फेसबुक से कट-कोपी-पेस्ट:शेर Vaya अशोक जमनानी











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वो कहते रहे है ज़िन्दगी उनकी खुली किताब 
पर वज़ूद जासूसों का उनसे सहन ना हुआ 
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नींव की दरारों को अनदेखा कर दिया 
अब ना बचीं दीवारें ना ही बची है छत 
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अज़ीब इम्तिहान था मेरे लिए तो वो 
दर्द वाली स्याही से लिखने थे कहकहे 
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वक़्त कहाँ अब इतना है कि मातम लम्बा हो पाए 
लाशें श्मशानों तक पहुँचीं तब तक आंसू सूख गए 
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फिर खून लाशें क्रंदन बयान मातम 
फिर मर गईं कई कविताएँ मेरे भीतर 
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मांगने वाले ने माफ़ी, मांगी सुकून से 
माफ़ करने वाले दिखे बेसब्री से तैयार
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बेचने वाले तो बाज़ारों में, न जाने क्या कुछ बेच आये हैं 
कभी ये न हमें सुनना पड़े कि 'एक मुल्क था हिंदुस्तान'
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जब शोर बहुत हो तो वहां ढूँढना आवाज़ 
ये बहुत ज़रूरी होती है निज़ाम के लिए 
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गड़े मुर्दे रात-दिन उखाड़ने वालों को ही 
ज़िंदगी का पैगाम देने वाला कहा गया 
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मान गए उस्ताद हम तुम्हारे दांव को 
गिराया किसी और को गिरा कोई और
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हर शख़्स कह रहा था उसे सच है बोलना
पूरे सच की शर्त रखी तो कोई नहीं बोला 
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सियासत वाला कीचड़ बदन पर सहन नहीं कर पायेगी 
तलाश रही है कोई ऐसी जगह जहाँ नदी नहाने जायेगी 
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चाकुओं को आवाजें अब दे रहे हैं गुलाब
शाखों से काटकर कोई गुलदान बख़्श दो 
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बड़ी लम्बी बहस हुई इसी बात पर 
कि बेवज़ह का बोलना कैसे कम करें 
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मिश्री के घरोंदे में जाकर रहने ही लगी रानी चींटी 
पता न चला कब दीवारें चट कर गयीं सब चींटियाँ 
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साफ़ करें गंदे दामन, हम चलो मसीहा बन जायें 
अपने हाथों की कालिख तो कभी और धुल जाएगी 
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नहीं हुआ शहर में कोई हंगामा आज 
अमन पसंद लोग बेरोज़गार बने रहे 
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लौटे तो सब कबूतर बहुत ज़्यादा थे लहूलुहान
कहा भी था सियासत वाली छतों पे जाना ना 
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मेरी आँखों में शहर का सब हुस्न है समाया 
मैंने तो यहाँ आकर, देखा था, बस तुम्हें ही 
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वो शहर बहुत बड़ा वहां हर कूड़ेदान में 
रिश्ते भी आते-जाते लोग फेंक जाते है 
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वो तो न कर सके कभी भी इश्क़ किसी से 
पर शायरी में ख़ुद को ग़ालिब समझते हैं 
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सियासत के बारे में लिखने लगा जब से 
मेरी शायरी से मोहब्बत चली गयी तब से 
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बद ज़ुबानी सियासत में क़ाबिलीयत है ख़ास 
सोच - समझकर बोलेंगे तो चर्चा होगा ख़ाक 
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चुप रहने का इनाम न इससे बड़ा हुआ
प्यादे को बादशाह का दर्ज़ा दिया गया 
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हमें दोनों की शक्ल अब एक जैसी दिखायी देती है
कुछ करो सियासत वालों ज़रा जुदा-जुदा तो लगो 
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लोग सियासी ही सब थे उस जगह भी मैंने नज़्म कही 
बंजर हों ज़मीनें पर फिर भी मैं बीज बिखेरा करता हूँ 
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तय तो था कि हक़ होगा इस गुलशन पर हर बुलबुल का
पर चंद गिध्द काबिज़ हो बैठे गुलशन के हर इक गुल पर 
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मेरे मुल्क के पास हैं सवाल ही सवाल 
पर जवाब देने वाले का अंदाज़ ख़ामोशी 
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तुम सिक्के लेकर आये हो कैसे कुछ भी हासिल होगा
जो दुआ में हाथ उठाते हैं वो खाली रक्खे जाते हैं।
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मत राख देख सोचना कि आग बुझ गई 
चिंगारियां लिखेंगी फिर इक दास्ताँ नई 
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