यात्रा वृतांत: सफर में धूप तो होगी अगर चल सको तो चलो / कालुलाल कुलमी

साहित्य और संस्कृति की मासिक ई-पत्रिका 
अपनी माटी
 अक्टूबर-2013 अंक 


छायांकन हेमंत शेष का है

         


            यह दक्षिण भारत का सफर था जिसको सेवाग्राम से बाघमती से शुरु किया। रात में दस बसे ट्रेन आनी थी पर ट्रेन देरी से चल रही थी और वह आती है रात में एक बजे। गाड़ी में भीड़ का आलम यह था कि जमीन पर पैर रखने की जगह नहीं थी। उस भीड़ में सीट की तलाश की और वहां बहुत मुश्किल से जगह बनायी। साथ में ओम प्रकाश प्रजापति था। अपने सामान को सीट के नीचे रख कर ताला मार दिया और ट्रेन रफ्तार से भाग रही थी और सब यात्रियों की तरह हम भी सो रहे थे। सुबह होते ही ट्रेन में भीख मांगनेवालों का आना जाना हो गया। यह जिंदगी की रफतार थी जहां ये लोग इस तरह से जी रहे थे जैसे इनके पास इसके अलावा कोई काम ही न हो या यही एक मात्र काम हो जिसको ये बहुत शिद्धत से कर रहे थे या फिर यही इनके जीने का एक मात्र माध्यम था जिसके सहारे ये अपनी जिंदगी का मायने खोज रहे थे और सभ्य समाज से कुछ कह रहे थे? कोई महिला अपने बच्चों को नचा रही थी और भीख मांग रही थी तो कोई अपना कटा हुआ हाथ दिखा कर भीख मांग रहा है। तो कोई साईं बाबा का भेस बनाकर भीख मांग रहा है बहुत तरीके हैं इस जमाने में भीख मांगने के। मुम्बई में ऐसे कई गिरोह हैं जो बच्चें का अपहरण कर उनसे भीख मंगवाते हैं। किन्नर तालियों की आवाज के साथ मीठी आवाज में यात्रियों से पैसा मांग रहे थे। शायद उनके पास यही एक काम है जिसको वे अधिकार के साथ करते हैं। यहां वे ऐसा ही कर रहे थे। वैसे यात्री उनसे डरते हैं और पैसा देते हैं। पर उनसे डरते क्यों हैं वे भी नहीं जानते ? किन्नर ताली बजाते हुए आते हैं इस कारण डरते हैं या फिर किन्नरों को किस अन्य ग्रह का समझकर डरते हैं।  या फिर उनकी दुआओं से डरते हैं? या उनकी बदुआओ से? इस देश की अधिकांश जनता इसी तरह की धर्मभीरु है वह ऐसा ही करती हैं। जरा से अपशुगन से डरती हैं और तरह-तरह के कर्मकाण्ड करती हैं। यही किन्नरों के साथ होता है। वे शुभ तो होते हैं पर सामाजिक नहीं। उनसे आशिर्वाद तो लिया जा सकता है पर उनकों समाज का अंग नहीं बनाया जाता! यह विचित्र तरह का विरोधाभास है आज के आधुनिक समाज में, जिसको हमारे समाजशास्त्री समझने का प्रयास कर रहे हैं। उम्मीद है वे जल्दी ही कोई सामंजस्य खोज निकालेंगे।

रेल्वे का खाना तो माशाअल्लाह है। यहां तो भारी लुट मची है। बीस रुपये के खाने को अस्सी रुपये में देती है रेल्वे, फिर कहां से घाटा हो सकता भारतीय रेल्वे को! पवन बंसल के घर के लोग खाते हैं इसी कारण रेल्वे घाटे में जाती है बाकी तो रेल्वे का घाटे में जाने का कोई सवाल ही नहीं उठता। प्रिंटरेट से इनको कोई मतलब नहीं ये लोग उससे आगे चलते हैं। आपको खाना है तो खाओ बाकी मत खाओ, आपको पानी पीना है तो पीओ बाकी मत पीओ। इनका काम है रेल्वे की सेवाएं प्रदान करना सो करना है। वैसे रेल्वे को इस पर जरुर सोचना चाहिए, अगर वह वाकई अपनी इज्जत का फालुदा नहीं बनाना चाहती हैं तब, बाकी तो चल ही रहा है और यह भी कट ही जाएगा।

सेवाग्रम से बैंगलोर तक का सफर कैसे कट गया कुछ पता ही नहीं चला। दक्षिण भारत का प्राकृतिक सौंदर्य ही कुछ ऐसा है कि वहां सब तरफ हरा ही हरा नजर आता है। देर रात बैंगलोर पहुंचे। बैंगलौर सीटी स्टेशन से प्रीपेड ऑटो लिया। यह प्रीपेड ऑटो जिसमें आपको स्टेशन से ही स्लिप लेनी होती है जिससे आपको ऑटोवाला बेवकूफ नहीं बना सकता। हमारे यहां ऐसा ही होता है। ऑटोवालें कों पता चला कि आदमी नया आया है, उसके बाद वह अपने तरीके से हिसाब करता है। वहां ऐसा नहीं है। ऐसी सुविधा हिंदी पट्टी के किसी भी शहर में नहीं है। यह सुविधा बैंगलोर में है जिसका लाभ सभी को मिलता है। ऐसी सुविधा से व्यवस्था और जनता दोनों ही सही काम करते हैं। रात में प्रीपेड ऑटों से भंवर सिहं के घर पहंचे। रात बहुत हो गई थी। चावल खाये और सो गये।

यह कर्नाटक की राजधानी कन्नड़ भाषा का क्षेत्र होने के कारण अपने को भाषा की परेशानी तो होनी ही है। इस शहर को सिटी और गॉर्डन कहते हैं। यहां भारी तादात में गार्डन है। ऐतिहासिक दृष्टि से छोटी रियासत होने के कारण और आधुनिक दृष्टि से आबाद होने के कारण अंग्रेज यहां खूब रचे बसे। यहां फूलों का बहुत महत्व है। फूलों का कारोबार बहुत होता है। शहर में जहां भी जाओं फूल ही फूल है। दक्षिण भारत की महिलाएं जिस तरह से बालों में फूलों का गजरा लगाती है वह इसकी खूबी को बताता है। यह संस्कृति का अंग होने के कारण ही खास महत्व रखता है। यहां लाला बाग में एक ग्लास हाऊस है जिसका निर्माण लन्दन के क्रिस्टल हाऊस की तर्ज पर बनवाया था। इसका निर्माण 1889 में वेल्स के राजकुमार अल्बर्ट के बैंगलौंर आगमन के स्मणार्थ बनवाया था। इसका उद्धेश्य था फूलों की प्रर्दशनी के लिए बेहतर जगह उपलब्ध कराना। यहां हर साल पन्द्रह अगस्त को फूलों की भव्य प्रदर्शनी लगती है। फूलों का दक्षिण भारत की प्राकृतिक समृद्धि से भी गहरा रिश्ता है। यहां फूलों का जिस तरह से प्रयोग होता है वह मनुष्य और प्रकृति के रिश्तों की गहराई को दर्शाता है।

शहर में ऐसा लगता है कि जैसे किसी बाग में आ गये हैं। पेड़ ही पेड़ है। लम्बे-लम्बे पेड़ और उससे जिस तरह खूबसूरती निर्मित होती है वह सुकून देती हैं। वह आपको ठहरने के लिए विवश करती है। ऐसा उतर भारत के शहरों में नहीं दिखता। साफ-सफाई के मामले में यह शहर बहुत सजग है। गंदगी करना और गंदगी को समेटना दोनों बाते हैं। यहां जिस तरह से लोग उसको समेटते हैं वह स्वभाव से ही है। जो व्यवहार सभ्यता और संस्कति का हिस्सा होकर जीवन का संस्कार बन जाए, तब उसको साधना सरल होता है। यहां के जीवन में वह इसी तरह है। वैसे दक्षिण से जितनी भी रेल गाड़िया आती हैं वे साफ आती है बाकी अन्य प्रदेशों से जो रेल गाड़िया आती हैं उनकी हकीकत सब जानते हैं। यह सलीके से जीने का संस्कार ही है कि खुद भी साफ रहो और औरों को भी साफ रखो।

यहां की सरकारी बसे देश के अन्य प्रांतों से सबसे ज्यादा कमाती है और यहां के बस कर्मचारियों को सबसे ज्यादा तन्ख्वाह भी मिलती है। ट्रास्फोर्ट की व्यवस्था इस तरह की है कि सरलता से सफर तय किया जा सकता है। बसों में भीड़ तो रहती है। जैसी गोवा में बस सुविधा है वैसी भारत में ओर कहीं भी नहीं होगी। वहां बस की सीटें फुल होती है और बस चल देती हैं। वहां दूसरी बस आ जाती है और यह क्रम चलता रहता है। दूारी बात यह हैं कि यहां केवल पुरुष ही कन्डक्टर नहीं हैं यहां महिला भी उस काम को करती है। इससे भी यहां के जीवन में समानता के संस्कार को भांपा जा सकता है। औरत का घर से बाहर निकलतना ही जहां खतरा होता है वहां औरत नौकरी करती हो और हर निर्णय में बराबर की हिस्सेदार हो वहां का जीवन कितना खूबसूरत हो सकता है? यह पश्चिम की तर्ज पर हो या न हो पर होना चाहिए। वहां के जीवन में इस तरह की कुंठा इस कारण भी नहीं होंती कि स्त्री और पुरुष बराबर स्तर पर समाज में रहते हैं और अपने-अपने काम को करते हैं और जिसमें जो योग्यता है उसका वह पूरा का पूरा दोहन करता है, या उसको दोहन करने का अवसर मिलता है। जिसको हमारे यहां का उन्नतशील समाज औरत की सुरक्षा के नाम नकारता रहा है। यह अजीब समाज रहा कि यहां एक तो औरत को देवी बनाया गया और दूसरी और उसको दासी भी बनाता है। इस पर सबसे अजीब बात यह कि हमारे समाज के संस्कृतिकृर्मी मौन रहतं हैं। वे संस्कृति को बाहर के आवरण में ही देखते हैं या मनोविज्ञान के बोध में भी देखते हैं ऐसा वे ही बता सकते हैं। मेरा ख्याल है कि उसको बाहर से देखने से क्या होनेवाला है उसको मनोविज्ञान के स्तर पर देखना होगा तभी उसको सुलझाना भी संभव हो सकता है।

बैंगलौर की जनसंख्या तकरीबन आठ लाख है। बाहर के लोग भी भारी मात्रा में यहां काम करते हैं। करो़ड़पति से लेकर गरीब से गरीब आदमी भी यहां बाहर का मिल जाएगा। यह ऐसा ही है कि यह हर महानगर की तरह इसके प्रति भी दूर के लोगों का आकर्षण है। वह काम की तलाश करने और कुछ करने की चाह में आते हैं और यहां से बहुत कुछ करते भी हैं। व्यापार में यहां मारवाडी लोग भारी मात्रा मंे लगे हैं। शिक्षा का हब होने के कारण और मेट्रोपॉलिटियन सिटी होने के कारण यहां व्यवसायिक शिक्षा का व्यवसाय बहुत तगड़ा हैं। यह बाजार का जो भी प्रभाव कहिए, इसको राज्य की असहायता कहिए या उदारता, बाजार ने हर क्षेत्र में अपना काम करना शुरु किया है। शहर में भारी-भारी मॉल है। जो खुद्रा की तर्ज पर काम कर रहे हैं। उनका क्रेज कहिए या आकर्षण वे व्यवसाय को और समाज के विकास के फर्क को बता रहे है। उनकी अनिवार्यता और उनका होना एक वर्ग के लिए खतरा तो दूसरे के लिए अनिवार्य। जिस तरह की नयी जीवन शैली सामने आ रही है वहां मध्यवर्ग के लिए मॉल संस्कृति ज्यादा सही रहती है। वहीं जो लोग रोज कमाते हैं उनके लिए वह कैसे सही हो सकता है। इस तरह यह विभाजन साफ देखा जा सकता है। प्रत्येक महानगर का यही हाल हो रहा है।

यहां मौसम इस तरह का है कि यहां रहते हुए शहर के साथ साथ मौसम का भी मजा लिया जा सकता है। बरसाद कब आ जाए और कब चली जाए कोई पता नहीं। कहा जाए कि यह यहां अनवरत चलता रहता है। यहां का मौसम हिमालय के क्षेत्रों की तरह रहता है। सुहावना। जिस तरह यह शहर आकर्षित करता है वैसे ही यहां का मौसम परेशान भी करता है और प्यार भी। यहां भाषा की समस्या कई बार मजा किरकिरा कर देती है। जिसको कन्नड़ और अंग्रेजी दोनों ही नहीं आती तब वह क्या करे?। वैसे हिंदी में काम चल सकता है। कुछ शब्द कुछ हावभाव बाकी बाते संकेतों में होती है। कुछ शब्द वे लोग समझते हैं और कुछ आप समझते हैं फिर बात आगे बढ़ती हैं। यह बातचीत फिल्म के डायलोग की तरह होती है। कभी बस वाला तो कभी ऑटोवाला उसको दोहराता है। वह सुबह हो या फिर देर रात। प्रीपेड ऑटों की सुविधा के कारण एक दिनं पैसों का बिल कम प्रिंट हो गया। फिर क्या था? ऑटोवाला हम पर थूकने लग लग गया। उसको दस रुपये दिये तब जाकर वह गया। ये लोग अपनी भाषा में झल्लाकर गुस्सा व्यक्त करते हुए इस तरह से बोलते हैं कि कासापोसा आदमी उससे डर जाएगा।

यहां के पार्कों में बहुत पेड़ हैं। ऐसे-ऐसे पेड़ हैं जिनके नाम मुझे तो पता नहीं हैं। इन पेड़ों के साथ यहां के पार्को में साहित्यकारों और कलाकारों की मूर्तियां लगी हैं। इन मूर्तियों के नीचे नाम और परिचय में जो कुछ लिखा है वह कन्नड़ में टंकित किया हुआ हैं। सबसे खास बात यह है कि यहां साहित्कारों और कलाकारों का सम्मान करते हुए उनको पार्कों में जगह दी गई है। यह अलग बात है कि इनके बारे में कौन कितना जानता हैं। यहां कई लोग तो यहां के पार्क देखने आते हैं। आखिर इसको गार्डन सिटी कहने का क्या अर्थ है। जैसे जयपुर को गुलामी नगर कहतें हैं। उदयपर को झीलों की नगरी कहते हैं वैसे इसको बगीचों का शहर कहते हैं। इन बगीचों का ही कमाल है कि यहां का मौसम सुहावना रहता है।

यहां रहते हुए 60ए बस से दोस्त के कॉलेज जाते थे जहां वह हिंदी साहित्य पढ़ाता है। यह एक मारवाडी का कॉलेज है। यह कॉलेज तरह का स्थान है कि किसी मॉल की तरह लगता है। अंदर जाने पर पता चलता है कि यह कॉलेज है। बिल्डिंग का किराया ही सालाना पन्द्रह करोड़ है। उससे कॉलेज के व्यापार का अंदाजा लगाया जा सकता है। जैन कॉलेज ऐसा कॉलेज है कि उसका नाम आता है। यहां से कई लोग निकले हैं। यहां गरीब आदमी पढ़ नहीं सकता। यहां काफी खर्चा होता है। जिसको उस आदमी के लिए वहन करना असंभव है। सरकारी और निजी का सबसे बड़ा अंतर यही है।

यहां पुस्तकालय में अखबार पढ़ते रहो और अपना पढ़ना लिखना करो और वापस लौट जाओ। यहां हिंदी का अखबार राजस्थान पत्रिका मिलता है। बाकी अंग्रेजी और कन्नड़ के अखबार मिलते हैं। बाकी बाहर भी जलेबी की तरह लिखा होता है। वह अपने को कहां से पढ़ने में आएगा? हिंदी में कहीं कहीं लिखा हुआ मिल जाता है। बाकी अंग्रेजी साथ देती है। जहां कुछ भी समझ नहीं आता वहां संकेत से काम चलता है। इस तरह भाषा के साथ भाषा चलती है और व्यवहार चलता रहता है।


डॉ.कालूलाल कुलमी
युवा समीक्षक
ई-मेल:paati.kalu@gmail.com
दक्षिण भारत की फिल्मों का व्यवसाय भी तगड़ा है। हर शुक्रवार को फिल्में रिलिज होती है। यह है कि इनका प्रचार यहीं तक है पर ऐसा नहीं है। ये डब होकर अन्य भाषा के दर्शको तक जाती है इससे इनके इनकी खूबी का अंदाजा लगाया जा सकता है। दक्षिण की फिल्मों में जिस तरह से रजनीकांत नागार्जुन जैसे कलाकार हुए है वे विश्व स्तर के कलाकार है।

जब पावस लौट रहा था तब बैंगलौर से चैन्नई तक इतने भीखारी और किन्नर आये कि लग रहा था कि इस देश के सारे भीखारी यही एकत्र हो गए हैं। सुबह की गाड़ी थी इस कारण भी और संगमित्रा बैंगलौर से चैन्नई तक लोकल की तरह ही चल रही थी इस कारण भी उनका आगमन हो रहा था। कोई प्यार से तो कोई वसुली करते हुए भीख मांग रहा था। कुछ औरते इस तरह के कार्ड छपवाकर भीख मांग रही थी जिन पर लिखा था कि मेरा पति पागल है और हम कुछ कर नहीं सकते हमें भीख दो ताकि हमारा काम चल सके। इस देश में इतनी गरीबी है और सरकार कहती है कि अब गरीबी खत्म हो गई है। आखिर वेनेजुएला सरकार में हूगोशावेज ने जिस तरह का कानून बनाया वैसा भारत सरकार क्यों नहीं बना सकती? वहां की सरकार ने कानून बनाया कि जिस आदमी की न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं हो पा रही है वह सरकार पर दावा कर सकता है। यह सरकार की जिम्मेदारी है कि वह प्रत्येक नागरिक की न्यूनतम आवश्कताओं की पूर्ति करे। क्या हमारे यहां ऐसा हो रहा है? इसी कारण किसी ने भीख मांगने को को धंधा बना लिया तो कोई खुद धंधा बन गया। पापी पेट क्या नहीं कराता। रात हो गई सो गया और सुबह हुई तो सेवाग्राम आ गया था।

1 टिप्पणियाँ

  1. तत्सम शब्दावली से लगभग परहेज की दृष्टि वाले कालू भैया के कई यात्रा वृतांत पढ़े उन्होंने अपनी अलग सादी स्टाईल ईजाद की है.नए शहरों की सेर में वहाँ के जीवन को बारीकी से जीने,दर्शाने और फिर उकेरने का जो ईमानदार प्रयास कालू लाल कुलमी करते हैं अन्यत्र कम देखा गया है.देहाती अंचल की यह लेखकीय पौध का एक उदाहरण है.-माणिक

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