कहानी:ढ़ाबे की खाट / योगेश कानवा

अप्रैल 2013 अंक                

                                                                              ढाबे की वो खाट

 योगेश कानवा
कविता और कहानी में 
सधा हुआ हाथ है।
आकाशवाणी चित्तौड़गढ़ में 
कार्यक्रम अधिकारी है।
मूल रूप से जयपुर के हैं।
मेडिकल सेवाओं में रहने के बाद 
सालों से आकाशवाणी में हैं।
तीन पुस्तकें 
(हिंदी और राजस्थानी में 
एक-एक कविता संग्रह,
मीडिया पर एक सन्दर्भ पुस्तक )
प्रकाशित हैं।
कई रेडियो रूपक और फीचर के लेखन,
सम्पादन और निर्देशन 
का अनुभव है।
मो-09414665936
ई-मेल-kanava_0100@yahoo.co.in
ब्लॉग 
http://yogeshkanava.blogspot.in/
सरकारी काम होने के कारण अहमदाबाद जाना बेहद जरूरी था। सीजन के कारण किसी भी ट्रन में टिकट नहीं मिल सका था। तत्काल में भी कोशिश की लेकिन सफलता नहीं मिली। आखिर हारकर एक स्लीपर बस का टिकट ले लिया। मुझे मालुम था कि बस की यात्रा इतनी आरामदेय नहीं हुआ करती है, लेकिन सरकारी काम के चलते यह सब कुछ तो सहन करना ही था। ठीक दस बजे स्लीपर बस अपने गन्तव्य के लिए रवाना हुई। पूरे चौदह घण्टे का सफर तय करना था इसी बस से, 

खैर,धीरे-धीरे सोने का प्रयास करने लगा। मैं सोचने लगा कि मेरे एक दिन की यात्रा में मैं इतना परेशान हो रहा हूँ लेकिन ये लोग तो रोजाना ही यात्रा करते है, बल्कि यूँ कहे कि इनकी तो जिन्दगी ही इसी बस में निकलती है। सुबह से शाम और रात से सुबह तक बस इसी में इनका बसेरा रहता है।

ना कहीं चैन का बिस्तर और ना ही घर का कभी खाना। बस जहाँ भी जगह मिली किसी ढ़ाबे पर खा लिया और फिर चल दिए। इसी तरह के खयालों के बीच एक झटके के साथ ही बस रूकी। कण्डक्टर ने सभी यात्रियों से कहा कि 

चाय, पानी जो भी करना है कर ले, पूरे आधा घण्टा बस रूकेगी। उधर ढ़ाबे पर जैसे रौनक आ गयी थी। ढ़ाबे वाला लड़का जोर-जोर से आवाजे लगा रहा था। इन्ही आवाजों में एक आवाज आयी 

(आये सुरजीते, उठ-ले, मंजीतां ऐसे पड गया जां घर विच पड़ा हो। ओये अपणी नही तो इस मंजी दी सोच; ऐवें ही टूट जाएगी) 

मेरा पूरा ध्यान इसी आवाज की ओर चला गया। मेरे खयालों में अब वो ड्राईवर नहीं था बल्कि अब वो चारपाई थी जो ढ़ाबे के बाहर पड़ी थी और उस पर वो खलासी अभी भी पड़ा हुआ - कुछ बड़बड़ा रहा था कि अचानक वहीं आवाज फिर आयी। 

ओये खोतीए चल उठ, गड्डी दे सीसे साफ कर, होण चलणा है।

मैं धीरे-धीरे खयालों में ही चलते ना जाने कब एक चारपाई पर जा बैठा, मुझें मालुम नहीं। सोच रहा था क्या तकदीर है इस चारपाई की। क्या इसकी भी कोई अर्न्तव्यथा होगी।

कहीं इसके भी कोई अरमान होंगे। मीलों लम्बे इस काले सर्पीले हाईवे पर यह ढ़ाबा और ढ़ाबे और और पड़ी ये चारपाई। यदि मैं चारपाई होता तो मेरी क्या अनुभूति होती, इस तरह से हाईवे पर पड़े-पड़े! मैं जाने क्या-क्या सोचने लगा। इस खाट के भी अरमान होगें। काश! ये भी कभी दुल्हन सी सजती। किसी की सुहागरात की साक्षी बनती। शरमाई दुल्हन इस पर बैठती, धीरे-धीरे घूंघट उठने की यह साक्षी बनती। और इसकी यादों में वो लम्हें हमेशा के लिए बस जाते जब वही दुल्हन इसी खाट पर......।

लेकिन इस खाट की किस्मत तो विधाता ने ना जाने किस तरह की लिखी है।

स्टीयरिंग संभाले घण्टों एक ही मुद्रा में बैठा कोई ट्रक का ड्राईवर या फिर उसी स्टीयरिंग को पकड़ हवा में उड़ने के सपने देखता खलासी थकान से चूर हो आकर बस पसर जाते है इसी पर। और ये बेचारी बांझ वैश्या-सी सबके लिए बिछ जाती है, पर खुद कभी दुल्हन नहीं बन पाती है, किसी के ख्वाबगाह में सज नहीं पाती है। 

अचानक ही बगल वाली खाट पर एक मोटा सा ट्रक ड्राईवर आकर जोर से पड़ा। बेचारी वो उसका भार सहन नहीं कर पायी और - टूट गयी। वो ड्राईवर जोर से चिल्लाया 

ओए...ऐनीयांफ मजीर, पंजियां ढाबे बिच क्यों रखिवाहन्! तुहाड़ा कि जान्दा है, साडी कमर टूट जाती यां। ओए रणजीते मैनें हथ दे। उठणे दे वे, तां ए टूटी मंजी नूर इक पासे डाल दे।

मैं सोच रहा था एक कमजोर कच्ची लड़की और मूंज से बनी इस खाट का क्या कसूर था। इतने सारे लोग बारी-बारी से इस पर पड़ते रहेगें तो ये बेचारी कब तक सहेगी। पर क्या करे, इसे तो इसी तरह से टूटना था। यही टूटन इसकी तकदीर है। किस को परवाह है उसकी संवेदनाओं की, उसकी टूटन की, उसकी वेदना की। 

इन्हीं खयालों में खोया - मैं भूल गया था कि मुझे तो अहमदाबाद जाना था। मेरी बस का कण्डक्टर कबसे मुझें आवाजें लगा रहा था - और मैं निश्चेत सा बस उस ढ़ाबे की खाट के बारें में सोच रहा था। मेरी बस के कण्डक्टर ने लगभग झिंझोडते हुए मुझें कहा, 

भाईसाब - यही रहने का इरादा है क्या ? आपके कारण सभी यात्री लेट हो रहें है। 

मैं सुस्त कदमों से अपनी बस में फिर से सवार हो गया। बहुत कोशिश की सोने की लेकिन नींद तो उस टूटी खाट के दर्द से कहीं दूर रूठकर जा बैठी थी - और तेज रफ्तार से दौड़ती इस बस में उसे कहाँ से लाऊँ। बार-बार वही ट्रक ड्राईवर का रूखा सा चेहरा, उस खलासी का नींद में ढाबे की खाट पर पड़ना और एक झटके के साथ उस ड्राईवर के बोझ से टूटकर उस खाट का सिमट जाना, मेरी आँखों के सामने आता रहा। सिनेमा की रील की तरह एक-एक कर सारे दृश्य - मेरे जहन में बैठ गये। मैं बेबस लाचार नींद के लिए।

मैं सोच रहा था पुरूष के लिए कितना आसान है कह देना कि इसे एक पासे डाल दे और दूसरी लेकर आजा। शायद उसकी नजर में ढाबे पर पड़ी खाट और औरत में कोई फर्म नहीं है, जब तक जी चाहा उस पर पड़े रहे और जब टूट जाए तो दूसरी ले आओ। मैं सोचता रहा, क्यों इतना संवेदन शून्य होता है पुरूष। क्यों उसके मन में कोई भाव नहीं आता कभी भी अपनेपन का। खाट भी स्त्रीलिंग है और औरत भी स्त्रीलिंग, क्या विधाता ने स्त्रीलिंग की तकदीर दर्द की सयाही से ही लिखी है। और यदि लिखी भी है तो मर्द को वो आँखे क्यों नहीं दी - जिनसे वो दर्द की इस तहरीर को पढ़ पाता। 

मैं भी एक पुरूष हूँ, क्या मैं भी ऐसा ही हूँ। शायद मैं वैसा नहीं हूँ, मैं अलग हूँ, लेकिन यदि अलग हूँ तो फिर कहीं ऐसा तो नहीं कि लोग मुझे पुरूष ही ना माने। मैं अपने आपको क्या समझुं, कुछ भी समझ नहीं आ रहा था - बस मेरी आँखों के सामने तो वही ढ़ाबे की टूटी हुई खाट बार-बार आ रही थी और मानो कह रही थी तुम सब मर्द एक जैसे हो। कोई अन्तर नहीं है तुममें और उस ड्राईवर में। तुम मेरे दर्द को महसूस तो कर सकते हो, पर मेरे लिए कुछ भी नहीं कर सकते हो। वो बार-बार मेरा उपहास उड़ा रही थी, मानो कह रही हो जाओ बाबू जाओ अपने घर, बीवी इन्तजार कर ही होगी। मेरा क्या है, मेरी तकदीर तो चूड़ी जैसी है, मेरी पीड़ा का ना कोई आरम्भ है और ना ही अन्त। मुझे फिर भी खुशी है थके-हारे किसी ड्राईवर, या खलासी को सहारा देकर अपने आगोश में समेट तो लेती हूँ। दुनियाँ की तरह दिखावा तो नहीं करती।

इसी अर्न्तकथा के बीच - मैं कब चौदह घण्टे की यात्रा पूरी कर अहमदाबाद पहुंच गया, मुझे मालुम नहीं। बस याद है तो वो हाइवे के ढ़ाबे की टूटी खाट।

                                यह रचना पहली बार 'अपनी माटी' पर ही प्रकाशित हो रही है।)

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