शोध आलेख : हिंदी नवजागरण को देखने की बहुजन समझ / विंध्याचल यादव

हिंदी नवजागरण को देखने की बहुजन समझ
- विंध्याचल याद

शोध सार : किसी समाज और संस्कृति के अध्ययन एवं उसमें विभिन्न समूहों के योगदान के प्रतिपादन की भिन्न-भिन्न इतिहास दृष्टियां प्रचलित रही हैं; जिनके अलग-अलग राजनीतिक, सामाजिक व आर्थिक आधार और उद्देश्य होते हैं। जैसे- औपनिवेशिक इतिहास दृष्टि तथा राष्ट्रवादी इतिहास दृष्टि को लें अथवा आभिजात्यवादी समझ तथा सबाल्टर्न समझ को देखें। या फिर मार्क्सवाद, गांधीवाद, बुद्धिज्म व वैदिक आदि विचारधाराओं के परिप्रेक्ष्य से एक ही वस्तु स्थिति का विवेचन करने से भिन्न-भिन्न नतीजे प्राप्त होते हैं। भारतीय समाज की सोपानिक संरचना के मद्देनजर साफ तौर से भारतीय समाज दो हैसियतें दिखाई पड़ती हैं। एक सामाजिक विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग है जिसके पास स्वाभाविक तौर पर आर्थिक संसाधनों का भी केंद्रीयकरण मिलता है और इसीलिए इसी वर्ग के पास शासन और संस्कृति के निर्णायक सूत्र भी मौजूद हैं। दूसरी तरफ भूमिहीनों छोटे खेतीहरों और शिल्पक जातियों का वर्ग है जो सामाजिक रूप से अधीनस्थ और वंचित रहा है। जिन्हें यहाँ बहुजन समाज के रूप में अभिहित किया जा रहा है। इस तरह मोटेतौर पर भारतीय समाजों के संदर्भ में इतिहास में लोगों के योगदान को जानने, समझने व परखने को लेकर विद्वानों की मुख्यतः दो सरणियां रही हैं। पहले में परम्परागत वर्चस्वशाली विचारधारा के विचारक आते हैं, जिन्हें अभिजन विचारक या परम्परावादी या भाववादी विचारक कहा जा सकता है, दूसरे में वर्चस्वशाली परम्परागत चिंतनधारा के बरक्स शोषित, दमित, पीड़ित, दबे-कुचले वर्ग को केन्द्र में रखकर अध्ययन करने वाले विचारक आते हैं, जिन्हें बहुजन विचारक या भौतिकवादी विचारक कहा जा सकता है। बहुजन विचारकों में ज्योतिबा फुले, सावित्री बाई फुले, पेरियार रामास्वामी नायकर, सन्तराम बीए, स्वामी अछूतानन्द, चन्द्रिका प्रसाद जिज्ञासु, शिवदयाल चैरसिया, डॉ० भीमराव अंबेडकर, पेरियार ललई सिंह, रामस्वरूप वर्मा, महाराज सिंह भारती, बाबू जगदेव प्रसाद, छेदीलाल साथी इत्यादि विचारकों का नाम उल्लेखनीय है।

बीज शब्द : बहुजन विचारधारा, औपनिवेशिक इतिहास दृष्टि, आभिजात्यवादी समझ, सबाल्टर्न समझ, नवजागरण, हिंदी जाति, बुद्धिज़्म, भाववाद, भौतिकवाद, दलित चिंतन, साम्राज्यवाद, सामंतवाद, पुरोहितवाद, यथास्थितिवाद ब्राह्मणवाद आदि।

मूल आलेख : बहुजन विचारक परम्परागत वर्चस्वशाली श्रेष्ठताबोध को प्रश्नांकित करते हैं तथा हाशिये के मेहनतकश और निम्न कही जाने वाली जातियों में नई चेतना का संचार करते हैं। सामाजिक न्याय और समता के आदर्शों से प्रेरित बहुजन वैचारिकी शोषण व विषमता आधारित ब्राह्मणवादी व्यवस्था के खिलाफ सशक्त उद्घोष है। ब्राह्मणवादियों द्वारा वर्ण-व्यवस्था की स्थापना कर श्रेष्ठताक्रम का निर्धारण किया गया, जिसके अनुसार ब्राह्मण सबसे श्रेष्ठ उसके बाद क्षत्रिय व वैश्य हैं, इस क्रम में सबसे नीचे शूद्र आते हैं जिन्हें सभी प्रकार के मानवीय अधिकारों से वंचित रखा गया। ब्राह्मणवादियों के श्रेष्ठताबोध को कटघरे में खड़ा करते हुए रामस्वरूप वर्मा कहते हैं “पाखाना खाने वाले कुत्ते को थपकियाँ देने और पोंछने में उन्हें कोई संकोच नहीं होता लेकिन भंगी को छूना या पास बैठाना उनके लिए असम्भव है। यही नहीं पाखाना खाने वाली गाय ब्राह्मणवाद में पूज्य कही गई है और उनका पेशाब पीना पवित्र माना गया है लेकिन वाह रे ब्राह्मण वादियों! प्रकृति का मुकुट मणि इंसान (भंगी) छूने योग्य नहीं।”[1] वर्ण-व्यवस्था को कायम रखने के लिए उसे कर्मणा बताया जाता है लेकिन बहुजन विचारकों ने उसको भी खारिज करते हुए कहा है “व्यक्ति अपने कर्मों से भी ब्राह्मण नहीं बनता। न ही व्यक्ति की जीवनवृत्ति उसे ब्राह्मण बनाती है। कैसे? अक्सर देखा गया है कि क्षत्रिय, वैश्य, शूद्रादि भी अध्ययन-अध्यापन, यज्ञादि कर्मकाण्ड, दान-प्रतिग्रह, जिन्हें ब्राह्मणत्व का लक्षण माना गया है- करते पाये जाते हैं। उन सब कर्मों को करने के बाद भी कोई व्यक्ति ब्राह्मण नहीं बन पाता है।”[2] रामस्वरूप वर्मा तर्क प्रस्तुत करते हुए कहते हैं “यदि दूसरों का पाखाना छूने वाला छूत समझा जाय तो फिर पैथोलॉजी विभाग में पाखाने की जाँच करने वाले सारे ब्राह्मण भंगी घोषित किये जाने चाहिए। सारी मातायें अपने बच्चों का पाखाना उठाती हैं इसलिए उन्हें भंगिन की संज्ञा से पुकारने के लिए कोई ब्राह्मणवादी तैयार नहीं होगा।”[3]

बहुजन विचारकों ने नवजागरण को नया आयाम दिया। बहुजन विचारक पुनर्जन्म व भाग्यवाद के सिद्धान्त को मिथ्या मानते हैं, लेकिन नवजागरण के व्याख्याकार डॉ० रामविलास शर्मा अपने चिन्तन में बहुजन विचारकों का जिक्र करने से कतराते हैं। बहुजन विचारक मनुवाद, सामन्तवाद और पुरोहितवाद को साम्राज्यवाद से बड़ा शत्रु मानते हैं इसलिए अम्बेडकर सामाजिक मुक्ति की बात करते हैं। “वास्तव में ब्राह्मणवाद एक पेड़ की भाँति है, जिसकी जड़ पुनर्जन्म और तना भाग्यवाद है, वर्ण-व्यवस्था इसकी टहनियाँ और जातियाँ इसके पत्ते हैं। ऊँच-नीच का भेदभाव इसका फूल है और शोषण इसका फल है।”[4] इसीलिए कँवल भारती स्वामी दयानन्द के नवजागरण सम्बन्धी विचार को कटघरे में खड़ा करते हुए कहते हैं “दयानन्द सरस्वती, जिन्होंने 1875 में आर्य समाज की स्थापना की और नारा दिया- वेदों की ओर लौटो। क्या इसे हम नवजागरण कहेंगे, जो हिन्दुओं को वेदों की ओर ले जा रहा था? सच तो यह है कि दयानन्द हिन्दुओं को जागरूक नहीं कर रहे थे, बल्कि उनको हजारों साल पीछे उस युग में ले जा रहे थे, जहाँ वर्ण-व्यवस्था थी, स्त्रियों के साथ भोगविलास था, यज्ञ के नाम पर निरीह पशुओं की हत्यायें थी और अपने से भिन्न विचार के लोगों के साथ शत्रुता और उनका नरसंहार था।”[5] रामस्वरूप वर्मा के शब्दों में “तथाकथित समाज सुधारक या तो ब्राह्मणवाद के स्वरूप से परिचित नहीं थे या फिर अपनी कायरता के कारण वे पत्ते काटकर या फूल तोड़कर अपने कर्त्तव्य की इतिश्री समझ लेते थे। किन्तु उन्होंने ब्राह्मणवाद की जड़ पुनर्जन्म को कभी नहीं काटा, चाहे वे स्वामी दयानन्द जी हों अथवा महात्मा गाँधी, सभी पुनर्जन्म पर विश्वास करते रहे। भाग्यवाद पर यकीन करते हुए वर्ण-व्यवस्था को मानते रहे। केवल ऊँच-नीच के भेदभाव और जाति प्रथा को समाप्त करने की बात करते रहे। फिर भला उनके प्रयत्न से इस ब्राह्मणवाद का अंत कैसे होगा? उससे तो इसमें और भी नया हरापन आया, जैसे नीम की टहनियाँ और पत्ते काट देने से उसमें नई टहनियाँ और कोमल पत्ते निकलते हैं। फलस्वरूप ब्राह्मणवाद का अशोभनीय पुराना वृक्ष फिर नई टहनियों और पत्तों के साथ चमकने लगा।”[6]

यदि जनता को अन्धकार से प्रकाश में लाने का नाम नवजागरण है तो यह नवजागरण बहुजन विचारकों ने किया था। इस नवजागरण में हिन्दुत्व का पुनरूत्थान नहीं था, जिसके लिए राजाराम मोहनराय और स्वामी दयानन्द जैसे ब्राह्मण विचारकों के साथ-साथ स्वामी विवेकानन्द जैसे अब्राह्मण विचारक भी सक्रिय थे, बल्कि इसमें हिन्दू धर्म और उसके ग्रन्थों का निषेध था तथा आमजनमानस की वास्तविक स्वतन्त्रता तथा मुक्ति का आह्वान था। इस बहुजन नवजागरण का सूत्रपात महाराष्ट्र में ज्योतिबा फुले ने किया। उन्होंने अछूतों, शूद्रों और स्त्रियों के लिए स्वतन्त्रता, गरिमा और मुक्ति का एक नया युग आरम्भ किया। उन्होंने शूद्रों, अतिशूद्रों और स्त्रियों के अज्ञान और अंधविश्वास को हटाकर उनकी मानसिक जकड़बंदी को तोड़ने का प्रयास किया तथा उनके शिक्षा के लिए स्कूल खोला। यह स्कूल भारत में पहला स्कूल था, जिसका मुख्य उद्देश्य अछूतों और स्त्रियों को शिक्षित करना था। इस नवजागरण का नेतृत्व बंगाल में चाँद गुरु नमो शूद्र आन्दोलन चलाकर कर रहे थे, केरल में नारायण गुरु तो तमिलनाडु (मद्रास) में रामास्वामी नायकर वर्ण-व्यवस्था, ब्राह्मणवाद, मूर्तिपूजा और ईश्वरवाद को उखाड़ फेंकने का आन्दोलन चलाकर कर रहे थे।

उत्तर भारत में बहुजन नवजागरण को उद्घाटित करने वालों में स्वामी अछूतानन्द, चन्द्रिका प्रसाद जिज्ञासु, पेरियार ललई सिंह, रामस्वरूप वर्मा, महाराज सिंह भारती, बाबू जगदेव प्रसाद इत्यादि लोगों का नाम उल्लेखनीय है। स्वामी अछूतानन्द दलित पिछड़ी जातियों की पहचान आदि हिन्दू के रूप में की थी। उनका साहित्य ब्राह्मणवाद की असली तस्वीर बहुजन समाज को दिखाकर उसमें जनचेतना का संचार कर रहा था। बिहार में 1933 में त्रिवेणी संघ की स्थापना हुई, जिसके बारे में मनीष रंजन लिखते हैं कि “बिहार में ब्राह्मण और ब्राह्मणवाद से मुक्ति की शुरुआती लड़ाई त्रिवेणी संघ ने ही लड़ी थी। उसने ब्राह्मण विधि से अलग जयमाला और प्रतिज्ञा पत्र द्वारा शादी तथा भण्डारा कर श्राद्ध किया, जिसमें ब्राह्मण की कोई आवश्यकता नहीं थी।”[7] त्रिवेणी संघ की मान्यता थी कि “जब तक धार्मिक साम्राज्यवाद, सामाजिक साम्राज्यवाद, राजनीतिक साम्राज्यवाद और आर्थिक साम्राज्यवाद का अंत न होगा, तब तक सुराज्य हो ही नहीं सकता।”[8] चन्द्रिका प्रसाद जिज्ञासु धर्मशास्त्रों की आलोचना करते हुए कहते हैं कि “धर्म शास्त्रों के विधानों द्वारा ब्राह्मणों ने शूद्रों की नीचता, अपंगता और दासता सदा-सर्वदा के लिए सुदृढ़ कर दी थी। शूद्र ऊँचा उठ ही नहीं सकता, किसी प्रकार की भी उन्नति नहीं कर सकता। इन विधानों की रचना में सबसे दारुण, क्रूर और भयंकर अन्याय यह है कि बेचारे असहाय शूद्र जबरदस्ती राजशक्ति द्वारा नीच और लाचार बनाये गए और हमेशा हमेशा के लिए ब्राह्मणों का शिकार बना दिए गए।”[9] पेरियार ललई सिंह सामाजिक-सांस्कृतिक नवजागरण के द्वारा मिथक, धर्म, ईश्वर, स्वर्ग-नरक, पाप-पुण्य, पवित्रता, नस्लीय श्रेष्ठता, वर्ण और जाति के विरुद्ध प्रतिरोध की चेतना जगा रहे थे। वे अपने साहित्य में वर्ण संहिता के प्रतिमानों को ध्वस्त करने की पुरजोर कोशिश करते हैं। वे हिन्दू धर्मशास्त्र की संहिताओं को प्रश्नांकित कर नस्लीय और वर्णाश्रमी श्रेष्ठता को कटघरे में खड़ा करते हैं। पेरियार ललई सिंह की वैचारिकी के बारे में बातचीत के दौरान चौथीराम यादव कहते हैं “पेरियार ललई सिंह के मार्गदर्शक बुद्ध, अम्बेडकर, पेरियार आदि थे। वे उन्ही के आदर्शों को लेकर चल रहे थे। उन्ही के समतामूलक समाज की वैचारिकी के आधार पर इनकी भी समाज निर्माण की परिकल्पना निर्मित हुई थी, जिसमें वंचितों को अधिकार मिले, जाति व्यवस्था खत्म हो, ब्राह्मणवादी परम्परा ध्वस्त हो। इसमें मनुवादी परम्परा का वर्चस्व खत्म किये बिना समतामूलक समाज की कल्पना नहीं की जा सकती। अतः वे हिन्दू धर्म के पाखण्डों, कुरीतियों पर प्रहार जोर-शोर से करते रहे, बौद्ध धर्म का प्रचार करते रहे और अपने विचारों का भी प्रचार-प्रसार समाज में करते रहे।”[10]

बहुजन विचारक वर्ण-व्यवस्था को उद्घाटित करने वाले आप्त पुरुष ब्रह्मा को कटघरे में खड़ा करते हैं। ब्राह्मणवादी ग्रन्थों में वर्ण-व्यवस्था को ईश्वरीय जामा पहनाकर पेश किया जाता है, जिसमें एक ऐसे पुरुष की कल्पना की गई है, जिसके चार अलग-अलग अंगों से चार वर्णों का जन्म हुआ, ऋग्वेद के ऐतरेय ब्राह्मण के पुरुष सूक्त के श्लोक ‘ब्राह्मणोस्य मुखमासीत बाहू राजन्यः कृतः। उरु तदस्य यद्वैश्यः पदभ्यां शूद्रो अजायत् ।।’ के अनुसार ब्रह्मा के मुख से ब्राह्मण, बाहु से क्षत्रिय, जांघ से वैश्य और पैर से शूद्र उत्पन्न हुए। ब्राह्मणवादियों द्वारा कल्पित इस विराट पुरुष ब्रह्मा को कटघरे में खड़ा करते हुए ज्योतिबा फुले सवाल करते हुए कहते हैं “गर्भ ब्रह्मा के मुख में जिस दिन से ठहरा, उस दिन से लेकर नौ महीने तक वह किस जगह पर रहकर बढ़ता रहा।”[11] आगे ज्योतिबा फुले सवाल खड़ा करते हैं “अपनी सावित्री के होते हुए भी ब्रह्मा ने उस नवजात शिशु के गर्भ का बोझ अपने मुँह में नौ महीने तक सम्भालकर रखने, उसे जन्म देने और उसकी देखभाल करने का झमेला अपने माथे पर क्यों ले लिया? यह कितना बड़ा आश्चर्य है।”[12] वर्ण-व्यवस्था में ब्राह्मण को शीर्षस्थ स्थान पर व शूद्र को निम्न स्थान पर रखा गया तथा शास्त्रीय संहिताओं द्वारा ब्राह्मण की श्रेष्ठता बनाये रखने के लिए अनेक प्रावधान किए गए तथा ब्राह्मणों को शारीरिक श्रम न करने का फरमान जारी किया गया। “मुख से उत्पन्न होने के कारण ब्राह्मण सबसे बड़े हैं और सृष्टि के प्रभु या स्वामी हैं। (मनु० अध्याय 1 श्लोक 3), संसार में जो कुछ है सब ब्राह्मणों का है, क्योंकि जन्म से ही वह सबसे श्रेष्ठ है। (मनु० अध्याय 12 श्लोक 100), देवता लोग ब्राह्मणों के मुख द्वारा ही भोजन करते हैं। इसलिए संसार में ब्राह्मण से बढ़कर कोई दूसरा प्राणी नहीं। (मनु० अध्याय 1 श्लोक 15)”[13] मनुस्मृति में जहाँ एक ओर ब्राह्मणों का महिमा मण्डन किया गया है, वही दूसरी ओर शूद्रों को अपमानित करने का फतवा जारी किया गया है। मनुस्मृति में स्त्रियों को गुलाम बनाये रखने की अनेक संहितायें हैं, जो स्त्रियों की स्वतन्त्रता छीनकर स्वाभिमान से हीन बनाये रखने की वकालत करती हैं। महामना रामस्वरूप वर्मा मनुस्मृतिकार की मनःस्थिति के विषय में टिप्पणी करते हुए कहते हैं “मनुस्मृतिकार ने स्त्री शोषण का पूरा विधान अपने ग्रन्थ में करके जब यह लिखा कि स्त्रियों का मुख सदा शुद्ध होता है ‘नित्य मास्यं शुचि स्त्रीणां’ (5-130) तो उनके अनुयायी कहते हैं कि मनुस्मृतिकार के मन में स्त्रियों के प्रति सद्भावना थी, तभी तो उन्होंने सारी स्त्रियों के मुख को पवित्र लिखा। इसके बारे में इतना ही लिखना पर्याप्त होगा कि ब्राह्मणों के लिए चारो वर्ण की स्त्रियों को लेने का फतवा देने वाले मनुस्मृतिकार यदि ऐसा न लिखते तो ऐसे ब्राह्मण शूद्र स्त्री के कपोल और अधरों को चूमते हुए भी पवित्र कैसे रहते? इन फतवों में सद्भावना नहीं, उनकी कमजोरी परिलक्षित होती है।”[14]

बहुजन विचारक वर्ण-व्यवस्था से उत्पन्न जातिवाद का पुरजोर विरोध करते हैं। ब्राह्मणवादियों द्वारा आरम्भ में जाति को कर्म आधारित तय किया गया और शारीरिक श्रम करने वालों को नीच जाति कहा गया। ऐसा प्रावधान किया गया कि जातियों का पदानुक्रम ऊँच-नीच की भावना को प्रगाढ़ कर समाज में विभेदकारी नीतियों को बढ़ावा दे सके, इसके लिए विधिवत धर्मशास्त्रों और स्मृतियों द्वारा वैधता प्रदान की गई। प्रत्येक जातियों के लिए अलग-अलग नियम और आदर्श की कपोल कल्पित कहानियाँ गढ़कर समाज को बाँटा गया। बहुजन विचारक जातिवाद का तार्किक रूप से खण्डन करते हैं और समाज से जातिवाद, ऊँच-नीच, छुआछूत को नेस्तनाबूत करने का प्रयास करते हैं, उनका मानना है कि जब तक समाज से जाति व्यवस्था का अंत नहीं होगा, तब तक समाज में समता कायम नहीं हो सकती। जाति व्यवस्था का खण्डन तभी से होता आ रहा है, जब से इस व्यवस्था का जन्म हुआ है। जातिवाद का विरोध बुद्ध, कबीर, रैदास से होते हुए वर्तमान समय तक अनवरत जारी है। जाति व्यवस्था को नष्ट करने के लिए सन्तराम बीए ने जात-पाँत तोड़क मण्डल नामक संगठन बनाया, जिसका मुख्य उद्देश्य समाज से जातिप्रथा को समूल नष्ट करना था। इस संगठन का सदस्य कौन बन सकता था, इसके लिए कुछ अनिवार्य शर्तें थी, जिसके विषय में सन्तराम बीए कहते हैं “कोई भी हिन्दू जिसकी आयु, पुरुष की अवस्था में 18 वर्ष और स्त्री की अवस्था में 16 वर्ष से कम नहीं है और जो अविवाहित होने की दशा में अपना और विवाहित होने की दशा में अपनी सन्तान का विवाह अपनी जन्म की जाति के भीतर न करने की प्रतिज्ञा करता है, वह न्यून से न्यून 2/. वार्षिक शुल्क देकर मण्डल का सदस्य बन सकता है।”[15] जातिभेद ने सामाजिक बँटवारा कर शूद्रों को अधिकार हीन व गरिमाहीन बना दिया। सन्तराम बीए के शब्दों में “जाति-भेद ने ब्राह्मण को श्रेष्ठ और शूद्र को नीच ठहरा कर मानवता का दिवाला निकाल दिया है। इससे एक ओर ब्राह्मण तो भूदेव बन गया है और परमेश्वर के समान पूजा जाता है, दूसरी ओर शूद्र इतना गिर गया है कि उसमें आत्म-प्रतिष्ठा का भाव ही नहीं रहा।”[16]

जातिवाद के प्रखर आलोचक डॉ० भीमराव अम्बेडकर जाति को मानव विरोधी बताते हुए समाज व राष्ट्र विरोधी करार देते हैं। लाहौर के जात-पात तोड़क मण्डल के वार्षिक अधिवेशन 1936 में बाबा साहब को अपना वक्तव्य देना था, लेकिन उनको वक्तव्य देने से मना कर दिया गया, उन्हें जिन कारणों से मना किया गया था, उसका जिक्र करते हुए कहते हैं “मैं जानता हूँ, हिन्दू मुझसे घृणा करते हैं, मैं यह भी जानता हूँ कि उनके बीच मैं एक अवांछित व्यक्ति हूँ। यह सब जानने के कारण मैंने सदा अपने को उनसे अलग रखा। मैं उनपर अपने को थोपना नहीं चाहता। मैं अपने विचारों की अभिव्यक्ति अपने प्लेटफार्म से कर रहा हूँ इस कारण पहले से ही काफी नाराजगी और जलन पैदा हो चुकी है।”[17] बाबा साहब ने जातिवाद को पुष्ट करने वाली पुस्तक मनुस्मृति का दहन करने जातिभेद के खिलाफ क्रान्ति का बिगुल बजाया। कँवल भारती लिखते हैं “यह गुलामी के खिलाफ खुला विद्रोह था। इस विद्रोह ने डॉ० अम्बेडकर के शब्दों ने जैसे जान ही डाल दी थी, दलितों तुम विद्रोह करो। तुम्हारे पास खोने के लिए गुलामी के सिवाय कुछ नहीं है, पर पाने के लिए आजादी है।"[18]

पेरियार ललई सिंह का लेखन जातिवाद के खिलाफ सशक्त उद्घोष है। वर्चस्वशाली चिन्तनधारा ने ब्राह्मणों का महिमामण्डन और शूद्रों का तिरस्कार कर चरित्रहनन किया है। अभिजन चिन्तनधारा में तिरस्कृत, अपमानित, घृणास्पद पात्रों को पेरियार ललई सिंह अपने लेखन के केन्द्र में लाते हैं और उन पात्रों को नायकत्व की भूमिका में खड़ा कर जातिभेद का नया विमर्श रचते हैं। ब्राह्मणवादियों के मिथ्याभिमानों व नस्लीय श्रेष्ठता के ढकोसले को रेखांकित करते हुए वे कहते हैं “हिन्दू ने सुअर को तो स्वार्थवश भगवान का अवतार मान लिया है, परन्तु दुख तो इस बात का है कि मनुष्य के छूने मात्र से उसका धर्म नष्ट हो जाता है। स्नान आदि करने पर पवित्र होता है।”[19] पेरियार ललई सिंह शोषणमुक्त, जातिविहीन तथा समानता पर आधारित समतामूलक समाज बनाने के लिए प्रतिबद्ध थे, जिस समाज में छुआछूत, जातिवाद व्याप्त हो, वे उसे समाज मानने से इनकार करते हुए उस शोषणकारी सामाजिक व्यवस्था पर प्रहार करते हुए अपने नाटक 'अंगुलिमाल' के दृश्य-8 में उपाली नामक पात्र से कहलवाते हैं “जिस समाज में स्त्री-शूद्र की मनुष्यता संबन्धी कोई कीमत नहीं, केवल शूद्र के छूने मात्र से वह समाज बिगड़ जाता है, अपवित्र हो जाता है, वह समाज नहीं, पागलपन है। जिस समाज में शूद्र विद्या न पढ़े, शस्त्र धारण न करे व धन इकट्ठा न करे, वह समाज नहीं, मनुष्य जीवन की विडम्बना है। जिस समाज में स्त्री और शूद्र अशिक्षित बने रहें व गरीब, गरीब ही बने रहें, वह समाज नहीं, दण्ड है। जिस समाज में सब भूतों में ईश्वर मौजूद है, ऐसा नारा लगाया जाता है, मगर शूद्र के साथ रोजाना जानवर से भी ज्यादा खराब व्यवहार किया जाता है। वह समाज नहीं, मूर्खताओं का संचयन है। जिस समाज में चींटियों को शक्कर खिलाई जाती है, मगर शूद्र को पीने के लिए पानी न देकर प्यासा ही तड़प-तड़प कर मरने के लिए मजबूर किया जाता है, वह समाज नहीं, मूर्खताओं का संचयन है।”[20]

वर्चस्वशाली अभिजन चिन्तनधारा के केन्द्र में देवी-देवता, ईश्वर और ईश्वर के विविध अवतार हैं। इस चिन्तनधारा के अनुसार सृष्टि का निर्माता, पालनहार व संहारक ईश्वरीय शक्ति है, संसार में जो कुछ चराचर है, सबकुछ उसी ईश्वरीय शक्ति की बदौलत है। इसी ईश्वरीय शक्ति ने वर्ण-व्यवस्था, जाति-व्यवस्था, छुआछूत का विधान किया है, धर्मग्रंथों की सारी संहितायें ईश्वर का आप्त वचन है। बहुजन विचारक ईश्वर को एक छद्म मानते हैं और ब्राह्मणों द्वारा इजात किया गया भयाक्रांत करने वाला शोषण का हथियार। वे मानते हैं कि वर्ण-व्यवस्था, जाति-व्यवस्था, छुआछूत, यज्ञादि कर्मकाण्ड के विधान को ईश्वर वैधता प्रदान कर शूद्रों और स्त्रियों के मुक्ति में बाधा उत्पन्न करने वाला तत्व है। ब्राह्मणवादियों द्वारा जिस विराट पुरुष (ब्रह्मा) के विविध अंगों द्वारा वर्ण-व्यवस्था को सृजित किया गया था, उस ब्रह्मा को बहुजन विचारक कटघरे में खड़ा करते हैं और उसके चरित्र का मूल्यांकन करते हैं। ब्रह्मा का चरित्रांकन करते हुए ज्योतिबा फुले अपनी पुस्तक 'गुलामगीरी' में कहते हैं “वह रण्डीबाज इतना गिरा हुआ आदमी था कि उसने सरस्वती नाम की अपनी कन्या से ही संभोग (व्यभिचार) किया। इसीलिए उसका उपनाम बेटीचोद हो गया है। इसी बुरे कर्म के कारण कोई उसका मान-सम्मान (पूजा) नहीं कर रहा है।”[21] ईश्वर के अस्तित्व को नकारते हुए पेरियार रामास्वामी नायकर ने घोषित किया कि ईश्वर नहीं है! ईश्वर नहीं है!! ईश्वर नहीं है!!!”[22] उन्होंने कहा “आप ईश्वर की अवधारणा रचने वाले व्यक्ति को माफ कर सकते हैं, वह मूर्ख था। वह अपनी बौद्धिक अक्षमता की वजह से ऐसा विचार तैयार करने पर मजबूर हुआ। लेकिन धर्म और धर्मशास्त्र (आत्मा, स्वर्ग-नरक) आदि का निर्माण करने वाला व्यक्ति ईमानदार नहीं रहा होगा। उसने ऐसा केवल लोगों को भयभीत करने के लिए किया।”[23]

अभिजन विचारधारा में विष्णु के अवतार राम को 'मर्यादा पुरुषोत्तम' कहकर सम्बोधित किया जाता है, उनके व्यक्तित्व व कृतित्व को सामाजिक आदर्श के रूप में स्थापित किया गया है, राम द्वारा निर्धारित की गई राजव्यवस्था 'रामराज्य' को अभिजन विचारक समाज के लिए सर्वोत्कृष्ट बताते हुए 'रामराज्य' को पुनर्स्थापित करने का पुरजोर प्रयास करते हैं। वहीं बहुजन विचारक 'रामराज्य' को समाज के लिए घातक मानते हैं क्योंकि उसमें वर्ण-व्यवस्था और जातिभेद की वकालत की गई है। उस राज-व्यवस्था में शूद्रों व स्त्रियों की मुक्ति का द्वार सदा के लिए बन्द है, उसमें शूद्रों को शिक्षा ग्रहण करने की मनाही है और वर्ण-व्यवस्था द्वारा निर्धारित नियमों का उल्लंघन करने पर कठोर दण्ड का प्रावधान है। पेरियार ई० वी० रामासामी अपनी पुस्तक 'सच्ची रामायण' में अभिजनों द्वारा स्थापित मर्यादा पुरुषोत्तम राम व उनके द्वारा किये गए कृत्य का पोस्टमार्टम करते हैं और राम के चरित्र का मूल्यांकन करते हुए कहते हैं “राम ने बहुत सी स्त्रियों के कान, नाक, स्तन इत्यादि काटकर उन्हें कुरूप बना दिया था और उन्हें बहुत सी यातनाएं दी थी। (शूर्पणखा और अयोमुखी), राम ने बहुत सी स्त्रियों को मार डाला था (जैसे- ताड़का), राम ने कई अवसरों पर स्त्रियों से झूठ बोला था। राम ने यह कहते हुए स्त्रियों का अपमान किया कि औरतों पर कभी विश्वास नहीं करना चाहिए और अपने गुप्तभेद पत्नी को भी नहीं बताने चाहिए। (अयोध्या काण्ड, 100 सर्ग) राम में हमेशा ही यौन सुख के प्रति अनुचित आसक्ति थी। (उत्तर काण्ड, 42 सर्ग)”[24]

पेरियार रामराज्य का वर्णन करते हुए कहते हैं कि शूद्र शम्बूक की हत्या केवल इसलिए होती है क्योंकि उसने शूद्र होकर भी वेद विरुद्ध आचरण किया और उसके इस आचरण से ब्राह्मण के बेटे की मृत्यु हो जाती है। इसीलिए पेरियार मानते हैं कि रामराज्य में शूद्रों व स्त्रियों को गुलामी के अलावा कुछ नहीं मिलने वाला। अभिजन विचारक जिन देवताओं को अपना आदर्श मानकर उनकी पूजा-अर्चना करते हैं और उन्हें समस्त दुखों को हरण करने वाला मानते हैं। बहुजन विचारक उन तमाम देवताओं में मानवीय कमजोरियाँ पाते हैं और उनको समाज के लिए अनैतिक मानते हैं। उन देवताओं का चरित्रांकन करते हुए पेरियार ललई सिंह कहते हैं “कृष्ण द्वारा चीरहरण, रासलीला एवं उनके बड़े भाई बलराम द्वारा दो मास तक लगातार रासलीला की घटना का वर्णन परले दर्जे की अशोभनीय निर्लज्जतापूर्ण खुला व्यभिचार है।”[25] वे लिखते हैं “विष्णु की चरित्रहीनता ने ही उनका नाम छलिया रख दिया। आदिनिवासी महाराजाधिराज जलन्धर की स्त्री वृन्दा और शंखचूड़ की स्त्री तुलसी को छला। इन्द्र का मुख्य काम है, महान तपस्वी को अप्सराएं आदि भेजकर तप नष्ट करना या जो व्यक्ति अन्य प्रकार से उनकी बराबरी का दर्जा प्राप्त करना चाहे, उसमें बाधा डालना। उसे नीचा दिखाना, उसका सर्वनाश करना या अपने उपेन्द्र विष्णु द्वारा उसका सर्वनाश कराना। इन्द्र ने विश्व सुन्दरी अहिल्या का सतीत्व नष्ट किया। चन्द्रमा ने मेहमानी में आई हुई, गुरु बृहस्पति की पत्नी तारा से बुध नामक पुत्र पैदा किया। बड़ी लम्बी पंचायत के बाद तारा को वापस किया। गुरु बृहस्पति ने अपने बड़े भाई उतथ्य की गर्भवती स्त्री ममता से संभोग किया जिससे भरद्वाज ऋषि पैदा हुए। सूर्य ने कुन्ती के संसर्ग से कुँवारेपन में ही कर्ण को पैदा किया।”[26]

बहुजन विचारक किसी तथ्य को स्वीकार करने से पहले उसे तर्क की कसौटी पर कसते हैं, यदि वह तर्क की कसौटी पर खरा उतरता है, तभी स्वीकार करते हैं। बहुजन विचारक वैज्ञानिकता के पक्षधर हैं। अभिजन वैचारिकी 'मानों' की सैद्धांतिकी पर जोर देती है, जबकि बहुजन वैचारिकी 'जानों' की सैद्धांतिकी को वरीयता देती है। अभिजन वैचारिकी वैज्ञानिक चेतना को दबाकर अपने सारे धर्मशास्त्रों की संहिताओं को यह कहकर मनवाती है 'संशयात्मा विनश्यति' अर्थात उन धर्मशास्त्रों, ईश्वर या आप्त वचन पर शंका करने पर नाश होना सुनिश्चित है। वैज्ञानिकता की अनिवार्य शर्त है शंका (जिज्ञासा), जिज्ञासा से ही वैज्ञानिक चेतना का विकास होता है, लेकिन अभिजन वैचारिकी वैज्ञानिकता की अनिवार्य शर्त जिज्ञासा को ही नष्ट कर देती है। जब जिज्ञासा रूपी बीज को अंकुरित ही नहीं होने दिया जाएगा तब वैज्ञानिकता के वृक्ष की कल्पना करना ही बेकार है। बहुजन विचारक किसी बात को सिर्फ इसलिए नहीं मानते कि वह किसी धर्मग्रंथ में लिखी गयी है, किसी धर्मगुरु ने कहा है, सदियों से चली आ रही है, बहुसंख्यक लोग मानते हैं, बल्कि वे किसी बात को तब तक नहीं मानते जब तक वह उनकी तर्क, विवेक की कसौटी पर खरा नहीं उतरता।

बहुजन विचारक पुनर्जन्म, भाग्यवाद, स्वर्ग, नरक इत्यादि को नकारते हैं तथा तर्क करते हुए कहते हैं “जब सृष्टि का पहला जीव या मानव बिना पुनर्जन्म के पैदा हुआ और उसका कोई प्रारब्ध नहीं था तो फिर यह बात एकदम बेबुनियाद और भ्रामक हो जाती है कि प्रत्येक जीव का वर्तमान जन्म पिछले जन्म के कर्मों के अनुसार हुआ है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि किसी भी जीव का न इसके पहले जन्म था और न इस जीवन के बाद होगा। पदार्थ से निर्मित सृष्टि में जब मौत होते ही विभिन्न पदार्थ अपने-अपने रूप में बदल जाते हैं तो फिर पुनर्जन्म की कल्पना केवल लोगों को छलने और काल्पनिक दुनिया में रखने के प्रबल षडयन्त्र के अलावा कुछ नहीं।”[27] स्वर्ग-नरक के विषय में पेरियार ललई सिंह लिखते हैं “कहते हैं कि पुण्य कर्म से स्वर्ग और पाप कर्म करने से नरक मिलता है, बिल्कुल गलत है। स्वर्ग व नरक की कल्पना पुरोहितों, पण्डों व पुजारियों का हमेशा तर-माल उड़ाने के लिए ठगई का जाल है।”[28]

ब्राह्मणवादी ग्रन्थों में प्रकृति विरुद्ध, वैज्ञानिकता से परे अनेक कथायें हैं। कहीं खीर खाने से बच्चा पैदा होने की कथा है तो कहीं मैल से बच्चा पैदा होने की, कहीं पसीना चाटने से मछली से सन्तानोत्पत्ति तो कहीं कुश से बच्चा बनाने की कहानी। इनके शास्त्रों में घोड़ा-घोड़ी के संभोग से अश्वनि की उत्पत्ति और आदमी भैंस के संभोग से महिषासुर की उत्पत्ति की कथा तथा गणेश के गर्दन जुड़ने की कथा सहित ऐसी असंगत और असम्भव कथाओं का भण्डार है। शिवजी द्वारा अपने लड़के का सिर काटकर और उसपर हाथी के बच्चे की सिर जोड़ने की कथा के विषय में रामस्वरूप वर्मा कहते हैं “हाथी की खाल व मांस से किसी प्रकार का मेल आदमी के मांस व खाल का नहीं होता, हाथी के किसी अंग से मनुष्य के किसी अंग का जोड़ना असम्भव है। ऐसी प्रकृति विरुद्ध असम्भव बात सम्भव करने की क्षमता किसी में नहीं। इतना ही नहीं जब वह मनुष्य का शरीर व हाथी के सिर वाला लड़का बड़ा हुआ तो उस विशालकाय गणेश जी के लिए चूहे की सवारी श्री शिव जी ने तजबीज की।”[29]

अभिजन चिन्तनधारा के ऐतिहासिक दृष्टि में बहुजन नायकों की उपस्थिति नगण्य है। बहुजन विचारक वर्चस्वशाली चिंतनधारा में सायास अनुपस्थित व अचर्चित बहुजन नायकों को केन्द्र में लाकर एक नई इतिहास दृष्टि का सूत्रपात करते हैं। अभिजनों द्वारा लिखे गए एकांगी स्वाधीनता आंदोलन की चर्चा करते हुए चौथीराम यादव कहते हैं “भारत के स्वाधीनता आंदोलन में पूरे देश की भागीदारी थी। उसमें अपना विशेषाधिकार गवाँ बैठे राजे-रजवाड़े, देशी सामन्त, सुविधा भोगी अभिजन और बहुत बड़ी संख्या में बहुजन समाज के आदिवासी, पिछड़े, दलित, किसान, मजदूर, अल्पसंख्यक सभी शामिल थे और अपने बेहतर भविष्य के लिए आशान्वित भी थे, लेकिन इतिहास में मामूली से मामूली अभिजन नायकों की भूमिका को तो खूब हाईलाइट किया गया जबकि बहुजन पृष्ठभूमि से आने वाले नायकों की घोर उपेक्षा की गई।”[30] अभिजन विचारक अपने साहित्य में जिन्हें खलनायक बनाकर अमानवीय, तिरस्कृत व घृणास्पद स्थान पर ढकेल दिया था, उन पात्रों को बहुजन विचारक केन्द्र में लाते हैं और उनका अपनी दृष्टि से पुनर्मूल्यांकन करते हैं तथा पाते हैं कि उन पात्रों का खलनायक होना उनकी कमजोरी नहीं, बल्कि वेदवादी संस्कृति का मुखालफत करना था। बहुजन विचारक मानते हैं कि ब्राह्मणवादियों द्वारा लिखा गया धर्मशास्त्र, स्मृतियाँ कपोल कल्पित व वास्तविकता को छिपाए रखकर अपने वर्चस्व को बरकरार रखने की साजिश है। पेरियार ललई सिंह देवासुर संग्राम को आर्यों व अनार्यों के बीच हुए संग्राम के रूप में देखते हैं व ब्राह्मणवादियों द्वारा गढ़े गए प्रतिमानों को उलट देते हैं। वे जन्मेजय के नागयज्ञ को साँपों का यज्ञ न मानते हुए कहते हैं “कहते हैं, राजा जन्मेजय ने साँप हवन किए थे। अन्त में एक साँप तक्षक बच गया था। उसी की सन्तान सम्पूर्ण साँप हैं। बिलकुल ही गलत है। वास्तविकता यह है कि राजा जन्मेजय के पिता परीक्षित को तक्षशिला (पश्चिम पाकिस्तान) के नाग-वंशीय राजा तक्षक ने रण स्थल में मारा था। उसके बदले में तमाम नाग-वंशी पुरुषों का कत्लेआम किया। जिन्दा जलाया।”[31]

बहुजन विचारक वर्ण-व्यवस्था, जातिभेद व छुआछूत पर आधारित सामाजिक व्यवस्था की आलोचना करते हुए समानता, स्वतन्त्रता व न्याय पर आधारित समतामूलक समाज के पैरोकार हैं। वे अभिजनवादी सौंदर्य दृष्टि में मौजूद 'रिलीजियस टेंपर' की जगह एक 'साइंटिफिक टेंपर' के प्रबल समर्थक हैं जो एक लोकतांत्रिक समाज बनाने के लिए बुनियादी शर्त है। जाहिर है बहुजन वैचारिकी के विकास ने इतिहास और मनुष्यता के विकास में निचली जातियों के गंभीर योगदान को रेखांकित किया है जिस पर परंपरावादियों ने भरसक मिट्टी डालने का काम किया। मसलन भारतीय नवजागरण की पूरी परंपरा में वैदिक-पौराणिक तथा भक्ति आंदोलन के वैष्णव संदर्भ तो खूब चर्चित होते हैं किंतु बुद्ध की पूरी परंपरा, भक्ति आंदोलन में शैवों की धारा या फूले, पेरियार आदि के साथ आदिवासी आंदोलनों की चर्चा करने की जगह उसे खारिज करने की कोशिश की गई है। मसलन डॉ रामविलास शर्मा राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया में हिंदी प्रदेश की भूमिका को निर्णायक मानते हैं क्योंकि उनकी दृष्टि में ऋग्वेद, रामायण, महाभारत और उपनिषदों की रचना इसी क्षेत्र में हुई है। मौर्य तथा गुप्त साम्राज्य इसी क्षेत्र में स्थापित हुए तथा कालिदास और भवभूति जैसी प्रतिभाएं इसी क्षेत्र में पैदा हुईं। तुलसी, टैगोर, गालिब और काशी विश्वनाथ हिंदी प्रदेश के गौरव हैं। सवाल यह है कि क्या वैदिक पौराणिक परंपरा ही हिंदी प्रदेश का गौरव है? इस सूची से श्रमण-परंपरा गायब क्यों है? उस परंपरा से विकसित सिद्ध-नाथों की साहित्यिक परंपरा हिंदी साहित्य से खारिज क्यों है?.... “दूसरी बात यह की काशी विश्वनाथ मंदिर हिंदी जाति का गौरव कैसे हो सकता है जबकि उसमें दलित और मुसलमानों का प्रवेशी वर्जित हो! इस कल्पना मात्र से डॉक्टर शर्मा अभिभूत हो जाते हैं कि यदि हिंदी प्रदेश बन गया तो वह एशिया का मुंह उज्ज्वल करेगा लेकिन इस ऐतिहासिक सच्चाई को भूल जाते हैं कि बहुत पहले एशिया का मुंह उज्ज्वल कर चुके गौतम बुद्ध भी इसी हिंदी प्रदेश के गौरव हैं।”[32]

निष्कर्ष : आधुनिक भारत के निर्माण में इस नवजागरण की सैद्धांतिकी ने बेहद महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। राष्ट्रीय आंदोलन में ऊंची जातियों के नायकों के बरक्स निचली जातियों के बलिदानी वीरों-वीरांगनाओं के किरदार की पहचान भी बहुजन वैचारिकी का महत्त्वपूर्ण काम है। मसलन मंगल पांडे के विद्रोह को प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का पहला विद्रोह कहकर महिमामंडित किया गया, लेकिन उसके लगभग 100 साल पहले जनजातियों के विद्रोहों को प्रथम स्वतंत्रता संग्राम नहीं माना गया; जो सच्चे अर्थों में साम्राज्यवाद के खिलाफ बेहद सीधी लड़ाई थी। प्रो.चौथीराम यादव रेखांकित करते हैं कि यदि साम्राज्यवाद विरोधी 1857 के विद्रोह के केंद्र में है तो इस विद्रोह की शुरुआत तो लगभग 100 साल पहले ही हो चुकी थी, अंग्रेजी राज्य के प्रति पहले प्रतिरोध 1760 में आमने-सामने की लड़ाई के रूप में तिलका मांझी के नेतृत्व में शुरू हुआ था और 1880 तक चलता रहा। इसी दौरान तिलका मांझी को फांसी पर लटका दिया गया था, इतनी दूर ना भी जाएं तो 1857 से ठीक 2 साल पहले 1855 में संथाल जन क्रांति को कैसे बुलाया जा सकता है; जिसमें हजारों आदिवासी शहीद हो गए थे और गांव के गांव जला दिए गए थे। सिद्धू-कानू और उनके दो भाइयों के नेतृत्व में लड़ी गई लड़ाई आदिवासी विद्रोह मात्र नहीं, एक जन क्रांति थी; जिसमें आदिवासियों के साथ कुछ दलित पिछड़े और अल्पसंख्यक भी शामिल थे। उसके लगभग 50-55 साल बाद भी क्रांतिकारी बिरसा मुंडा का जन संघर्ष चलता रहा। इन क्रांतिकारी बहुजन नायकों बिरसा मुंडा, सिद्धू कानू और तिलका मांझी की जन क्रांति और विद्रोह को नजरअंदाज कर लिखा गया इतिहास अधूरा और एकांगी है। इस तरह बहुजन वैचारिकी भारत के सांस्कृतिक इतिहास की बड़ी और दूसरी तस्वीर सामने लाती है जिसे सजिशन छुपाया गया। यह तय बात है कि यदि विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में बहुजन विचारकों का साहित्य पढ़ाया जाए तो हिंदी साहित्य के इतिहास की तस्वीर बदल जाएगी। बदलाव बहुजनों का अभिप्रेय है और यथास्थिति अभिजन चाहते हैं।

सन्दर्भ :
1. मानववाद बनाम ब्राह्मणवाद- रामस्वरूप वर्मा, अक्षय प्रकाशन, कानपुर, चतुर्थ संस्करण-2020, पृष्ठ-07
2. भारतीय चिन्तन की बहुजन परम्परा- ओमप्रकाश कश्यप, सेतु प्रकाशन, नोएडा उत्तर प्रदेश, प्रथम संस्करण-2024, पृष्ठ-514-515
3. क्रान्ति क्यों और कैसे?- रामस्वरूप वर्मा, अक्षय प्रकाशन, कानपुर, पाँचवाँ संस्करण-2022, पृष्ठ-58
4. वही, पृष्ठ-19
5. बहुजन साहित्य की सैद्धान्तिकी, सम्पादक- प्रमोद रंजन, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, पहला संस्करण-2024, पृष्ठ-69
6. क्रान्ति क्यों और कैसे?- रामस्वरूप वर्मा, अक्षय प्रकाशन, कानपुर, पाँचवाँ संस्करण-2022, पृष्ठ-19
7. बहुजन साहित्य की सैद्धान्तिकी, सम्पादक- प्रमोद रंजन, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, पहला संस्करण-2024, पृष्ठ-73
8. वही, पृष्ठ-72
9. चन्द्रिका प्रसाद जिज्ञासु ग्रन्थावली (खण्ड-4), सम्पादक- कँवल भारती, स्वराज प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण-2023, पृष्ठ-55
10. बात कहूँ मैं खरी खरी : लोकधर्मी आलोचक चौथीराम यादव से बतकही, सम्पादक- धर्मवीर यादव गगन, आशीष कुमार 'दीपांकर', अनामिका पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर्स (प्रा०) लिमिटेड, नई दिल्ली, प्रथम पेपरबैक संस्करण-2022, पृष्ठ-199
11. गुलामगीरी- जोतिबा फुले, अनुवादक- डॉ० विमलकीर्ति, सम्यक प्रकाशन, नई दिल्ली, आठवाँ संस्करण-2021, पृष्ठ-32
12. वही, पृष्ठ-32
13. मानववाद बनाम ब्राह्मणवाद- रामस्वरूप वर्मा, अक्षय प्रकाशन, कानपुर, चतुर्थ संस्करण-2020, पृष्ठ-16
14. मनुस्मृति राष्ट्र का कलंक- रामस्वरूप वर्मा, अक्षय प्रकाशन, कानपुर, छठा संस्करण-2022, पृष्ठ-38
15. मेरे जीवन के अनुभव- सन्तराम बी०ए०, सन्तराम बी०ए० फाउंडेशन, शाहजहांपुर, प्रथम संस्करण-1963, पुनर्प्रकाशन-2022, पृष्ठ-119
16. हमारा समाज- सन्तराम बी०ए०, सन्तराम बी०ए० फाउंडेशन, शाहजहांपुर, प्रथम संस्करण-1954, पुनर्प्रकाशन-2022, पृष्ठ-135
17. जाति का विनाश- डॉ० भीमराव अम्बेडकर, अनुवाद- राजकिशोर, फारवर्ड प्रेस, नई दिल्ली, द्वितीय संस्करण-2018, पुनर्मुद्रण-2021, पृष्ठ-37
18. दलित विमर्श की भूमिका- कँवल भारती, इतिहास बोध प्रकाशन, इलाहाबाद, तृतीय संस्करण-2003, पुनर्मुद्रण-2007, पृष्ठ-62
19. पेरियार ललई सिंह ग्रंथावली (खण्ड-1), सम्पादक- धर्मवीर यादव गगन, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, पहला संस्करण-2022, पृष्ठ-74
20. पेरियार ललई सिंह ग्रंथावली (खण्ड-3), सम्पादक- धर्मवीर यादव गगन, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, पहला संस्करण-2022, पृष्ठ-172
21. गुलामगीरी- जोतिबा फुले, अनुवादक- डॉ० विमलकीर्ति, सम्यक प्रकाशन, नई दिल्ली, आठवाँ संस्करण-2021, पृष्ठ-32
22. पेरियार ललई सिंह ग्रंथावली (खण्ड-3), सम्पादक- धर्मवीर यादव गगन, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, पहला संस्करण-2022, पृष्ठ-17
23. धर्म और विश्वदृष्टि- पेरियार ई०वी० रामासामी, सम्पादक- प्रमोद रंजन, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, चौथा संस्करण-2023, पृष्ठ-81
24. सच्ची रामायण- पेरियार ई०वी० रामासामी, सम्पादक- प्रमोद रंजन, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, छठा संस्करण-2023, पृष्ठ-57-58
25. पेरियार ललई सिंह ग्रंथावली (खण्ड-1), सम्पादक- धर्मवीर यादव गगन, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, पहला संस्करण-2022, पृष्ठ-83
26. वही, पृष्ठ-90
27. क्रान्ति क्यों और कैसे?- रामस्वरूप वर्मा, अक्षय प्रकाशन, कानपुर, पाँचवाँ संस्करण-2022, पृष्ठ-17
28. पेरियार ललई सिंह ग्रंथावली (खण्ड-1), सम्पादक-धर्मवीर यादव गगन, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, पहला संस्करण-2022, पृष्ठ-122
29. क्रान्ति क्यों और कैसे?- रामस्वरूप वर्मा, अक्षय प्रकाशन, कानपुर, पाँचवाँ संस्करण-2022, पृष्ठ-52
30. पेरियार ललई सिंह ग्रंथावली (खण्ड-3), सम्पादक- धर्मवीर यादव गगन, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, पहला संस्करण-2022, पृष्ठ-13
31. वही, पृष्ठ-96
32.आधुनिकता का लोकपक्ष और साहित्य, प्रो.चौथीराम यादव, अनामिका प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण:2019, पृष्ठ -58

विंध्याचल यादव
असिस्टेंट प्रोफेसर, हिंदी विभाग, बीएचयू, वाराणसी

अपनी माटी
( साहित्य और समाज का दस्तावेज़ीकरण )
  चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका
Peer Reviewed & Refereed Journal , (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-61, जुलाई-सितम्बर 2025
सम्पादक  माणिक एवं जितेन्द्र यादव कथेतर-सम्पादक  विष्णु कुमार शर्मा चित्रांकन दीपिका माली

Post a Comment

और नया पुराने