शोध आलेख : ‘महुआचरित' का नारीत्व : एक नई परिभाषा की तलाश में / सनोवर

महुआचरित' का नारीत्व : एक नई परिभाषा की तलाश में 
सनोवर 

शोध सार : काशीनाथ सिंह सामाजिक क्षेत्र के यथार्थवादी उपन्यासकार हैं। वे समसमायिक विषयों पर अपनीविचारधारा जाहिर करने में नहीं हिचकिचाते और किसी प्रकार के व्यंग्य से बचते हैं। उनके कथा-साहित्य में सामाजिक आकांक्षाएं, सुख-दुःख और खुशी के विभिन्न रूपों का विवरण दृष्टिगोचर होता है। नारी अस्मिता के साथ नारी शोषण संघर्ष का लेखक ने अपने कथा-साहित्य में यथार्थ अंकन किया है।नारी की मानसिकता, संवेदना और उसके भीतर उत्पन्न घुटन, अलगाव, पीड़ा, बेबसी, ईर्ष्या, घुटन, संत्रास, निर्भीकता, चिंता आदि सूक्ष्म मनोभावों को गहन अनुभूति से लेखक ने उपन्यास में कलात्मक अभिव्यंजना प्रदान की है।महुआचरितउपन्यास नारी देह के स्थान पर नारी मन को सर्वोच्चता प्रकट करने में सफल कहा जा सकता है। उपन्यास में नारी मन  की  दमित वासनाएं, कुंठित इच्छाएं, नारी देह मन के अंतर्द्वंद और नारी अस्मिताबोध के संघर्ष को दर्शाया गया है।                                      

बीज शब्द : महुआ, नारी, भारतीय समाज, अस्मिताबोध, अंतर्द्वंद, सामाजिक मानदंड, दमित इच्छाएं, देह और मन, स्वतंत्रता।                                                                                                                                                

मूल आलेख : काशीनाथ सिंह आधुनिक हिंदी साहित्य के ऐसे कथाकार हैं, जो अपने कथा-साहित्य के द्वारा जीवन के अंतर्विरोधों, मनुष्य की प्रकृति से विछिन्न होने की मानसिकता एवं भारतीय समाज की जटिल सामाजिक संरचना से अवगत कराते हैं। इन्होंने पूरी समग्रता के साथ सामयिक समस्याओं को समेटकर अपनी रचनाओं में चित्रित किया है। लेखक ने अपने उपन्यासों में नये-नये मुद्दों को गम्भीरता के साथ प्रस्तुत किया है। काशीनाथ सिंह ने 'अपना मोर्चा', 'काशी का अस्सी', 'रेहन पर रग्घू', 'महुआचरित', एवं 'उपसंहार' उपन्यासों की रचना की है। कथाकार के उपन्यासों में मौलिक विन्यास मिलता है।अपना मोर्चा उपन्यास छात्र आंदोलन को केंद्र में रखकर लिखा गया देश के युवाओं का प्रतिरोध, मानसिकता का दस्तावेज है। इसमें विश्वविद्यालय और प्रशासन की भूमिका पर प्रकाश डाला गया है। वर्तमान में बढ़ती राजनीतिक प्रतिस्पर्धा, जातिवाद, धार्मिक उन्माद, पाखंड आदि पर आधारित उपन्यासकाशी का अस्सीबनारस ही नहीं बल्कि संपूर्ण भारत का परिचय प्रस्तुत करता है। 'रेहन पर रग्घू' लेखक की प्रौढ़ रचना है। इसमें नए-पुराने मूल्यों के यथार्थ की अभिव्यक्ति के साथ उपभोक्तावाद की क्रुरताओं का परिचय एवं शोषित जातियों के सकारात्मक उभार और नई स्त्री शक्ति एवं व्यथा का चित्रांकन है। यह उपन्यास गांव, शहर, अमेरिका तक के भूगोल में फैला हुआ है। उपसंहार उपन्यास में महाभारत के उत्तर कथा को नयी दृष्टि से देखने का प्रयास किया गया है। 'महुआचरितउपन्यास का काशीनाथ सिंह द्वारा लिखित उपन्यासों में महत्वपूर्ण स्थान है। इस आलेख में हम पितृसत्तात्मक व्यवस्था का महुआ स्त्री के जीवन पर पड़ने वाले प्रभाव का सूक्ष्मता से अध्ययन करेंगे। लेखक पुरुष मानसिकता मानवीय रुपों में बने संस्कारों में बसी स्त्री की छवि और सामाजिक स्थिति की जाँच पड़ताल करता है।

 भारतीय समाज में नारी सदैव अपने अधिकारों से वंचित उपेक्षित रही है, क्योंकि हमारे समाज में पितृसत्तात्मक समाज का बोलबाला था। किसी भी समाज के सुसंस्कृत होने की पहचान वहाँ की स्त्री की दशा देख कर हो जाती है। स्त्री का अस्मिता के लिए संघर्ष करना वर्तमान चिंतन का सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न है, जिसने हाशिये पर धकेल दी गयी स्त्री को उठाकर केंद्र में स्थापित कर दिया है। स्त्री अस्मिता बंधनों से मुक्त होने के लिए विद्रोह करने और स्त्री- पुरुष की समानता के लिए संघर्ष करने का नाम है। स्त्री और पुरुष की असमानता की निंदा करते हुए काशीनाथ सिंह कहते हैं कि, “पुरुष वर्चस्व सभी जगह है, जाने क्यों मुझे ऐसा लगता है कि लेखन ऐसा क्यों नहीं हो पा रहा है, स्त्रियों पुरुषों के द्वारा। खुद स्त्री विमर्श करने वाले लोग अपनी बेटियों स्त्रियों पर दोहरे मापदंड अपनाते हैं।1 नारी की दुनिया में उसका सब कुछ निहित होता है - उसका घर- परिवार, नाते-रिश्ते, समाज सामाजिक बंधन, लेकिन उसका स्वयं का अस्तित्व कहाँ हैं? एक व्यक्ति के रूप में, सृजनशील, विकासमान व्यक्तित्व के रूप में? एक सार्थक स्वाभिमानी सृजनकर्ता के रूप में। वर्तमान में नारी के लिए सबसे आवश्यक अस्तित्व का प्रश्न है क्योंकि नारी के जीवन में बहुत से नए परिवर्तन हुए हैं। उसने नए क्षेत्रों में कदम बढ़ाया है, व्यक्ति के रूप में उसकी हैसियत में बढ़ोतरी भी हुई है। इसे देख कर यह भी कहा जा सकता है कि अब भला और क्या बचा है? परन्तु यही सवाल तो मर्मस्पर्शी है, यही प्रश्न तो उसकी वास्तविक पीड़ा है कि उसने क्या पाया है? क्या पाना है? कैसे पाना है? और कितना पाना है, यह सब क्या दूसरे ही तय करेंगे उसके लिए?कितनी ही बदली हुई क्यों दिखाई दे औरत की दुनिया, वह आज भी अपनी दुनिया का केन्द्र नहीं है वह तो एक ऐसा वृत्त है जिसकी धुरी खो गई है। वह महज परिधि लिए दूसरी धुरी पर नृत्य करती रही है।2

काशीनाथ सिंह द्वारा आत्मकथात्मक शैली में लिखित लघु उपन्यास 'महुआचरित' में अस्तित्वबोध के लिए संघर्ष करती नायिका महुआ की सघन जटिल संवेदना को दर्शाया गया है। देहशक्ति से विवाह तक की यात्रा में महुआ के अंदर उत्पन्न जीवन की अपार अरण्य में भटकती इच्छाओं के आख्यान का प्रस्तुतीकरण उपन्यास में किया गया है। 'महुआचरित' लघु उपन्यास होने के बावजूद अपने अंदर कई बड़े-बड़े सामाजिक मुद्दों को समेटे हुए है। उपन्यास पुरुष की निम्न मानसिकता एवं नारी मुक्ति के यथार्थ को प्रस्तुत करता है। नारी मुक्ति पर आधारित यह उपन्यास नारी का नारीत्व को त्यागकर पुरुष जैसा बन जाने के पक्ष में नहीं है बल्कि नारी मुक्ति का अभिप्राय नारी का स्वयं को पहचानना, अपनी अस्मिता के प्रति सजग होना अपने बारे में स्पष्ट अभिमत रखकर उसी के अनुसार स्वयं के व्यक्तित्व को बनाना और विकास करना है। परंतु नारी अनेक सामाजिक, धार्मिक, रूढ़िगत बेड़ियों से बंधी हुई है, जिससे उसे अपने अस्तित्व का बोध नहीं हो पाता है। भारतीय स्त्री त्याग, असीम श्रद्धा और अमर आशावाद का प्रतीक है। जिस प्रकार कोलाहल किए बिना प्रकृति फूल खिलाती है उसी प्रकार स्त्रियाँ परिवार में मौन रहकर परिश्रम कर आनंद का निर्माण करती हैं। परिवार में सभी की सेवा करते हुए अपना सर्वस्व परिवार को समर्पित करती हैं। स्त्री का जीवन एक चिरयज्ञ है और स्त्री मूर्त कर्मयोग। डॉ. सुरेश सिन्हा के अनुसार, "पालन, पोषण, स्नेह, वात्सल्य तथा सेवाभाव आदि मातृरूपा नारी की सर्वप्रमुख विशेषताएँ होती हैं, जिनसे वह संसार में सुख, संतोष एवं उल्लासपूर्ण वातावरण का निर्माण करती है और मानवता उसके बंधन में सुख प्राप्त करती है, विकसित होती है और अपनी सार्थकता सिद्ध करती है।"3 परंतु जब-जब स्त्री ने अपनी महत्वता अस्तित्व के लिए संघर्ष किया है तब-तब उसे सामाजिक नैतिक मानदंड द्वारा दबा दिया गया है।

महुआ उन्नतीस साल की अविवाहित नारी है, जिसके भीतर अनेक इच्छाओं को पूरा करने की लालसा है लेकिन वह नैतिक बंधनों में जकड़ी हुई है। महुआ सामाजिक रूढ़ियों से मुक्त होकर स्वतंत्रता से अपना जीवन जीना चाहती है। अस्सी साल के रिटायर्ड स्वतंत्रता सेनानी पिता देश की चिंता करते हैं, परंतु बेटी के विवाह के विषय में कभी नहीं सोचते। इसी से खिन्न होकर महुआ कहती है,कभी अपनी बेटी के बारे में भी सोचा है? तुम्हें तो यह तक पता नहीं कि तुम्हारी बेटी की उम्र क्या है? उन्नीस या तीस, तुम जिन सहेलियों के बारे में पूछते हो उनमें कितनी माएं बन चुकी हैं और कितनी पेट से हैं? तुम यह भी जानते हो कि दहेज दे सकते हो, मैं वैसी शादी कर सकती हूं, फिर तुम खुलकर क्यों नहीं कहते कि बेटी, तुम्हें जो करना है करो। हम साथ हैं तुम्हारे!”4 स्पष्टतः महुआ अपने भविष्य के प्रति चिंतित नजर आती है| स्त्री के इस अधुनातन रूप के संदर्भ में शांति कुमार स्याल का कथन सटीक है कि, नारी पहले अनुगामिनी होती है फिर सहभागिनी होती है और अन्त में अग्रगामिनी हो जाती है। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उसकी महत्वपूर्ण स्थिति एवं उपयोगिता है। वह पुरुष की तुलना में परिश्रम, प्रेम, सहानुभूति, सेवा और जीवन के अन्यान्य क्षेत्रों में उससे सदैव आगे रही है और रहेगी।5

महुआ की सभी सहेलियां विवाहित थी। जब भी वह उनसे मिलती तो हर सहेली अपने विवाहित जीवन के उल्लास क्षणों को व्यक्त करती। जिसे सुनकर महुआ को अपने जीवन में शून्यता का आभास होता। स्त्री के वास्तविक अंतर्मन में जागृत हो रही ईर्ष्या भाव को लेखक ने महुआ के माध्यम से बड़े ही यथार्थ ढंग से प्रस्तुत किया है। ऐसा नहीं था कि महुआ के जीवन में प्रेम का प्रस्ताव आया हो लेकिन कैरियर से पहले प्यार की अहमियत उसके लिए केवल एक फुटनोट मात्र थी पर अब उसे अपने अर्थहीन जीवन की चिंता सताने लगी है। नायिका अपने आंतरिक विचारों से संघर्ष करती हुई सोचती है, “घर की माली हालात और कैरियर की चिंता ने कभी एहसास ही नहीं होने दिया कि मैं भी औरत हूं, मेरी भी देह है, उस देह की अपनी जरूरतें हैं, मांगे हैं, भूख है। और अब जब उन्तीस की उम्र पार कर रही हूं तो मुझे क्यों लग रहा है कि या तो यौवन आया ही नहीं या आकर चला गया।6 महुआ का अपनी दमित और कुंठित इच्छाओं का संघर्ष बाह्य जगत में होकर अंतर्मन में ही चलता रहता है। उसकी कुंठित एवं दमित इच्छाएं भयानक रूप तब ले लेती हैं जब उसका छोटा भाई सुशांत अपनी पत्नी बलविंदर को लेकर घर आता है। उनके वैवाहिक जीवन की क्रियाकलापें, उसे मानसिक प्रताड़ना देकर अवसाद के मार्ग पर ले जाकर, उसमें अकेलापन, खलबली, बेबसी और बेचैनी भर देती है। महुआ अपने आंतरिक मनोभावों से संघर्ष करते हुए शारीरिक सौंदर्य के विषय में सोचने लगती है। समाज में नारी के प्रति दृष्टिकोण बना हुआ है जो रंग, रूप, देह और संतुष्टि की सीमा तक ही सीमित है। महुआ अपने शारीरिक सौंदर्य में आई कमी को चाहकर भी स्वीकार नहीं करना चाहती है। वह 'कोई' की आवश्यकता अनुभव करती है, जो इस बदलाव को झुठलाकर जीवन में रोमांच भर दे,मुझे भी 'कोई' की सख्त जरूरत महसूस होने लगी थी, जो इस बदलाव को झुठला दे और साबित कर दे कि मैं औरत हूं और किसी भी पुरुष को मर्द बनाने की क्षमता रखती हूं।7

स्त्री का पुरुष की खींची सीमा-रेखाओं से पांव इधर-उधर हुआ नहीं कि गौरव कलंक लगना, नारी-देह के शोषण, उत्पीड़न का चक्र आरंभ हो जाता है। कोमल, कमनीय, युवा, आकर्षक होना नारी की विशेषता और पुरुष को रिझाना और बांधना नारी की योग्यताएँ मानी जाने लगीं। नारी का ध्यान समस्त सृष्टि, अपने अस्तित्व अपने अधिकारों से हटकर अपनी देह एवं अपनी साज-सज्जा पर केन्द्रित होने लगा। महुआ की एकमात्र सहेली उसकी छत थी, जहां वह अपनी ऊब, निराशा और अकेलेपन को दूर करके खुलकर घूमती फिरती, लेकिन अंदर ही अंदर अपनी उत्तेजना को दबाते हुए उनसे लड़ती रहती। अपने परिवार और परिवेश में आसपास ऐसा व्यक्ति तलाश करती है जिसके सामने वह अपनी भावनाओं को व्यक्त कर सके, इस 'कोई' की ज़रूरत मुझे उसके लिए नहीं, अपने लिए थी और यह साजिद मेरा पड़ोसी और दो बच्चों का बाप साजिद मेरा 'कोई' हुआ। और इसे मेरे मन ने स्वीकार किया तो इसलिए कि इसमेंएडवेंचरके साथ थ्रिल भी शामिल था। और वह जीवन ही क्या जिसमें 'थ्रिल' हो।8 साजिद का मिलना उसके मन को ही नहीं अपितु उसके शरीर को भी ठंडक पहुँचाता है जिससे वह सामाजिक एवं परम्परागत मान्यताओं को तोड़ने में सक्षम हो जाती है। साजिद के साथ शारीरिक सुख प्राप्त कर महुआ नैतिक मान्यताओं के घेरे में जाती है। दोनों के लिए संभोग करना शारीरिक सुख था, लेकिन महुआ के सुख ने उसके लिए कर्तव्य के दरवाज़े खोल दिए थे। महुआ संतान को जन्म देकर मानवीयता का परिचय और जाति भेद से मुक्त होने का उदाहरण प्रस्तुत करना चाहती है,बीच-बीच में ऐसा भी ख्याल आता और जब आता तो मैं जोश और उत्तेजना में कांपने लगतीक्यों मैं धर्म और जाति और ऊंच-नीच के पचड़े में घुटते इस समाज के आगे एक मिसाल पेश करूं और एक नये कबीर को जन्म दूँ जिसका कोई मज़हब हो, ना जात जो सिर्फ और सिर्फ मनुष्य हो?”9 एक ओर अविवाहित का डर था और वहीं दूसरी ओर मुसलमान बाप होने जैसी प्रतिकूल परिस्थितियों के कारण समाज से लड़ने की क्षमता, उसमें विद्यमान नहीं थी। महुआ के लिए भ्रूण हत्या करना देह मन दोनों से ही असंभव हो रहा था। गर्भपात कराने के बाद लेखक ने स्त्री महुआ की मनोदशा का चित्रण बड़े ही यथार्थ ढंग से प्रस्तुत किया है,“मैं किसी तरह उससे ध्यान हटाती तो एक मन कहता - नाचो, गाओ, खुशियां मनाओ कि बचा लिया अपना जीवन! बच गया तुम्हारा भविष्य! लेकिन तुरंत ही दूसरा मन कहता - डरपोक! कायर! आक् थुह!”10 विवाह पूर्व गर्भवती स्त्री का पुरुष सत्तात्मक समाज में अधिकार नगण्य है। रूढ़िवादी मर्यादा के कारण ऐसे गर्भ को स्वीकार नहीं किया जाता, बल्कि उन्हें हीन और घृणित दृष्टि से देखा जाता है। समाज को इस सत्य को मानना चाहिए कि अपराध को करने में केवल स्त्री का हाथ नहीं होता है उसमें पुरुष की भी भागीदारी समान रूप से होती है। परंतु यह समाज पाप को स्त्रियों के ही सर मढ़ देता है। इस प्रकार आज भी स्त्रियाँ इस पुरुषसत्तात्मक समाज में उपभोग की वस्तु बनकर पद दलित हो रही हैं। महुआ का विवाह से पूर्व गर्भवती होना उसके पूरे मनोबल और आत्मविश्वास को तोड़ देता है। वहीं साजिद का निसंकोच होकर छत पर गुनगुनाना इस बात का परिचय देता है कि सभी नियम, कानून, रूढ़ियां केवल स्त्री के हिस्से में आते हैं, पुरुष का इन मापदंडों से कोई लेना-देना नहीं होता है। महुआ अब पुरुष पर आश्रित नहीं रहना चाहती बल्कि अपने मन के अनुरूप ही नैतिक एवं अनैतिक कार्य करती है। जहाँ उसके लिए  घृणा का भाव उत्पन्न नहीं होता है, क्योंकि पुरुष स्त्री की अपेक्षा चारित्रिक कमज़ोर दिखाई पड़ता है।  

वर्तमान समाज में नारी की स्थिति के विषय में एक सत्यापित दृष्टिकोण यह है कि उसकी दशा कुछ हद तक दयनीय भी हो गई है। जिनमें देर से विवाह और देह की चाह का प्रभाव जैसे कुछ मुख्य कारण भी सम्मिलित हो सकते हैं। इसके साथ ही कुछ लोग नारी को स्वतंत्रता के नाम पर नैतिक चारित्रिक संस्कारों की भी उपेक्षा करने का प्रयास करते हैं, जिससे उसे घर को पूर्ण रूप से संचालित करने में दिक्कतें जाती हैं और वह समाज की भी पूर्ण रूप से भागीदारी नहीं बन पाती। इस प्रकार के अंतर्द्वंद भरी विचारधारा से नारी के जीवन में संत्रास और बेबसी जैसी समस्या उत्पन्न हो जाती है। महुआ का अकेलापन और उसकी देहशक्ति से उत्पन्न निराशा उसे नकारात्मक भावनाओं के बीच उलझा देती है, जिससे उसमें अवसाद के लक्षण प्रकट हो जाते हैं,डिप्रेशन में चली गई थी जैसे उस वक्त जब बाजार से गुजरती तो कनखियों से इधर-उधर देखने लगती कि लोग मुझे देख क्यों नहीं रहे हैं कि कोई मेरी चाल पर कमेंट क्यों नहीं पास कर रहा है कि उस बच्चे ने मुझे दीदी क्यों नहीं कहा आंटी क्यों कहा।11

 भारतीय परंपरा में, चाहे शिक्षा का क्षेत्र हो या उनके व्यावसायिक क्षेत्र का, लड़कियों पर लड़कों से कम ध्यान दिया जाता रहा है, पर इसके बावजूद लड़कियों ने अपनी प्रतिभा को सिद्ध कर दिया है। बीसवीं शती के नवजागरण से सामाजिक स्तर पर स्त्रियों की भागीदारी बढ़ी है। शिक्षा एवं उत्थान मूलक कार्यों में सभी तबकों की स्त्रियां शामिल रही हैं। प्रत्येक व्यक्ति को योग्यता अनुसार जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में समान अवसर प्राप्त हो रहे हैं। अपने कर्तव्य और अस्तित्व की नई दिशाएं दिखाने के लिए स्त्री पुरुष को समान अधिकार प्राप्त हैं पर कहीं-कहीं स्त्री को पददलित कर दिया जाता है। स्त्री पूर्ण रूप से पुरुष सत्ता से मुक्त नहीं हो पाती है। पितृसत्ता की सोच सदैव स्त्री को दबाकर रखने की रही है। हमारे समाज में स्त्री का विवाह के बाद नौकरी करना उचित नहीं समझा जाता है। ऐसी ही मानसिकता रखने वाला हषुल महुआ को नौकरी छोड़कर गृहस्थी संभालने को कहता है। महुआ शिक्षित महिला वर्ग का प्रतिनिधित्व करती है। उसका स्वाभिमान विरोधी मानदंडों से संघर्ष कर समाज में अपनी पहचान बनाने को झकझोरता है,“मैं अपने पाँव पर खड़ी हूँ और खड़ी रहना चाहती हूँ इतनी योग्यताएँ फालतू क्यों जायँ। उनका उपयोग तो हो।12 विपरीत परिस्थितियों में महुआ अपनी योग्यता की शक्ति का परिचय देती है। हजारी प्रसाद द्विवेदी ने भी लिखा है, “परम शिव से दो तत्व एक साथ प्रकट हुए थे - शिव और शक्ति शिव विधि रूप है शक्ति निषेधा रूप है। इन्हीं दो तत्वों के प्रस्पद-निष्पद से यह संसार आभाषित हो रहा है पिण्ड में शिव का प्राधान्य ही पुरुष है शक्ति का प्राधान्य ही नारी है।13 स्त्री का आर्थिक आत्मनिर्भर रहना आवश्यक है क्योंकि आर्थिक निर्भरता उसकी सोच मूल्यों में परिवर्तन ला सकती है। आर्थिक रूप से स्त्री का कमज़ोर होना, उसे अपनी विषम परिस्थितियों से समझौता करना सीखा देता है। विवाह के पश्चात हषुल को महुआ और साजिद के सम्बन्धों का पता चलता है तो वह उसे गर्भपात करवाने को कहता है और वह ऐसा करने से इनकार कर देती है, “पेट मेरा है। पैदा मुझे करना है। तुम्हें किस बात की तकलीफ?”14 एक सामान्य नारी के जीवन की जितनी पीड़ा और वेदना हो सकती है वह लगभग इस वाक्य में सिमट आयी है। लेखक द्वारा महुआ का दूसरी परिस्थिति में गर्भपात करवाना नारी के दृढ़ निश्चय आत्मविश्वास का परिचायक था जो उसे आर्थिक निर्भरता द्वारा प्रदान हुआ। डॉ. विद्यानिवास मिश्र जी के अनुसार, “जिस प्रकार नदी निरंतर बहती रहती है और ऊँचाइयों के मोह को छोड़कर बहुत निचली ढलान की ओर बढ़ती है, उसी प्रकार माँ धीरे-धीरे अपने पिता अपने पति से संतान की ओर अधिक अभिमुख होती हुई, उसी के लिए जीती है और इसमें ही नारी अपनी पूर्ण सार्थकता पाती है।15 अपने जीवन को घर के कार्यों तक सीमित करने के बाद भी परिस्तिथियां सदैव स्त्री के खिलाफ रही हैं। इस परिस्थिति में महुआ की विवेकशील क्षमता धरी-की-धरी रह गई। उसके मन और देह के बीच चल रहे अंतर्द्वंद् में नश्वर देह ने बाज़ी मार ली, “हम हर चीज के बँटवारे सह लेते हैं लेकिन देह का बँटवारा नहीं सह जाता। ऐसा क्यों है? ऐसा क्या है देह में कि उसका तो कुछ नहीं बिगड़ता, लेकिन मन का सारा रिश्तानाता तहस-नहस हो जाता है।16 भ्रूण हत्या को लेखक ने समस्या के रूप में दिखाकर, बल्कि हषुल को छोड़कर जाना और गर्भपात करवाना समाधान रूप में प्रस्तुत किया है। वास्तव में माँ के रूप में स्त्री अपने पूर्ण स्वतन्त्र व्यक्तित्व को खोजती है। सिमोन स्त्री की स्वतन्त्रता के बारे में कहती हैं कि, “परम्परा के अनुसार शिशु ही स्त्री को वास्तविक स्वतंत्रता दे सकता है क्योंकि लालन पालन में लग जाने पर वह अन्य दायित्वों से मुक्त हो जाती है। पत्नी के रूप में वह पूर्ण व्यक्ति हो या हो, माँ के रूप में अवश्य है। संतान ही उसका सुख है और वही उसके अस्तित्व को सार्थक करती है।17 स्त्री को जो भी स्वतंत्रता मिलती है वह उसके माँ बनने पर ही प्राप्त हो पाती है। महुआ पुरुष सहयोग के बिना भी इस समस्या से संघर्ष करती प्रतीत होती है। स्वयं की अलग पहचान, आत्मनिर्भर बनने का प्रयास तथा अधिकारों के प्रति नारी का जागरूक रहना, नारी अस्मिता कहा जा सकता है। नारी अस्मिता के सभी तत्व महुआ के व्यक्तित्व में समाहित हैं। महुआ जैसा व्यक्तित्व आज के समय के अनुरूप एवं मांग है क्योंकि वह अपना अस्तित्व बिना किसी पुरुष की दया मानसिक प्रताड़ना के अकेले बनाने में सक्षम है।ब्रीफकेस के बगल में बैठते हुए ड्राइवर से कहाहाँ, अब चलो भैया….लेकिन आराम से। कोई जल्दी नहीं है।18 महादेवी वर्मा का स्त्री संघर्ष पर आधारित कथन महुआ की मानसिकता को स्पष्ट कर देता है, हमें किसी पर जय चाहिए, किसी से पराजय, किसी पर प्रभुता चाहिए, किसी का प्रभुत्व। केवल अपना वह स्थान, वे स्वत्व चाहिए, जिनका पुरुषों के निकट कोई उपयोग नहीं है।19  

वर्तमान समाज की बदलती परिस्थितियों के कारण आधुनिक नारी जीवन संबंधी समस्याओं में भी परिवर्तन दिखाई दे रहे हैं। बाल विवाह, दहेज प्रथा, अनमेल विवाह आदि आज इतनी गंभीर समस्या नहीं हैं जितनी वर्तमान समय में परिवर्तित परिस्थितियों के अनुकूल स्त्री का नौकरी करना, पुरुषों के साथ समान अधिकार, दांपत्य जीवन का विघटन, अविवाहित जीवन, हीन भावना एवं विकृत मानसिकता, बलात्कार, स्त्री पुरुष के विरोधी मानदंड आदि आज की नारी समस्याओं के कुछ प्रमुख पहलू हैं। प्रभा खेतान ने सही लिखा हैस्त्री विरोधी वाक्यों और इन विश्लेषणों से हमारे शास्त्र भरे पड़े हैं। इन जुल्मों को सुनना और झेलना औरत की नियति रही है।20

भारतीय समाज में पुरुषों को विभिन्न विकल्प दिए जाते हैं, जिनके आधार पर वे अपनी इच्छाओं के अनुसार जीवन जीते हैं। संतान होने पर पुरुष दूसरी स्त्री से विवाह करने में सहायक होते हैं, वहीं तलाकशुदा स्त्री को दूसरे विवाह के लिए कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है।लेकिन याद रखो, वह एक मर्द है, उसे हमेशा एक विकल्प चाहिए। तुम भी रहो लेकिन विकल्प भी रहेतुम्हारे रहते हुए।21 परंतु स्त्री की इच्छा स्वयं को मनुष्य के रूप में प्रतिष्ठित करने की है कि किसी विकल्प और संज्ञाओं के रूप में, “हम तो देवी हैं, और ही राक्षसी, साध्वी, कुलटा, हम जो भी हैं इसी रूप में देखा जाए। पुरुष के नज़रिए से नहीं बल्कि मनुष्य के नज़रिए से। 21वीं सदी में औरत स्वयं तय करेगी की उसे अपने जीवन को कैसे चलाना है। अपने शरीर को किसे सौंपना है, माँ बनना है क्या एक महिमामय गरिमा को मिथ से वंचित रह कर भी जिया जा सकता है।22

निष्कर्ष : 'महुआचरित' उपन्यास काशीनाथ सिंह की नवीन संरचना है। जो महुआ के माध्यम से सम्पूर्ण भारतीय नारी जीवन एवं संघर्षों को आधुनिक सामाजिक सरोकारों से जोड़ती है। नारी जीवन से संबंधित तनाव कुंठा, दाम्पत्य जीवन की विसंगतियों, अपनों द्वारा आहत जीवन, यातनाएं आदि का यथार्थ चित्रण उपन्यास में लेखक ने किया है। उपन्यास में नारी अस्मिता बोध के साथ नैतिकता और मर्यादा के बीच नारी-पुरुष के संबंध का विवेचन किया गया है। हर्षुल स्वयं अन्य महिला से जुड़ा है लेकिन अपनी पत्नी के पूर्व प्रेमी का नाम भी सुन पाने की क्षमता नहीं रखता। महुआ, जो गर्भवती होती है, आत्मनिर्भरता की मिसाल स्थापित करती है और पुरुषों में मानसिक परिवर्तन की मांग को उठाती है। महुआ शिक्षित और सशक्त महिला के तौर पर पूरे समाज की महिलाओं के प्रतिनिधि के रूप में उपस्थित है। वर्तमान काल में समाज में इसी तरह की महिलाओं की संख्या अधिक है, जो उच्च शिक्षित होने के कारण समाज की बहुत-सी सामाजिक रुढ़ियों और परम्पराओं से स्वयं को मुक्त कर चुकी हैं और समाज में अपना स्वतंत्र अस्तित्व बना रही हैं। वह अपने जीवन से जुड़े निर्णय स्वयं ले रही हैं और उन निर्णयों पर निर्भीकता से अमल भी कर रही हैं। साजिद एक शादीशुदा पुरुष है जो महुआ को प्रभावित करके उसके साथ शारीरिक संबंध बनाने में सफल होता है। आज के समय में महुआ जैसे पात्रों से अनेक लोग प्रभावित नजर आते हैं और बिना विवाह किए हुए शारीरिक संबंध बनाने में उन्हें कुछ बुरा नजर नहीं आता। यह कहना कठिन है कि महुआचरितके पात्र समाज से प्रभावित हैं या उन्होंने समाज को प्रभावित किया है। लेखक स्त्री चिंतन संघर्ष के द्वारा नारी को नई राह प्रेरणा देकर पुरुष प्रधान समाज से संघर्ष करने का साहस एवं सोच प्रदान करता है। स्त्री को ज्ञात होना चाहिए कि उसे अपनी नयी प्रतिमा खुद तराशनी है। वह पुरुष के हाथों गढ़ी हुई मिट्टी की बेजान मूरत नहीं, पाषाण प्रतिमा है, जिसमें तूफानों से टकराने की हिम्मत है, समस्या से जूझने की ताकत है और विपरीत स्थिति से सामना करने का हौसला है। निःसंदेह हम कह सकते हैं किमहुआचरितसंघर्ष, विद्रोह एवं मुक्ति की गाथा है।

संदर्भ :
1. प्रो० रामकली सराफ, ‘मैं कहता आँखिन देखी (काशीनाथ सिंह का साक्षात्कार)’ वाड्मय पत्रिका, अलीगढ़, मई 2008 अंक
2. कमलेश कटारिया, नारी जीवन : वैदिक काल से आज तक, यूनिक ट्रेडर्स, संस्करण 2009,जयपुर, पृ-09
3.डॉ सुरेश सिन्हा,हिंदी उपन्यासों में नायिका की परिकल्पना,अशोक प्रकाशन,संस्करण 1964,नई दिल्ली, पृ-79
4.काशीनाथ सिंह, महुआचरित, राजकमल प्रकाशन, पहला संस्करण 2012,नई दिल्ली, पृ-14
5.डॉ शांति कुमार स्याल, नारीत्व (पृष्ठ-अपनी बात से उद्धत) आत्माराम एंड सेंस, संस्करण-1998, दिल्ली
6.काशीनाथ सिंह, महुआचरित, राजकमल प्रकाशन, पहला संस्करण 2012,नई दिल्ली, पृ-41
7.वही, पृ.42
8.वही, पृ.42
9.वहीं, पृ.51
10.वही, पृ.55
11.वही, पृ 30
12.वही, पृ. 66
13.हजारी प्रसाद द्विवेदी, बाणभट्ट की आत्मकथा, राजकमल प्रकाशन, संस्करण-1999, नई दिल्ली, पृ-120
14.काशीनाथ सिंह, महुआचरित, राजकमल प्रकाशन, पहला संस्करण 2012,नई दिल्ली, पृ-100
15.विद्यानिवास मिश्र, 'नदी, नारी और संस्कृति', प्रभात प्रकाशन, संस्करण-1998, नई दिल्ली,  पृ-11
16.वही, पृ.85
17.प्रभा खेतान, स्त्री उपेक्षिता, हिंदी पॉकिट बुक्स, संस्करण-2002, पृ-232
18.वही, पृ. 100
19.महादेवी वर्मा, श्रृंखला की कड़ियाँ, लोकभारती प्रकाशन, छठा संस्करण-2022, नई दिल्ली, पृ-23-24
20.सं. अरविन्द जैन, प्रभा खेतान, औरत : अस्तित्व और अस्मिता, सारांश प्रकाशन, संस्मरण-1996, नई दिल्ली, पृ-12,
21.वही, पृ.85
22.मोहम्मद शानू, आलोचना की नई दृष्टि, वाड्मय बुक्स, संस्करण-2017, अलीगढ़, पृ
-96
                                               

सनोवर
शोधार्थी, हिंदी विभाग, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, अलीगढ़

चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-51, जनवरी-मार्च, 2024 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक-जितेन्द्र यादव छायाकार : डॉ. दीपक चंदवानी

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