समीक्षा:पाठकों को जोड़ती कहानियां/ प्रदीप श्रीवास्तव

त्रैमासिक ई-पत्रिका 'अपनी माटी(ISSN 2322-0724 Apni Maati)वर्ष-2, अंक-17, जनवरी-मार्च, 2015
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चित्रांकन: राजेश पाण्डेय, उदयपुर 
साहित्य से पाठक दूर होता जा रहा है। बड़ी चिंता व्यक्त की जाती है इस बिंदु पर। बड़ी-बड़ी बहस होती है। कभी कहा जाता है कि आज हिंदी साहित्य जनमानस को भूल गया है। जन से कट गया है। इसीलिए पाठक को अपने साथ जोड़ नहीं पा रहा है। और ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि आज बाज़ारवाद का दौर है, लेखक इस बाज़ारवाद में गहरे डूबा है, वह जनमानस को नहीं बाज़ार को ध्यान में रख कर लिख रहा है। बात यह भी होती है कि बहुत सा लेखन आलोचकों को ध्यान में रखकर हो रहा है। मतलब कि साहित्यकार हैं, साहित्य है लेकिन उनमें जनमानस और उसकी दुनिया उपेक्षित है। ऐसे में इस बात से कैसे इंकार किया जा सकता है कि हम आज नकली साहित्य के दौर से भी गुजर रहे हैं। तो जब नकली साहित्य ज़्यादा है तो वह कहां से इतना सक्षम हो जाएगा कि पाठकों को स्वयं से जोड़ सके। 

ऐसा साहित्य बाजार के साथ अवैध गठजोड़ करके क्षणिक चर्चा, बिक्री में भले ही सफल हो जाए लेकिन उसका जीवन पानी के बुलबुलों से ज़्यादा हो ही नहीं सकता। यहां यह बात बिल्कुल साफ कर दूं कि बाज़ार कहीं से भी गलत नहीं है। बाज़ार पाठक और साहित्य के बीच एक सेतु की तरह है। लेकिन बाज़ारवाद हर दृष्टि से गलत है। वह पाठक और साहित्य के मध्य खलनायक की तरह है। क्योंकि वह लेखक को जनमानस के बारे में सोचने, उसकी हंसी-खुशी, दुख-दर्द, आंसू, पसीने, समस्याओं को जानने-समझने का प्रयास ही नहीं करने देता। वह उसे बाज़ारवाद में सबसे आगे निकल जाने के शॉर्टकट ढूंढ़ने में लगा देता है। इस बात से हम कतई मुंह नहीं मोड़ सकते कि असली यानी जनमानस से जुड़ा साहित्य ही पाठकों के बीच पैठ बना सकता है। दीर्घजीवी या कालजयी हो सकता है। प्रेमचंद का साहित्य आज भी पाठकों के हृदय में बैठा है, बिक रहा है तो इसीलिए कि वह जनमानस के बीच में ही जन्मा-पला बढ़ा और अपने परिवेश की ही बात करता है। क्या यह बात गलत है कि प्रेमचंद की राह छोड़ कर हमने बाज़ारवाद की जो राह अपनाई उसी ने सारा बेड़ा गर्क किया है। यह तथ्य भी हमारे सामने है कि आज इस विकट बाज़ारवाद में भी जो लेखक जनमानस के साथ अपने को जोड़ कर लिख रहे हैं वही स्थाई प्रभाव छोड़ पा रहे हैं। भले ही धीरे-धीरे सही वे अपनी एक स्थाई जगह बना रहे हैं। उनका साहित्य माहजयी, सालजयी नहीं कालजयी होने की भी तमाम संभावनाएं समेटे हुए है। इसीलिए विख्यात आलोचक मैनेजर पांडेय यह मानते हैं कि हिंदी कथा साहित्य प्रेमचंद की कथा परंपरा को भूला नहीं है। 

समीक्ष्य पुस्तक
‘तीसरा कंबल’ व अन्य कहानियां’
लेखक: महेंद्र भीष्म
प्रकाशक: सुलभ प्रकाशन
लखनऊ-226024
उपर्युक्त बातों के आलोक में ही कथाकार महेंद्र भीष्म के कथा संग्रह ‘तीसरा कंबल व अन्य कहानियां’ की बात करते हैं। इस कहानी संग्रह से पहले आए उनके कई और कहानी संग्रह भी पाठकों के बीच अपना प्रभाव छोड़ने में सफल रहे हैं। उनके कई संस्करण कम ही समय में आ गए थे। एक कहानी पर टेलीफ़िल्म बन चुकी है। समीक्ष्य संग्रह की ‘तीसरा कंबल’ कहानी का नाट्य रुपांतरण एवं मंचन भी हो चुका है। संग्रह में अठारह छोटी-बड़ी कहानियां हैं जिनमें से कई बहुत प्रभावशाली हैं। इसकी मुख्य वजह यह है कि सभी सीधे जनमानस के साथ जुड़ी हैं। सीधे उन्हीं के बीच से निकली हैं। ये कहानियां कल्पना लोक की कोरी ख्याली उड़ान नहीं हैं। इनमें मानव जीवन के विभिन्न पहलुओं के स्याह-सफेद दोनों ही पक्ष अपने समग्र रूप में उपस्थित हैं। मानव जीवन की खुशियां हैं, दुख है, दर्द है, आंसू हैं, कहीं निराशा है, हताश हो टूट जाने की कथा है, तो कहीं लड़खड़ा कर फिर खड़े होने और विश्वास के साथ दृढ़ता से बढ़ते जाने की कथा है। संग्रह की पहली कहानी ‘स्त्री’ के साथ-साथ ‘नसीबन’, ‘एक नग नारी’, ‘एक था चित्रांशी’ कहानियां शराबखोरी-नशाखोरी के चलते टूटते तबाह होते जीवन, परिवारों की कहानियां हैं। बात को और आगे बढ़़ाने से पहले महेंद्र के लेखन के विषय में यह कहना ज़्यादा जरूरी है कि वह गांव को भी उतना ही जानते-समझते-जीते हैं जितना शहर को। संग्रह की इन कहानियों में यह सब साफ-साफ दिखता है। पहली कहानी ‘स्त्री’ में पुरुषवादी सोच और शराब की दुनिया में छटपटाती स्त्री समाज का बड़ा ही मार्मिक चित्रण है। मध्य वर्ग हो या निम्न वर्ग दोनों ही जगह इस बिंदु पर महिला एक ही पीड़ा से त्रस्त है। 

निम्न वर्ग की महिला कुसुमा शराबी पति की प्रताड़ना, उसके विवाहेतर संबंध, हाड़तोड़ मेहनत और सास द्वारा एक महिला होकर भी अपने बेटे का एकतरफा पक्ष लेने के कारण पति-ससुराल के प्रति नफरत से भर उठती है। वह बड़े आहत मन से जो संदेश भेजती है मां को उसमें विद्रोह की चिंगारियां साफ दिखती हैं। बुंदेली प्रभाव वाली टूटी-फूटी हिंदी में लिखी उसकी यह लाइन भावुक कर देती है कि ‘जोन पांव पूजे हते तुमने मड़वा के तरें, उनई पावन से आज मोरे अंग अंग सूजे हैं।’ लेखन कौशल का यह खूबसूरत उदाहरण है। चंद शब्दों में ही ससुराल में दयनीय स्थिति को झेल रही महिला का पूरा चित्र प्रस्तुत कर दिया। कुसुमा के हृदय में अपने ऊपर हो रहे अत्याचारों के विरोध में उत्पन्न चिंगारियां मां के न रहने पर मायके पहुंचकर ज्वाला बन फूट पड़ती हैं। वह पति को त्यागने का अटूट निर्णय लेने के साथ-साथ अपना प्रतिरोध भी दर्ज कराती है। एक अबला नारी का चोला उतार वापस लेने आए पति को न सिर्फ़ सदैव के लिए ठुकराती है बल्कि क्रोध दर्ज कराती हुई कहती है कि ‘तेरी चौखट पर आऊंगी जरूर...., पर चूड़ियां फोड़ने, जब तू मरेगा।’ उसकी यह बातें मालिक-मालकिन को भी हतप्रभ कर देती हैं। अपने बलबूते ही अपना जीवन जिएगी फिर शादी न करेगी, पुरुष संग की नैसर्गिक जरूरत को भी अपने हिसाब से पूरा करेगी क्योंकि अब वह कौन किसी के बंधन में है, जैसी उसकी बातें, पढ़े लिखे मध्यवर्गीय दंपति को चकित कर देती हैं। 

वैवाहिक संस्था से विमोह के साथ नैतिकता की  नई परिभाषा गढ़ती कुसुमा पढ़ी-लिखी ख्याति प्राप्त लेखिका मालकिन को भी अपनी हालत पर सोचने को विवश करती है कि कुसुमा और उसकी स्थिति में फर्क क्या है? उसका पति भी नशे में उसकी वही हालत करता है जो कुसुमा के साथ उसका पति करता है। वो कब मेरी इच्छाओं-भावनाओं का ख्याल रखता है। नशे में चरित्रहीन साबित करने में कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखता। वह नारी विमर्श पर कितनी बड़ी-बड़ी बातें लिखती है, लेकिन क्या वह कुसुमा की तरह साहसी हो सकती है? उसकी ही तरह स्वयं पर हो रहे अत्याचार के खिलाफ प्रतिरोध दर्ज करा सकती है? वास्तव में यह कहानी एक साथ शराब के कारण तबाह होती जिंदगियों, टूटते परिवारों और अपने अधिकारों के लिए बराबर संघर्ष हेतु कटिबद्ध होती आधी दुनिया की कहानी है। 

‘नसीबन’ कहानी की नसीबन किस्मत की मार खाते-खाते अपना अनुपम सौंदर्य असमय ही खो देती है, लेकिन टूटती नहीं है। पिता के गुजरने, नशेड़ी भाई और पति की असमय मौत के बाद वह अपने बच्चों का पालन-पोषण मेहनत-मजदूरी करके करती है, लेकिन अपना सम्मान गिरवी नहीं रखती। नायक की मां उसका गुणगान करती हुई कहती है ‘बेटा! रोजी-रोटी के संघर्ष में लगी जवान-जहान सुंदर रंगरूप की विधवा का समाज मंे सुरक्षित रह पाना दूभर हो जाता है। इज्ज़त बची भी रह जाए पर लोगों के मुंह कौन सी सकता है, जो मन में आया सांची झूठी बोला दिया, ....जीभ है जब चाही, उठा के दे मारी.......नसीबन चाल-चलन की तनकऊ खराब नइय्या।’ वहीं नसीबन की भाभी के बारे में बताती है कि वह तो आदमी के मरते ही....दूसरे के साथ भाग गई और आज शहर में ऐशो आराम के साथ रह रही है।

नायक के मन में यहीं यह प्रश्न खड़े होते हैं कि नसीबन की तरह वैधव्य जीवन के साथ चिपके हुए जीवन काट देने का औचित्य क्या है? जीवन में आए अंधेरे को दूर करने के लिए क्या यह सही नहीं कि नई उमंग उत्साह के साथ आगे बढ़ा जाए। नसीबन का फैसला उचित या उसकी भाभी का। नायक इसी पर चिंतन-मनन करते हुए जीवन में जड़वादी सोच से परे उजाले की ओर बढ़ने की राह देखना चाहता है। यह कहानी लेखक के गांव, ग्रामीण समाज के बारे में उसकी गहरी समझ, जानकारी को मज़बूती से रेखांकित करती है। इसे पढ़कर लगता है कि गांव जैसे उसकी रग-रग में बसता है। वह उसे ही जीता है। गांव में हुई हल्की जुंबिश भी उसमें हलचल पैदा कर देती है। गांव के कस्बे में तब्दील होते जाने का उसे अहसास है। रजवाड़ों के एक-एक कर विलुप्त होते अवशेषों, बागों, खेतों को लीलते कंक्रीट के जंगल गांव में गंवईपन के अवशेष उसे बचपन के दिन, तब के गांव की याद दिलाते हैं। 

यह कहानी पढ़ कर यह कहना मुश्किल होगा कि आज के कथाकार गांवों को भूल गए हैं। महेंद्र भीष्म की यह कहानियां कहीं न कहीं घटी घटनाएं हैं जो कहानी रूप में कही गई हैं। इसलिए पाठक पर पूरा प्रभाव डालती हैं। ‘मात’ कहानी शायद ही कोई गांव हो जहां उसका अंश न मिले। जो लोग गांव से निकल शहरों को चले गए हैं वह जब मिलते हैं वापस कभी गांव में अपने लोगों, दोस्तों से तो भावनाएं आज भी छलक ही पड़ती हैं। इस कहानी का एक पात्र दूसरे पात्र के गांव आने पर जिस उछाह के साथ उससे मिलता-जुलता है, खाना खिलाता है। काम के पैसे भी नहीं लेता ऐसे भावनात्मक लगाव अभी भी गांवों में हैं। वहीं दूसरी तरफ संवेदनहीनता की पराकाष्ठा दिखाती है शहर में घटी कहानी ‘स्टोरी’। यह मीडिया कर्मियों की सनसनीखेज स्टोरी के लिए हद से नीचे गिर जाने की कहानी है। व्यक्ति थोड़ी सी मदद से बच सकता है लेकिन स्टोरी के भूखे मीडिया कर्मी इंतजार करते हैं कि वह मरे तो स्टोरी बने। ठीक वैसे ही जैसे ‘लाश के वास्ते’ लिखी गाड़ियों के कर्मी इंतजार करते हैं कि लोग मरें तो उनका कारोबार चले। 

शहरों में संवेदनहीनता, पत्थर होते हृदयों के दृश्य ‘कबरीका’, ‘तौबा-तौबा’, ‘एक था चित्रांशी’ जैसी कहानियों में बहुत ही मार्मिक हैं। ‘वैष्णव’ कहानी जैसे उम्मीद जगाती हुई बीच में आती है कि संवेदनशीलता, मानवता का कुंआ अभी पूरी तरह सूखा नहीं है। जहां लोग घायलों को सड़क पर छोड़ आगे बढ़ जाते हैं, वहीं एक डॉक्टर घायल को हॉस्पिटल लाकर उसका इलाज भी करता है। यह मालूम होने के बाद भी जी-जान से लगा रहता है कि यह तो उसे ही मारने आया था। यह ठेकेदारी, टेंडर की दुनिया से भी रूबरू कराती है।

महेंद्र भीष्म का अनुभव उनकी जानकारियां ऐसी हैं, इतनी हैं कि वह उनसे विभिन्न मुद्दों पर विभिन्न तरह की कहानियां लिखवाती जाती हैं। एक तरफ जहां ‘निखट्टू’ और ‘सो जा बारे वीर’ जैसी कहानी हैं जो बाल मन के मनोविज्ञान का खाका खींचती, अभिभावकों से जैसे आग्रह करती हैं कि उनकी परवरिश के क्रम में उनके मन को ज़्यादा से ज़्यादा पढ़ा समझा जाए वहीं ‘मुख़बिर’ जैसी कहानी चंबल के बीहड़ों में समय-समय पर राज करने वाले डकैतों की दुनिया में ले जाती है। मुख़बिर किस तरह पुलिस-डकैतों के बीच काम करते हैं और उनका क्या हश्र होता है। इसका बड़ा जीवंत चित्रण है कहानी में। ‘क्या कहें’ कहानी मां-बच्चे के हमेशा के लिए बिछुड़ने की ऐसी मर्मांतक कहानी है कि पाषाण हृदय भी पसीज जाए। एक शराबी भाई अपने शराब के लिए अंधा हो न सिर्फ़ अपनी विधवा बहन पर देवर से रिश्ता जोड़ लांछन लगाता है बल्कि दुगुने उम्र के व्यक्ति से ब्याह कर देता है। उसकी साजिश के आगे सब बेबस हो जाते हैं। वह निरीह प्राणी सी बहन को एक से दूसरे खूंटे में बांध देता है। और बच्चा मां के होते हुए भी अनाथ हो जाता है। चाचा उसे अपना प्यार देता है। मां-बच्चे के एक होने का जब कोई रास्ता नहीं रहा तो वह दोनों को आखिरी बार मिलाने का जुगाड़ करता है। जहां मां बेटे के आखिरी बार मिलने और बिछुड़ने का दृश्य खींचा है कहानीकार ने वो हृदय को छील देने वाला है। तड़फड़ाती मां देवर से कहती है ‘लाला! अब कबहूं न लाइयो जीतू हां......मौसे मिलाउन, मैं न सह पेहों लाला!...इतनी पीरा...इतनो दरद...ठीक से राखियो मोरे मोड़ा हां.... औ मोरी मताई कैसे जिय अब हम..... जीतू के बिना...मैं जी न पैहों लाला....करेजो फटो जात मोरो ओ मोरो बेटा रे....।’ अपने कलेजे के टुकड़े से बिछुड़ना सह न पाई मां और बेसुध हो गिर जाती है।

प्रदीप श्रीवास्तव
ई-मेल:pradeepsrivastava.70@gmail.com
मो-
09919002096
‘मां, अब कभी वापस नहीं आएंगी’, ‘छुटकारा’, ‘वीरेंद्र’, ‘दफा-376’ जैसी मानवीय संवेदनाओं की गाढ़ी लकीर खींचने वाली कहानियों के साथ शीर्षक कहानी ‘तीसरा कंबल’ देश की उस व्यवस्था पर करारा तमाचा है जो आजादी के 6 दशक बाद भी आखिरी व्यक्ति तक रोटी कपड़ा, मकान, सुनिश्चित नहीं कर पाई। यह घटनाएं मंगल ग्रह तक पहुंचने वाले देश के कर्णधारों को मुंह चिढ़ाती हैं कि भूख, सर्दी, बिना कपड़ों, बिना मकान के लोगों की मौत होती है। महेंद्र की कहानियों में समाज के यथार्थ का स्याह पक्ष ज़्यादा मुखर रहता है। शायद इसीलिए अधिकांश कहानियों में पात्र हंसते-खिलखिलाते, सुख-सुविधाओं में डूबे यदाकदा ही नजर आते हैं। इसकी वजह यह हो सकती है कि यह निम्न व मध्य वर्ग से ही ज़्यादा जुड़ी हुई हैं। और यह वर्ग अपनी समस्याओं से जैसे हमेशा दो चार होते रहते हैं वैसे ही इन कहानियों के पात्र भी। सादगी पूर्ण शैली, आमजन की भाषा और लघु रूप वाली यह कहानियां बहुत कम में ही बहुत कुछ कह डालती हैं। पूरा संग्रह एक ही बैठक में वैसे ही पूरा पढ़ा जा सकता है जैसे हाल ही में नोबेल पुरस्कार पाने वाले पैट्रिक मोदियानों की पुस्तकें या उपन्यास।9’                      

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