कहानी:'साक्षात्कार' /डॉ.सुमन सिंह

            साहित्य-संस्कृति की त्रैमासिक ई-पत्रिका           
'अपनी माटी'
          वर्ष-2 ,अंक-15 ,जुलाई-सितम्बर,2014                       
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चित्रांकन:उत्तमराव क्षीरसागर,बालाघाट 
गंगाघाट पर बैठा संजय सोच रहा था कि यह अंतिम प्रयास और, अन्यथा गंगा की गोद और उनकी अविरल धारा! एक छलांग साहस की और फिर सब खत्म। बहुत हुआ, रोज-रोज की कट-कट अब और नहीं झेली जाएगी। क्या अपने ही माता-पिता, सगे-सम्बन्धी इस हद तक क्रूर हो सकते हैं? क्या सारे रिश्ते स्वार्थ से जुडे़ हैं, क्या माँ-बाप बच्चों की परवरिश सिर्फ इसलिए करते हैं कि वे उनके बुढ़ापे का सहारा बनेंगे? बच्चों के भविष्य के लिए तरह-तरह के सपने क्या सिर्फ इसलिए बुने जाते हैं कि बच्चों को हर हाल में उन्हें पूरा करना होगा और अगर वे चूक गए तो आजीवन कपूत होने का दंश झेलते रहेंगे। माँ को देखकर तो कभी-कभी यह महसूस होता रहा कि ‘वात्सल्य’ नामक कोई भाव भी होता है, पर पिताजी का चेहरा तो हमेशा से भावशून्य रहा, लगा वे जी नहीं रहे वरन् जीवन को किसी तरह ढो रहे हें। पिताजी तब के जमाने के थे जब शादियाँ घरवालों की मनमर्जी से हो जाती थीं। लड़कियाँ तो मन मार के या राजी-खुशी गृहस्थी में रम जाती पर लड़के हमेशा अतृप्त रहते।

तथाकथित मर्यादाओं की बेड़ियों से कसी उनकी आत्मा सदैव छटपटाती रहती।यह छटपटाहट संकोचवश ªभले ही उनकी जुबान तक नहीं आती पर व्यवहार में हमेशा दिखती। उसने तो जब से होश संभाला पिताजी को सदैय गुस्साते, फटकारते ही पाया, छोटी-छोटी फरमाइशों पर वह तुनक जाते-‘हम लोग बचपन में सारे भाई-बहन एक-दूसरे के छोटे-छूटे कपड़े पहनते, जो मिला वही खा-पी लिया। बस्ते, कॉपी-किताब से बारी-बारी काम चला लेते। कभी तीज-त्योहार में कुछ ढंग का खाने-पीने, पहनने-ओढ़ने को मिल जाता तो ठीक, नही तो माँ-बाप के सामने कभी जिद नहीं किया। हम उन्हें समझते थे, हम समझते कि उनकी हद क्या है? एक आप नवाबजादे हैं, इच्छाएँ सुरसा का मूंह, लील जाओ मुझे ससुरों। तुम्हें तो टाटा-बिड़ला के घर पैदा होना चाहिए था, मेरे घर क्यों पैदा हुए। जानते हैं नालायक कि उनका बाप अदना सरकारी नौकर है फिर भी मूंह खोलते शर्म नहीं आती।’पिताजी बड़बड़ाते और वे दोनों भाई-बहन दरवाजे की ओट लिए चुपचाप सुनते रहते। पर क्या बोल-बड़बड़ा लेने से सारी समस्याएँ सुलझ जाती हैं? उन दोनों की भी तरह-तरह की समस्याएँ थीं जो बिना पैसे के सुधरने वाली नहीं थीं। स्कूल ड्रेस, बैग वाटर-बॉटल से लेकर कापी‘किताब यहाँ तक कि पेंसिल बॉक्स तक  उनको अलग-अलग चाहिए था। वे पिताजी के भाइयों की तरह आपस में एक ही कापी-किताब,स्कूल ड्रेस से काम नहीं चला सकते थे। पिताजी का बचपन वाला समय बीत चुका था पर वे जाने क्यों अब तक अपने उसी बीते समय के साथ ठिठके रह गए थे। वे न वर्तमान की गति पहचान पा रहे थे और न उसके साथ चल पा रहे थे, बस इस तेज दौड़ते वर्तमान की आलोचना कर रहे थे और शायद किसी हद तक घृणा भी। इसलिए संभवतः वे इस सच को पहचान ही नहीं पा रहे थे कि आवश्यकताएँ मात्र उन्हीं के बच्चों की नही बढी हैं।उन्ही के बच्चे पढ.-लिखकर बडे नही हो रहे,उन्ही के बच्चों से काबिल होने के बावजूद, साक्षात्कार में सफल होने के बाद भी घूस नहीं मांगा जा रहा है,एक पद के लिए उन्ही के बच्चे उम्मीदवार नही हैं बल्कि लाखों और बच्चे भी उम्मीदवार हैं।                                                                             

पिताजी से उसके सम्बन्ध वैसे भी कभी बहुत अच्छे नहीं रहे, उन्हें हमेशा लगा कि उन्हीं का पूत कपूत है वरना नौकरियों की तो बारिश हो रही है। खुशनसीब माँ-बाप सपूतों की नौकरी लगते ही मिठाई बाँटने लगते। ऐसे ही एक खुशनसीब पिता ने आज घर का माहौल सुबह-सवेरे  खराब कर दिया। वह साक्षात्कार के लिए अपनी फाइल तैयार कर ही रहा था कि राठौर अंकल की आवाज़ सुनाई दी।‘‘अरे शर्मा जी कहाँ हैं ?.......आइए भई मुँह मीठा करवाएँ, हमारे रजत की नौकरी लग गई, मल्टीनेशनल कम्पनी है, अच्छा पैकेज है। देश-विदेश घूमने का भी खूब मौका मिलेगा। भई! अपनी मेहनत तो सफल हो गई।’’

राठौर अंकल की खुशी से चहकती आवाज़ पिताजी के कलेजे को जैसे चीर गई थी, उन्होंने अंकल के सामने न जाने कैसे अपने क्रोध पर नियन्त्रण रखा था, उनके जाते ही वे उस पर बरस पड़े़-‘देखा! तुझसे पूरे पाँच साल छोटा है रजत, आज लाखों कमा रहा है और तू नालायक, साले अभी तक चवन्नी तो कमा कर दे नहीं सका, बाप के ही पैसे गँवा रहा है, कभी इस इंटरव्यू के नाम पर तो कभी फार्म भरने के नाम पर। तू एक दिन मेरी वर्षों की जमा-पँूजी बेचकर ही मानेगा.....।’पिताजी का क्रोध चरम पर था, माँ उनको तसल्ली दे रही थीं और आँखों के इशारे से संजय को बरज रही थीं कि ‘बात को मत बढ़ाना ’लेकिन इस बार वह खुद पर नियन्त्रण न रख सका ।क्रोध से कॉंपते स्वर मे बोला ‘आपको बस रजत की नौकरी दिखती है, यह नहीं दिखता कि राठौर अंकल ने उसके एम.बी.ए. के एडमिशन के समय कितना घूस दिया था ?.....आज जिस इंटरव्यू के लिए जा रहा हूँ वहाँ दस-पन्द्रह लाख की डिमांड है ऊपर से तगड़ा  अप्रोच भी होना चाहिए, लाइए दीजिए पंद्रह लाख! पिता जी, जब आपकी इतनी क्षमता नहीं है न तो बेवजह बोला भी मत करिए.....मनोबल नहीं बढ़ा सकते तो गिराइए भी मत, समझे आप ?’ क्रोध से तमतमाया, पिता जी की ओर बिना देखे वह  घर से निकल पड़ा।

                संजय ने घड़ी देखा सुबह के नौ बज रहे थे, इंटरव्यू दस बजे से था उसने फाइल उठाई गंगा को प्रणाम किया, उनकी जीवंत पावनधारा से आचमन किया और बोझिल कदमों से महिला कालेज की ओर बढ़ चला, वहाँ पहुँचकर दंग रहा गया।एक सहायक प्राध्यापक के पद के लिए पचास अभ्यर्थियों को बुलाया गया था। चूँकि महिला कॉलेज था इसलिए महिलाओं की संख्या ज्यादा थी, एक कोने में सात-आठ की संख्या में पुरुष बैठे हुए थे। कमरे में पहुँचते ही एक चहकती हुई आवाज सुनाई दी-‘आइए-आइए कामरेड आप यहाँ भी ?.....स्वागत है भाई साहब।’ यह नितिन था जीवंतता से भरपूर एक अल्हड़ युवा। दानों की मुलाकात एक इंटरव्यू में हुई थी और धीरे-धीरे उनमें दोस्ती हो गई थी।  ‘झारखण्ड वाले इंटरव्यू का क्या हुआ, कुछ खबर है ?’ संजय ने उत्सुकता जाहिर की ।

‘कहाँ रहते हैं गुरु, वहाँ तो नियुक्ति भी हो गयी पिछले महीने किसी सौरभ शुक्ला की। साला पण्डितों का कॉलेज था, सारी सेटिंग पहले से कर रखी थी पट्ठों ने। आना तो उन्हीं के बिरादरी से कोई था न, हम तो उल्लू हैं कई हजार फूँक के साला झंख रहे हैं।’संजय के प्रश्न का उत्तर देने वाले लड़के का चेहरा तमतमा रहा था।

  ‘आपका नाम ?’ मुस्कुराते हुए संजय ने पूछा ।
  ‘मनोज गुप्ता, और आप ?
  ‘संजय’ 
 ‘आगे......मतलब सरनेम ?’

‘आप जिन पंडितों को गरिया रहे थे, उन्हीं की बिरादरी से आता हूँ जनाब।’ खिलखिला पड़ा संजय। साथ के सारे लड़कों के चेहरे पर भी मुस्कान खिल उठी।

 मनोज शरमाते हुए बोला-‘सॉरी भाई, दरअसल बात ऐसी है कि यह मेरा पन्द्रहवाँ इंटरव्यू है, घर से बहुत तंग हूँ, बड़ी बहन की शादी नहीं हो पा रही है। जहाँ इण्टरव्यू के लिए जाता  हूँ वहीं पता चलता है कि लोग अपनी-अपनी जाति-बिरादरी के उत्थान में लगे हुए हैं, घूसखोरी चरम पर है, मन कड़वा हो जाता है। इतना पढ़-लिखकर कोई छोटा-मोटा धन्धा शुरू करने का मन नहीं करता। मेरी जातिगत टिप्पणी बुरी लगी हो तो माफ कीजिएगा.....प्लीज।’ 

 मनोज के मुरझाए, निराश चेहरे से दयनीयता टपक रही थी। संजय को लगा मानो मनोज का चेहरा कोई आईना बन गया है और उसमें जातिवाद से आतंकित, रिश्वत का ग्रास बने जाने कितने चेहरे प्रतिबिम्बित हो रहे हैं। सब पर एक से दुख का स्याह रंग पुता हुआ है जिससे चेहरे के बनावट की भिन्नताएँ मिट गयी हैं। सभी चेहरे उदासी, निराशा और बेकारी की व्यथा किसी भयंकर संक्रामक रोग की तरह एक-दूसरे में फैला रहे हैं।

 ‘चाय लीजिए‘ चाय की टेª और बिस्कुट की प्लेट थामे कॉलेज की महिला चपरासी खड़ी थी उनके सामने।
 ‘लीजिए कामरेड, यहाँ भी आपकी-हमारी प्रतिभा की खतिरदारी होने लगी....शुभ लक्षण नहीं दिख रहे बॉस !’एक भरपूर ठहाका लगाते हुए नितिन बोला ।

इस बार इनका ठहाका अपनी-अपनी थीसिस में सिर घुसाए महिला वर्ग के कानों तक पहुँचा कुछ ने अपना सिर ऊपर किया, कुछ ने पलट कर आग्नेय नेत्रों से इनकी ओर देखा लेकिन कुछ एकदम निर्विकार अपनी किताबों में खोई रहीं कि तभी चपरासी ने पुकारा-‘आभा सोलंकी’। पूरे कक्ष में सन्नाटा छा गया। आभा सोलंकी’ इस तरह उठीं जैसे इंटरव्यू के लिए नहीं,.जबह के लिए जा रही हों। उनके आने की प्रतीक्षा में कई जोड़ी नेत्र टकटकी बाँधे थे, वो आई तो उनका चेहरा उतरा हुआ था और आँखें डबडबाई हुई थीं। भरी आँखों और काँपते हाथों से अपनी फाहल समेटे वो जाने ही वाली थीं कि कई बेनूर चेहरे हरकत में आ गए ‘क्या हुआ, क्या पूछा ?’की फुससफुसाहट पूरे कमरे में भर गयी लेकिन आभा सोलंकी लाख कोशिश करने पर भी कुछ बोल नहीं पाई रोती हुई कमरे से बाहर चलीं गयीं। सभी उम्मीदवारों ने अनुमान लगा लिया कि उनका इंटरव्यू अच्छा नहीं हुआ होगा। 

      एक के बाद एक उम्मीदवार इंटरव्यू के लिए बुलाए जाने लगे, कोई बुझे चेहरे से कोई प्रसन्नता से कमरे में आता और कमरे का वातावरण हर आहट पर बदल जाता। कमरा क्षोभ, असंतुष्टि, आशा-निराशा कई मनोभावों के उच्छवासों से भर गया था। सभी अपनी बारी की प्रतीक्षा में अधमरे हुए जा रहे थे। संजय की प्रतीक्षा खत्म हुई, सुबह की घटना का और पिताजी के साथ झड़प के अवसाद का कोई चिह्न संजय के चेहरे पर नहीं रह गया था। दृढ़ता से उसने साक्षात्कार कक्ष में कदम रखा, बड़ी विनम्रता से वहाँ उपस्थित परीक्षकों का अभिवादन किया। लगभग सात-आठ की संख्या में बैठे लोगों में से एक ने उसे बैठ जाने को कहा और साथ ही उसके प्रमाण-पत्रों और थीसिस की शिनाख्त करने लगे। 

एक कोने में बैठी महिला का स्वर गूँजा ‘आपने इस महिला महाविद्यालय में आवेदन क्यों किया जबकि आप जानते थे कि वरीयता महिला अभ्यर्थी को ही मिलेगी ?’

उनके इस प्रश्न से अचंभित संजय बोल पड़ा-‘मैडम !चूँकि मैं इस पद के योग्य हूं इसलिए आवेदन किया। मैं समझता हँू किसी भी पद के लिए मात्र योग्यता देखी जानी चाहिए न कि लिंगभेद !’

उसके इस जवाब से मैडम के साथ-साथ उपस्थित सज्जनोें के चेहरे भी तन गए। 
एक ने रुष्ट स्वर में कहा-‘अच्छा! तो क्या आप समझते हैं कि यहाँ आयी महिला अभ्यर्थियों में आप सबसे योग्य हैं, क्यों ?’
 ‘नहीं, मैं यह कैसे कर सकता हूँ, निर्णायक तो आप लोग हैं सर !’ संजय का स्वर संयत था।

    जाने कितने सवाल उससे पूछे गए सारे के यथोचित जवाब उसने दिया लेकिन उसके जवाब सुन परीक्षक संतुष्ट नहीं हो रहे थे वरन् एक प्रतिद्वन्द्वी की भाँति उसे घूरने लगते थे।

 अंततः एक सज्जन मुखर हुए, ‘आपके कितने शोध पत्र प्रकाशित हैं? कोई किताब वगैरह आई है या तीस साल की उम्र बस आपने लोगों से सिर्फ कुतर्क करने में ही बिताया है?’ कुटिलता से वे मुस्कुरा रहे थे। 

    ‘सर! शोध-पत्र बहुत लिखे हैं और किताब छापने के लिए दस पन्द्रह हजार से कम में कोई प्रकाशक तैयार नहीं हो रहा। घर की माली हालत ठीक नहीं है, सो जब नौकरी मिल जाएगी तभी कुछ छपवाना संभव होगा। मैं किताब की पांडुलिपि साथ लाया  हूँ ,आप चाहे तो देख लें।’संजय पूरे धैर्य से मौर्चे पर डटा  

रहा। परीक्षकों में से एक ने कहा-‘और कुछ पूछना है इनसे, जल्दी पूछिए अब लंच टाइम हो गया है!’उनके इतना कहते ही मानो सभी एक साथ भूख से छटपटा उठे, उन्होंने सम्मिलित रूप से सिर हिलाया, ‘अब आप जा सकते हैं।’ 
 ‘लेकिन परिणाम ?’संजय असमंजस में था।
  ‘आपको सूचित कर दिया जाएगा’ 

 ‘लेकिन ......लेकिन मुझे कैसे पता चलेगा कि अगर मेरा चयन नहीं हुआ तो किसका हुआ , यदि किसी और का हुआ तो क्या वह मुझसे ज्यादा योग्य था ?’संजय के स्वर में  अब मद्धम आक्रोश भी था। 

उसको टालने की गरज से एक ने कहा-‘देखिए साक्षात्कार में पारदर्शिता बरती जाएगी, समझे! आप अब जाइए। 

   ‘लेकिन पारदर्शिता की क्या गारंटी है सर, जब एक अभ्यर्थी को मालूम ही नहीं होता कि उसके साक्षात्कार से बेहतर किसका साक्षात्कार था या कौन सबसे बेहतर था?......या फिर आप लोग साफ-साफ क्यों नहीं बता देते कि सब कुछ पहले से ही तय है कि चुनाव किसका करना है। रिश्वत का बंदरबाँट भी कर लिया गया है ।हम जैसे मूर्खों का धन और समय दोनों नष्ट किया जा रहा है। सर! परदर्शिता तो तब होती जब इंटरव्यू बंद कमरे में न होकर सार्वजनिक होता कम से कम हमें भी पता चलता अपना सामर्थ्य।’

 ‘देखो, कायदे से चले जाओ नहीं तो अभी तुम्हारी औकात पता चल जाएगी।’एक सज्जन कड़के लेकिन संजय अकड़ा रहा।

‘हर वाजिब सवाल का जवाब माँगने पर हमें हमेशा तिरस्कार ही क्यों मिलता है सर !आप लोगों के सारे सावालों के जवाब मैंने दिया, यहाँ तक कि बेतुके प्रश्नों के उत्तर में भी मैंने धैर्य नहीं खोया और आप लोग मेरे एक सवाल के जवाब में आपे से बाहर हो गए। ऐसे व्यवहार पर उतर आये मानों मैं कोई आतंकवादी होऊँ ।’

    
डॉ.सुमन सिंह
प्रवक्ता,हिन्दी,
हरिश्चन्द्र पी.जी.कॉलेज, वाराणसी
एस-8/108 आर-1 डी,आई,जी
कॉलोनी ,खजुरी वाराणसी
मोबाइल न0-9889554341
ई-मेल:ssingh445@gmail.com
 ‘क्रोध की अधिकता से संजय की आवाज भर्र रही थी। कमरे में उपस्थित सज्जनों के चेहरे से भद्रता का चोला उतर गया। उन्होंने क्रोध से बकझक करते इस युवक को महाविद्यालय प्रांगण से बाहर खदेड़वा दिया।संजय मन से सारे गुब्बार निकाल भीड़ भरी सड़क पर कुछ देर यूँ ही टहलता रहा और फिर थकहार कर घर लौट आया। घर का माहौल कुछ हल्का हो चला था। उसके बुझे चेहरे को देखकर माँ और पिताजी दोनों ने ही कुछ नहीं बोला। उन लोगों की चुप्पी ने उसके भीतर के दुःख को गहरा कर दिया। मर्मान्तक पीडा लिए वह अपने अंधेरे कमरे में लेटा हुआ था कि एक स्नेहिल स्पर्श  उसे चाैंका गया। यह माँ थीं-‘मन छोटा न कर ईश्वर सब अच्छा करेंगे, सुन तेरे पिताजी ने यह ए .टी.एम. कार्ड दिया है। उनके अकाउंट से पचास हजार निकाल लेना, अभी इतने से ही काम चला।उन्होंने कहा है कुछ दिनों में फिर और इन्तजाम करेंगे, ठीक !’

      संजय ने विस्मय से माँ की ओर देखा, क्या सचमुच बात-बात में ताना देने वाले उसके पिता उससे इतना स्नेह रखते हैं? उसका मन प्रसन्नता से उमग पड़ा। कमरे के बाहर उसने पदचाप सुना ‘जरूर पिता जी होंगे’ वह मन ही मन मुस्करा उठा। 

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