करना जानती है। रूबीना बानो अपने शौक के चलते लोगों के मोबाइल ठीक कर लिया करती थीं। बाद में रूबीना ने इसका एक कोर्स भी किया। अब रूबीना अपनी खुद की मोबाइल रिपेयरिंग की दुकान खोलना चाहती है। इस उदाहरण से हमें यह ज्ञात होता है कि निपुणता और हुनर में किसी जाति, धर्म की बंदिशें नहीं होती हैं।

          बाराबंकी के एक छोटे से इलाके में मुस्लिम लड़कियों ने वीडियो कैमरा चलाना सीखा और अब वे सब एक खुद का स्टूडियो खोलना चाहती हैं ताकि गांव की किसी भी शादी में अपने हुनर का प्रदर्शन कर सकें। अब ग्रामीण वातावरण में भी काफी बदलाव हुए हैं। लखनऊ में बढ़ रहे अपराधी मामलों की रोकथाम के लिए हर थाने में महिला डेक्स बनाई जाएगी। ताकि महिला डेक्स पर तैनात महिला के दर्द को अच्छी तरह से समझ पाएगी।

          जम्मू के पुरखों गांव की 60 वर्षीय कैलाश रानी ने अपने तजुर्बे के आधार पर 2008 में जम्मू वीमेन क्रेडिट कोऑपरेटिव की शुरुआत की थी। आज के समय इस संस्था से तेरह हजार से भी ज्यादा, महिलाएं जुड़ चुकी हैं। इस संस्था की 35 शाखाएं हैं जिनमें 272 महिला कर्मचारी काम कर रही हैं। ये महिलाएं अपने आपको किसी बैंक अधिकारी से कम नहीं समझतीं। हैरानी की बात यह है कि 60 वर्षीय कैलाश रानी केवल दसवीं पास हैं। हाल ही जब सोनिया गांधी जी ने भारतीय महिला बैंक का जिक्र किया, तब जम्मू वीमेन क्रेडिट कोऑपरेटिव की अध्यक्ष कैलाश रानी ने भी इस संस्था को महिला बैंक में परिवर्तन करने की गुजारिश की थी।

केस अध्ययन स्व कार्यरत महिला एसोसिएशन 'सेवा' -

          सेवा की संस्थापिका सुश्री इला भट्ट ने अपनी दूरदर्शिता और जीवनदृष्टि से लाखों महिलाओं के जीवन में रंग भरने का कार्य किया है। अहमदाबाद में 'सेवा' आज विश्व में महिला असंगठित क्षेत्र के एक विस्तृत मॉडल में परिवर्तित हो चुका है। जो अब महिला सशक्तीकरण की मिसाल बन कर उभरी है जिसमें गांधी जी के विचार अभिव्यक्ति की रचनात्मकता को भी देखा जा सकता हैं। आज के समय में 'सेवा' का कार्यभार रेनाना झाबवाला की देख-रेख में है। इसकी शाखाएँ भारत के महत्वपूर्ण क्षेत्रों जैसे भोपाल, भागलपुर, जबलपुर, मुंगेर, सिंहभूमि, मिथिला, लखनऊ तक खोली गई हैं। 'सेवा' समाज में सच्चे अर्थों में महिलाओं की मान, मर्यादा और आर्थिक आमदनी की देख रेख में संलग्न है।

          'सेवा' संस्थान एक गरीब स्वरोजगार महिला श्रमिकों का एक अनूठा संगठन है जो 1972 में पंजीकृत एक ट्रेड यूनियन है। यह नियमित वेतनभोगी रोजगार प्राप्त नहीं है। वे भारत में देश की असुरक्षित श्रम शक्ति हैं। इस संस्था में काम करने वाली 93 प्रतिशत महिलाएं असंगठित क्षेत्र की श्रमिक हैं, सेवा के मुख्य लक्ष्यों में यहां काम करने वाली महिलाओं को पूर्ण रोजगार के लिए संगठित करना शामिल है जिससे कि उन्हें कार्यसुरक्षा, आय सुरक्षा, खाद्य सुरक्षा, सामाजिक सुरक्षा जैसे स्वास्थ्य देखभाल, बच्चों की देखभाल, आश्रय इत्यादि सुविधाएं प्राप्त हो सकें। सेवा महिलाओं को पूर्ण रूप से आत्मनिर्भर बनाना चाहता है जिसके द्वारा महिलाएं अपने व्यक्तिगत एवं सामूहिक, आर्थिक एवं सामाजिक निर्णय लेने में स्वतंत्र बनें। सेवा एक ही साथ संगठन और आंदोलन का एक अनूठा उदाहरण पेश करता है। 'सेवा' में हमें तीन महत्त्वपूर्ण आंदोलन देखने को मिलते हैं श्रम आंदोलन, सहकारी आंदोलन और महिला आंदोलन। साथ ही, यह एक स्वरोजगार कार्यकर्ताओं का आंदोलन भी है। इसके नेता वे अपने में से ही चुनते हैं। अपने स्वयं को महिलाओं के आंदोलन के माध्यम से वे सभी सदस्य शक्ति प्राप्त करते हैं। इस स्वरोजगार के जरिए महिलाओं में नेतृत्व क्षमता, उनके आत्मविश्वास, नीति निर्माण, निर्णय क्षमता, मंच में उनके प्रतिनिधित्व शक्ति को अत्याधिक बल मिला है। सेवा ने अपने हर सदस्य के अनुसार प्राथमिकता और मुद्दों को विकास को प्रक्रिया में डालने का प्रयास किया है।

स्वश्री महिला सेवा सहकारी बैंक सेवा -

          सेवा की भारत में अपने तरह की पहल है। इनके बैंकों में स्वरोजगार महिलाएं ही बैंक शेयर धारक के रूप में स्वामित्व धारण करती है और आंतरिक नीतियां भी महिला श्रमिक स्वयं ही निर्वाचित बोर्ड के द्वारा तैयार करती हैं। बैंकों को पेशेवर और योग्य प्रबंधकों के द्वारा पूरी जवाबदेही के साथ चलाया जाता है। सेवा बैंक को वर्ष 1974 में मात्र 4000 सदस्यों के मात्र 10 रूपये की पूंजी निवेश के द्वारा चलाया गया था। आज इसमें 93000 सक्रिय जमाकर्ता और जुड़ गए हैं। 1999 में सेवा बैंक ने सफलतापूर्वक अपने 25 साल पूरे किए। सेवा का उद्देश्य ऐसी महिलाओं को संगठित करना है जो संपूर्ण रूप से रोजगार और आत्मनिर्भर बनने की दिशा में प्रवृत्त है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए 'सेवा' नामक संस्था द्वारा भारत सहकारी समितियों द्वारा महिलाओं के लिए विभिन्न प्रयास किये गये हैं।

निष्कर्ष : हम इस बात पर अपनी सहमति जताते हैं कि महिलाएं जो अपनी इच्छा और उद्देश्य को ठान लेती हैं वह पूरा करके ही दम लेती हैं। भारत में महिला सशक्तीकरण का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि राजनीतिक दलों के भेदभावपूर्ण रवैये के बावजूद भारत में महिला मतदाताओं की संख्या में और अधिक वोट डालने की भागीदारी में उल्लेखनीय बढ़त देखी जा सकती है। आज के समय में नारी ने पुरुषों को सभी क्षेत्रों में मात दी है। हर क्षेत्र में महिलाएं उनके साथ अपना कंधे से कंधा मिलाकर चल रही है। जैसे महिलाएं आज विमान चालिकाएं वैज्ञानिक, कंप्यूटर साइंटिस्ट, फैशन डिजाईनर, शिक्षिकाएं, डॉक्टर एवं नर्स सर्जन प्राइवेट कंपनियों की चेयर पर्सन एवं एम डी फिल्म प्रोड्यूसर, कोरियोग्राफर, अंतर्राष्ट्रीय शेफ, रेस्त्रांओनर, एनजीओ संचालिकाएं, नेशनल स्टाक एक्सचेंज की सीईओं एवं इत्यादि है। सभी क्षेत्रों में पुरुषों से भी बेहतर प्रदर्शन कर रही है। हालांकि एमडी, भारत में व्यावसायिक रूप से सफलता प्राप्त करने वाली महिलाओं की संख्या में कमी है, लेकिन फिर भी वैश्वीकरण, उदारीकरण और निजीकरण के बाद उनके व्यावसायिक रोजगार में काम करने की संख्या में बदलाव आया है। अब शिक्षित, प्रतिष्ठित हुनरमंद महिलाओं की यह जिम्मेदारी है कि अब वे दूसरी अशक्त और बेसहारा महिलाओं के विकास के लिए कुछ नई योजनाएं, संगठन, संघों और नीतियों का क्रियान्वयन करें। भारत सरकार ने इस संबंध में कई सकारात्मक कदम उठाए हैं तो दूसरी तरफ, एनजीओ, नारी संगठन ने भी अपनी भूमिकाएं निभाई है।

          श्री महिला उद्योग लिज्जत पापड़ सेवा, जागौरी जैसी अनेक संस्थाओं को महिला सशक्तीकरण को बढ़ाने के लिए छाता संगठनों का निर्माण करना होगा जिसके द्वारा ग्रामीण और बेरोजगार महिलाओं को प्रशिक्षित किया जा सके। उन्हें स्किल बेस प्रशिक्षण, कंप्यूटर तकनीकी शिक्षा, रोजगार की नई तकनीकें ट्रेनिंग से हर प्रकार से प्रशिक्षित किया जा सके। उनके मानसिक स्तर का विकास करने के लिए उनके अंदर इच्छाशक्ति, जागृति, मनोबल, मानसिकता परिवर्तन, हौसला उत्पन्न करना अत्यंत आवश्यक है। दूसरी तरफ, ग्रामीण महिलाओं में भी चेतना और जागृति का विस्तार आवश्यक है। महिलाओं को पूर्ण रूप से आत्मनिर्भर बनाना और अपने बच्चों को भी आत्मनिर्भर बनाना अति आवश्यक है। देश के बड़े-बड़े उद्योगों, संगठनों, क्षेत्रों से जुड़ी किसी भी क्षेत्र की महिलाएं विशेषज्ञ अगर अपना थोड़ा सा समय किसी भी रूप में महिला प्रशिक्षण में देगी, तो देश की तरक्की की राह आसान हो जाएगी और पुरुषों पर महिलाओं की निर्भरता में भी कमी आएगी और महिलाओं में आत्मनिर्भरता, आत्मविश्वास का विकास होगा, जहां महिलाएं निर्णय लेने में स्वतंत्र होंगी। इस प्रकार, महिलाएं देश में अपनी महत्त्वपूर्ण भागीदारी और जिम्मेदारी को समझेंगी भी और निभाने के लिए सक्षम भी बनेंगी।

संदर्भ :
1.   महीपाल (1996) पंचायती राज अतीत वर्तमान और भविष्य, सारांश प्रकाशन, नई दिल्ली
2.   अश्वनी (2010) ग्रामीण विकास में पंचायती राज का योगदान, कुरुक्षेत्र, अक्टूबर, अंक 12
3.   सीमा सिंह (2010) पंचायती राज और महिला सशक्तीकरण, विद्या विहार प्रकाशन, नई दिल्ली
4.   आर.पी.जोशी एवं रूपा मंगलानी (2010) भारत में पंचायती राज, राजस्थान हिंदी अकादमी, प्रकाशन जयपुर
5.   ललिता सोलंकी (2015) महिला आर्थिक सशक्तीकरण एवं पंचायती राज, क्लासिकल पब्लिशिंग, नई दिल्ली
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8.   हरिमोहन धवन (1998) महिला सशक्तीकरण : विविध आयाम, रावत पब्लिकेशन, राजस्थान जयपुर
9.   चेतन मेहता (1996) महिला एवं कानून, आशीष पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली
10. राधा कुमार (2005) स्त्री संघर्ष का इतिहास 1800-1900,
वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली
11. जॉर्ज मैथ्यू व रमेश चंद्र नायक (1996) पंचायतें व्यवहार में क्या लाभ हैं, इनसे शोषित वर्गों को? इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज, नई दिल्ली
12. विद्युत मोहंती व अन्य (1997) महिलाएं और राजनीतिक सशक्तीकरण, इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज, नई दिल्ली

 

आशीष कुमार चौरसिया
शोध छात्र, समाजशास्त्र विभाग
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी (उ०प्र०)
Email- ashishn97bhu@gmail.com
 
 अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
अंक-49, अक्टूबर-दिसम्बर, 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : डॉ. माणिक व डॉ. जितेन्द्र यादव चित्रांकन : .................

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