आलेख : श्रीलंका में संस्कृत और पालि का संवर्द्धन / प्रो. राधावल्लभ त्रिपाठी

श्रीलंका में संस्कृत और पालि का संवर्द्धन 
 - प्रो. राधावल्लभ त्रिपाठी


            मेरे लिए श्रीलंका बहुत ही आकर्षण का केंद्र रहा है क्योंकि श्रीलंका उन देशों में है जहाँ भारत के बाहर संस्कृत और संस्कृति फलती फूलती रही है। ऐसे कुछ देशों में एक तो थाईलैंड है, जहाँ मैं रहा हूँ तीन वर्ष।  वहाँ पारंपरिक संस्कृत शास्त्र परंपराएॅं संवर्धित होती रही हैं। विशेष रूप से बौद्ध धर्म दर्शन और पालि वांग्मय की परंपरा वहाँ बहुत अधिक संवर्धित होती रही और दूसरा देश नेपाल है, जहाँ संस्कृत साहित्य के अनेक महाकवि हुए, बड़े-बड़े पंडित हुए। अभी भी वहाँ पारंपरिक संस्कृत के अनेक पंडित हैं, संस्कृत विश्वविद्यालय है। उसके बाद श्रीलंका है जहाँ संस्कृत भाषा और भारतीय संस्कृति उसी तरह से संवर्धित की जाती रही है जैसे कि हमारे भारत देश में या आप कह लें कि भारत ही वहाँ एक तरह से बसा हुआ है। भारत और श्रीलंका के संबंधों का जितना विदित इतिहास है वह लगभग ढाई हजार वर्ष पुराना है। उसके पहले के इतिहास को माईथोलॉजिकल हिस्ट्री कह सकते हैं।वो मिथकीय इतिहास है जिसमें भारत और श्रीलंका का संबंध है। जहां राम, रावण को विजय करते हैं, विभीषण को वे उत्तराधिकारी बनाते हैं। तो  अयोध्या और श्रीलंका का संबंध है। रावण, स्वयं संस्कृत का बहुत बड़ा पंडित था। यह तो वाल्मीकि रामायण में उसकी बहुत प्रशंसा है। वाल्मीकि रामायण में रावण उस तरह से खलनायक नहीं है। महान पंडित है, बहुत मेधावी और बहुत बुद्धिमान, बहुत नीतिज्ञ यहाँ तक कि राम, लक्ष्मण से कहते हैं कि इससे कुछ सीख लो जब तक यह जीवित है, इसे अंतिम संदेश के रूप में कुछ नीति का ज्ञान प्राप्त कर लो ऐसा पंडित फिर नहीं मिलेगा और रावण का शिव तांडव स्तोत्र संस्कृत में लिखा हुआ है माना जाता है, ऐसी परंपरा है। तो यह श्रीलंका में संस्कृत उसी प्रकार से फलती-फूलती रही है। तीन हजार वर्ष पहले इस प्रकार से रामायण काल में भारत में संस्कृत भाषा फलती फूलती रही, उसमें साहित्य की रचना होती रही पर वो एक मिथकीय परंपराओं के द्वारा हमको ज्ञात होता है। जितना विदित इतिहास है वह राजकुमार विजय है जो यहाॅं से श्रीलंका में गए।  छठी शताब्दी ईसा पूर्व में इधर बुद्ध का अवतरण हुआ और उधर यहाँ  से एक राजकुमार है, जिनका नाम विजय है वो श्रीलंका जाते हैं और सिंह को विजय करने के कारण या सिंह को मारने के कारण वो सिंहल कहलाए। या उनका पूरा वंश उनकी वंश जाति के लोग सिंहल जाति कहलाए और इन्होंने जिस राज्य की स्थापना की वह दो हजार  वर्ष से अधिक समय तक कायम रहा। श्रीलंका में और बीच-बीच में चोल और पांडव राजाओं ने श्रीलंका के कुछ भू-भाग पर अधिकार किया और तभी से सिंहलो और जो वहाँ  भारतीय पहुंचे उनके बीच संघर्ष की परंपरा भी चल पड़ी। तमिल लोग वहाँ पर काफी पहुॅंचे और वर्चस्व सिंहलियों का रहा। पर मूलतः भारत के निवासी वे रहे हैं, ऐसा माना जाता है। अनेक परंपराएँ भारत की वहाँ पहुँची वर्णाश्रम की व्यवस्था वहा पहुँची और कलिंग से मगध से और बंगाल से इनका विशेष संबंध रहा और सिंहली संस्कृति इन राज्यों के संपर्क से विशेष रूप से फलती-फूलती रही। बाद में जब पालि भाषा वहाॅं पहुँची तो अनेक मौलिक ग्रंथ पालि के लिखे गए, जिनमें बहुत ही महत्त्वपूर्ण योगदान है श्रीलंका का, पालि साहित्य को। 

            महावंश और दीपवंश यह अवदान साहित्य कहलाता है और ये  विश्व साहित्य की बड़ी धरोहर है जो श्रीलंका में संवर्धित की गई उसमें श्रीलंका की पूरी संस्कृति की झलक हमको मिलती है। बुद्ध के अवदानों का बौद्धिक सत्त्व के चरित्र का वर्णन है परंतु अनेक ऐतिहासिक तथ्य भी हमको इन दोनों ग्रन्थों से विदित होते हैं और भारतीय कला का भी विशेष रूप से प्रभाव परिलक्षित होता है। वहाँ के चित्रकला में, मूर्तिकला में और अन्य जो शिल्प कलाएँ हैं उसमें बहुत समानता है। क्योंकि वहाॅं हाथी बहुत होते हैं तो हाथी दाँत का काम बहुत होता रहा और हमारे यहाँ भी हाथी दाँत का काम होता रहा है तो दोनों में बहुत साम्य भी मिलता है। इस तरह संस्कृति और जीवन मूल्य बौद्ध दर्शन से मिलता जुलता है इसलिए कला की परंपराएँ भी बहुत मिलती-जुलती हैं। अतः भारत और श्रीलंका के और संपर्क भी बनते रहे। भले ही सिंहल राजा स्वतंत्र रूप से राज्य करते रहे परंतु पाण्ड्य नरेशों से संपर्क बने रहे। जिस राजकुमार विजय की मैंने चर्चा की है उन्होंने पांड्य नरेश से संपर्क किया और वहाँ  से लोग यहाँ आते रहे और यहाँ से लोग वहाँ जाते रहे। राजकुमार विजय ने ही अपने छोटे भाई को यहाँ भेजा ऐसी परंपरा मिलती है। जो भाषा और लिपि वहाँ विकसित हुई वह ब्राह्मी लिपि से प्रभावित है। सिंहली भाषा की लिपि ब्राह्मी लिपि से ही निकली और सिंहली भाषा पर संस्कृत और पालि का भी बहुत गहरा प्रभाव परिलक्षित किया जाता है। हमारे यहाँ १६ संस्कार रहे हैं, जो धर्म शास्त्रों में बताए गए उनमें से मुख्य संस्कार भी वहाँ किए जाते रहे विशेष रूप से उपनयन संस्कार का वर्णन मिलता है। शिक्षा व्यवस्था में भी बहुत साम्य  है। वहाँ पर उस प्रकार से पाठशालाएँ, विश्वविद्यालय, गुरुकुल कायम हुए और विशेष रूप से सिंहली, पालि, संस्कृत और तमिल इन चार भाषाओं की शिक्षा दी जाती थी। श्रीलंका में चिकित्सा विज्ञान की बड़ी अभूतपूर्व उन्नति हुई और महावंश और द्वीपवंश इन दोनों पालि के ग्रन्थों से वहाँ पर किस प्रकार से अस्पताल चलते थे, चिकित्सा किस प्रकार से होती थी और गाँव-गाँव में चिकित्सालय थेइन सबका उल्लेख मिलता है और विक्ट्री साइंस भी बड़ा विकसित था।  पशु चिकित्सा भी बहुत विकसित थी और त्रिपिटक वहाँ पहुँचे जो बौद्ध साहित्य है, बुद्ध के वचन जिसमें संकलित किए गए हैं। तो त्रिपिटकों का अपार साहित्य एवं विशाल साहित्य है।  उसकी सुरक्षा और उसका संरक्षण श्रीलंका में जिस प्रकार से किया गया वह अपूर्व है। दो देशों में विशेष रूप से त्रिपिटक सुरक्षित रखे गए और बाद में जब 19वीं-20वीं शताब्दी में हमारे यहाँ से त्रिपिटकों के शुद्ध पाठ कहाँ मिलेंगे तो इसके लिए जब भारत में खोज की जाती थी तो भारत में त्रिपिटक उस रूप में उपलब्ध नहीं हो पा रहे थे तब यह दो ही देश विशेष रूप से हमारे लिए गंतव्य होते थे जहां त्रिपिटक की परंपरा है, या तो थाईलैंड जाएंगे या फिर श्रीलंका। दोनों के त्रिपिटकों में अंतर है श्रीलंका के त्रिपिटक में जो बुद्ध के वचन है वह  शुद्ध रूप में संकलित करके संरक्षित किए गए और इनकी पुस्तकें लिपिबद्ध की जाती रही। इनके स्क्रिप्ट वहाँ पर ज़ब्त किए जाते रहे। श्रीलंका का यह बड़ा योगदान है कि भारत की परंपराओं को जो यहाँ से गई उनको संवर्धित और संरक्षित रखा। जो राजाओं की नामावली मिलती है उसमें भी संस्कृत के नाम बहुत अधिक मिलते हैं या पालि के वे नाम  कहे जा सकते हैं। राजा बुद्धदास चौथी शताब्दी में हुए उनके कार्यों का बहुत वर्णन विस्तार से किया गया है। यह जो अवदान साहित्यहै इसमें उन्होंने किस तरह से गाँव-गाँव में चिकित्सालय खोले, अस्पताल खोले हैं, इसका वर्णन है। यह भी मिलता है कि राजा लोग स्वयं पढ़े लिखे हुआ करते थे, विद्वान हुआ करते थे हमारे यहाँ भी यह परंपरा रही। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में जैसा बताया गया है कि राजकुमारों की शिक्षा की व्यवस्था कैसे हो और किस तरह से उनको शास्त्रों का ज्ञान कराया जाना चाहिए तो जितने भी राजा श्रीलंका में हुए प्राचीन काल में बड़े ही सुशिक्षित हुआ करते थे। वे शास्त्रज्ञ हुआ करते थे और विभिन्न ज्ञान-विज्ञान की परंपराओं को संवर्धित करने में उनकी बड़ी भूमिका रहती थी। तो ये बुद्धदास स्वयं बड़े अच्छे चिकित्सक भी थे। और चिकित्सा संबंधी उन्होंने सिंहली भाषा में पुस्तक लिखी इसका भी उल्लेख मिलता है। तो विशेष रूप से बौद्ध धर्म की परंपरा फिर अशोक के समय जो बाहर पहुॅंची वो श्रीलंका में एक परंपरा के रूप में पहुॅंची। उसके पहले कुछ ब्राह्मण धर्म, वैदिक धर्म की परंपराएँ यहाँ विकसित हुईं और ये तीसरी शताब्दी . पूर्व से जब महेंद्र-संघमित्रा अशोक के दूत के रूप में बौद्ध धर्म के प्रचारक के रूप में पहुॅंचते हैं। श्रीलंका में तो बौद्ध धर्म की परंपराएँ बहुत अधिक पल्लवित पुष्पित और विकसित की जाती हैं। तो यह जो देश है श्रीलंका, थाईलैंड, वर्मा, चीन, जापान, नेपाल और तिब्बत इन सब में बौद्ध धर्म के प्रचारक जो गए वो यहाँ  से कला परंपराएँ  भी लेकर गए। बौद्ध धर्म की जो कला की परंपरा थी वो हमारे यहाँ अजंता की गुफाओं में तो चित्रकला की परंपरा  हम देखते हैं पर बुद्धिस्ट थिएटर हमारे यहाँ से लगभग खत्म हो गया। 

            एक बौद्ध रंगमंच था, बुद्धिस्ट थिएटर था जो बहुत ही संपन्न रंगमंच था और उसका अपना एक रंग दर्शन था और उसकी अपनी एक स्टैटिसटिक्स थिएटर का सौंदर्य दर्शन उनके पास था। जो शांत रस की प्रमुखता के साथ  श्रृंगार रस की प्रमुखता वाले रंगमंच के समानांतर और अश्वघोष के नाटक उसके अंतर्गत लिखे गए और भी नाटक लिखे जाते रहे। बाद में छटी शताब्दी में चंद्रभूमि का नाटक लिखा गया, जो संस्कृत में फिर नहीं मिलता है और भाषा में उसका अनुवाद मिलता है। उसे हमारे मित्र मिखाइल  खान ने जर्मन और अंग्रेजी में उसका अनुवाद किया है, बहुत ही सुंदर नाटक है। तो ये बहुत सारा साहित्य जो भारत में नष्ट हो गया था, वो इन देशों में संरक्षित मिलता है। फिर जो संस्कृत में भी बौद्धवांग्मय लिखा गया वो भारत में फिर उतना सुरक्षित नहीं रखा जा सका। क्योंकि भारत में बौद्ध धर्म भी जब सिमटता गया तो यह कुछ ही पॉकेट में बचा। जैसे लेह में, लद्दाख में, दक्षिण के कुछ क्षेत्रों में। तो यहाँ पर बौद्ध धर्म दर्शन संबंधी या बौद्ध कला संबंधी जो ग्रंथ हैं, वो उस रूप में सुरक्षित नहीं रह पाए। लेकिन श्रीलंका, तिब्बत, चीन इन देशों में जो संस्कृत के भी ग्रंथ हैं वो मिल जाते हैं और जिन्हें फिर सुरक्षित रखा गया। तो यह जो बौद्ध रंगमंच है इसकी तीन दिशाएं बनीं, जिससे बौद्धिक कला की परंपरा इन देशों में गई। उसमें एक थेरवादी परंपरा है और एक वज्रयानी परंपरा है और एक महायानी परंपरा है। तो इन तीनों की अपनी कला परंपराएँ हैं। तीनों की लिपि, भाषा, साहित्य, कला और संस्कृति है और इसमें से थेरवादी परंपरा विशेष रूप से श्रीलंका में पहुँची। ये बड़ी बात है कि बौद्धधर्म और दर्शन का जो सबसे प्राचीन संप्रदाय है, वो श्रीलंका में अपने विशुद्ध रूप में सुरक्षित रखा गया। इसी तरह महायान की परंपरा भी है जो बाद में विकसित हुई, जिसमें बुद्ध की भक्ति की जाती है और एक बड़ी समृद्ध परंपरा महायान के अंतर्गत विकसित हुई। थेरवाद को ही हीनयान भी कहा जाता है। तो हीनयान और महायान ये जो सिस्टम्स बने बौद्धधर्म के अंतर्गत उसमें से थेरवाद या हीनयान पहुँचा श्रीलंका में, और महायान पहुँचा थाईलैंड और दूसरे देशों में। जबकि वज्रयान कुछ तिब्बत में भी पहुँचा। हमारे यहाँ  भी वज्रयान ही साधक होते रहे हैं। महायान विशेष रूप से जापान में पहुँचा लेकिन थाईलैंड के साथ। तो ये  जो थेरवाद है स्थिरवाद जिसको कहते हैं, स्थिर वयोवृद्ध को कहते हैं। तो जो बुजुर्ग विकसित हैं उन्होंने स्थिरवाद या थेरवाद का प्रचार किया और बुद्ध के वचन (अविकल रूप में जो बुद्ध का संदेश है) उसको मानते हैं यह उन्होंने कहा। जो स्थिरवाद या थेरवाद है यह श्रीलंका में पहुँचा और अपने साथ जो थेरवादी साधन थे वह नृत्य और नाट्य की परंपरा भी लेकर के गए। तो बौद्ध धर्म और दर्शन में नाटक, नृत्य और रंगमंच नहीं था ऐसा नहीं मानना चाहिए। हमारे यहाँ वह सुरक्षित नहीं रह पाया पर तिब्बत में और चीन में जापान में और विशेष रूप से श्रीलंका में जो बौद्ध धर्म दर्शन से जुड़ी हुई कला परंपराएँ हैं, वह यहाँ से पहुंची और थेरवाद से जुड़े हुए जो कला रूप हैं, रंगमंच के रूप हैं, नृत्य नाटक के वह भी वहाँ पहुॅंचे और ये तांत्रिक अनुष्ठानों से भी जुड़े। ऐसा तिब्बत में भी हुआ कि जो नृत्य, नाट्य की परंपराएँ हैं वह तांत्रिक कल्ट से जुड़ जाती हैं क्योंकि तंत्र साधक नृत्य भी करते हैं। तो ये लोकनाट्य और लोकनृत्य जो श्रीलंका के हैं इनसे बहुत इंटरेक्शन अथवा अन्तःक्रिया इनकी हुई। जो बौद्धधर्म और दर्शन की कला परंपराएँ थेरवाद से जुड़े हुए नृत्य-नाट्य  की परंपराएॅं श्रीलंका में पहुॅंची उन्हें कोलम और कैंडी कला रूप से जाना गया। यह दो फॉर्म्सकोलम नृत्य और कैंडी नृत्यके नाम से विशेष रूप से विकसित हुए।

        ऊपर में जहाॅं हमने महावंश का उल्लेख किया है जो अवदान साहित्य के अंतर्गत श्रीलंका में रचा गया। द्वीपवंश और महावंश ये  दो बड़े ग्रंथ, तो इस महावंश को दंति साकार पालि में कहते हैं और महावंश संस्कृत में हो जाएगा। तो महावंश में किस प्रकार से राजाओं के द्वारा प्रोत्साहित किया जाता रहा, इसके  वर्णन मिलते हैं।

          इसी तरह एक शिलप्पदिकारम तमिल का बड़ा महाकाव्य है। जिस प्रकार से संस्कृत में हमारे यहाँ  रामायण और महाभारत है। उसी प्रकार से तमिल में शिलप्पदिकारम और मणिमेक्लै यह दो बड़े महाकाव्य हैं। मणिमेक्लै में श्रीलंका की संस्कृति का भी वर्णन कहीं-कहीं आता है। क्योंकि वह बड़ा महाकाव्य है और रामायण की तरह ही बड़ा सांस्कृतिक काव्य है। हालाॅंकि उसमें मध्य वर्ग के परिवारों का जो मणिक हैं। उसमें तमिल और दक्षिण के जीवन का चित्रण है। तो यहाँ  श्रीलंका के नटु नामक सिंहली नृत्य का उसमें वर्णन किया गया है और किस प्रकार से नाट्यशालाएॅं हैं और उनका अभिनय किया जाता रहा जहाॅं इंद्र को नृत्य और नाट्य के जनक के रूप में मान्यता दी गई। बौद्ध धर्म के सर्वोच्च संरक्षणकर्त्ता संरक्षक के रूप में भी इंद्र की पूजा यहाँ होती रही है। यह उल्लेख मिलता है और बुद्ध के पवित्र दाँत की यात्रा के वर्णन मिलते हैं। बुद्ध की अस्थियाॅं ले जाई गईं और बुद्ध का एक दाँत जिसे श्रीलंका में ले जाया गया। तो दाँत जब वहाँ  पहुंचा तो पारंपरिक कैंडी नृत्य उसके आराधना में किया गया। इसके वर्णन मिलते हैं और वो जो मंदिर बनाए गए हैं भगवान बुद्ध के उनमें भी कैंडी नृत्य किया जाता था। और विशेष रूप से नृत्य नाट्य हुआ करते थे उसमें बुद्ध के महाभिनिष्क्रमण की घटना की प्रस्तुति की जाती थी। जहाॅं वे  छंदक के साथ अश्वों पर सवार होकर निकले। जिसमें एक अश्व का नाम कंथक है और छंदक (जो सारथी था) उसका नाम मिलता है। तो किस प्रकार से वह राजमहल से आधी रात में निकल पड़े, इस कथा का इस नृत्य नाट्य में अभिनय किया जाता था और यह माना गया कि यह जो नृत्य नाट्य किए जाएंगे इससे फसल बढ़ेगी, धन संपदा बढ़ेगी, समृद्धि होगीसमाज में यह मान्यता थी। कैंडी नृत्य है, कहुबा नृत्य है, एक दूसरा नृत्य कर्म नाट्य उसका नाम मिलता है। इसमें बौद्ध धर्म और दर्शन विशेष रूप से जो बुद्धिस्ट फिलाॅसफी से संक्रांत होती है यह हम इसमें देखते हैं। इसमें अभिनय का जो दर्शन है वह इस प्रकार की थी कि अभिनेता स्वयं संप्रेषक के रूप में अपने आप को रूपांतरित कर लेता है और अपने आप को अभिनय करते हुए वह देखता है। तो योगी जिस प्रकार समाधि में स्थित होकर के अपने भीतर चलते हुए नाटक को देखता है तो उसी प्रकार से अभिनेता अपने ही द्वारा किए जाते हुए नाटक को देखता है।


प्रो. राधावल्लभ त्रिपाठी
(ख्यातनाम लेखक और विद्वान)

चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-50, जनवरी, 2024 UGC Care Listed Issue
विशेषांक : भक्ति आन्दोलन और हिंदी की सांस्कृतिक परिधि
अतिथि सम्पादक : प्रो. गजेन्द्र पाठक सह-सम्पादक :  अजीत आर्यागौरव सिंहश्वेता यादव चित्रांकन : प्रिया सिंह (इलाहाबाद)

3 टिप्पणियाँ

  1. राधावल्लभ जी सुनना और पढ़ना दोनों रुचिकर होता है | इनके जैसे विद्वान विषय की व्यापकता और गंभीरता को कैसे सरल रूप में प्रस्तुत कर देते हैं , यह इनसे सीखा जा सकता है | यह साधना से अर्जित किया पथ है | सर का पुन: आभार |

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  2. राधावल्लभ जी को सुनना और उनके लिखे हुए को पढ़ना हमेशा रुचिकर होता है | यह साधना-पथ से अर्जित की गयी उपलब्धि है | विषय की व्यापकता और गंभीरता को कैसे सरल रूप में प्रस्तुत किया जाये, यह इनसे सीखा जा सकता है |

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  3. सरलता की साधना!

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