शोध आलेख : मध्य भारत की प्राचीन शैलकला एवं आदिवासी कला-परंपरा / श्वेता कुमारी

मध्य भारत की प्राचीन शैलकला एवं आदिवासी कला-परंपरा
- श्वेता कुमारी

शोध सार : भारतीय उपमहाद्वीप में स्थित मध्य भारत प्रागैतिहासिक शैल कला व जनजातीय अधिवास का केंद्र रहा है। इस परिक्षेत्र में विविध विषयों से संबंधित शैलचित्रों की एक विस्तृत शृंखला ज्ञात है, जिनके अध्ययन से विगत युग की मानव संस्कृति, उस काल के पर्यावरण एवं प्रकृति की जानकारी प्राप्त होती है। आदिमानव के दर्पण के रूप में प्राप्त ये शैलचित्र प्राचीन काल को जानने की एक महत्त्वपूर्ण कड़ी है। लगभग 1870 के दशक से इस क्षेत्र विशेष के शैलचित्रों पर सर्वेक्षण व शोध कार्य किए गए हैं परंतु बहुविषयक दृष्टिकोण के अभाव के कारण नृजातीय अध्ययन (जिसके अंतर्गत प्राचीन कला का वर्तमान कला परंपरा में सातत्यता जैसे विषय शामिल हैं) अपेक्षाकृत गौण रह गये हैं। यद्यपि इन शैलचित्रों में उत्कीर्णित चित्रों का अंकन आज भी आदिवासी समुदायों की कला-परंपरा में देखने को मिलता है। विशेषतः जनजातीय समुदाय के लोगों के मुख्य आयोजनों जैसे पर्व-त्योहार, पूजा-पाठ, शादी-विवाह, रीति-रिवाज आदि पर हम इसे उत्कृष्ट कला परम्परा के जीवन्त उदाहरण के तौर पर देख सकते हैं। इसकी निरन्तरता लोक कला के विविध रूपों में ( जैसे कोहबर कला, चौक कला, चित्र कला, गोदना कला, रंगोली आदि) जनजातीय समाज में बनी हुई है। इस शोधपत्र में इसी सातत्यता का विशद वर्णन करने का नृ-पुरातात्विक प्रयास किया गया है।

बीज शब्द : प्रागैतिहास, शैलचित्र, जनजाति, अधिवास केंद्र, नृजातीय, कोहबर कला, चौक कला, गोदना कला, नृ-पुरातत्व, सातत्यता

मूल आलेख : पुरातात्विक व नृ-जातीय कला-परंपरा के दृष्टिकोण से मध्य भारत का यह क्षेत्र काफी समृद्ध है जो अतीत से लेकर वर्तमान समय तक कला के विविध स्वरूपों का विभिन्न संदर्भों में प्रमाण प्रस्तुत करता है। इस क्षेत्र में कई महत्त्वपूर्ण शैलाश्रय यथा- पंचमढ़ी, भीमबेटका, आदमगढ़ लखाजुआर, जौनद्रा, कबरा पहाड़, सिंघनपुर, मुगलमरा, कोहबरवा आदि प्रतिवेदित किए गए हैं जहाँ से प्राचीन शैलचित्रों के साक्ष्य मिलते हैं।[1-7] इन शैलचित्रों में आदिमानव द्वारा दैनिक जीवन से संबंधित विभिन्न गतिविधियों को कला के माध्यम से अभिव्यक्त करने का प्रयास किया गया है। इस अभिव्यक्ति के लिए जिन साधनों (प्रतीक चिन्ह, जैविक रंग आदि) का प्रयोग किया गया है, उनकी निरन्तरता आज भी यहाँ के आदिवासी समुदाय के लोगों के कला परंपरा में बनी हुई है। इस तरह तत्कालीन प्रागैतिहासिक समुदायों को समझने में इन शैलचित्रों का महत्त्वपूर्ण योगदान है क्योंकि शैल कला के वर्ण्य-विषयों से प्राप्त जानकारियों का सापेक्ष अध्ययन जब हम यहाँ के वर्तमान आदिवासी समाज के कला के संदर्भ में करते हैं तो काफी हद तक हम प्रागैतिहासिक मानव के आर्थिक, सामाजिक-सांस्कृतिक क्रियाकलापों को समझने में सक्षम होते हैं। इसलिए मध्य भारत के आदिवासी समाज की यह कला-परंपरा जो कुछ परिवर्तनों के साथ परंपरागत रूप से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक हस्तांतरित होती है, के प्रतीक चिन्हों और पैटर्न आदि का सूक्ष्म नृजातीय अध्ययन पुरातत्वविद् द्वारा आवश्यक हो जाता है क्योंकि शेष विश्व से पृथक होने के कारण वर्तमान आदिवासी समुदायों गोंड, भील, बैगा, कोल, अगरिया, सहरिया, कोरकू, भरिया आदि के लोक-कला में भारतीय सभ्यता की निरन्तरता के तत्व विद्यमान हैं।[8-9] यह शोधपत्र इसी दिशा में एक प्रयास है।

अध्ययन क्षेत्र : प्रस्तुत शोधपत्र में मध्य भारत के पुरातात्विक तथा जनजातीय कला परंपरा को एक नवीन दृष्टिकोण के साथ विश्लेषित करने का प्रयास किया गया है तथा इस क्षेत्र की प्राचीन तथा वर्तमान कला प्रतीक ही इस अध्ययन में शामिल हैं। मध्य भारत एक विशिष्ट भौगोलिक इकाई का निर्माण करता है जिसमें मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ तथा उत्तर प्रदेश का कुछ भाग शामिल है और उत्तर में सिंधु-गंगा के मैदान और दक्षिण के प्रायद्वीपीय क्षेत्र से यह जुड़ा हुआ है, अतः इसका भू-विज्ञान जटिल है। इस क्षेत्र में जल-प्रवाह हेतु प्रमुख नदी प्रणालियों में नर्मदा, ताप्ती, माही पश्चिम दिशा की ओर प्रवाहित होकर अरब सागर में गिरती हैं तथा चम्बल व बेतवा उत्तर में यमुना नदी में जाकर मिलती है। अध्ययन में सुविधा हेतु छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश व उत्तर प्रदेश के प्रमुख शैलाश्रयों/गुफाओं से प्राप्त शैलचित्रों को तथा वहाँ के महत्वपूर्ण आदिवासी समुदाय के लोगों के कला-स्वरूपों को आधार बनाया गया। विशेषत: रीवां, विदिशा, शहडोल, सीधी, मिर्जापुर-सोनभद्र आदि के परिक्षेत्र में अधिवासित जनजातीय समुदायों से प्राप्य नृ-जातीय आंकड़ों को सम्मिलित करने का समुचित प्रयास किया गया।

पूर्व सिंहावलोकन : चित्रकला या उत्कीर्णन का सबसे प्रारम्भिक साक्ष्य दक्षिण अफ्रीका (लगभग 77000 ई.पू), ऑस्ट्रेलिया (70000-60000 ई.पू.) तथा यूरोप के कई देशों के शैलाश्रयों में पाए गये हैं। इसी तरह के शैल चित्रों का प्रमाण भारतीय परिक्षेत्र के विभिन्न भागों में भी मिलता है। भारत में प्राप्त पहले शैलचित्र, कैमूर पहाड़ियों में स्थित सोहागीघाट (मिर्जापुर जिला, उत्तर प्रदेश), की खोज 1867-1868 में भारतीय पुरातात्विक संरक्षण के एक सर्वेक्षक ए.सी.एल कार्लाइल के द्वारा की गई। तत्पश्चात 1880 में कॉकबर्न के साथ मिलकर इन्होंने कई शैलचित्रों की खोज की। अभी तक लगभग 150 शैलाश्रयों का प्रतिवेदन उपलब्ध है जिसमे मध्य भारत में विशेष संकेन्द्रण देखा जा सकता है। इस क्षेत्र के शैलकला पर कई पुरातत्वविदो द्वारा कार्य किया गया है। जैसे- सी.डब्ल्यू एंडरसन ने सिंहनपुर के शिलाचित्रों का वर्णन प्रस्तुत किया। पंचानन मित्र ने ‘प्रीहिस्टॉरिक इंडिया’ नामक ग्रंथ में तथा मनोरंजन घोष ने ‘रॉक पेंटिंग्स एण्ड अदर एंटिक्विटिज ऑफ़ प्रीहिस्टॉरिक एण्ड लेटर टाइम्स’ में शिलाचित्रों का विस्तार से वर्णन किया। इसके अलावा डी.एच.गार्डन, आर.के.वर्मा, एस.के.पाण्डेय, वी.एस.वाकणकर, यशोधर मठपाल तथा इर्विन न्यूमेयर आदि अन्य विद्वानों ने इस क्षेत्र के शैल चित्रकला का क्रमबद्ध एवं सुव्यवस्थित अध्ययन किया है। तत्पश्चात् डी.पी. तिवारी द्वारा सोनभद्र जिले में कई शैलचित्रों मुगलमारा, रैलहवा दुअरा, अगिया पहाड़ी आदि की खोज की गई और वर्णित विषयों की व्याख्या करने का प्रयास किया गया।

इसके अतिरिक्त नृजातीय अध्ययन के क्षेत्र में शाहीदा अंसारी, विनय कुमार और विशी उपाध्याय, बसंत कुमार मोहंता, मोहन लाल चढार, आलोक श्रोंतीय, सचिन कुमार तिवारी आदि के द्वारा मध्य भारत के नृ-पुरातत्व पर उल्लेखनीय कार्य किए गए है। बसंत कुमार मोहंता व मोहन लाल चढ़ार द्वारा जनजातीय गोदना कला पर लेख प्रकाशित हैं।

प्रविधि : प्रस्तुत अध्ययन में प्राचीन शैल कला एवं आधुनिक जनजातीय कला से संबंधित प्राथमिक एवं द्वितीयक आंकड़ों को समाहित किया गया है। मध्य भारत के जनजातीय बाहुल्य इलाकों मुख्यत: सोनभद्र, रीवां, सीधी आदि से सुविधापूर्ण निदर्शन का प्रयोग कर प्राथमिक आंकड़ों का संकलन साक्षात्कार एवं अवलोकन विधियों एवं द्वितीयक आंकड़ों का संकलन शोध पत्रों, पत्रिकाओं, पुस्तकों आदि के माध्यम से किया गया है।

परिणाम : हमारे द्वारा किए गए अध्ययन के आधार पर यह विदित होता है कि मध्य भारत के शैलचित्रों व आदिवासी समुदायों के कला स्वरूपों में एक अद्वितीय एवं अनूठा संबंध है। आदिवासी समुदायों में गोंड, बैगा, भील, भारिया, खरवार, कोल आदि मुख्य हैं। जनजातीय समुदायों द्वारा विभिन्न अवसरों पर कई तरह की कलाकृतियाँ बनाई जाती हैं जिसे भित्ति चित्र, कोहबर कला, चौक कला, दीवार पेंटिंग, गोदना कला, पिथोरा पेंटिंग, थापा आदि जैसे विविध कला-रूपों में देखा जा सकता है। इन कला-रूपों में बनाए गए डिजाइन व वर्णित विषयों के सूक्ष्म अध्ययन से यह पता चलता है की ये विषय उनके आस-पास के शैलचित्रों में काफी पहले से अंकित धरोहर हैं।

आदिवासी समुदायों के लोग अपने कलात्मक अभिव्यक्ति में जिन रंगों का प्रयोग करते हैं वो उनके द्वारा बनाए गए जैविक रंग होते हैं। इस समुदाय में गेरू के चूर्ण, तेल, सिंदूर, छाल के रस और फलियों तथा अन्य वनस्पतियों आदि से रंग तैयार करने की परंपरा अभी भी प्रचलित है। वे स्थानीय रंगों जैसे गहरे या भारतीय लाल, पीले, गेरू, नीले और सफेद का उपयोग करते हैं। आम तौर पर ब्रश ताड़ की टहनियों के सिरे को कूचकर बनाया जाता है। इन कला-कार्यों में महिलाओं की भूमिका सबसे अधिक दिखाई देती है।[10] ज्यादातर महिलायें और बच्चे अपनी माँ या बहन के साथ मिलकर पेंटिंग बनाते हैं। इन सभी तथ्यों को देखकर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि दीवारों पर विभिन्न आकृतियों और पैटर्न को चित्रित करने व रंग तैयार करने की यह परंपरा निश्चित रूप से पीढ़ी दर पीढ़ी तब से चली आ रही है जब से शैलाश्रयों में चित्र बनाने की शुरुआत हमारे प्रारम्भिक पूर्वजों द्वारा की गई थी। कुछ प्राचीन शैलचित्रों से प्राप्त नमूनों का वैज्ञानिक विधि से अध्ययन करने के पश्चात् विद्वानों का ऐसा मत रहा हैं की इन शैलचित्रों को बनाने में भी आदिमानव द्वारा जैविक रंगों का ही प्रयोग किया गया है जिसकी सातत्यता आज भी आदिवासी समुदाय में बनी हुई है।[11-13]

अध्ययन क्षेत्र से प्राप्त प्रमुख आदिवासी व्यवहार, प्राचीन शैलचित्रों, जनजातीय उपस्थिति व कला परंपरा में वर्णित विषयों की सातत्यता का वर्णन निम्नलिखित है:-

गोदना कला में : प्राचीन काल से ही मनुष्य ने स्वयं को सजाने-सँवारने से संबंधित विषयों पर ध्यान दिया है। गोदना गुदवाना उन्हीं विषयों में से एक है। गोदना कला में प्रयुक्त डिजाइन व चिन्ह शैलचित्रों में पाए गए चिन्हों से साम्य रखते हैं। (चित्र 1)

  
चित्र सं.1 : (1) शैलचित्रों में अधिकांशतः प्रयुक्त प्रतीक चिन्ह, (2) बैगा समुदाय की एक महिला अपने गोदना को दिखाती हुई, (3) गोंड समुदाय की महिला गोदना कला के साथ

प्रत्येक जनजातीय समुदाय में गोदना को लेकर अलग-अलग नियम व विचार है। इसलिए गोदना कला में भी एक क्षेत्रीय विविधता देखने को मिलती है। सर्वेक्षण के दौरान हमें कई तरह के मिथक भी सुनने को मिले। इतना ही नहीं हर जनजातीय समुदाय की स्त्रियों के द्वारा गोदने के संदर्भ में अलग-अलग कहानियाँ सुनाई गईं। उदाहरण के तौर पर गोंड जनजाति की महिला द्वारा यह बताया गया कि ‘‘मृत्यु के पश्चात गोदना ही हमारे साथ भगवान के पास जाता है और सब कुछ यहीं रह जाता है।’’

कोरकू नामक आदिवासी समुदाय में पाँच वर्ष की उम्र से गोदना गुदवाने की प्रथा है। गोदना गुदवाना इस समाज में पवित्र और स्त्री-वर्ग के लिए अनिवार्य भी माना जाता है। कपार अर्थात् माथे पर अंग्रेजी के एम आकार जैसा अंकन और उसके ऊपर-नीचे एक बिन्दु गुदवाने का प्रचलन है जिसे ‘कपार-गोदाई’ कहते हैं। नाक के दोनों तरफ एक-एक बिन्दु, दोनों गाल पर एक-एक बिन्दु तथा ठुड्डी पर तीन से पाँच बिन्दु गुदवाई जाती है।[14]

गोंड, बैगा, कोल, खरवार नामक आदिवासी समाज में भी बच्चों, अविवाहित व विवाहित महिलायें, पुरुषों में गुदना गुदवाने का प्रचलन हैं। बैगा समाज में गोदना गुदवाने के पीछे वैज्ञानिक कारण बताया गया है।[15-16] यद्यपि सर्वेक्षण के दौरान हमें एक गोंड समाज की महिला से हुए वार्तालाप में यह पता चला कि उनके समाज की आधुनिक लड़कियां (उम्र लगभग 25 वर्ष तक) गोदना गुदवाना पसंद नहीं करतीं क्योंकि उनके दृष्टि से गोदना अशिक्षित समाज का परिचायक है। यह सोच जनजातीय समाज में नगरीकरण के प्रभाव में आने से विकसित हुई है जो नृजातीय संदर्भ में चिंतनीय है।

कोहबर कला में : कोहबर एक भित्ति-चित्र है। कोहबर के मूल रंग गेरू और चावल का श्वेत घोल है। सिंदूर और हल्दी को पत्थर पर घिसकर पीला रंग प्राप्त किया जाता है। कोहबर चित्रकला आदिवासी महिलाओं द्वारा आज भी बनायी जाती है। इसमे प्रचलित प्रतीक व डिजाइन पर समीपस्थ शैलचित्रों का प्रभाव रहता है। उदाहरण के तौर पर घूरहुपुर पहाड़ी से प्राप्त शैलचित्रों पर ज्यामितीय रेखाओं और बिंदुओं के साथ लाल रंग से रंगा हुआ वर्ग जैसा अंकन मिलता है ठीक ऐसा ही अंकन वहाँ के आदिवासी समुदाय के घरों के कोहबर कला में भी देखने को मिलता है। (चित्र 2) कोहबर बनाते समय महिलायें गीत गाते हुए चित्र बनाती हैं। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि वर्तमान में आज भी कोहबर पूजन की प्रथा गांगेय-मैदान के गावों में शादी-विवाह के समय बनी हुई है। जब विवाहोपरांत अर्थात् सिंदूर-दान के बाद नवविवाहित वर-वधू इसकी पूजा करते हैं।

 

चित्र सं. 2 : (1) भीमबेटका से प्राप्त शैलचित्र पर हाथ का अंकन जिसकी निरंतरता कोहबर कला में दिख रही है (आभार- मठपाल, 1984), (2) आदिवासी महिला द्वारा बनाया गया कोहबर कला, अधौरा ब्लॉक, कैमूर क्षेत्र (आभार- सचिन कु. तिवारी)

जिरोती चित्रकला में : यह चित्रकला भी आदिवासी समाज के प्रमुख भित्ति-चित्रों में जानी-पहचानी जाती है। ज़िरोती का रेखांकन आदिवासी लोगों के आस्था का केंद्र-बिन्दु है। इसमे सूर्य, चंद्रमा जैसे अंकन दिखाई देते है। ऐसे ही अमूर्त अंकन जओरा से प्राप्त शैलचित्र में भी देखने को मिलते हैं। जओरा गुफा आश्रयणी से प्राप्त एक चित्र के विषय मे कहा जाता है कि यह पृथ्वी, आकाश और अग्नि संबंधित धारणा की प्रारम्भिक अभिव्यक्ति है यद्यपि इसका अभिप्राय भिन्न भी हो सकता है तथापि लेखक के दृष्टिकोण से यह अमूर्त चित्रकला का प्रमाण है। (चित्र 3)

  

चित्र सं. 3 : (1) जओरा से प्राप्त अमूर्त चित्रकला (आभार- न्यूमेयर, 1983), (2) आदिवासी समुदाय द्वारा बनाया गया रंगोली, (3) जीरोती कला में उपर्युक्त दोनो कला की सातत्यता देखी जा सकती है।

पिथौरा चित्रकला में : पिथौरा भित्ति चित्र आदिवासी समुदाय का एक आनुष्ठानिक क्रम है। इस कला के विकास में भील जनजाति का प्रमुख योगदान है। पिथौरा-कला में घोड़े का चित्रांकन मुख्य रूप से होता है। यह चित्रकला धार्मिक अनुष्ठानों से ज्यादा प्रभावित है। इसमे प्रायः राजसी चित्रांकन का प्रचलन है जिसमे घोड़े को बहुत ही खूबसूरत ढंग से सजाकर दिखाया जाता है। यहाँ भी यह उल्लेखनीय है कि ऐसे राजसी अंकन कई शैलचित्रों में भी देखने को मिलता है। (चित्र 4)

  

चित्र सं. 4 : (1-2) शैलचित्र से प्राप्त घोड़े का अंकन (आभार- न्यूमेयर 1983 ), (3) पिथौरा चित्रकला में उसकी सातत्यता

हाथ का छाप/थापा में : हाथ के थापे का प्रमाण बहुत पहले से शैलचित्रों में देखने को मिलता हैं। भारत ही नहीं यूरोप के शैलाश्रयों में भी इस तरह के अंकन देखने को मिलते हैं। इसमे बड़े हाथों व कई छोटे बच्चों के भी हाथ के छाप मिले हैं, संभवतः इसका कोई कर्मकांडीय महत्त्व होगा। हालांकि आज भी थापे का प्रचलन कई रूप में आदिवासी समुदाय व ग्रामीण समाज में देखने को मिलता है। नयी बहु के आगमन पर उसके हाथ के छाप घर के दीवारों पर लिए जाते है। कुल-देवता के पूजन के समय में भी हाथ के छापे बनाए जाते हैं। (चित्र 5)

 

चित्र सं. 5 : (1) शैलचित्रों में प्राप्त हाथ का अंकन, चतुर्भुजनाथनाला (आभार- पाठक एवं क्लॉट्स), (2) जनजातीय समुदाय के घरों की दीवारों पर उसकी सातत्यता

अन्य कला-रूप में : अन्य कला रूपों में बैगा-चित्रकला, गोंड-चित्रकला, मोरते, सुरौती, नाग भित्ति-चित्र, चितरावन आदि प्रमुख हैं जिनमे शैल कला में अंकित प्रतीक चिन्हों, प्रतिरूपों आदि की निरंतरता देखी जा सकती है।

निष्कर्ष : इस प्रकार अभी तक किए गए शोध कार्य के आधार पर यह कहा जा सकता है कि मध्य भारत की पहचान उसकी अनूठी जनजातीय संस्कृति है। इस क्षेत्र में प्रारम्भिक होमिनिन के रहने के साक्ष्य की पुष्टि यहाँ प्राप्त शैलचित्रों से की जाती है। चूँकि शैलाश्रय और गुफा की दीवारों पर प्राप्त डिजाइन (ज्यामितीय पैटर्न, हाथ के छाप, सूर्य, चंद्रमा, जानवरों आदि का अंकन) थोड़े बहुत परिवर्तन के साथ आदिवासी समुदायों के आयोजनों व शुभ अवसरों पर देखे जाते हैं जिसका अपना एक अलग आनुष्ठानिक, कर्मकांडीय महत्त्व है, इसलिए यह माना जा सकता है कि प्रागैतिहासिक काल के शैलचित्रों के अभिव्यक्ति का भी एक कर्मकांडीय व आनुष्ठानिक महत्त्व रहा होगा। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि शेष विश्व से पृथक होने के कारण वर्तमान आदिवासी समुदायों (गोंड, भील, बैगा, कोल, अगरिया, सहरिया, कोरक, भरिया आदि) के लोक-कला में भारतीय सभ्यता की निरन्तरता के तत्व विद्यमान तो हैं। किन्तु आधुनिकता की दौड़ में अब यह समुदाय भी नगरीकरण के प्रभाव से अछूता नहीं रहा है। इसलिए पीढ़ी-दर-पीढ़ी मौखिक रूप से हस्तांतरित की जा रही इस लोक कला-परंपरा के विलुप्त होने से पहले दस्तावेजीकरण की नितांत अनिवार्यता है।

संदर्भ:
  1. जे. काकबर्न, ऑन द रिसेन्ट एकजीसटेन्स ऑफ़ राइनोसोर इंडिकस इन द ईस्टर्न प्रोविनसेज एण्ड ए पेंटिंग फ्रॉम मिर्जापुर रीपोर्टिंग द हन्टिंग ऑफ़ दिस एनिमल, जर्नल ऑफ़ एसियाटिक सोसाइटी ऑफ़ बंगाल, जिल्द 52, नं. 2. 1883.
  2. डब्ल्यू. किनकैड, रामबलास अमंग रूइन्स इन सेंट्रल एशिया, इंडियन एंटीक्वेरी, वॉल्यूम. 17, पृ. 348-352. 1888.
  3. यशोधर मठपाल, प्रीहिस्टॉरिक रॉक आर्ट ऑफ़ भीमबेटका, अभिनव प्रकाशन, नई दिल्ली. 1984.
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  14. इंडियन आर्किऑलोजी- ए रिव्यू – आइएआर 1997-98, पृ.170-72.
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श्वेता कुमारी
शोधार्थी, प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्व विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी, उत्तर प्रदेश, 221005

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