संस्मरण:गाँव के बहाने चट्टनियाँ बाबा का स्मरण/डॉ.केदार सिंह

त्रैमासिक ई-पत्रिका 'अपनी माटी(ISSN 2322-0724 Apni Maati)वर्ष-2, अंक-16, अक्टूबर-दिसंबर, 2014
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छायाकार:ज़ैनुल आबेदीन
मेरे गाँव का नाम सलगी है। इसके अलग-अलग कई छोटे-छोटे टोले हैं। मेरा घर जिरूआ खुर्द में पड़ता है। मेरे घर से दांयी ओर यानी उत्तर की ओर टुंडाग है। टुंडाग पाँच बखरियों में बटा हुआ है। दक्षिण की ओर सलगी बखरी, भूतहा, अलगडीहा है। पूरब में एरेगडा, पश्चिम मे लेदहा, बेंती, कुरूमड़ाड़ी आदि छोटे-छोटे गाँव हैं। इन्हीं छोटे-छोटे गाँवों या टोलों को मिलाकर एक नाम ‘सलगी’ दिया गया है। यहाँ विभिन्न जातियों के लोग अलग-अलग हिस्से में बड़े प्रेम और भाईचारे के साथ से रहते आए हैं। शायद इसी प्रेम या एकता का नाम सलगी है।इसी गाँव में जन्मा, खेला, कूदा, बचपन बीता। प्रारंभिक शिक्षा के बाद की पढ़ाई के लिए शहर आना पड़ा और नौकरी पेशे के कारण यहीं का होकर रह गया, पर आज भी हमारी आत्मा गाँव से जुड़ी हैै। उसी की एक धंुधली तस्वीर स्मृतियों में उभर आई है।

 
घने जंगलों, बाग-बगीचों, खेत-खलिहानों से घिरे गाँव के कच्चे मकानों वाले मिट्टी के आंगन को जब होली, दशहरा, दीपावली आदि तीज-त्योहारों के अवसर पर गाय के गोबर से लीपा जाता था, तब गजब की त्योहारी महक मन को हर्षित कर देती थी। बच्चों क्या ? बूढ़े, जवान, स्त्री-पुरुष सभी को त्योहारों की बड़ी बेसब्री से प्रतीक्षा होती थी। चारों ओर उल्लास ही उल्लास, खुशी का वातावरण छाया रहता था। त्योहारों के अवसर पर देशी घी में बनने वाले पकवानों की सुगंध से भूख और बढ़ जाती थी। ऐसे भी चतरा जिला देशी घी के लिए प्रसिद्ध है। 

मेरे गाँव की जीविका का मुख्य स्रोत खेती है। लोग खूब मजे में जमकर खेती करते हैं, किन्तु जमीनी धरातल पर यहाँ एक जैसी समानता नहीं है। किसी के पास पच्चीस एकड़ जमीन है, किसी के पास सौ एकड़ है, किसी के पास पाँच एकड़ है तो कोई धूर भर जमीन के लिए भी तरस रहा है। मजदूरों के अभाव में ज्यादातर खेती बटाय पर निर्भर करती है। यहाँ की जमीन सिंचित, असिंचित दोनों तरह की है। सिंचाई के लिए आहर, पोखर, कुंए का प्रयोग किया जाता है। ऐसे तो गाँव में छोटे-छोटे तीन, चार तालाब हैं, पर गाँव के पश्चिम में एक बड़ा सार्वजनिक तालाब था। ‘था’ इसलिए कह रहा हूँ कि आज उस तालाब को निजी कर लिया गया है। उस तालाब के साथ अनेक स्मृतियाँ जुड़ी हुई हैं। तालाब से दांयी ओर करीब एक किलोमीटर दूरी पर स्थित मिडिल स्कूल की कक्षा तीन में जब मैं पढ़ रहा था, उस समय कुछ लड़कों के साथ दोपहर में स्कूल से निकलकर तालाब में नहाने चला गया। ठीक उसी समय पिताजी उसी तालाब वाले रास्ते से गुजर रहे थे। अचानक उनकी नजर मुझपर पड़ गयी और उल्टे पैर मेरे पास आकर उन्होंने मुझे कपड़े पहनाये और स्कूल की ओर ले गए। वहाँ ले जाकर उन्हांेने मुुझे इतनी चपत लगाई कि मैंने फिर कभी में तालाब की ओर से मुड़कर नहीं देखा। आज यह तालाब अपनी वर्तमान स्थिति पर रो रहा है, किन्तु इसका विगत जीवन बड़ा ही सरस, सुमधुर एवं रोमांचक रहा है। एक लंबे, चौड़े हिस्से में फैले इस तालाब से जब सुखती हुुई फसलों के लिए पानी छोड़ा जाता था तब उसे आत्मिक तृप्ति होती थी। छठ के समय जब सैकड़ांे महिलाएँ एक साथ पवित्र भाव से जल में सूर्य को अर्घ देती थीं, उस समय वह धन्य-धन्य हो जाता था। आज इसे अलग-अलग खेत के टुकड़े में विभाजित कर लोगों ने उसके हृदय को विदीर्ण कर दिया है। उसका अस्तित्व एक छोटे हिस्से में सिमट कर रोने पर मजबूर है। अब इस तालाब में मछलियाँ उछलती, कूदती हुई नजर नहीं आती हैैंं और न हीं पवित्र छठ का अर्घ दिया जाता है। 
इसी गाँव में हमारे एक बाबा हैं। वे किसी एक के बाबा नहीं, बल्कि पूरे गाँव के बाबा हैं। गाँव के बच्चे, बूढे़, जवान, स्त्री, पुरुष सभी के बाबा हैं। गाँव क्या शहर, बाजार, जिला, राज्य, जहाँ तक इनकी ख्याति है, आदर से सभी इन्हें बाबा कहते हैं। श्रद्धा और सम्मान से लोग जो कुछ इन्हें मांगते हैं, बाबा के हाथ सदैव उनके लिए खुले रहते हैं। मेरे घर से ठीक पूरब, दो किलोमीटर की दूरी पर, जहाँ से जंगल शुरू होता है, बाबा का वहीं निवास है। बाबा को हाथी, घोड़े बहुत पसंदहैं। इसके विकल्प में लोग मिट्टी से बने हाथी, घोड़े बड़ी श्रद्धा भाव से बाबा को समर्पित करते हैं। बाबा को बकरे की बली भी बहुत भाती है। जल से अभिषेक कराकर, पुष्प, अच्छत, चन्दन तथा घोड़े, हाथी चढ़ाकर बकरे की बली दी जाती है, तब बाबा काफी प्रसन्न हो जाते हैं। बाबा के पुजारी को पाहन कहा जाता है, जो गंझू जाति का होता है। वह व्यक्तिगत तथा कभी-कभी पूरे गांव के लिए बाबा की पूजा करता है, और गाँव की सुख, समृद्धि और शांति की मंगल कामना करता है। जंगल तो अब नाम मात्र का रह गया है, फर्नीचर, घर तथा जलावन के लिए हर साल सारे पेड़ काट लिए जाते हैं। मुझे याद है - बचपन में जब घर से शहर, बाजार जाने के लिए निकलता था, तो सात किलोमीटर की दूरी, इसी घनघोर जंगल के बीच बनी कच्ची सडक से तय करनी पड़ती थी। उस समय गाँव में आज की तरह गाड़ियाँ नहीं चलती थीं। आने-जाने के साधन पैदल या साईकिल थी। अब जंगल के नाम पर रास्ते में कुछ छोटे-छोटे पेड़-पौधें हीं शेष रह गए हैं, लेकिन बाबा का जहाँ निवास है, वहाँ हाल-फिलहाल तक आस-पास कुछ बड़े-बड़े पेड़ मौजूद थे। बाबा के प्रति श्रद्धा भाव या भय के कारण लोग इन पेड़ांे को हाथ नहीं लगाते थे, किन्तु जैसे-जैसे शिक्षा रूपी सभ्यता का रंग लोगों पर चढ़ता गया, धर्म तथा ईश्वर, के प्रति आस्था कमने लगी। लोग जिन बरगद, पीपल, आंवला आदि के पेड़ों की पूजा करते थे, सभ्यता की आंधी ने उन्हें भी धराशायी करवा दिया और देखते ही देखते बाबा के आस-पास प्रहरी के समान डटे दरख्तों को भी नहीं छोड़ा। बाबा की कुटिया अब उजाड़ हो गई है। बाबा ने उन जंगल उजाड़ने वालों को भीे माफ कर दिया। ऐसे उदार विचार वाले तथा पूरे गाँव की रक्षा करने वाले हैं हमारे चट्टनियाँ बाबा।

गाँव से सटे पश्चिम की ओर मेरे घर से करीब तीन किलोमीटर की दूरी पर एक बड़ा बरगद का पेड़ तपती दोपहरी के समय भी अपनी सघन छाया में धमाचौकड़ी करते हुए बच्चों को देखकर बड़ा प्रसन्न होता था। थके हारे राहगीर, मजदूर, चरवाहे जब छाया में थोड़ी देर विश्राम करने के लिए आते थे, तब उन्हें अपनी हरी-हरी पत्तियों से शीतलता प्रदान करने में उसे अद्भुत् आनन्द की प्राप्ति होती थी। उसकी छाया के एक हिस्से में पशु विश्राम करते थे, तो दूसरे हिस्से में बच्चे खेलते थे, बड़े, बूढ़ों की पंचायत लगती थी। उसकी बड़ी-बड़ी डालियों पर अनेक तरह के पक्षी घांेसलें बनाकर चैन की नींद सोते थे, तथा जड़ों की खोड़रों में भी विभिन्न प्रकार के जीव-जन्तु एक दूसरे को आहत किए बिना सुखपूर्वक दिन गुजारते थे। न जाने कब लकड़ी-कोयला के तस्करों की नजर उस पर पड़ गई? और सदा के लिए गाँव के सर से उस पितृ तुल्य अक्षयबट की छाया को उन लोगों ने छीन ली। करीब चौंतीस-पैंतीस सौ वर्गफीट में फैले सैकड़ों पैरों पर खड़े उस विशाल पेड़ को लोगों ने काट दिया। वह साधारण पेड़ नहीं था, वह तो पूरे गाँव के जीवन का प्रतीक था, पशु, पक्षियों का आधार था। मुझे स्मरण में है जब उस विशाल पेड़ को काटा गया था तब उसकी बड़ी-बड़ी शाखाओें पर घोंसले बनाकर या खोड़रों में रहने वाले चील, कौए, तोता, मैना, गिलहरी, साँप आदि सभी वहाँ आकर पेड़ के घोंसले तथा खोड़रों में अपने अंड़े, बच्चों को ढूंढ़ते थे। नहीं मिलने पर उनका करूण-क्रन्दन लगातार कई दिनों तक सुनाई पड़ता था। अब वहाँ न तो चिड़ियों की चहचाहट सुनाई देती है, न मातृत्व-पान कराने के लिए रंभाती हुई गायंे दिखाई देती हैं और न हीं कोटरों से झांकते हुए, फुदकते हुए गिलहरी के बच्चे दिखाई देते हैं।

कल काट दिया गया
मेरे गाँव का आखिरी बरगद
यह बरगद बड़ा था
काफी बूढ़ा था
पता नहीं परिन्दे अब कहाँ
बनायेंगे अपने घोंसले
धूप और बरसात में
कहाँ होगा अब
गाय और बकरियों का बसेरा
अब कभी नसीब नहीं होगी
इस गाँव को बड़े पेड़ की छाया
बगुले और मैने अब कहाँ
डालेंगे अपना डेरा
कौन देगा छाया अब
तपती दोपहरी में
चरवाहों को और स्कूल जाते हुए बच्चों को
बारिश में भींग जायेगी मैना
और लू में झुलस जायेगा कौआ
मैना जो दाना चुगने के लिए
कभी-कभी आती है हमारे घरों में
और फुदकती रहती है हमारे
आस-पास
कौआ जो मुंडेर पर
बैठकर शुभ संदेश सुनाता है
और अतिथियों के आने की
सूचना देता है
सभी लू में झुलसकर
तड़प-तड़प कर अपनी जान दे देंगे
क्योंकि सोने के अंडे
देने वाली मुर्गी के समान
हलाल कर दिया लोगों ने
कल मेरे गांव के
आखिरी उस बरगद को
और उसकी लकड़ियों से
कोयला बनाकर बेच दिया
शहर में।
शहरों की तरह अब हमारे गाँव में भी परिवर्तन दिखने लगा है। यहाँ भी एकल परिवार की प्रथा प्रारंभ हो गई है। संयुक्त परिवार टूटने लगे हैं, घरों के अन्दर एक नया घर बनने लगा है, एक नया चूल्हा जलने लगा है। यह विघटन घर के टूटने तक ही सीमित नहीं है। पहले घर टूटा, परिवार टूटा, जाति टूटी, और अब इस गाँव की सामाजिक समरसता भी टूटने लगी है। पूरे गाँव में एक पारिवारिक माहौल था। ऊँच-नीच, अमीर-गरीब, किसार, मजदूर, स्त्री-पुरुष, लड़के, लड़कियाँ, अपनी-अपनी उम्र के हिसाब से रिश्तों की डोर में बंधे थे। स्वर्गीय खिरू चाचा, जो एक मोची थे, वे मेरे घर में काम करते थे, उनकी एक बेटी ‘रमिया’ जो मुझे भैया कहती थी, और राखी भी बाँधती थी। मैं भी उसे एक छोटी बहन की तरह सम्मान देता था। इस तरह पूरा गाँव रिश्तों के स्नेह सूत्र में बंधा हुआ था। गाँव के इस सौहार्द्र पूर्ण व्यवस्था को असामाजिक तत्त्वों के साथ मिलकर राजनीतिक दलालों ने कभी धर्म के नाम पर, कभी जाति के नाम पर, कभी ऊँच-नीच के नाम पर विध्वंस कर डाला। घर के अन्दर जब एक नई दीवार खड़ी होती है और जब ग्रामीण मर्यादाएँ टूटती हैं, रिश्तों की हत्या की जाती है, समाज में छोटा-बड़ा, ऊँच-नीच का भेद-भाव फैलाया जाता है, तब लगता है गाँव अपनी अस्मिता खो रहा है और तब गाँव की आत्मा रो पड़ती है।

केदार सिंह
विनोबा भावे विश्विद्यालय
हजारीबाग-झारखंड-825 301मो-09431797335
                                                     
ई-मेल:   kedarsngh137@gmail.com                                                              
मुझे स्मरण है कि मेरे गाँव की गति कभी काफी तीव्र थी, लोगों के परिश्रम  से पूरे गाँव में हरियाली ही हरियाली छायी रहती थी, लोग परिश्रम से कभी जी नहीं चुराते थे। किसान-मजदूर सभी अपना दायित्व समझकर काम करते थे। गाँव विहँसता और दौड़ाता था। आज उसी गाँव की जिन्दगी किसी तरह रेंग रही है। केन्द्र तथा राज्य सरकार की विभिन्न योजनाओं के बावजूद यह अशिक्षा, बेरोजगारी तथा अन्धविश्वास से ग्रसित है। इतनी अधिक आबादी वाले गाँव में एक सरकारी अस्पताल तक नहीं है। बिजली के पोल गाड़ दिए गए हैं, पर बिजली नहीं है। खेत हैं पर सिंचाई के साधन नहीं हैं, बेरोजगार नौजवान शराब पीकर या तो ताश खेलते हैं, या बेरोजगारी अथवा उग्रवाद के भय से गाँव को छोड़कर शहर की ओर पलायन कर जाते हैं। गाँव में बच जाते हैं, उम्र से पहले अपनी जवानी गँवा बैठे जर्जर और शिकस्त बूढ़े।

4 टिप्पणियाँ

  1. आपने बहुत ही सुंदर रचना लिखी हैं इसके लिए आपको बहुत बहुत बधाइयाँ और आपने गाँव की दुर्दशा को भी बहुत ही अच्छी तरह से वर्णन किया है।

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