कविताएँ :एम एल डाकोत

अगस्त-2013 अंक 
शिक्षाविद एम एल डाकोत 
पूर्व प्राचार्य
109,स्कीम-छ ,कुम्भा नगर,

चित्तौड़गढ़-3012001
(राजस्थान
)
मो-9414778189




















“ शहीद ”

शहीदों
तुम धन्य हो ।
हम भी समय निकाल कर
तुम्हें पूजते हैं ।
हम भी हृदय से चाहते हैं
कि
परंपरा चालू रहे
तुम्हारे शहीद होने की ।
हमारे पूजने की ।।

आज यदि तुम जिन्दा होते
तो यह सम्मान देखकर
एक बार फिर शहीद होने की तमन्ना करते ।

भले मानुष
              शहीद होने में  
मरने की कहाँ जरूरत पड़ती है ?
हमें देखो
हम देश के लिए
गरीबों के लिए
जनता के लिए
दिन में हजार बार शहीद होते हैं ।
पर बेवकूफी में
प्राण थोड़े ही खोते है ।

देश का सच्चा कल्याण
शहीद होने में कैसे हो सकता है ?
स्वयं तो केवल एक बार ही शहीद होगे
योजना से काम करोगे तो
सैंकड़ों को करोगे शहीद
और स्वयं जिन्दा रहकर कहला सकोगे अमर शहीद ।

तुम्हारी मजार तक
हम किसी रूदन को नहीं आने देंगे
एकान्त के आँसुओं को 
तुम तक नहीं पहुँचने देगें
बीच में बो देंगे सरकारी सम्मान
सीचेंगे उससे यशोगान

तुम्हारी माँ
जब तुम्हें देखना चाहेगी
आज के अखबार में तुम्हारा फोटो दिखा देंगे ।
पत्नी जब चाहेगी आलिंगन
उसे देंगे ताम्रपत्र
भरी सभा में उसे बुलाकर ।।
यदि फिर भी बच्चों ने तुम्हारी याद की
तो देखकर ऐसी आधा बीघा जमीन

जो पृथ्वी पर हो
उनके नाम एलान करा देंगे ।
एक बात समझ नहीं आई
तुम्हें पागलपन क्यों सवार होता था
बढ़िया स्कॉच व्हिस्की देखकर भी
उदास हो जाते थे
पसीने का सौदा, महनतकशों का खून
पता नहीं क्या क्या बड़बड़ाया करते थे ।

बेवकूफ ही थे
उन्नत अंगो के दिखाई देने पर भी
तुम फटे वस्त्र ही देखते रहते थे ।
कजरारे नयनों में तुम्हें
बेबसी के आँसू ही दिखते रहे
सुन्दर देह यष्टि में
दिखाई देती थी, सिर्फ सूनी माँग
और तब तुम
अचानक जोर से चिल्ला उठते थे
“इंकलाब । जिन्दाबाद ” ।

समय तुम सबको रखा गया मेरे दोस्त
हम फिर भी जिन्दा हैं ।
हम फिर भी जिन्दा रहेंगे ।

तुम स्वर्ग में भी रहोगे बेचैन
वहाँ की अकर्मण्यता तुम्हें चैन नहीं लेने देगी
हो सकता है
वहाँ भी तुम्हें विद्रोही समझकर
निकला दिया हो
आखिर इंद्र को भी तो सत्ता चलानी है ।
वहाँ तुम शहीद भी नहीं हो सकोगे
वहाँ प्राण देने की परंपरा ही नहीं है
तब क्या करोगे मेरे दोस्त ।

वैसे हमने तुम्हारी भावना को भी
तुम्हारे साथ ही दफन कर दिया है ।
भूल कर भी इधर जन्म मत लेना
हम या जनता
तुम्हें शहीद होने जैसी स्थिति में
आने नहीं देंगें
(आत्म हत्या करो तो बात और है)
तुमने शहीद होकर
हम पर जो उपकार किया है
उसके लिए प्रणाम्
शत् शत् प्रणाम् ।
शत् शत् प्रणाम् ।
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“ गहरी साजिश ? ”

क्या मान कर चला जाय
कि विद्रोह एक बुलबुला है ?
क्या मात्र हवा ही भरकर कर बन जाता है ?
विद्रोह के पीछे और कुछ नहीं होता है ?
इसमें तो
सत्ता के समझौतों से ज्यादा विश्वास होता है ।
सत्ता के प्रति आक्रोश होता है ।
क्यों सफल नहीं होता विद्रोह ?
सभी
सम्मिलित होकर भी
क्यों रह जाते हैं अकेले ?
बांध बनाने पर भी
क्यों रिस आते हैं रेले ।
संस्कृति की नींव
साहस की चट्टानें
स्नेह की सीमेंट लगाने पर भी
बांध क्यों रिसता है ।
रिसता भी इतना कि
नींव, चट्टानें सीमेन्ट सभी तो डूब जाते है ।
कहीं इंजीनियर बांध को
मात्र डुबाने के लिए ही तो नहीं बनाते ?
ताकि
एक जगह, नियोजित रूप से डुबो देने पर
खत्म हो जाय
भविष्य में अवरोध की सम्भावना ।
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“ मंगल कामना ”

बीता वर्ष बढी एक सलवट
समय चुग गये मोर ।
कण कण कर ले तो जाते हैं
सधे समय के चोर ।।

आशा पर आकाश टिका है
साँझ, निशा फिर भोर
विभ्रम क्रम को भंग ही करता
जिसका ओर न छोर

एक जगह की आवश्यकता और
एक जगह उन्माद ।
एक जगह पेट भर भोजन
एक जगह परसाद ।।

ईश्वर बहरा नहीं अगर तो
सुन ले यह फरियाद ।
उम्र रेख को कर दे लम्बी
वर्ष रहे न याद ।।

आधि, व्याधि अवसाद अमंगल
फटक न पाये पास ।
आत्म उठे, शुभ साथ चले
मानो मनु की प्यास ।।
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“ बोध ”
अनन्त ।
नहीं है
इस दुनियाँ में
हम लघु हैं
इसी को कहने का
यह
एक रूप है ।।
उदधि, विशाल
विकराल
नहीं है
यह तो
यह कहना है
कि
हम कूप है ।।
स्वयं हो
शक्तिमान
सामर्थ्यवान
समझें
अपने को
जगत को
और पहचाने कि
सब
एक ही शक्ति के स्वरूप है ।।
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“ आहवान ”

तोड़ तट के बन्धनों को
प्लवित कर दो उन स्थलों को,
स्पर्श पाने आदि युग से
गिन रहे निष्ठुर पलों को
तट बन्धन है युगों युगों से
सरिता कब इनमें बँध पाई ।
तोड़ दिये भव भय बन्धन सब,
जल राशि जब भर ही आई ।।
साल उम्र में सावन भादो 
जीवन में यौवन जैसे ।
बिन उभरे उन्मुक्त बहे
रह तुम पाओगी कैसे ?
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“मेरी कामना”

प्रगति पथ पर अग्रसर हो,
कामना के लिये फूल ।
पग जिधर कर जाये विचरण,
स्वर्णमयी हो जाय धूल ।।
कीर्ति ही की उठ के लहरें,
छू ले नीला ये गगन ।
ज्ञान ऊर्मियो का स्पर्श ले,
फैले चहुँ दिश यह पवन ।।
नेह बरसे तृषित सरसे,
रखके मन में भावना ।
स्वर्ण खचित हो रेख जीवन,
करता हूँ यह कामना ।।
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“प्रगतिवादी कृतज्ञता”

धक्का लगाया
जोर से धक्का लगाया
खिसकी
“स्टार्ट” हुई
झटके से आगे बढ़ी
और हम
औंधे मुँह गिरे
पास वालों ने
पकड़कर
उठाया
धूल झाड़ी
डाटा
मूर्ख हो
परिचित नहीं हो
प्रगति के बाद 
दिखाई जाने वाली 
कृतज्ञता से
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“ निर्णय ”

क्या चाहिये
तेल, नमक, मिर्च, मसालें, दालें
अरे कुछ तो बोलो
वह आगे बढ़ गया ।

टेरेलीन, टेरिकाट, टेरीन, काटन, सूटिंग, शर्टिंग
लठ्ठा या दुपट्टा
कुछ भी नहीं ?

सर ! सीमेंट, लोहा, पत्थर
हुकुम कीजिए- प्लाट पर भिजवा दूँगा 
अरे एक मौका तो दीजिए सर-
वह फिर भी आगे चल दिया ।

पान वाले ने आवाज दी
हुजूर नोश फरमावें
फिर धीरे से कहा
तबीयत हो तो खिदमत में
तोहफा भिजावें ?

हुजूर को आगे निकलते देख
थूक कर पान की पीक
पान वाला धन्धे लग गया ।
छोर तक पहुँचकर बाजार की
ठिठक कर खड़ा हो गया वह
सोचने लगा-

सभी कुछ तो था बाजार में
सभी खरीद रहे हैं ।
कम से कम खरीदने का
अभिनय तो कर रहे हैं ।
चाहते थे राम बनना पर
कृष्ण तो बन रहे है ।

क्या चाहिये का निर्णय तो होता रहेगा
न भी हो तो चलेगा
निर्णय को छोड़ दो
काम अच्छा चलेगा ।
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“ जनता-एक दुल्हन ”

मीसा, डीआईआर दहेज में देकर,
आपात्काल की पालकी में बैठा
भोली जनता को
भय के साथ ब्याह दिया है ।
सहम गई है
सिसक भी नहीं सकती
सिसकी ही शायद
मौत का पैगाम बन जाये ।
अभिव्यक्ति ही शायद
भाव को खा जाये ।।
सुइयाँ तन में चुभो कर
गले तक पानी में डुबोकर
आनन्द की अनुभूति कराई जाती है 
रो रो कर अंध प्राथः आँखो पर
सुनहरे फ्रेम की ऐनक,
हरा हरा दिखाने के लिए चढाई जाती है ।
आतंक का अवगुणन
कब तक चलेगा ।
क्षोभ नीर आंखों से
कब तक झरेगा ।।
समय आ गया है
झाँसी से लेकर चण्डिका
रूप धरने का, पूजा लेने का ।।
“करवा चौथ” बहुत हो चुकी
“चौथ” के चक्कर में आधी बार भूखी
अब बलि लेकर तुष्ट हो
काटकर मोहजाल 
तृप्त हो, पुष्ट हो ।। 
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“ टप टप ”

टप टप बन जाती महा प्राण,
बच्चे वे भूखे अध नंगे ।
जो खेल रहे है बीच गली,
मिट्टी से बाँध रहे बंधे ।।

टप टप बन जाती आस किरण
खेतों में बोये जीवन की ।
उन सपनों की आधार शिला
जलते ज्यों आग जले वन की ।।

टप टप बन जाती महा प्राण,
जब दृष्टिहीन जर्जर काया ।
पाती कुटिया में चहूँ ओर,
इस टप टप की ही माया ।।

गीले चिथड़े ले इधर उधर
बचने को फिरती टप टप से ।
जब स्थान न पाती, थक जाती
गिरता अश्रु-बिन्दु टप से ।।

टप टप बन जाती महा प्राण,
होती टप टप जब “टिप टाँप”
वायु में उड़ती तितली सी,
करती पश्चिम का अंतः जाप ।।

अंतर में लेकर अम्ल क्षार
पर दिखता केवल जल है ।
भागी फिरती यह बिना बात
काम नहीं कोई पल है ।।

टप टप बन जाती महा प्राण,
मिल जाती इसको जेब खुली,
तब अनायास ही कर देती
काले भैंसे की देह हरी ।।

पर खुली जेब बरबस खुलती
कुछ कल्प उसे तुम मदमाती ।
जेबों जेबों घूमा करती
हाथों हाथों भटका करती ।।

टप टप बन जाती महा प्राण,
पदचाप ज्यों लगती प्रियतम की ।
आकुल बैठी हो वर्षों से
सुनने को बात अंतः मन की ।।

उस विरहन के जब अंग लगे
तुरत वाष्प बन उड़ जाती ।
अंगार बने उस कंचन को
तनिक शांति नहीं दे पाती ।।

टप टप बन जाती महा प्राण,
जब टप टप मिलती टप टप से ।
लहरा उठता है सागर-सा,
शांत तड़ाग भी झट पट से ।।

जब अकुलाती टप टप यह,
संचित होती है गागर में ।
तब चक्रवात सा आ जाता,
उस महा शांति के सागर में ।।
टप टप बन जाती महा प्राण,
आकार हीन जब हो जाती ।
महा सिंधु में मिलने को,
अंदर ही अंदर अकुलाती ।।
वायु व्योम का छोड़ मोह,
बूँदों से बूँद लख समान ।
अंतर में अमृत सरसाकर,
पाती सृष्टि में पूर्ण विराम ।।

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