जेएनयू डायरी भाग-3
यकजाई : ख़याबाँ ख़याबाँ इरम देखते हैं…
- सुमित कुमार
कहते हैं सीधी लकीर खींचना ज़्यादा मुश्किल होता है। वैसे ही जैसे सीधी बात कहना। जैसे सीधा जीवन जीना। जैसा सीधा सरल होना। इसमें बहुत मेहनत है। क्यों है मेहनत? क्योंकि उसके लिए बहुत साधना चाहिए। कभी सीधी लकीर खींचकर तो देखो। जीवन में भी तो वैसा ही है। जब सीधे सरल हो जाओगे तो कुछ छिपा नहीं पाओगे। फिर तुम्हें प्रयत्न करना पड़ेगा कि कुछ ऐसा हो ही नहीं जो छिपाने योग्य है। ये तुम्हें आसान लगता है? इसीलिए कहते हैं कि सरल होना साधारण होना नहीं है। सरलता ही विशिष्टता है। सरल होने के लिए पहली शर्त है आत्म स्वीकारोक्ति और स्वधर्म के प्रति सत्यता का भाव। यही पहली और गहरी चीज़ थी जो जेएनयू में जाकर मैंने सीखी और ये मैंने कैसे सीखी ये मैं खुद भी नहीं जानता।
ग्यारहवीं की हिंदी की किताब में एक लाइन पढ़ी थी। ‘धर्म किसी को गौरव नहीं देता। एक सच्चा साधु धर्म को गौरवान्वित करता है।’ इसी तरह कोई संस्थान अपने किसी छात्र को गौरव नहीं देता, एक अच्छा छात्र अपने संस्थान को गौरवान्वित करता है। यों भी तो न जाने कितनी अस्मिताएँ हमारे चाहते न चाहते हुए भी हमारे साथ बँधकर चलती ही हैं। लेकिन जिस एक अस्मिता के चलते मेरे कार्यस्थलों पर मेरी सर्वाधिक जबाबदेही तय कर दी गई वह एक पूर्व जेएनयू छात्र की थी। जब दिल्ली के एक स्कूल में पढ़ाने लगा तब वहाँ मुझे ज़्यादातर कलीग ‘जेएनयू’ कहकर ही पुकारते। मुझे भी कोई आपत्ति नहीं थी। बहुत कम उम्र में नौकरी पा जाने के कारण मैं वहाँ उम्र में सबसे छोटा था। आधे से ज़्यादा कलीग रिटायरमेंट के करीब थे। उसी वक़्त फीस बढ़ाए जाने के मुद्दे पर जेएनयू में प्रोटेस्ट तेज़ हो गए थे। जेएनयू में हो रही ऐक्टिविटी का जवाब वहाँ लोग मुझसे माँगते। कलीग मुझे चिढ़ाते कि “और भाई जेएनयू, सबके लिए पी फॉर पैरट, तुम्हारे लिए पी फॉर प्रोटेस्ट?” मैं भी चुटकी ले लेता कि इट्स बेटर टू बी ए प्रोटेस्टर देन टू बी ए पैरट। वहाँ लगभग दो साल की नौकरी करने के दौरान मैंने उनकी धारणाएँ बदलती देखीं। एक बने बनाए पर्सेप्शन के इतर एक व्यक्ति के रूप में अपने व्यवहार और कौशल से शायद मैं कुछ लोगों को महसूस करवा सका कि धूल हर बार आईने पर ही नहीं होती, कभी-कभी चेहरा भी मैला होता है। मैं जहाँ जहाँ गया, जेएनयू मेरे साथ गया ज़रूर लेकिन मेरे साथ काम करने वालों ने उसे मेरे जैसा ही जाना। मैं दिल्ली के स्कूल में कहा करता था कि आप मेरे जाने के बाद इस ‘जेएनयू’ को याद तो ज़रूर करोगे। और मुझे भरोसा है कि जब कभी जेएनयू का ज़िक्र उनके सामने आता होगा तो वे मुझे याद करके मुस्करा तो देते ही होंगे।
कॉलेज में नौकरी मिली पश्चिमी उत्तरप्रदेश को उत्तराखंड की सीमा से जोड़ते एक ग्रामीण इलाके में। विद्यार्थियों में लगभग अस्सी प्रतिशत लड़कियाँ और पढ़ने आने वालों में सौ प्रतिशत। बीए द्वितीय वर्ष में चित्रलेखा उपन्यास लगा था और अन्य कहानियों के साथ ‘यही सच है’ कहानी। प्रेम, वासना, लिप्सा इत्यादि की व्याख्या के प्रसंग आते तो सारी लड़कियाँ सकुचाकर शरमा जातीं। सर्दियों में धूप के दिनों में मैं उनकी क्लास बाहर छत पर लेता था। वहाँ से सामने की सड़क दूर तक दिखाई देती थी। लड़कियों को ऐसे पढ़ते देखकर कुछ शोहदे किस्म के लड़के कभी बाइक की हॉर्न तेज़ कर बजाते, कभी कोई टेम्पो वाला अपनी डेक के गाने तेज़ कर देता। कोई गन्ने का ट्रक उधर से गुजरता तो मेरा मन डोले, मेरा तन डोले की ट्यून को और लंबा खींच देता। छात्राएँ असहज-सी हो जातीं लेकिन कभी कुछ कहती नहीं। बीए प्रथम वर्ष में जायसी के पद्मावत के मानसरोदक खंड का कुछ हिस्सा लगा था। “कुच-नारंग मधुकर रस लेहीं” की व्याख्या करते समय मैंने इसे जल्दी से पढ़ देना चाहा। स्थान और परिवेश स्वतंत्रता, भाषा और उन्मुक्तता को भी तो प्रभावित करते हैं। विद्यार्थी मुझसे बमुश्किल 7-8 साल ही छोटे थे। हालाँकि मेरे साथ उनका व्यवहार मित्रवत था और अपनी समस्याएँ बेझिझक मुझसे कह देते थे लेकिन ऐसे प्रसंगों में वे इतने सहज नहीं थे। इतने क्या बिल्कुल सहज नहीं थे। ऐसे में एक छात्रा ‘कुच’ का अर्थ पूछ बैठी। मैंने ‘उरोज’ कहा तो उसे वह भी समझ नहीं आया। और सरल करते हुए वक्षस्थल कहा तो उसे वह भी नहीं मालूम। मुझे उनकी सरलता पर स्नेह भी आता और अपनी विवशता पर खीझ भी होती कि इनको किस प्रकार समझाया जाए। अंततः हाथों से अपने सीने की तरफ इशारा करके बताया कि महिलाओं का ये हिस्सा। फिर तो वे सब ऐसे शरमा गईं जैसे कोई अपराध कर बैठीं हों। उनका ये अपराध बोध मैं अभी तक निकाल नहीं पाया हूँ। तब मुझे कईबार जेएनयू याद आता है। वहाँ विद्यापति को पढ़ाते हुए हमारे एक प्रोफेसर नायिका के उरोजों में हो रहे विकास की व्याख्या कर रहे थे। उन्होंने जब श्रीफल का अर्थ नारियल बताया तो एक सहपाठी पूछ बैठा कि सर ये कुछ ज़्यादा ही बड़ा नहीं हो गया? सर निर्विकार भाव से बोले कि हाँ, हो तो गया लेकिन विद्यापति जी ने यही माना है तो क्या कर सकते हैं? स्त्री विमर्श, मनोविश्लेषणवाद आदि के मुद्दों पर कक्षा में खूब बहस होती। सेमीनार में सवाल पूछे जाते। वहाँ जेंडर का भेदभाव इन अर्थों में बिल्कुल नहीं था। मैं डीयू और जेएनयू जैसे केन्द्रीय विश्वविद्यालयों को देखता हूँ और फिर अपने कॉलेज की इन छात्राओं को देखता हूँ तो लगता है कि कितना बड़ा फ़ासला है जिसे ये छात्राएँ शायद कभी पार नहीं कर पायेंगी। एकबार सालाना जलसे में कुछ छात्राएँ लिपस्टिक लगा आईं तो जहाँ कहीं टीचर दिखाई दे जाते वे मुँह को हाथ से ढक लिया करतीं। गेंहू की कटाई, धान की रोपाई तथा गन्ने की बुवाई के समय का बच्चों की उपस्थिति से सीधा संबंध था। इस वक़्त अमूमन कक्षा लगभग खाली ही हो जाया करती थी। उनकी प्राथमिकताएँ ही अलग थीं। हम एक ग्रेड बढ़ाने के लिए अपने प्रोफेसरों के आगे-पीछे घूमते थे और यहाँ इतने सालों में एक भी विद्यार्थी अपना एक अंक बढ़ाने के लिए कहने नहीं आया। “ए रानी! मन देखु बिचारी, एही नैहर रहना दिन चारी” की व्याख्या सुनते हुए छात्राएँ थोड़ी भावुक-सी हो जातीं। लेकिन विवाह को लेकर उनके मन में कोई आशंका या डर नहीं होता था जैसा मुझे जेएनयू की अपनी कई सहपाठियों से बातचीत के दौरान लगा था। शायद उम्र के जिस पड़ाव पर पहुँचकर ये समझ विकसित होती उससे पूर्व ही उनका विवाह कर दिया जाता था। यहाँ अधिकांश छात्राओं का विवाह तृतीय वर्ष में पहुँचते-पहुँचते हो ही जाता था और अमूमन तृतीय वर्ष की परीक्षा वे पूरे शृंगार से सुसज्जित हो एक नवविवाहिता के रूप में देने पहुँचती थीं। हमें भी उनके विवाह समारोह के आमंत्रण मिलते थे हालाँकि कभी जाने का संयोग नहीं बन पाया। कुछ छात्राओं ने विवाह के बाद भी प्रवेश लिया था। एक लड़की ने पूरी पढ़ाई विवाह के बाद ही की। इस दौरान वह गर्भवती भी हुई और बच्चे का जन्म भी हुआ। लेकिन कुछ छात्राओं ने दूसरे या तीसरे वर्ष में पढ़ाई इसलिए छोड़ दी क्योंकि उनका पति जो कहीं विदेश में नौकरी कर रहा था, कुछ महीनों के लिए घर आया था। उसी दौरान परीक्षाएँ पड़ीं तो उन्होंने पेपर छोड़ दिए। और फिर पढ़ाई छूटी तो छूट ही गई।
जेएनयू में पढ़ाई का अच्छा फायदा ये भी हुआ कि यहाँ अपने समय के बड़े-बड़े साहित्यकारों और विद्वानों को देखने, सुनने और मिलने का मौका मिला। नामवर सिंह तो जैसे विभाग के पुरखे थे ही। वीरेन डंगवाल पर हो रही एक संगोष्ठी में मैनेजर पाण्डेय को पहली बार सुना। ‘इतने भले नहीं बन जाना साथी, जितने भले हुआ करते हैं सरकस के हाथी’ कविता का पाठ उन्होंने अपने खास अंदाज में किया। केदारनाथ सिंह हमें ‘राम की शक्ति पूजा’ पढ़ाने आए। कविता पढ़ाने में तो कुछ विशेष अलग नहीं था लेकिन उनका व्यक्तित्व इतना मृदुल और स्वच्छ-सा था जैसे कोई छोटा-सा बच्चा होता है। छल और दंभ से सर्वदा मुक्त। ऐसी ही उनकी कविताएँ भी हैं। चित्रा मुद्गल एक सेमीनार में शामिल होने आई थीं। उस समय उनका उपन्यास पोस्ट बॉक्स नंबर 203 नाला सोपारा छपकर आया ही था। उसी दौरान उदय प्रकाश , विमल थोरात, मैत्रयी पुष्पा, रमणिका गुप्ता, ममता कालिया आदि का भी सानिध्य प्राप्त हुआ। प्रो. चौथीराम यादव को कबीर पर शानदार वक्तव्य देते सुना। नासिरा शर्मा को पारिजात के लिए उन्हीं दिनों साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला था। फिर एक सेमीनार में अनामिका जी और निर्मला जैन को सुनने का भी मौका मिला। मुझे कृष्णा सोबती और मन्नू भण्डारी जी से मिलने की बड़ी इच्छा थी। कभी मौका ही नहीं मिला और वे दोनों ही इस दुनिया से अलविदा कह गईं। जिस दिन मन्नू भण्डारी जी का देहावसान हुआ उस दिन मैं कॉलेज में उनकी कहानी ‘यही सच है’ पढ़ा रहा था। यह कहानी न जाने क्यों मुझे इतनी पसंद है। कभी-कभी लगने लगता है कि हम सब इस कहानी की दीपा ही तो हैं। जो असल में चाहिए वो मिल नहीं रहा इसलिए जो मिल रहा है उसे सीने से चिपकाए घूमते फिरते हैं। बात सिर्फ़ प्रेम की ही तो नहीं है। स्वप्न, उल्लास, खुशी, दुख, भय, उत्सुकता ये सब कुछ भी क्या हमारा ही है जो हम लिए फिरते हैं? या फिर ये सब किसी रिक्तता को भरने के साधन मात्र हैं? लेकिन फिर हम ये भी तो देखते हैं कि कल जिन चीज़ों के लिए प्रार्थनाएँ की गई थीं, आज वे बेमोल-सी नहीं पड़ी हैं? कुछ पा लेने के बाद उस व्यक्ति या वस्तु का महत्त्व खत्म या कम नहीं हो जाता? एलिया साहब कहते हैं न कि ‘ हमने जाना है तो ये जाना है, जो नहीं है वो खूबसूरत है’। तो क्या ये व्यक्ति की नियति है? जिस शहर में रहना उकताए हुए रहना? खैर ये तो विषयांतर हो गया। पिछली पीढ़ी धीरे-धीरे समाप्त होती जा रही है और नए लोग और विचार साहित्य के क्षेत्र में आ रहे हैं। कल जिनके साथ घूमते-फिरते, खाते-पीते वक़्त बिताया है, शायद वे भी कल अलग-अलग क्षेत्रों के बड़े नाम होंगे। लेकिन तब हम न जाने कहाँ होंगे।
घरेलू माहौल कुछ ऐसा रहा था कि मेरी माँ बकरीद के दिन सोच-सोचकर ही खाना नहीं खा पातीं थीं। वे सोयाबीन चाप इसलिए नहीं खाती थीं क्योंकि ये देखने में कुछ-कुछ ‘उस’ जैसी थी। ऐसे में मुझ जैसे घनघोर शाकाहारी के लिए बड़ी विकट परिस्थिति उस समय आ खड़ी हुई जब हॉस्टल में मैस में खाना खाने की बारी आई। डीयू में तो फिर भी वेज और नोनवेज भोजन की रसोई अलग-अलग थी। लेकिन जेएनयू में सब एक ही साथ था। एक ही मेज पर आमने-सामने या अलग-बगल बैठकर खाना होता। एक दिन सुबह ब्रेकफास्ट के समय एक लड़का कॉमन यूज के लिए कटोरी में रखी नमक में अंडा लगाकर खा रहा था। मैंने उसे ऐसा करते देख लिया तो आपत्ति जताई। उसने बड़ी मासूमियत से कहा कि ये जूठा नहीं था। मुझे हँसी आ गई। तब उसके पास बैठे दूसरे लड़के ने उसे आपत्ति की वजह समझाई। हॉस्टल में मुझे कई लोग न जाने क्यों मलयाली समझते थे। 3-4 लोगों ने मुझसे ये पूछा। और पूछने के इस क्रम में वे अपनी प्लेट लेकर मेरे नजदीक खिसक आते जो अधिकांश समय नॉन वेज से भरी होती थी। वैसे हॉस्टल में मैस और खाने की भी अपनी ही कहानियाँ होती थीं। कुछ एक बच्चे इतने करीने से प्लेट में दाल, चावल, रोटी और सब्जी की तहें लगाकर रखते कि ये कोई छोटी-मोटी मीनार सी लगती। फिर वे उसे अपने कमरे में ले जाते और ज़्यादातर पूरा खा नहीं पाते तो ऐसे ही प्लेट बाहर रख जाते। बहुत सारा खाना ऐसे बर्बाद हो जाता। मुझे याद है कि एक बार दुपहर के समय कढ़ी बनी थी और एक लड़का लंच खत्म होने से कुछ एक मिनट पहले खाना खाने पहुँचा। तब तक कढ़ी में सिर्फ़ कढ़ी बची थी, पकौड़े सब गड़प हो चुके थे। ये देखकर उसने मैस में जो आतंक उठाया कि बताओ हमको पकौड़ा नहीं मिला। मेरे भैया उस दिन वहीं थे। उन्होंने आज तक उसी बात की मजाक बनाई हुई है। कहीं जेएनयू में फीस बढ़ाने के लिए प्रोटेस्ट की कुछ बात चल रही थी तो कहने लगे कि भैया ये लोग पकौड़े के लिए अनशन पर बैठने को तैयार हो जाते हैं, फीस तो फिर दूर की बात है। डीयू में मेरे साथ मेरा एक सर्वाहारी दोस्त कुछ समय रहा था। मैं उसे मैस से कुछ कमरे में न लाने देता। लहसुन की गंध से मुझे चिढ़ थी और वो गार्लिक ब्रेड चाँपकर खाता था। संयोग भी कुछ ऐसा बना कि मेरे दोस्तों में से अस्सी प्रतिशत अलग-अलग स्तर के नॉन वेजेटेरियन थे। कुछ अंडा मिला हुआ केक खा लेते लेकिन अंडा नहीं खाते। कुछ अंडा खा लेते थे लेकिन चिकन नहीं। कुछ को चिकन और मछली से समस्या नहीं थी लेकिन पोर्क और सी फूड को देखकर मुँह सिकोड़ लेते थे। एक वेज को इस तरह सानकर खाता था कि उसके साथ बैठकर खाने से बेहतर था कि नॉनवेज वाले के साथ बैठकर खा लिया जाए। मसलन वो दही में रसमलाई मिला देता और उसे चावल के साथ खाता। लेकिन दो-तीन सर्वाहारी किस्म के थे जिनके लिए सब कुछ एक जैसा था। और उस पर तुर्रा ये कि इन्हीं तीनों के साथ मेरा व्यवहार सबसे ज़्यादा रहा। कुछ एक साल बाद मेरे उसी सर्वाहारी मित्र ने मुझे अंडा खाने के लिए मानसिक रूप से तैयार कर ही लिया कि बिना इसके जिम जाने का फायदा नहीं। उसने अपने सामने बैठाकर ही मुझे अंडा खिलाने की ठान ली। अंततः मैंने पानी की एक-एक घूँट के साथ एक-एक टुकड़ा अंडा खाया। जैसे वो अंदर गया वैसे ही बाहर आ गया और मेरे उस मित्र के ऊपर ही सारी उल्टी जा पड़ी। उस दिन के बाद से उसने अपना इरादा छोड़ दिया। दूसरे दोस्त से मेरी पहली मुलाकात ही जेएनयू के मैस में हुई थी जहाँ वो डीयू से मछली खाने आया था। बाद में हम लोग कुछ महीने पीएचडी के दौरान साथ में रहे भी। वो भी नॉनवेज का दीवाना था लेकिन मैंने रसोई में कभी कुछ नहीं बनने नहीं दिया। कभी उसके दोस्त आ भी गए तो बेचारे कटहल की सब्जी में चिकन का स्वाद ले लेते थे। आज भी जब कभी वो जेएनयू जाता है तो मुझे बताता है कि अरावली में मछली खाने आए हैं। जेएनयू में खाने के अड्डे थे भी तो बहुत। गंगा ढाबा को तो दुनिया जानती है हालाँकि वहाँ प्रोपर खाना नहीं मिलता था। लेकिन यहाँ कि गुँझिया मैंने खूब खाई हैं। टेफ़्लाज, शंभू ढाबा, लाइब्रेरी कैंटीन, 24/7 ढाबा, मुग़ल दरबार तो प्रसिद्ध थे ही और ज़्यादातर हॉस्टल के अपने छोटे ढाबे भी थे और लगभग सभी विभागों में अपनी कैन्टीन थीं। KC में भी कुछ दुकाने थीं और गोलगप्पे के शौकीनों के लिए यही एक जगह थी। लेकिन मेरे लिए सबसे मुफीद वही SL की कैन्टीन थी जिसे एक राजस्थानी दम्पत्ति चलाते थे और जिसका जिक्र मैंने पहले भी किया था। एक वजह तो यही थी कि यहाँ सिर्फ़ शाकाहारी खाना मिलता था। हालाँकि पराँठे का साइज़ पूरी जितना था लेकिन इतना सस्ता मुझे नहीं लगता कि कहीं और मिल भी सकता था। हॉस्टल के कमरे में भी कभी- कभी जुगाड़ करके चिकन बनाने का प्रोग्राम बनता। हम शाकाहारी गरीबों के लिए चिकन के लिए बनी ग्रेवी में पनीर डाल दिया जाता और क्या ही वाहियात पनीर बनता। जाने क्यों उन लोगों को लगता था कि ढेर सारे मसाले भर देने से सब्जी स्वादिष्ट हो जाती है। स्वादिष्ट खाना खाने के लिए हमारे प्रोफेसर्स के घर जाना होता था। होली, दीवाली और ईद के मौके पर प्रोफेसर्स के घर जा धमकते थे। अपने एक उर्दू के प्रोफेसर साहब के यहाँ क्या ही लज़ीज़ सिवैये खाए और दूसरे एक प्रोफेसर साहब के घर खाई गट्टे की सब्जी का स्वाद फिर कहाँ ही मिल सका। एक बार होली के समय अपनी प्रोफेसर मैडम के घर पहुँच गए। कुछ पहले से तैयार नहीं मिला तो उनके फ्रिज पर धाबा बोल दिया। जो मिला सब चट कर डाला। हम ऐसी हनक के साथ उनके घर पहुँचते थे जैसे ये तो हमारा अधिकार ही है। फिर कक्षा में शिक्षकों का व्यवहार कितना भी सख्ती भरा हो, घर पर स्नेहिल ही होता था।
कभी सोचता हूँ कि क्या जवाब हमेशा सवाल से बड़े होते हैं? कई बार हमारे सवालों में ही जवाब नहीं होता? क्या कुछ सवाल पूछे ही इसलिए नहीं जाते कि कहीं उनके जवाब सुनने न पड़ जाएँ या फिर कुछ सवाल पूछे ही इसलिए जाते हैं कि उनके जवाब बस सुनने भर होते हैं। प्रश्न-पत्र से उत्तर-पुस्तिकाएं हमेशा बड़ी ही देखी हैं हमनें। लेकिन कईबार बहुत लंबे, गहरे और पेचीदा सवालों के जवाब सिर्फ़ मौन में पाए और सुने हैं। जेएनयू में बिताए इस थोड़े से वक़्त के दौरान ही जीवन में एक पड़ाव ऐसा भी आया जब विकल्पों के चौराहे पर खड़े होकर चुनाव की बारी आई। जीवन कितना सरल हो जाता है जब विकल्प नहीं रहते। लेकिन सरलता सबको भली नहीं लगती। कई दफ़ा सरल होना पिछड़े होने का तो कईबार अक्षम होने का प्रतीक मान लिया जाता है। फिर भी मुझे सरलता ही भाती रही। वो सुनते हैं न कि ‘वो भी सादा है कभी चाल बदलता ही नहीं, हम भी सादा हैं उसी चाल में आ जाते हैं।’ जीवन किस तरह कितनी धाराओं और परतों में बहता हुआ चलता है, हम कहाँ जान पाते हैं? जीवन के कितने ही चेहरे होते हैं। हम उनमें से कितने कम को जानते हैं। समाज, रिश्तेदारी, संबंधों और नैतिकता की दुनियादारी के बीच जकड़ा इंसान कितना असहाय-सा हो जाता है। नैतिकता और संबंधों के बीच के रेशे कितने नाजुक होते हैं। कईबार संबंध बचाने के चक्कर में नैतिकता छूटती है तो कितनी ही बार व्यक्ति मूल्यों के कारण दुनियादारी में फिसड्डी हो जाता है। हममें से हर एक रोज़ इन्हीं सबके बीच से होकर तो गुज़र रहा है। हममें से कितने सीधी लकीर खींच सकते हैं? सीधी लकीर खींचने के लिए अभ्यास और अनुभव ही नहीं कईबार इनसे ज़्यादा साहस की ज़रूरत होती है और वो सबमें नहीं होता। इसलिए लफ्फाजियां होती हैं। लक्षणा और व्यंजना होती है। भारी-भरकम शब्द होते हैं। कॉम्प्लेक्स चीजें होती हैं ताकि जस्टिफिकैशन की गुंजाइश बनी रहे। जो जितना साहसी, पारंगत, सिद्धहस्त और निपुण होता है उतना ही सरल हो जाता है। सरलता में ही रस है। सरल ही सुंदर है। सरल में सब कुछ समाया होता है। यही सीधी लकीर खींचना जेएनयू ने सिखाया। वक़्त और हालात बदलेंगे और हम भी। लेकिन उम्मीद करते हैं कि न कभी ये मुहब्बत कम हो और न कभी ये सबक धुँधला पड़े। सुना तो है कि ‘मकतब ए इश्क का दस्तूर निराला देखा, उसको छुट्टी न मिली जिसको सबक याद हुआ’। देखते हैं कितना खरा बैठता है।
डॉ. सुमित कुमार
असिस्टेंट प्रोफेसर, हिंदी, महामाया राजकीय महाविद्यालय, शेरकोट,बिजनौर (उत्तर प्रदेश)
अपनी माटी
( साहित्य और समाज का दस्तावेज़ीकरण )
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका
Peer Reviewed & Refereed Journal , (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-61, जुलाई-सितम्बर 2025
सम्पादक माणिक एवं जितेन्द्र यादव कथेतर-सम्पादक विष्णु कुमार शर्मा चित्रांकन दीपिका माली
