व्यंग्य:गायतोंडे जी का गाय गौरव संवर्धन / रंजन माहेश्वरी

अप्रैल 2013 अंक
 रंजन माहेश्वरी
राजस्थान टेक्नीकल यूनिवर्सिटी ,
कोटा ,राजस्थान में
असोसिएट प्रोफ़ेसर हैं।
स्वतंत्र लेखक हैं।
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गायतोंडे जी हमारी सरकार में दो दो विभागों के मंत्री हैं. संस्कृति मंत्रालय और पशुपालन मंत्रालय का पूरा पूरा दायित्व उनके कंधों पर है. भगवान जानता है कि उन्होंने दोनों मंत्रालयों के बीच कोई भेद नहीं किया है. दोनों को अपनी पूर्ण क्षमता से दुहा है. अक्सर उनको दोनों मंत्रालयों के विभिन्न कार्यक्रमों में अध्यक्षता हेतु निमंत्रित किया जाता रहा है, और हाईकमान द्वारा स्थापित परंपरा के अनुसरण में, भाड़े के लेखकों के बल पर, वे अपनी विद्वता से श्रोताओं को मंत्रमुग्ध करते रहे हैं. उनकी पत्नी के नाम पर चलाया जा रहा एनजीओ भी दोनों विभागों के लिये कार्यक्रम आयोजित करता यथाशक्ति धन दोहन में मदद करता रहा है.

एक बार संस्कृति मंत्रालय ने उन्हें एक महान शास्त्रीय गायक का सम्मान करने बुलाया. किसी कारण से वह कार्यक्रम रद्द हो गया. पर, चूंकि भाषण लेखक को पैसे दिये जा चुके थे और मिलने वाले मोटे अनुदान की बंदरबाँट भी तय हो चुकी थी, अतः आयोजक अमुक जी ने आनन फानन में "गौ गौरव संवर्धन कार्यक्रम" के तहत गौशाला की सबसे बूढ़ी गाय को सम्मानित करने का कार्यक्रम रख लिया. भारत में, सामाजिक रूप से बोझ बने, अनुपयोगी व्यक्तित्वों को सम्मानित करने की महान पंरपरा तो स्थापित है ही. बस फिर क्या था? तुरंत, गायतोँडे जी द्वारा दिये जाने वाले भाषण में क्षुद्र परिवर्तन हुआ, और संशोधन स्वरूप, "गायन" "गायक" दोनों स्थानों पर "गाय" को बिठा दिया गया.

कार्यक्रम शुरु हुआ. गौमाता की आरती हुई, अमुक जी ने गायतोँडे जी का आभार व्यक्त किया कि वे व्यस्त समय के बावजूद अपने गैया प्रेम के चलते यहाँ आये हैं और "दो शब्द" कह कर सभी को लाभान्वित करेंगे. कुछ रस्मी तालियों के बाद गायतोँडे जी भाषण कुछ यूँ हुआ.

"आज हमारे लिये बड़े सौभाग्य की बात है कि हम एक महान गाय() के सामने बैठे हैं. हमारी भारतीय सभ्यता में गाय() का बड़ा महान योगदान रहा है. यह गाय() ही है जिसने हमारे संस्कृति को जिन्दा पुष्ट रखा. पर आज, हम लोग अपनी महान धरोहरों को भूलने लगे हैं और भूल चुके हैं इस महान गाय() को, जो हमारे क्षेत्र तथा देश की पहचान है.

जो गाय() आपके सामने है, मेरा इन से बड़ा पुराना परिचय है. वैसे हम दोनों एक ही गाँव के हैं. पर कई बार अमुक जी के प्रयासों से ही हमारा मिलन हुआ है. जब जब हम दोनों का मिलन हुआ, हम बड़े प्रेम से मिले हैं. यह हमारे लगातार सफल आपसी मिलन का ही सुपरिणाम है कि पिछले कुछ समय से इस शहर के गाय() घराने को अंतर्राष्ट्रीय पहचान मिली है.

इस महान गाय() ने जिस भी मार्ग पर पैर रखे, अपनी छाप छोड़ी है. मैंने जब भी आपका अनुसरण किया, स्वयं को आपकी कृपानीर में भीगे पाया. पर मैं इन्हें कभी उचित सम्मान नहीं दिलवा सका, इसके लिये मैं इनसे हाथ जोड़ कर क्षमा माँगता हूँ. मेरे परिवार ने सदा गाय() को प्रश्रय दिया है गाय() से लाभान्वित हुआ है. अपनी पारिवारिक परंपरा को आगे बढ़ाते हुए मैं इस महान गाय() को राष्ट्रीय स्तर पर सम्मानित करवाने की प्रतिज्ञा करता हूँ.

मेरा इस महान गाय() के पिताजी से भी प्रगाढ़ परिचय रहा है. जैसा की मैं पहले भी बता चुका हूँ, मैं और ये एक ही गाँव के हैं. हम लोग बचपन में साथ साथ खेले हैं. मैने बचपन में इनके स्वर की बहुत नकल की है. एक बार मैं इस मधुर गाय() के स्वर की नकल कर रहा था तब इनके पिताजी पीछे से गये और मेरे स्वर से प्रभावित हुएशायद उन्होंने मुझमें एक भावी गाय() की छवि देखी. मैं तो उस गुरू व्यक्तित्व के समक्ष नतमस्तक था, और उन्होंने मुझ पर भी अपनी कृपा करनी चाही. उन्होंने मुझे एक गाय() की गरिमा प्रदान करने का  भरसक प्रयास किया था. पर यह मेरी तत्सामयिक अक्षमता थी कि मैं उनकी उम्मीदों पर खरा नहीं उतर पाया. वरना, आज आप मुझे किसी और ही रूप में अपने मध्य पाते.

हमारी नयी पीढ़ी पश्चिमी संस्कृति की ओर झुकती जा रही है, उस नयी पीढ़ी में अपनी गाय()प्रश्रय परंपरा को पुनः स्थापित करने का अमुक जी ने जो कदम उठाया है उसके लिये अमुक जी का भी मैं हृदय से आभार व्यक्त करता हूँ. अब मैं अधिक देर आपके और इस महान गाय() के बीच खड़ा नहीं रह कर अपना स्थान ग्रहण करता हूँ.”

कहना होगा, भरपूर तालियाँ बजीं गायतोँडे जी फूलमालाओं और प्रशंसा से लाद दिये गये. हाईकमान की नजरों में उनका कद बढ़ गया है और अब वे मुख्यमंत्री बन कर पूरे प्रदेश को दुहने के सपने देखने लगे हैं.

                                 (यह रचना पहली बार 'अपनी माटी' पर ही प्रकाशित हो रही है।)

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