(1)
पहचानने
के भी कई आधार होते हैं।
जब तक बनारस नहीं गए तब तक उसे गंगा मैया के नाम से जानते थे जब गए तो वहाँ हमारा बिस्मिल्लाह
खान साहेब से परिचय हुआ। संकट मोचक हनुमान जी मंदिर में मत्था टेका। बाबा विश्वनाथ
के दर्शन हुए। पान खाया और गलियाँ देखी। अप्पा जी को सुना और पंडित किशन महाराज जी
का तबला सुना। यह साल दो हज़ार पांच के आसपास की बात है। कितने-कितने रूपों में बनारस
हम पर छा गया। फिर वक़्त गुजरा तो पाया कि वहाँ साहित्य का भी गढ़ है। शुरुआत संगीत से
हुई क्योंकि मेरी संगत स्पिक मैके में पहले हुई। फिर लिखने-पढ़ने की आदत के चलते कुछ
इधर झुकाव हुआ। पंडित राजन-साजन मिश्र से नमस्कार हुआ। जब पंडित विश्व मोहन भट्ट जी
के मोहन वीणा वादन में पंडित रामकुमार मिश्र जी को देखा और परिचय हुआ तो जब जाना
कि आप जानेमाने गायक पंडित छन्नू लाल जी मिश्र के बेटे हैं। तबला दूजे नम्बर पर सराहा
जाता है ऐसा मैंने जाना। मुख्य गायक और वादक के साथ में तबला वाले का नाम आता है। संगतकार
हमेशा श्रोताओं और दर्शकों की तरफ सीधे मुंह करके नहीं बैठता है। वरना यह बे-अदबी कहलाती
है। यह भी जाना कि संगतकार का कुर्ता ज्यादा चकीला नहीं हो। मुख्य कलाकार मुख्य ही
रहता है। आयोजनों के सञ्चालन में पाया कि प्रस्तुति के पहले जीवन परिचय पढ़ते हुए भी
विस्तार तो मुख्य गुरु को ही देना है। यह मेरा निजी अनुभव रहा। संभव हो कि यह अंतिम
सत्य नहीं हो। खैर छन्नू लाल जी को किसी बड़े शहर में सुना। एक बार जब मैं राजस्थान
राज्य का काम देख रहा था तब पंडित जी गायन के लिए चित्तौड़ जैसे छोटे शहर में भी आए।
यह बड़ी बात थी। स्पिक मैके न होता तो चित्तौड़ में बेहद कम बजट में नामचीन कलाकार
नहीं बुला पाते। उस दौर में भी वे बुजुर्ग थे और नामचीन हस्ती थे। शहर के किसी निजी
स्कूल में उनका गायन हुआ। स्मृति में सही से नाम याद नहीं रहा। हम साथियों को बड़ा फ़क्र
था कि किसी बनारसी बड़े कलाविद को हम चित्तौड़ में ला सके। शास्त्रीय संगीत तो उतना नहीं
समझ पाए मगर जब उन्होंने ‘खेले मसाने में होरी’ जैसा कुछ उप-शास्त्रीय गाया तो पाया कि बनारस घराने का संगीत बड़ा मीठा है।
गंगाजी का प्रताप अनुभव हुआ। आयोजन के बाद उनकी बातें और मस्ती में वही ठेठ अंदाज़ था।
आज बरबस पंडित जी याद आ रहे हैं जब बीते दिनों वे इस भौतिक जगत में नहीं रहे। उनके
ललाट पर लगा हुआ मोटा लाल तिलक और पीला या केसरिया कुर्ता बड़ा याद आ रहा है। लम्बे
बाल और गाते हुए चेहरे पर आने वाला पूरा आंगिक अभिनय। उनके गाए भजन और ठुमरियां हम
करोड़ों रसिकों के लिए अनमोल खज़ाना साबित होगी। जीवन के अंतिम दिनों में उनकी स्मृति
भले कमज़ोर हुई मगर काशी के प्रति उनके अनुराग में कोई कमी न दिखी। उनके सुर उनके शिष्यों
के मार्फ़त देश-दुनिया में सुने-सराहे जाएं यही तमन्ना है। संस्कृति को जानने के क्रम
में संगीत की महिमा रहती ही है। दिग्गज और पुराने जानकार अपनी एक ही शरीर यात्रा में
बहुत कुछ कमाल कर जाते हैं। जीवन में संवेदनशीलता और गाम्भीर्य के साथ वे चुपचाप कमाल
करते हैं। ठाना हुआ काम तल्लीन होकर करना उनका सूत्र रहा होगा। कलाविदों की सबसे उपरी
कतार में से मर्मज्ञ बहुत तेज़ी से जा रहे हैं। शरीर जड़ है उसे जाना ही होगा और
चेतना स्वरुप में व्यक्ति बाद में भी सालों तक रहता ही है। यह दीगर सत्य जानकार
कुछ तसल्ली हुई। लगता है इस रोशन जहां का एक तारा पंडित जी के रूप में और बिछड़ गया।
मैं काशी को ऐसी ही गाथाओं के बहाने फिर से जानना चाहता हूँ। हर शहर असल में अपने वाशिंदों
के जीवन से आकार लेता है। एक लम्बी सूची है जिसने काशी को पुरातन शहर बनाया। पहचान
के आधार इसी तरह बदलते रहते हैं। पंडित मदन मोहन मालवीय जी से लेकर व्योमेश शुक्ल
तक इस शहर की यात्रा जारी है। रसूलन बाई और बतुलन बाई से लेकर शुभ महाराज तक।
भारतेंदु जी से आरम्भ करके काशी नाथ सिंह जी तक।
(2)
बीते
दिनों मध्यस्थ दर्शन सह-अस्तित्ववाद की एक दिवसीय कार्यशाला का आयोजन चित्तौड़ यानी
मेरे अपने शहर में करवाया। यह जीवन विद्या खुशहाली कार्यशाला के नाम से एक निजी विद्यालय
के शिक्षकों हेतु आपसी संवाद था। कोरोना के बाद समाज में अभय लाने के क्रम में मेरे
दायित्व के लिहाज से यह पहला ऑफलाइन आयोजन था। पांच वर्ष से मेरा अध्ययन इस दर्शन में
कमोबेश जारी है और मैं इस बिंदु पर आया कि यह शिक्षा के माध्यम से ही विद्यार्थियों
में जाएगा। आने वाली पीढ़ी की समझ बढ़ने से यह सबकुछ एक दिन धरती को आराम देगा। प्रबोधक
के रूप में भीलवाड़ा के साथी अनिरुद्ध वैष्णव ने हामी भरी। आयोजन स्थल श्रीभुवन भानु
सूरिश्वर जैन उच्च माध्यमिक विद्यालय तय हुआ। संयोजन हमारे परिचित गुरुवर डॉ. ए.एल.जैन
साहेब ने किया। लगभग सत्तर अध्यापकों ने बहुत मनोयोग से यहाँ हिस्सेदारी की और पाया
कि यह दर्शन पूरे परिवार के साथ समझने और जीने की ज़रूरत है। वर्तमान शिक्षा में पाया
गया अधूरापन हाथ आ गया और आगे की राह भी स्पष्टता से दिखने लगी। कार्यशाला से सभी के
संतुष्ट मन देख मुझे अपने काम पर संतुष्टि हुई। सर्वाधिक संभावनाशील अगर अभी भी कोई
है तो वह देश के अध्यापकगण हैं। योजना और सही की रोशनी में किसी सुलझी हुई दृष्टि को
आप इस समाज में प्रस्तुत करते हैं तो वहाँ उसका स्वागत होगा। सभी ने एक स्वर में बीते
सौ सालों में शिक्षा में आए खालीपन को अनुभव किया। पारिवारिक संबंधों में आई रिक्तता
को पहचाना। गलत दिशा पकड़कर दौड़ में शामिल हो जाने को स्वीकारा। मुड़कर फिर से विचारने
की आवश्यकता पर सामूहिक हामी भरी। खुद की संतानों सहित स्कूली विद्यार्थियों के लिए
ढेरों सूत्र हाथ लगे यही प्रसन्नता थी। यह प्रयोग मैंने पहले अपनी नौकरी वाली जगह पर
भी सामरी-कुटुंब के लिए किया था। एक नवाचार की सफलता दूजे के लिए आधार बनती है। लगा
कि हम जहां हैं वहीं से कुछ करें और भविष्य में करने का हौसला मिला। एक दिन में किला
नहीं बनता न ही बाँध। नदी की राह बदलने में वक़्त लगता है। छोटे प्रयासों पर मिली शाबाशी
का महत्व ज्यादा है। भरोसा मिला। जिस दौर में अध्यापकी बहुत मुश्किल हो रही है ऐसे
में एक प्रकाश पुंज की तरह यह दर्शन औजार के रूप में हाथ आया है। प्रश्नों के हल मिलते
अनुभव हुए। बारीक विश्लेषण में पाया कि वक्ता की सहजता अंत में श्रोताओं तक फ़ैल
जाती है। वक्ता का ज्ञान उसके आचरण से होता हुआ महसूस हो जाए तो बोलना उतना ज़रूरी
नहीं लगता है। आधे दिन के आयोजन के बाद ही प्रतिभागियों में हुई खुसर-फुसर
आस्वस्तिदायक थी। उनके भोजन परोसने में दिखी आत्मीयता और उपजा हुआ राग उनकी खुशी
को अभिव्यक्त कर रहा था। रविवार के दिन अध्यापकों को अलग से बुलाकर सिलेबस से विलग
कोई व्यस्तता देना बड़ा जोखिम था। शुक्रिया जीवन-विद्या। आयोजन में सबसे खुबसूरत
बात यही हुई कि यह सम्मिलित प्रयासों से का परिणाम साबित हुआ। प्रश्नोत्तरी सत्र
की उत्सुकता से जीवन के प्रति उत्सुकता का अंदाजा लगा सकते हैं। स्वागत और आवभगत
में दिखी तत्परता अगर अंत में आभार और शुक्रिया तक बढ़े तो समझिएगा तिलों में तेल
है। मैंने पाया कि हम अपने निष्कर्ष से अन्य के सहमत और स्वीकृति के भाव को देखकर
गदगद होते हैं। हमारे सही होने पर एक ठप्पा सा लग जाता है। जीवन दर्शन की रोशनी
में अन्य को मिले प्रकाश से परिवार को फैलते हुए देखते हैं। फैलाव सुखद है। संकुचन
उदास करता है।
(3)
दीपावली
बड़ा त्यौहार है। इसे लेकर घर-गिरस्ती में कई दिन पहले से झाड़-बुहार शुरू हो जाती है।
स्त्रियाँ बड़े श्रम से सबकुछ साफ़ करती हैं। उनका जतन स्पष्ट झलकता है। अवकाश के दिन
बच्चे और पुरुष पात्र भी कुछ हद सहयोग की मुद्रा में दिखते हैं। साझेदारी में हुए काम
की चमक न्यारी दिखती है। घर के कुछ काम दिवाली पर बंटे हुए होते हैं। मेहनत वाले कामों
में अमूमन रूप से पुरुष हाथ लगाने से जी चुराते हैं। दूजी तरफ थोड़ा भी हाथ बटाने पर
स्त्रियाँ बहुत पुलकित भाव से पेश आती हैं। पूरे मोहल्ले में अपने साहेब की तारीफ़ में
कहती फिरती हैं। दिवाली व्यस्तता बढ़ाने वाला पर्व है। हर तरफ नयापन आना और दिखना होता
है। दाम्पत्य की कसौटी है दिवाली की सफाई। बिना नोकझोंक यह निबट जाए तो समझो गंगा नहाए।
घर की बच्चियां आँगन लीपती है और रंगोली सजाती हैं। पुरुष पंखें साफ़ करेंगे तो लड़के
लोग रंगाई-पुताई। महिलाएं दाल-मसाले धूप लगाएंगी। चद्दर-बिस्तर को छत पर सुखाएंगी।
रसोई में बनने वाले पकवान का प्रोसेज पूरे घर को जोड़ देता है। कोई राशन लाता है तो
कोई हलवाई के यहाँ से मावा। कोई बेसन-मैदा तोलता है और कोई बुजुर्ग बैठे बिठाए राय
देता रहता है। बच्चे देर-देर में आ-आकर झांकते हैं। स्त्रियाँ यह सब देख-समझ प्रसन्न
मन से रमी रहती हैं। जामुन-मठरी-बालूशाही जैसे नए प्रयोग करती हैं। बिगड़ जाने या संवर
जाने के भय से बहुत दूर वे हाथ आजमाती हैं। कुछ परिवार बाज़ार को जिंदाबाद करते हैं।
पहनना-ओढ़ना और इतराना यही सब इस तीज-त्यौहार की माया है। कोई बिजली बल्ब वाली लड़ियाँ
लटका रहा है तो कोई बेसन-चक्की जमा रहा है। इस बार मैंने पाया कि मेरे मित्र नितिन
के घर जाने से पता चला कि उनकी मम्मी जी ने अपने जैन धर्मं की तपस्या और जीवन-शैली
के चलते पोते-पोतियों को पटाखे न छोड़ने पर कुछ नकद राशी देने का एलान किया। प्रयोग
कारगर रहा। भैया-दीदी के बच्चों के साथ नितिन के बेटे धीर और बेटी गिन्नी ने भी पटाखों
से मोह त्याग दिया। मुझे यह तरिका भाया। बच्चे परिवार में ही मूल्य सीखते हैं। कभी-कभी
वक़्त ज्यादा लगता है मगर यह आता परिवार से ही है। इसी दिवाली ढाई दशक की दोस्ती वाले
मित्रों के गाँव जाना हुआ। बनास नदी के किनारे का गाँव है ‘पंहुना’। यह नदी अपनी
बालू रेत के लिए जानी जाती है। पानी भले बारामासी न बहता हो मगर रेत यह वर्षभर
देती है। यह चित्तौड़ जिले में ही मुझसे साठ किलोमीटर दूरस्थ है। सपत्निक गया। पांच
वर्ष के अंतराल के बाद जाना हुआ। समस्त सम्बन्ध पारिवारिक जैसे हैं। सड़कें फर्राटे
से लेती गयीं। जहां कहीं रास्ता पूछा मैंने पाया कि ग्रामीण लोग बहुत संजीदगी से मार्ग
बताते हैं। यह रागात्मकता उनमें जाने कहाँ से आती है जो वे अनजान व्यक्ति से बतियाते
हुए सींचते हैं। मरमी माताजी का शक्तिपीठ देखा और बनास को पुल द्वारा पार किया। यह
बहुत न्यूनतम ऊंचाई वाला पुल था। एनिकट भी कह सकते हैं। देहाती लोग वहाँ अपने ट्रेक्टर
धो रहे थे। गाय-भैंस को नहला रहे थे। कोई उनके सींग को वार्निश से रंग रहा था। यह अन्नकूट
वाला दिन था। मित्र प्रवीण, दिलीप और मुकेश भाई के घर पाया कि उनमें ग्रामीण चेतना अब भी मौजूद है। सहजता
और बहुत धीमे चलते रहने का आनंद था वहाँ। दौड़ से बहुत दूर आराम की स्थिति भोगता हुआ
गाँव। गाँव का सदर बाज़ार एकदम व्यस्त और संकड़ा। हलवाई से लेकर सब्जी मंडी, सब जगह त्योहारी
उल्लास। पंहुना में मिठाई के नाम पर ‘मरके’ बड़े प्रसिद्द हैं।
यह चावल से बनी चाशनी में डूबी मिठाई है। खाने-पीने को जमी बैठकी में जो बातें हुई
उनमें अतीत के प्रति सभी में मोह और बोध दोनों दिखे। हाथ से छूटते हुए के प्रति चिंता
सभी की साझी चिंता थी। कुछ साल पहले से दिवाली पर छोटे बच्चों द्वारा गाए जाने वाले
लुप्त: होते गीत की चर्चा हुई। जीवन की इस यात्रा में असमय गुज़र गए हमारे माता-पिता
के किस्से आ निकले। यह भी जाना कि हम अक्सर बैठकी में आई बच्चों से बहुत नपा-तुला
संवाद करके उन्हें फारक करते हैं। हमारी गहरी बातें बालमन को उतना नहीं छू पाती है।
बीते वक़्त में गोते लगाना सभी को बढ़िया लगा। दिवाली की रामा-शामा से हम भी दौड़ते हुए
रुक सके। शहर से कुछ हद दूर जा गाँव को छू सके। ‘स्लो लाइफ’ को
नज़दीक से चूम सके। रिश्ते जीवंत हो उठे। सम्बन्ध समय चाहते हैं। यह सूत्र और पुख्ता
हुआ। रास्तेभर देखे खेत-खलिहान और किसानी जीवन की तस्वीर हमें ताज़ा कर गयी। मकान में
घूसे रहकर हम दुनिया का जो अंदाजा लगाते रहते हैं
गलत निकलता है। दिवाली के कई रंग देखे और निष्कर्ष मिला कि यह इस महादेश
में यह बेला बेहद निराले ढंग से आती और जाती है।
(4)
ज़िंदगी
के रोजनामचे में विचार की गति और दिशा हमारे साथ मिलने-रहने वाले से हमारे संवाद
पर निर्भर करती है। बीते दिनों सुबह की पैदल सैर में
नजदीक के राजीव गांधी गार्डन जाने का अवसर उपलब्ध हुआ। बगीचे में घूमना किसी सीधे
सपाट रास्ते पर घूमने से कुछ भिन्न होता है। संकड़ी राह पर एक तो यात्री घड़ी की सुई
के अनुसार और कुछ विपरीत दिशा में टहलते हैं। कुछ नमस्ते करते हैं और कुछ नहीं
करते हैं। दोनों की शक्ल देखकर विचार दौड़ने लगते हैं। सवेरे अक्सर मैं कोई
म्यूजिकल ट्रेक लगाता हूँ तो ज्यादा विचार नहीं आते हैं। जिस दिन मध्यस्थ दर्शन, आचार्य
रजनीश, या आचार्य प्रशांत का कोई एपिसोड सुनता हूँ तो रास्ते
में कुछ नहीं दिखता है। खुद के साथ होता हूँ। बीती दिवाली अवकाश में पाया कि अक्सर
गार्डन के नजदीक सत्यनारायण व्यास जी का घर है तो वे और चन्द्रकान्ता जी व्यास (गुरु
माँ) भी टहलने आते। गिनती के आठ चक्कर लगाते उसके बीच एक बड़ा विराम लेते। आपस में
बतियाते और बहुत आराम के कदम रखते हैंव मैं उन्हें अक्सर दूर से ही देखता और मिलता
नहीं था। बड़े आदमी से मिलने के लिए बातें भी होनी चाहिए ऐसा डॉ. राजेश चौधरी जी जी
कहते हैं। मैं सहमत था। मगर मुलाक़ात का भी अपना आकर्षण होता है। कभी पाँव छूकर साथ
हो लेता। वर्धा आश्रम में गांधी जी के साथ हो लिए भीष्म साहनी की याद आती। व्यास
जी की ख़ासियत है जहां मैं और मेरे जैसे मिले वे उनकी क्लास शुरू कर देते। अध्यापक
रहे हैं ना। इन दिनों पढ़ लिख रहे के बारे में बटाने लगते। कई बार दुहराव भी अनुभव
होता मगर सुनने का अपना रस है। एक बार घंटेभर सुना और बीच-बचाव में कुछ अपनी
जिज्ञासाएं जोड़ता गया। वे और मम्मीजी बैंच पर बैठे रहे। मैं सामने उनके चेहरे को
देखने के लिहाज से निचे घास पर। शास्त्र, धर्म, आध्यात्म और दर्शन के इर्द-गिर्द बातचीत रहती है। इन दिनों वे ‘शास्त्र
और हमारा समय’ नामक एक पुस्तक लिख रहे हैं। रोजाना सुबह दस
से बारह और शाम में चार से छह बजे तक नियमित बैठक करके लिखते हैं। पचहत्तर की उम्र
हो गयी है। कहते हैं उस तरह की शोधपरक किताब अब नहीं लिखूंगा। हाँ इस प्रक्रिया से
थकने पर वे डायरी लिखते हैं। उनसे मिलकर आने पर बहुत दिन उन्हीं की बातें विचार
में चलती हैं। बीते दिनों रामचंद्र गुहा की पुस्तक ‘गांधी का खंड एक’ पढ़ता रहा।
बहुत अद्भुर किताब है। अनुवाद सरस और बोधगम्य है। कई तथ्य अचरजभरे लगे। गांधी जी
ने कभी क्रिकेट नहीं खेला मगर वे खिलाड़ियों के बीच चर्चा में रहे और फ़िल्में लगभग
नहीं के बराबर देखी। तभी मैं सोचूँ इतना वक़्त कैसे निकाल पाए। सार्थकता की समझ आने
पर हम कुछ चयनित कामों पर केन्द्रित हो जाते हैं यही श्रेयकर है। यह पुस्तक अभी चल
रही है और मैं इसके साथ विचार-यात्रा पर हूँ। बीते माह जे.सुशिल की पुस्तक ‘दुःख
की दुनिया भीतर है’ पढ़ी। कई दिन तक मैं अपने पिताजी की
स्मृतियों से बाहर नहीं आ पाया। साल दो हज़ार बीस के जनवरी के वे बारह दिन मुझे याद
हो आए। पुस्तक पठनीय बन पड़ी है। भाषा बहुत अपने जैसी है। पाठक भी लेखक बन जाता है
और लेखक भी पाठक। विचार में कुछ दिन तक शान्तिनिकेतन आया। कानपुर से अकार के
सम्पादक प्रियंवद जी का बुलावा आया कि संगमन इस बार शान्तिनिकेतन में हो रहा है।
बाईस से चौबीस नवम्बर। एक तो परीक्षाओं
वाला माह और दूजा साथ नहीं है। रवीन्द्र कवीन्द्र की भूमि को धोकने का इससे बेहतर
मौका नहीं था। जाना मुश्किल हुआ और नहीं जा पा रहा हूँ फिर भी विचार में वही
कोलकाता की संस्कृति और साहित्य आ-जा रहा है। मनुष्य के जीवन का मूल आधार विचार है।
विचार से दिशा तय होती है और कार्य की योजना बनती है। बनी हुई योजनाएं और बिगड़ी
हुई योजनाएं दोनों बराबर विचार को प्रभावित करती रहती हैं। जा पाने का आनंद और
नहीं जा पाने की पीड़ा दोनों आदमी को दूर नहीं जाने देती है। दिवाली की सफाई में जब
किताबें व्यवस्थित की तो विचार बहुत तेज़ी से बदलते रहे। जिन पुस्तकों को अब तक
नहीं पढ़ पाया उन्हीं ने सबसे ज्यादा परेशान किया। पढ़ना शेष है यह एक बड़ा उद्देश्य
अनुभव हुआ। फिलहाल नई किताब नहीं खरीदना तय किया मगर जानता हूँ कोई सुझाया गया नया
टाइटल अपनी अलमारी तक आ जाए ऐसे नए शीर्षक का स्नेह छोड़ना इतना भी आसान नहीं है। कुल
जमा अपने आसपास वालों के औसत का विचार ही अपना विचार होता है।
(5) यह अंक निकालते हुए हमने फिर से विविधता का पूरा ख़याल रखा है। युवाओं के स्वास्थ्य की चिंता से लेकर हिंदी नवजागरण तक। स्त्री चेतना से लेकर आदिवासी चेतना तक। ‘लोक का आलोक’ हमारा नियमित स्तम्भ है जिसमें लोक संस्कृति से जुड़े पांच आलेख आपको बढ़िया लगेंगे। कथा-साहित्य के लिहाज से अमरकांत और प्रेमचंद को केंद्र में रखकर दो आलेख शामिल किए हैं। ‘कवितायन’ हिंदी कविता के संसार को आपके सामने लाता है जिसमें हमने सुभद्रा कुमारी चौहान से आरम्भ करके अनामिका तक के जगत को ध्यान में रखा है। सिनेमा की दुनिया में हॉरर फिल्मों पर कुछ जानकारी दे रहे हैं। शिक्षा जगत में हो रहे नवाचारों पर एक स्तम्भ है ‘नीति-अनीति’। इस अंक में चार आलेख शामिल हैं। कथेतर रचनाओं में सम्पादन विष्णु कुमार शर्मा का है ही जिसका स्वाद आप जान चुके होंगे। छोटे से अंतराल के बाद फिर से डॉ. सत्यनारायण व्यास की डायरी छाप रहे हैं। वहीं प्रवीण कुमार जोशी से बहुत जतन के बाद ‘नदी के नाम चिट्ठी’ लिखवा पाने में हम सफल रहे हैं। यह चिट्ठी आपको निराश नहीं करेगी। प्रवीण के पास बेहद सघन स्मृतियाँ हैं और भाषा उनकी अपनी है। रचना-प्रक्रिया पर बातचीत पर उन्होंने बताया कि यह सब लिखना बहुत पीड़ादायक रहा। नैहर छोड़ना कभी भी आनंददायक नहीं हो सकता है। युवा कवयित्री शिवांगी गोयल की कवितायेँ अंक का मुख्य स्वर माना जाए। पत्रिका में आमंत्रित रचनाकारों के रूप में शिवांगी शामिल हुई हैं। नीरज कुमार श्रीमाली के लिखे की सराहना पर हमने उन्हें नियमित लिखने का आग्रह किया है। हेमंत के संस्मरण हर अंक की आत्मा है ही। रेखा कँवर की डायरी लेखकों में सबसे युवतर स्वर माना जाए। कैम्पस के किस्से में कुछ नए कुछ पुराने लेखक शामिल किए हैं। पूरे अंक में मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय उदयपुर में दृश्यकला विभाग की सहायक आचार्य डॉ. दीपिका माली के बनाए चित्रों से अंक को सजाया गया है। सभी लेखकों का आभार कि उन्होंने अपनी रचनाएं पत्रिका के लिए भेजी। यह रागात्मकता यूँहीं बनी रहे। आप सभी सुधी पाठकों की प्रतिक्रियाओं का इंतज़ार रहेगा।
