त्रैमासिक ई-पत्रिका
अपनी माटी
(ISSN 2322-0724 Apni Maati)
वर्ष-4,अंक-25 (अप्रैल-सितम्बर,2017)
कविताएँ/बहादुर पटेल
सवाल
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इन जुवार के
दानों को देखो
किसान के पसीने
की बूँदों से बने हैं ये
पसीना शरीर की
भट्टी में तपकर धरता है यह रूप
दरअसल उसके
पसीने की हर बूँद
स्वाति नक्षत्र
की होती है
जो गिरती है बीज
की सीपी में
देखो इनको वह
अकेला नहीं खाता
जीव- जंतु और पंछियों
को देता है उनका हिस्सा
कुछ अपने परिवार
के लिए
कुछ रखता है बीज
के लिए
बचा हुआ सब हमें
लौटा देता है
अब वो क्या क्या
जाने
जमाखोरी
उसे नहीं पता
सरकार के गोदाम में
कितना सड़ जाता
है हर साल
और कितने लोग मर
जाते हैं भूख से
वो तो इतना
जानता है
कि कर्ज से दब
जायेगा
तो क्या बोयेगा
इस धरती की कोख में
हम सबकी भूख वह
देख नहीं सकता
और उसकी आखिरी
नियति
हम सब जानते ही
हैं
यह सब सनद रहे
आने वाली पीढ़ी
पूछेगी हमसे सवाल ।
टापरी
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वो देखो वहाँ
कभी हुआ करती
ठीक कुएँ के बगल
में टापरी
तब दादा भी हुआ
करते
बनाई भी
उन्होंने ही थी
अपनी मेहनत के
मोतियों से
इकट्ठा किया था
उन्होंने
ईंट, गारा और चूना
जिससे खड़ी की
थीं चारों ओर दीवारें
सुरक्षा का एक
घेरा बनाया था
बिछा दी थीं
दीवारों पर
कुछ सीमेंट की
चादरें
नीचे से
बल्लियों के टेकों पर
बहिन कमली अक्सर
लीप दिया करती
पीली मिट्टी और
गोबर से
कैसा दिपदिपाता
था अन्दर
सोने-सा
धूप के कुछ पहिए
मंडराते थे वहाँ
दिन में कुछ ढूंढ़ते से
और रात में
चांदनी
अपने करतब
दिखाती
अमावस की रात जब
भारी पड़ती
तो गुलुप जलता
या फिर किरासिन
की चिमनी
ही होती आँखों
का सहारा
यह तब की बात है
जब कुएँ में हुआ
करता था
लबालब सागर-सा
पानी
दादा अक्सर
क़िस्सा सुनाते
कि कैसे जब चड़स
में बैलों को जोतकर
निकला जाता पानी
कैसे सोते फूट
पड़ते
कल-कल संगीत के
साथ
बैलों की कांसट
करती उनकी संगत
यह कैसी कहानी
थी
जिसमे कविता का
वास था
संगीत का वास था
फिर कैशा हलवाहा
अपनी
तान छेड़ता तो
नहा जाती हवाएँ
बहा ले जातीं
दूर तक मिठास
कैशा तब भी गाता
था जब
पहली बार बिजली
से पानी निकाला गया
फिर वाह गाने को
क़िस्से में
बदलने लगा
ऐसे किस्से
सुनाता कि कुएँ के
सोते धार-धार
रोते से लगते
इसे हम दूर से
टापरी कहते
और यदि होते पास
तो खोली
गाँव से दूर खेत
पर थी यह
ऐसी कई टापरियां
थीं
कई-कई खेतों पर
सबका मिज़ाज
होता अलग-अलग
सबकी अलग-अलग थी
गंध
सबका अलग-अलग था
संसार
इनका उपयोग ऐसा
कि
जैसे ख़ाली पेट
को खाना
प्यासे को पानी
मदन, मंशाराम, दादा, दादी
माँ, पिता और हम भाई-बहन कर रहे होते
खेतों में काम
तो बार-बार हर
छोटे-मोटे काम के लिए
गाँव के घर न
जाने की सुविधा
थी यह टापरी
काम करते तो
सुस्ताते इसी में
थकान को धोते
इसी की छाया से
मौसम की मार में
हमेशा तैयार
गर्मी में देती
ठंडक
बारिश में छिपा
लेती हमें
ठण्ड में रजाई
सी होती गरम
हर मर्ज़ की दवा
सो तालों की एक
चाबी
गाँव के घर की
उपशाखा
जिसमे कुछ ख़ास
चीज़ों को छोड़कर
था सबकुछ
जैसे एक लकड़ी
का संदूक
जिसमें फुटबॉल, पाइप पर लगाने के क्लिप,
स्टार्टर की
पुरानी रीलें, बिरंजी, नट-बोल्ट,
कुछ पाने, पिंचिस, पेंचकस, टेस्टर,
बिजली के तार, फेस बाँधने का वायर,
सुतलियाँ, नरेटी, सूत के दोड़ले
और साइकिल के
पुराने ट्यूब इत्यादि
ये सारे ब्यौरे
किसी न किसी काम से नस्ती थे
यह एक ऐसा
कबाड़खाना था कि
इससे बाहर कोई
काम नहीं था
या कि किसी काम
के लिए इसके
अलावा किसी
विकल्प की ज़रूरत नहीं
कोने में पड़ी
रहती खटिया
जिस पर दिन में
एक तरफ़ ओंटा
हुआ चिथड़ा
बिस्तर
जो रात में काम
आता
रखवाली के समय
ठण्ड के दिनों
में
पाणत करते तो
इसी में दुबक जाते
खटिया के नीचे
था रहस्यमय संसार
ख़ाली बोरे, खाद की थेलियों के बंडल,
कुछ पल्लियाँ
जब अनाज पैदा
होता तो
इन्हीं में
बरसता
सब्जियां मंडी
जातीं तो इन्हीं में
इनके सहयोगी
होते
कुछ टोकनियाँ, छबलिये
और बड़े डाले, गेंती, फावड़े, कुल्हाड़ी
दरांते, सांग, खुरपियाँ
कितना कुछ था इस
टापरी के भीतर
खेती किसानी का
पूरा टूल-बॉक्स
यही नहीं इसके
पिछवाड़े
बल्लियाँ, बाँस, हल, बक्खर, डवरे,
जूड़ा पड़े रहते
छाँव में पड़ी
होती पुरानी साइकिल
हाँ यहीं तो था
यह सबकुछ
कैसे स्मृति में
रपाटे मारती हैं सारी चीजें
कहाँ गया यह सब
देखो भाई
यह खोड़ली सड़क
जब से यहाँ से
निकली है
सबकुछ खा गई यह
डाकिन
यह देखो अपने
साथ
कैसा विकास का
पहिया लेकर आई
कुचल दिया सबकुछ
यह पेट्रोल पंप
वह चौपाल सागर
ये बड़ी-बड़ी
मशीनों से भरी फैक्ट्रियाँ
बड़ा भयावह
दृश्य है यह
बाज़ार और पूँजी
के पंजों को देखो
अदृश्य हैं ये
इनके वार ने खोद
दी है
ऐसी कई टापरियों
की जड़ें
एक सागर में
तब्दील होता जा रहा है
सारा मंजर
जिसमें डूबता जा
रहा है सबकुछ।
बहादुर पटेल
(प्रकाशन: हिंदी
की अधिकांश प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित । उर्दू, मलयालम, नेपाली में कविताओं का अनुवाद । कविता संग्रह 'बूंदों के बीच प्यास' और 'सारा नमक वहीं
से आता है' प्रकाशित । पुरस्कार: सूत्र
सम्मान 2015, राजस्थान पत्रिका कविता सर्जनात्मक पुरस्कार 2015, वागीश्वरी पुरस्कार 2015)
सम्पर्क: 12-13, मार्तंड बाग़, तारानी कॉलोनी, देवास ।(म.प्र.) 455001
ई-मेल: bahadur.patel@gmail.com
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