धरोहर : भगत सिंह का पत्र दुर्गा भाभी के नाम

धरोहर : भगत सिंह का पत्र दुर्गा भाभी के नाम


(अमर शहीद भगत सिंह ने फांसी के एक दिन पूर्व 22 मार्च 1931 को जेल से दुर्गा भाभी को पत्र लिखा जो कई अर्थों में बेहद महत्वपूर्ण है। आसन्न मृत्यु की बेला ने भगत सिंह के विचारों को घनीभूत तो किया ही होगा, साथ ही वे एक ऐसी आत्मीय साथी से संबोधित हो रहे थे जो साहस और उत्सर्ग में किसी अन्य क्रांतिकारी साथी से उन्नीस नहीं थीं। दुर्गा भाभी भगवती चरण वोहरा की पत्नी थी जो क्रांतिकारी संगठनमें साथ -साथ सक्रिय थी। निश्चय ही शहीद के लिए यह उल्कापात की तरह भागते अपने अल्प-जीवन को समेटना भी रहा होगा और साथ ही निस्सीम अंतरिक्ष के विस्तार की तरह सामने फैले भविष्य पर क्रान्ति के सपनों को टांकने की चाहत का बयान भी। तभी इस पत्र में भगत सिंह ने प्रायः सब कुछ समेट लिया : मनुष्य के वर्तमान से क्रान्ति के भविष्य तक को ! एक सम्पूर्ण क्रांतिकारी के तमाम लोकतांत्रिक आयामों को जैसे इस एक पत्र में ही जगह मिल गई हो।)

  प्रिय दुर्गा भाभी

 आपसे इधर भेंट नहीं हुई। आज आपकी बहुत याद आयी। सरकार ने हम लोगों का मृत्युदंड बरकरार रखा है। 23 मार्च की तारीख मुकर्रर है। सबसे खतोकिताबत करली है। यह आपके नाम आखरी पत्र है।

देशभक्ति के लिए फांसी सर्वोच्च पुरस्कार है और इस पुरस्कार को पाने का मुझे गौरव प्राप्त हुआ है। अंग्रेजी सरकार सोचती है कि मेरे पार्थिव शरीर को नष्ट करके वह सुरक्षित रह जाएगी लेकिन यह उसका भ्रम है। सरकार मेरे शरीर को कुचल सकती है पर मेरे विचारों को नहीं मार सकती। हमारी आवाज को कुचलने के लिए एसेम्बली में सरकार ने पब्लिक सेफ्टी बिल तथा ट्रेड डिस्प्यूट्स बिल लाए। अपने विरोध को जताने के लिए ही हमने वहां बम फेंके थे। बम फेंकने में हमारी मंशा किसी को मारने की नहीं थी। बमों की आवाज दूर-दूर तक चली गई और उसके साथ पैम्पलेट में दिए विचारों की गूंज थी। अदालत औरएसेम्बली को हमने अपना मंच बनाया और उस मंच से अपने विचारों को लोगों तक पहुंचाया। सरकार तूल दे रही थी कि हत्या के लिए बम फेंके गए थे। अगर ऐसी बात रहती तो हम उन्हें खाली जगह पर क्यों फेंकते ? क्यों नहीं अफसर दीर्घा पर फेंकते जहां पर सर साइमन बैठे थे? उस एसेम्बली में पंडित मोतीलाल नेहरू, श्री जयकर और श्री जिन्ना जैसे राष्ट्रीय ख्याति के लोग भी बैठे थे। इन नेताओं के जीवन को खतरे में कैसे डाल सकते थे?

 भाभी, हिंसा को गलत अर्थ में प्रयोग कर कुछ लोगों ने क्रांतिकारियों के संघर्ष को कमजोर करने की कोशिश की। हम क्रांतिकारी मानव जीवन का आदर करते हैं। हम साम्राज्यवाद की भाड़े के सैनिक नहीं जिनका काम ही नर-हत्या करना होता है। तमाम अन्याय और अत्याचार को बहरी सरकार तक ले जाना था – ‘बहरों को सुनाने के लिए बहुत ऊंची आवाज की जरूरत होती है।’

 उन लोगों ने ताकत के इस्तेमाल को ही हिंसा का नाम दे डाला। जोर-जुल्म का काम हिंसा है पर उसके प्रतिरोध के लिए ताकत का प्रयोग हिंसा नहीं है। रावण जोर-जबर्दस्ती से सीता को चुरा ले गया तो वह आतंक और हिंसा का काम हुआ लेकिन जब राम ने सीता को छुड़ाने के लिए रावण का वध कर दिया तो वह न तो आतंक है और न ही हिंसा। नेक कार्य के लिए बल प्रयोग उचित है पर अगर अपने व्यक्तिगत स्वार्थ या अत्याचार के लिए उसे अपनाया जाए तो वह हिंसा है। दुनिया के सारे देश शस्त्रधारी हैं। वे अपने हथियारों की ताकत बढ़ाने जा रहे हैं। और इधर हमारा भारतवर्ष है जहां के लोगों के लिए शस्त्र पकड़ना पाप समझा जाता है।

 हमारे पूर्वजों ने जिस ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की बात की थी उसका अर्थ सारे संसार में समानता का है। यह समानता और कुछ नहीं ‘समाजवाद’ है। हमारी लड़ाई सिर्फ राजनीतिक आजादी की लड़ाई नहीं है। बल्कि यह लड़ाई सामाजिक और आर्थिक समानता की भी लड़ाई है। सामाजिक और आर्थिक आजादी के बिना राजनीतिक लड़ाई अधूरी है।

मार्क्सवाद पर कुछ किताबें यूं ही पड़ी रह गईं। अफसोस मैं उन्हें पढ़ न सका और फिर कभी न पढ़ पाउंगा। मार्क्सवादी लिटरेचर में आपकी गहरी रूचि है। लेनिन पर भी कुछ बेहतरीन पुस्तकें हैं। आप उन्हें पढ़ेंगी और अन्य क्रांतिकारियों में भी इन विचारों के प्रति रूचि जगाएंगी। भारत जैसे गरीब देश में समाजवाद की नितांत आवश्यकता है। जेल में कुछ किताबें लिखी हैं और कुमारी लज्जावती जी को भेज दी हैं। कुलबीर सिंह को दी किताबें मेरे विचारों की वाहक हैं और मैं चाहता हूँ कि मेरे विचार लोगों तक जाएं।

 आदमी आता है जाता है पर संस्था बनी रहती है। एसोसिएशन का काम कदापि शिथिल नहीं होना चाहिए। ब्रिटिश सरकार से हमारी लड़ाई तब तक रहेगी जब तक भारत माता की बेड़ियाँ कट न जाएं और समाजवादी सरकार की स्थापना न हो जाय। उन्हीं नए सदस्यों को प्रवेश मिले जो निडर, कतर्व्यनिष्ठ तथा राष्ट्रप्रेमी हों। जांचे और परखे लोग ही सदस्य हों, वे जो धर्मनिरपेक्षता के काम में बाधाएं न उपस्थित करते हैं। एक घटना याद आती है जिसको चर्चा यहाँ कर देना चाहता हूँ।

 11 अप्रैल, 1928 में  अमृतसर में एक राजनीतिक कान्फ्रेंस हुई थी जिसकी अध्यक्षता जवाहरलाल नेहरू कर रहे थे। विषय समिति की एक बैठक में मौलाना जफर अली के 5-7 बार खुदा,खुदा कहने पर नेहरू ने टोका- मंच पर खुदा-खुदा न कहें, आप धर्म के मिशनरी हैं तो मैं धर्मनिरपेक्षता का प्रचारक हूँ।

 भाभी, आप तो जानती हैं कि क्रांतिकारी गतिविधियों में हम लोगों ने धर्म को अलग ही रखा क्योंकि धर्म से संकीर्णताएं बढ़ती हैं और क्रांति के मार्ग पर रुकावटें आने लगती हैं। भाई  अमर सिंह ने एक बार नेक सलाह दी थी कि धर्म के सवाल को छेड़ा न जाय। अगर कोई धर्म सुख-शांति में कोई विघ्न न डाले तो किसी को भी उसके विरुद्ध आवाज उठाने की क्या जरूरत हो सकती है ? लेकिन राष्ट्रवादी और स्वतंत्रता प्रेमी इसकी असलियत जान गए हैं और इसे अपने रास्ते का रोड़ा समझने लगे हैं। पंडित अपने को सबसे श्रेष्ठ कहता है और अंत्यजों से स्पर्श होना पाप समझता है, मंदिर में उन्हें प्रवेश नहीं करने देता। कितनी शर्म की बात है कि कुत्ता हमारी गोद में बैठ सकता है, रसोई घर में जाता है लेकिन एक इंसान का हमसे स्पर्श हो जाय तो बस धर्म भ्रष्ट हो जाता है।जो निम्नवत काम करके हमारी लिए सुविधाएं उपलब्ध कराते हैं, उन्हें ही हम दुरदुराते हैं। पशुओं की हम पूजा कर सकते हैं पर इंसान को पास नहीं बैठा सकते।

 सवाल उठता है कि इस समस्या का सही निदान क्या हो ? सबसे पहले यह निर्णय कर लेना चाहिए कि सब इंसान समान हैं। न तो जन्म से कोई भिन्न पैदा हुआ और न कार्य विभाजन से। क्योंकि एक आदमी गरीब मेहतर के यहाँ पैदा हो गया, इसलिए जीवनभर मैला साफ करेगा और उसे दुनिया में किसी तरह का विकास का काम पाने का कोई हक नहीं, ये बातें फिजूल हैं। इस तरह हमारे पूर्वज आर्यों ने इनके साथ ऐसा अन्यायपूर्ण व्यवहार किया तथा उन्हें नीच कहकर दुत्कार दिया और उनसे निम्न कोटि के कार्य करवाने लगे। साथ ही यह भी चिंता हुई कि कहीं ये विद्रोह न कर दें, तब पुनर्जन्म के दर्शन फल हैं। अब क्या हो सकता है ? चुपचाप दिन गुजारो। इन सिद्धांतवादियों ने बड़ा पाप किया। मानव के भीतर मानवीयता को समाप्त कर दिया। आत्मविश्वास और स्वावलंबन की भावनाओं को समाप्त कर दिया। बहुत दमन और अन्याय किया गया। अक्सर कहा जाता है कि ये साफ नहीं रहते। इसका उत्तर साफ है कि ये गरीब हैं। गरीबी का इलाज करो। ऊंचे-ऊंचे कुलों के भीतर भी गरीब लोग कोई कम गंदे नहीं रहते। गंदे काम करने का बहाना भी नहीं चल सकता क्योंकि माताएँ बच्चों का मैला साफ करने से मेहतर या अछूत तो नहीं हो जातीं।

 मैं तो उन्हें यही कहूँगा, तुम असली सर्वहारा हो। संगठनबद्ध हो जाओ। तुम्हारा कुछ भी हानि नहीं होगी। उठो, वर्तमान व्यवस्था के विरुद्ध बगावत खड़ी कर दो। धीरे-धीरे होने वाले सुधारों से कुछ नहीं बन सकेगा। सामाजिक आंदोलन से क्रांति पैदा कर दो। तुम ही देश के मुख्य आधार हो। लोग उलाहना देते हैं कि हमसे विदेशों में अच्छा सलूक नहीं होता पर वे अपने देश में ही लोगों से घृणा करते हैं। दोमुंही बातें एक साथ कैसे चल सकती हैं ? मौलवी कहता है कि इस्लाम पर विश्वास नहीं करने वाले लोग काफिर हैं और उन्हें मौत के घाट उतार देना चाहिए। सिख गुरुद्वारे में राज करेगा खालसा गाएं और बाहर पंचायती राज की बातें करें तो आखिर ऊंट किस करवट बैठेगा ? धर्म की सारी विसंगतियाँ, सांप्रदायिक दंगे, उंच-नीच के भेद-भाव, लूट-घासोट, भ्रष्टाचार, सामाजिक-आर्थिक तनाव और वैमनस्य से सारी बुराइयाँ पूंजीवाद की देन  हैं। मार्क्स का सही समाजवाद ही इसका सटीक निदान है। हमारी क्रांति का लक्ष्य समाजवादी सरकार की स्थापना है। मनुष्य के द्वारा मनुष्य का और एक राष्ट्र के द्वारा दूसरे राष्ट्र का शोषण इसी का जरिए समाप्त होगा।

 अभी-अभी चरतसिंह आया था। वहीं ‘वाहेगुरु’ सरदार। बोला- आखिरी वक्त को याद करूँ तो वे कहेंगे कि भगत सिंह बुजदिल है। तमाम उम्र तो इसने याद किया नहीं, अब मौत सामने आने लगी तो मुझे याद करने चला है। इसलिए बेहतर यही होगा कि मैंने जिस तरह पहले अपनी जिंदेगी गुजारी है, उसी तरह मुझे इस दुनिया से जाने दीजिए। मुझ पर यह इल्जाम को कई लोग लगाएंगे कि मैं नास्तिक था और मैंने परमात्मा में विश्वास नहीं किया लेकिन यह तो कोई नहीं कहेगा कि भगत सिंह बुजदिल और बेईमान भी था। आखिरी वक्त मौत को सामने देख उसके पैर लड़खड़ाने लगे।

 इसी तरह कुछ दिन पहले प्राणनाथ वकील आए थे। कहने लगे तमाम लोगों का जीवन देश की धरोहर है और देश की जनता चाहती है कि तुम लोगों को गांधी जी का हाथ मजबूत करना चाहिए। वायसराय के पास एक दया प्रार्थना भेज दो। हमने कहा, हम दया की प्रार्थना नहीं करते। सिद्धांत की बलि चढ़ाकर मैं जीना पसंद नहीं करता। आज मेरी कमजोरियाँ लोगों के सामने नहीं हैं। इससे इंकलाब का निशान मद्धिम पड़ जाएगा।

 भाभी, सांप्रदायिक दंगों की खबर जब कानों में पहुँचती है तो मन दुखी हो जाता है। हमारी क्रांति को इससे बड़ा धक्का लगा। ये दंगे हमारी ताकत को तोड़ देते हैं इससे उबरने में बहुत समय लगता है। एसोसिएशन में भी हमने लोगों को सजग किया कि धर्म और जात-पात के झगड़े हमारे कार्य में बाधा डालते हैं। एक धर्म के अनुयायी दूसरे धर्म के अनुयायियों को जानीदुश्मन समझने लगते हैं। लाहौर के ताजे दंगे इसके सबूत हैं। कितने निर्दोष लोग मौत के घाट उतार दिए गए। पता नहीं ये धार्मिक दंगे कब  भारत का पीछा छोड़ेंगे ?हमारे नेता भी इस धर्मांधता के बहाव में बह जाते हैं। हमारे कुछ अखबार भी हवा देने से नहीं चूकते। अगर इन सांप्रदायिक दंगों की जड़ खोजों तो इनका कारण आर्थिक ही जान पड़ता है। वह सारे विवादों ही जड़ में है। भारत में आम लोगों की हालत इतनी खराब है। भूख से कातर मनुष्य सिद्धांतों को ताक पर रख देता है। लोगों को वर्गचेतना की जरूरत है। जो लोग इसके इतिहास को जानते हैं उन्हें मालूम है कि जार के समय ऐसी स्थितियाँ थीं। आर्थिक दशा खराब थीं। दंगे-फसाद होते थे। जिस दिन से रूस में श्रमिक शासन हौ तब से वहाँ कोई दंगा नहीं हुआ। वहाँ सबको इंसान समझा जाता है धर्मजन नहीं।

 हमारे यहाँ सांप्रदायिक दंगे वाले लोग अधिक अधिकारों की मांग मनवाने के लिए अपनी-अपनी कौम की संख्या बढ़ाने में लग जाते हैं। आबादी बढ़ाने की उनकी चिंता अधिक है चाहे उनके खाने के लिए अन्न हो या नहीं।

 भाभी, एक बात आपको बता देना चाहता हूँ। कुछ लोग पुनर्जन्म में विश्वास रखते हैं और अगले जन्म में राजा बनाना चाहते हैं। कुछ दूसरे लोग हैं जो स्वर्ग या जन्नत में विश्वास करते हैं। ये अपने मन में स्वर्ग सुख की कामना संजोए रखते हैं। मेरे लिए तो इस छोटी जिंदेगी के परे कुछ नहीं है। मेरे लिए यह वर्तमान ही सत्य है। उनकी तरह किसी पुरस्कार की कल्पना मैं नहीं कर सकता। मैं जानता हूँ जिस क्षण रस्सी का फंदा मेरी गर्दन पर लगेगा और मेरे पैरों के नीचे का तख्ता हटेगा, वही पूर्णविराम होगा। वही अंतिम क्षण होगा। मैं या मेरी आत्मा वहीं समाप्त हो जाएगी। आगे-आगे कुछ भी नहीं रहेगा। एक छोटी सी बुझती हुई जिंदेगी जिसको कोई ऐसी गौरवशाली परिणति नहीं है, अपने में स्वयं एक पुरस्कार होगी। बिना किसी स्वार्थ के, यहाँ और यहाँ के बाद पुरस्कार की इच्छा के बिना, मैंने अनासक्त भाव से अपने जीवन को स्वतंत्रता के ध्येय पर समर्पित कर दिया है, क्योंकि मैं और कुछ कर ही नहीं सकता था। जिस दिन हमें इस मनोवृत्ति के बहुत से पुरुष और महिलाएं मिल जाएंगे, जो अपने जीवन को मनुष्य सेवा तथा पीड़ित मानवाता के उद्धार के अतिरिक्त और कहीं समर्पित कर ही नहीं सकते, उसी दिन मुक्ति के युग का शुभारंभ होगा। वे शोषकों,उत्पीड़कों और अत्याचारियों को चुनौती देने के लिए उत्प्रेरित करेंगे। इसलिए नहीं कि उन्हें राजा बनना है या कोई अन्य पुरस्कार प्राप्त करना है – यहाँ या अगले जन्म में या स्वर्ग में। उन्हें तो मानवता की गर्दन से दासवृति का जुआ उतार फेंकने और मुक्ति एवं शांति का मार्ग अपनाने के लिए ऐसा करना होगा। 

अधिकांश मनुष्य रूढ़ियों और अंधविश्वासों के शिकार हैं। हमें हर मत को तर्क की कसौटी पर कसना होगा। परा- विश्वास और अंधविश्वास मस्तिष्क को मूढ़ बना देते हैं। जो मनुष्य अपने को यथार्थवादी होने का दावा करता है, उसे समस्त प्राचीन विश्वासों को चुनौती देनी होगी। अगर वे तर्क का प्रहार न सहन कर सके तो टुकड़े-टुकड़े होकर गिर पड़ेंगे।

 मुझे पूरा विश्वास है कि प्रकृति की गति का संचालन करने वाला कोई चेतन परमात्मा नहीं है। हम प्रकृति में विश्वास करते हैं पर उसकी दिशा निर्धारित करने वाली किसी अन्य चेतन शक्ति में नहीं। दुनिया में सबसे बड़ा पाप गरीब होना है। गरीब एक अभिशाप है। गरीब तथा अनपढ़ परिवार जैसे एक चमार या मेहतर का क्या भाग्य होगा ? चूंकि वह गरीब है, इसलिए पढ़ाई नहीं कर सकता। वह उन लोगों से तिरस्कृत एवं त्यक्त रहता है जो ऊंची जाति में पैदा होने के कारण अपने को सबसे ऊंचा समझते हैं। उसका अज्ञान, उसकी गरीबी तथा उससे किया गया व्यवहार उसके हृदय को समाज के प्रति निष्ठुर बना देते हैं। अपने को सर्वश्रेष्ठ कहने वाले इन्हीं दंभी और घमंडी लोगों ने जानबूझकर शूद्रों को अज्ञानी बनाए रखा। शूद्र अगर पवित्र वेदों की सूक्तियाँ सुन लेने का दुस्साहस करते तो अपराधस्वरूप उनके कानों में गर्म सीसा डाल दिया जाता। सभी धर्म, संप्रदाय तथा शोषक संस्थाएं राजाओं और पूँजीपतियों की समर्थक हो जाती हैं। राजा के प्रति विद्रोह हर धर्म में सदैव ही पाप रहा है।

 भाग्य और भगवान भरोसे हाथ पर हाथ रख बैठने से ये साम्राज्यवादी हमें आजादी नहीं देंगे। अंग्रेजों की हुकूमत यहाँ इसलिए नहीं है कि ईश्वर चाहता है बल्कि इसलिए है कि उनके पास बंदूक, बम, पुलिस और सेना है। वे हमें कमजोर समझ हमारा  शोषण करते हैं।

 भाभी, साम्राज्यवाद और पूंजिवाद से हम हम कभी भी समझौता नहीं कर सकते। ये समाजवाद के दुश्मन हैं। एक कमजोर राष्ट्र को गुलाम बनाकर उसका शोषण करता है तो दूसरा मजदूरों और मेहनतकशों का खून चूसता है।पूंजीवाद, आर्थिक उत्पादन को जरूरतमन्द लोगों में बांटने के बजाय समुद्र में फेंक देना ज्यादा श्रेयकर समझता है।

मेरी जिंदगी का मूल उद्देश्य अपने देश को फिरंगियों से मुक्त कर उसे सशक्त समाजवादी राष्ट्र बनाना है। अफसोस इस बात का है कि भारतवासियों के लिए जो कुछ करने की हसरतें थीं उनका हजारवां हिस्सा भी पूरा नहीं कर सका।

भाभी ! आजाद हिंदुस्तान का एक सुनहरा सपना दिलदिमाग पर छाया रहता है। कितना अच्छा होगा वह दिन जब अंतर्राष्ट्रीय समुदाय में हमारे देशवासी भी अपना सिर ऊंचा करके चल सकेंगे। अपना राज होगा, अपना संविधान होगा और अपनी अपनी संप्रभुता होगी, ब्रिटिश सरकार का कोई ज़ोर जुल्म नहीं होगा। हम उनके समकक्ष हो बात करेंगे,‘गुलाम’ शब्द तक अपने देश के साथ नहीं जुड़ा रहेगा। भारत की भावी पीढ़ी के हाथ देश की भागडोर होगी, वे एक समाजवादी राष्ट्र की संरचना में कोई कसर नहीं छोड़ेंगी। जहां सबको रोजी-रोटी मिलेगी, न कोई ऊंचा होगा न कोई नीचा। कानून की नजर में सब बराबर होंगे।

 हाँ, यह सच है कि यह सुनहरा दिन मैं अपनी आँखों से नहीं देख सकूंगा। हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन की भूमिका आजादी के बाद कम न होगी। सत्ता में आए स्वार्थी व निरंकुश लोगों पर एसोसिएशन कड़ी नजर रखेगा।

 भाभी, आप अपने को अकेली अवश्य महसूस करती होंगी पर अपने मिशन के साथ आप लोगों के बीच जाएंगी तो आप देखेंगी कि आपके साथ हजारों हजार लोग हैं। आप बराबर सर्वहारा के लिए समर्पित रहेंगी क्योंकि समाज में शोषण के सबसे ज्यादा शिकार वे ही होते हैं।

 भाभी ! मेरे देशवासियों से मुझे बेहद प्यार दिया है। उनसे बात करने का कितना जी चाहता   है। बस इस समय इतना ही कहूँगा –‘ए वतन वालों अपने वतन को प्यार करो। उसके लिए अपने दिल में दर्द पैदा करो।’

जेल में खामोशी है।सुनता हूँ एक जल्लाद ने फांसी का फंदा खींचने से साफ इंकार कर दिया। दूसरे की खोज सरगर्मी से हो रही है। जो भी हो एक जघन्य अपराधी की तरह फंदे पर झूलना अपमानजनक लगता है। मैंने अपने देश की आजादी के लिए ब्रिटिश सरकार से संघर्ष किया है। मैं,राजगुरु और सुखदेव तीनों ने पंजाब के गर्वनर से मांग की थी कि हमें युद्धबंदी माना जाय और फांसी पर लटकाए जाने के बजाय हमें गोलियों से उड़ा दिया जाय। गर्वनर ने इसे ठुकरा दिया है। कल चिरविराम का दिन है। आज मेरे कोठरी के चारों ओर विशेष सतर्कता बरती जा रही है। पहरेदारों की संख्या बढ़ा दी गई है। लगता है सरकार और जेल अधिकारी सब भयभीत हैं। कई जेल अधिकारी मेरे वार्ड का मुआयना कर चुके हैं।

कुछ रोज पहले छोटा भाई कुलतार सिंह आया था। उसकी रुलाई से मुझे दुख पहुंचा। उस रोज आपका भी इंतजार कर रहा था। लिखने के लिए ढेर सारी बातें हैं पर समय नहीं है। दरवाजे पर कोई दस्तक दे रहा है। लगता है बुलावा आ गया है।

 दिल से निकलेगी न मर कर भी

 वतन की उलफत

 मेरे मिट्टी से भी

खुशबू-ए-वतन आएगी।

अलविदा दुर्गा भाभी

      - भगत सिंह

 

 -भगत सिंह से दोस्ती’ पुस्तक से साभार

 

 

 

(अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-39, जनवरी-मार्च  2022

UGC Care Listed Issue चित्रांकन : संत कुमार (श्री गंगानगर )

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