त्रैमासिक ई-पत्रिका 'अपनी माटी' (ISSN 2322-0724 Apni Maati), वर्ष-2, अंक-16, अक्टूबर-दिसंबर, 2014
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छायाकार:ज़ैनुल आबेदीन |
रिटायरमेंट के बाद से
दादा (पिता जी)
हफ्ते-दर-हफ्ते अपने पुराने काग़जात
पढ़ाई के, नौकरी के
लेकर बैठ जाते हैं, और
बूढ़ी आँखों से खोजते रहते हैं,
उनमें न जाने कौन-सी तारीख !
उसी पुलंदी में,
उन्होंने मुड़ी-तुड़ी मेरी चिट्ठियों को
कितना सहेजकर रक्खा हुआ है,
मटमैले पोस्टकार्डों और अंतर्देशीय
से पढ़ लेते हैं, वे हर्फ़, दो हर्फ़
और मूछों पर बिछ जाती है,
न जाने कौन-सी मुस्कान !
फिर,
उसी के बीच से निकालते हैं वे
एक फोटो, जिसमें अम्मा के साथ
हम चार भाई-बहिन हैं।
चश्मा उतारकर वे देखते हैं देर तक
और हौले-हौले उंगलियों से
उसकी धूल साफ करने की,
करते हैं कोशिश
तभी उनकी आँखों में तैर जाती है,
एक खोयी-सी चमक
और लौट आती है,
न जाने कौन-सी रौनक !
फिर, वे धीरे-से निकालते हैं एक लिफाफा
जिसमें उन्होंने आज भी सजा रखी हैं
सौ-सौ की हरी-हरी पाँच पत्तियाँ
जिन्हें जीता था मैंने, एक भाषण प्रतियोगिता में।
लेकिन, उस हील-हुज्जत में हार गया था मैं,
जब दादा ने नहीं करने दिए खर्च, वे रूपए।
उन पाँच पत्तियों को बार-बार
निहारते हुए उनके गालों की झुर्रियों में सिहरन
और कंधों में मजबूती
दिखाई देती है
और फिर देखते हुए मेरी तरफ,
एक विजयी मुस्कान के साथ
रख देते हैं वह लिफाफा।
फिर बंद हो जाती है पोटली
दिन दो-चार या एकाध सप्ताह के लिए ।
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पुरस्कार
मुझे कभी नहीं मिला
कोई पुरस्कार।
सच पूछिए तो
इसका हकदार भी नहीं,
क्योंकि,
न तो मैं, शब्दों की कारीगरी जानता हूँ
और, न ही मुझे आता है, जोड़-तोड़ करना ।
कविता कला नहीं,
मेरे लिए कविता करना
प्रेम करना है, प्रेम पाना है।
और पुरस्कार ?
गाहे-बगाहे रात को
दो बजे, ढाई बजे
जब भी बैठ जाता हूँ, लेकर
कोई नई और ताज़ी कविता
पत्नी; असीम धैर्य से
मेरे कंधे से सिर टिकाए
उनींदे, अनमने मन से
सुनती है मेरी कविता ।
और, तब पाता हूँ मैं,
नरम और ठंडा
लेकिन अगाध विश्वास भरा
एक चुंबन !
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क्या तुम्हें याद है?
क्या तुम्हें याद है,
कोई छन्द
कोई कविता ?
कितने मुहावरे जानते हो ?
कितनी आती हैं लोकोक्तियाँ ?
याद हैं
पर सच कहो
कितने बोलते हो मुहावरे
कितनी उछालते हो लोकोक्तियाँ
और कितनी बार कहते हो
कविता की कोई पंक्ति,
कोई छंद ?
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कविता और जीवन
(1)
कविता और जीवन;
दो शब्द और उनकी अलग-अलग
अर्थ-छवियाँ जरूर हैं,
लेकिन,
दोनों में गहरा, बहुत गहरा
और सहकार का संबंध है।
दोनों में आए तीन-तीन अक्षर
एक ही व्याकरण,
एक ही व्यवहार,
और, एक ही संसार के
कार्य-व्यापार के अपरूप रूप हैं।
(2)
क्विता और जीवन से,
व्युत्पन्न है
कवि और मनुष्य
एक विशिष्ट और दूजा उसका समस्त विस्तार।
मनुष्य और मनुष्यता के बिना
न हो सकता है कवि
और
न उसकी कविता।
(3)
कविता और जीवन
ठीक वैसे ही है जैसे
जौ और चने के आटे से बनी रोटियाँ
जिनसे झरती है, सत्तू की महक।
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ब से बकरी
मैंने बचपन में पढ़ा
ब से बकरी,
ब से बरगद।
ब से बकरी,
जिसे शाम को खेत में
चराना और लौटकर
थन से लगकर दूध पीना
फिर प्राइमरी स्कूल में अव्वल आना।
ब से बरगद;
जिसकी छाँव में बैठकर,
कौवे, गिलहरी
नेवले, गौरैया
की हँसी-ठिठोली और
निरंतर गतिशीलता से सीखा
जीवन का फलसफ़ा।
अब कोई बच्चा
नहीं जानता; बकरी और बरगद।
उसने तो सीखा है
ब से बंदूक
और, जाना है,
ब से बाज़ार।
रविकांत
सहायक प्रोफेसर,हिंदी विभाग
लखनऊ विश्वविद्यालय,
पता- 24, मिलिनी पार्क,
लखनऊ विश्वविद्यालय परिसर,
लखनऊ - 226007
संपर्क मो-9451945847,
ई-मेल:rush2ravikant@gmail.com
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