समीक्षा :- ‘ओह रे! किसान’ की यात्रा से गुजरते हुए / डॉ. महेश दवंगे

‘ओह  रे! किसान’ की यात्रा से गुजरते हुए
- डॉ. महेश दवंगे

शोध-सार: कृषि प्रधान देश होने पर भी भारत में किसानों की हालत बहुत सोचनीय है। सरकार एवं सरकारी अधिकारियों की उदासीनता ने उनकी समस्याओं में इजाफ़ा ही किया है। प्रेमचंद के समय से अब तक किसान मज़दूर बनने की दिशा में अग्रसर है। बाजार एवं पूँजी की नज़र अब खेती पर लगी है । अगर किसानों की हालत में सुधार नहीं हुआ  तो वह दिन दूर नहीं जब मल्टीनेशनल कंपनियाँ खेती करेंगी और मनचाहे दाम पर अनाज बेचेगी। अतः किसान और किसानी बचाना हमारी जिम्मेदारी है। प्रस्तुत लेख में इसी यथार्थ की ओर संकेत किया गया है। खेती में बढ़ती रासायनिक प्रक्रिया ने मिट्टी की उर्वरता एवं उपजाऊ क्षमता को भी बाधित किया है। अतः पारंपरिक खेती मिट्टी की उर्वरता एवं फसल की शुद्धता की दृष्टि से उपयोगी है। ‘ओह रे ! किसान’ किताब में रासायनिक खेती के दुष्परिणाम एवं जैविक खेती की उपयोगिता को रेखांकित किया है। भारत का कृषिइतिहास हजारों साल पुराना है। सदियों से जैविक एवं पारंपरिक खेती ही इसका आधार रहा है। वर्तमान समय में भी इस पारंपरिक एवं समृद्ध कृषि परंपरा को आधार बनाकर भारतीय किसान जीवन को सुजलाम-सुफलाम बनाया जा सकता है।

 

बीज शब्द : किसान, बीज, खाद, रासायनिक प्रक्रिया, जैविक खेती, फ़सल, पंचवर्षीय योजनाएँ, ग्राम्य संस्कृति, प्राकृतिक आपदाएँ, कर्ज़माफी।

 

मूल आलेख :

जो अनाज उगाते हैं

उन्हें दो जून अन्न जरूर मिलना चाहिए

उगाने वाले भूखों रहते हैं

और अनाज पचा जाते हैं

चूहे और बिस्तरों पर

पड़ें रहने वाले लोग ।

-          गोरख पांडेय

 

उपर्युक्त पंक्तियाँ किसान संघर्ष एवं यथार्थ को अभिव्यक्त करती है। किसान जीवनदाता है; अन्नदाता है। पीढ़ी-दर-पीढ़ी मेहनत-मज़दूरी कर जीवन को सींचता रहा परंतुवर्तमान समय किसान की तंगहाली एवं बदहाली का है। अपने परिवार केलिए दो वक्त की रोटी जुटाना भी उसके लिए मुश्किल साबित हो रहा है। कृषिप्रधान देश होने के कारण यहाँ की आधी से अधिक आबादी कृषि पर ही निर्भर है। मगर सरकारी अनास्था, प्रशासन की उदासीनता, बढ़ती मँहगाई, न्यूनतम समर्थन मूल्य का अभाव एवं प्राकृतिक आपदाओं ने कृषि व्यवस्था की रीढ़ को तोड़ दिया है। उसमें भी किसान का सर्वाधिक नुकसान मनुष्य प्रदत्त समस्याओं ने ही किया है। हम आज तक किसान और कृषिव्यवस्था का स्थायी समाधान नहीं खोज पाए हैं। इन्हीं कारणों से भारतीय किसान सामाजिक व्यवस्था के सबसे निचले पायदान परलुढ़क गया है। अब वह किसान से मज़दूर बनने की कगार पर है। यदि ये स्थितियाँ नहीं बदली तो वह दिन दूर नहीं जब मल्टीनेशनल कम्पनियाँ खेती करेंगी और मनचाहे दाम पर धान बेचेगी। किसान का टूटना, बिखरना वर्तमान समाज के भविष्य केलिए खतरा है। किसान की समस्या पूरे समाज की समस्या है। हमें इस सच्चाई को समझना होगा। भारत के किसान पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी ने कहा था, “भविष्य किसानों और मज़दूरों के हाथ में है। जो संस्था भविष्य में कृषक-मज़दूर सेवा से वंचित रहेगी, वह शक्तिहीन और निकम्मी सिद्ध होगी। ” 1 आज स्थितियाँ किसान विरोध में हैं। यही वजह है कि खेती पर निर्भर सभी उद्योगों द्वारा  करोड़ों की कमाई करने पर भी किसान विपन्न और मरनासन्न अवस्था में है। वह कथा-कहानियों में ही नहीं बल्कि असल ज़िंदगी में भी दम तोड़ रहा है। मृत्यु किसान जीवन का अभिशाप बन गया है। यदि किसान को बचाना है तो इस लड़ाई को  मिलकर लड़ना  होगा। किसान को भी खेती में कुछ परिवर्तन करने होंगे। सरकार को भी किसान हित में ठोस भूमिका निभानी होगी।

 

‘ओह रे! किसान’ यह किताब इस बदलाव की पहल करती है। अंकिता जैन ने अपने जीवन के सारे अनुभवों को इस किताब में झोंक दिया है। दरअसल यह एक यात्रा विवरण है। इसमें नीलमणि, बलदेवभाई, सावित्री, कन्हैया सिंह तोमर, रामकिशोर, भानुप्रताप जी, मासानोबू फुफुओका, दिलीप बाबू, मीना, शामली आदि किसानों के अनुभव दर्ज हैं। स्वयं लेखिका का अनुभव जगत भी संपन्न है।  पति समर्थ और उनका जीवन प्रकृति केलिए ही समर्पित है। इसी आधार पर लेखिका ने  कृषि से जुड़ी समस्याओं को हल करने की कोशिश की है। इसमें जैविक खेती एक बेहतर विकल्प है। रासायनिक खेती के दुष्परिणामों को हम भुगत रहे हैं, भविष्य में यह समस्या अधिक विकराल होने वाली है। लेखिका ने इसी आशंका को अभिव्यक्त करते हुए इससे बचने की राह दिखाई है।

 

भारतीय खेती का इतिहास लगभग चार हजार साल पुराना है। रसायनमुक्त खेती ही इसका आधार रहा है। किसानी व्यवसाय या पेशा नहीं बल्कि भारतीय ग्राम्य संस्कृति की जीवन पद्धति है। लोग एक–दूसरे से मिलकर हँसते-चहकते, लोक गीत गाते हुए सामूहिक खेती करते थे। उनमें उत्साह-उमंग की कमी नहीं थी। ब्रिटिश शासन के  पहले तक हर गाँव स्वतंत्र था। लोगों की बुनियादी ज़रूरतें गाँव में ही पूर्ण होती थीं। किसान, बढ़ई, लोहार, कुंभार, बुनकर, दरजी, मोची, चमार आदि गाँव की सामाजिक व्यवस्था के महत्वपूर्ण अंग थे। पैसे के बजाए क्रय-विक्रय वस्तुओं से होता था। किसान भी देशी नस्ल और पशु आधारित खेती करते थे। अधिकांश घरों में गाय-बैल-बकरियाँ होती थीं। इनकेगोबर से बनी खाद फ़सल का पोषण करती थी। यह समय किसान केलिए ‘सुजलाम-सुफलाम’ था। मगर अंग्रजों ने यहाँ के लघु उद्योगों को नष्ट किया। किसानों को नील, अफ़ीम, बड़े रेशेवाली कपास, मलबरी रेशम आदि फ़सलकी खेती करने केलिए मजबूर किया। खेती पर विभिन्न ‘कर’ लगाए गए। धीरे-धीरे किसान कर्ज के बोझ तले दब गया। जिससे भारतीय ग्राम्य जीवन की ‘आत्मनिर्भरता’ ख़त्म हुई। बावजूद खेती पारंपरिक ज्ञान पर ही आधारित थी। मगर हरित क्रांति ने भारतीय कृषि व्यवस्था में ‘रासायनिक खेती’ का बीज बो दिया। अब वह बीज इतना फ़ैल गया है कि ‘रसायनमुक्त खेती’ की कल्पना मुश्किल है। रसायनों के अति प्रयोग से ज़मीन की प्राकृतिक उपजाऊ क्षमता पर असर हुआ है। अनाज,पेंड़ और पशुओं की देशी नस्लें विलुप्त हो रही हैं। सर अलबर्ट हारवर्ड ने 1890 में ही रसायनों के दुष्प्रभाव से सावधान किया था। उन्होंने कहा था, “सिर्फ रसायनों से खेती नहीं हो सकती इनके दुष्प्रभाव मनुष्य और खेत दोनों केलिए घातक हैं। रसायनों से अधिक प्रभाव के कारण सूक्ष्म जीव,केंचुए आदि मृदा को पोषित रखने वाले तत्त्व खत्म होते जा रहे हैं, जिसके कारण खेत लंबे समय तक नमी बरक़रार नहीं रख पाते। ”यह चेतावनी वर्तमान में सच्चाई बन गयी है। हमारी मिट्टी  की उपज क्षमता कम हुई है। इस ज़हरीले भोजन से दिल, दीमाग, किड़नी, लीवर पर भी असर हो रहा है।

 

आज भारत में अधिक मात्रा में रासायनिक खेती हो रही है। इससे अरबों-खरबों कमाए जा रहे हैं, मगर किसान उसी बदहाली में जीवन जी रहा है। ऐसा नहीं है कि इससे मुक्त होना मुश्किल है,किंतु इसमें सहनशीलता की आवश्यकता है। सालों-साल जिस मिट्टी को रसायन की आदत लगी हो, ऐसे में जैविक खेती करने से उत्पादन कम हो सकता है। मगर यह कुछ समय केलिए, बाद में प्राकृतिक प्रक्रिया से पौधे स्वयं पोषक तत्वों को खोजते हैं। पौंधे  की जड़, बैक्टेरिया एवं फंगस के बीच आंतरिक गठजोड़ होता है। जिससे पोषक तत्वों का आदान-प्रदान किया जाता है। जैसे। “जड़ों में सबसे आगे ड्रिल मशीन के जैसे एक बीट होता है, वह खुदाई करता जाता है, पत्थर, कंकड़  आदि के पार जाने में जब वह घिस जाता है, तो पौंधा उसको तुरंत रिपेयर करता है और वह फिर से खुदाई  और पोषक तत्वों को खोजने के काम में लग जाता है। जैसे ही उसे कोई पोषक तत्त्व मिल जाता है, जड़ के आगे वाला हिस्सा मर जाता है एवं उसकी जगह एक ऐसा हिस्सा पनप जाता है जो उस पोषक तत्त्व को इकट्टा कर ऊपर पौंधों के पास पहुंचाता है। ”3रासायनिक खाद पौधों की प्राकृतिक प्रक्रिया को बाधित करती है। यह मनुष्य,अन्य जीव-जंतु, मिट्टी, जलवायु, पशु सभी  केलिए भी घातक है। 2017 में कुछ खबरें महाराष्ट्र के विदर्भ से आयी थीं, जिनमें कहा गया था कि फ़सल में कीटनाशक का छिड़काव करते हुए महज चार महीनों में 37 किसानों की मृत्यु हुई थी। दरअसल हमें लगा कि हमने तरक्की की। प्रगति की। मगर यह झूठ है। व्यापारियों ने अपने स्वार्थ केलिए किसानों को रसायन के दलदल में झोंक दिया है। यह उसी का परिणाम है कि प्राकृतिक चेन  टूट गयी है। बारिश-ठंड-गर्मी का कोई समय नहीं रहा है। नदियाँ सूखरही हैं। भूजल स्तर गिर गया है। मनुष्य ने प्रकृति का महज़  दोहन किया है। उसनेजंगल काटे। पहाड़ तोड़े। यही वजह है कि अब हम ऑक्सीजन की आपूर्ति महसूस कर रहे हैं। कितनी चिड़ियाँ-तितलियाँ इस रसायन की चपेट में आकर अपना अस्तित्व खो बैठी हैं। अब प्रकृति को बचाना है तो रसायनमुक्त खेती की तरफ़ बढ़ना होगा। वैसे किसी भी जंगल में कोई खाद नहीं डाली जाती बावजूद महज़ बारिश के पानी पर जंगल की हरियाली बरक़रार रहती है। क्योंकि वहाँ की मिट्टीस्वस्थ होती है, उसकी उपजाऊ क्षमता अधिक होती है। अतः हमें भी जैविक खेती का चलन बढ़ाना होगा। मिटटी की उर्वर क्षमता को बढ़ाना होगा।

 

वर्तमान में भूटान,डेनमार्क जैसे देश प्राकृतिक पद्धति को अपना रहे हैं। ये देश जल्द ही ऑर्गेनिक देश घोषित होने वाले हैं। फ्रांस ने भी कुछ घातक रसायनों पर पूर्णतः रोक लगा दी है। भारत भी धीरे-धीरे इस दिशा में अग्रसर हो रहा है, मगर मंजिल काफ़ी दूर है। 2018 में सिक्किम भी एक पूर्ण जैविक खेती आधारित राज्य घोषित हो चुका है। देश के कई  राज्य मिज़ोरम, राजस्थान, उत्तरप्रदेश, केरल में भी किसानों का जैविक खेती की तरफ रुझान बढ़ रहा है, जो कि अच्छी खबर है। स्वयं लेखिका एवं पति समर्थ का भी इस दिशा में योगदान महत्वपूर्ण है। ‘वैदिक वाटिका’ के माध्यम से वे ग्रामीण किसानों को रसायनमुक्त खेती का प्रशिक्षण दे रहे हैं। सरकार को भी इस दिशा में ठोस भूमिका निभानी होगी, जो कमतर लगती है। जैसे कुछ साल पहले डॉ। कुंवर जी भाईयादव के नेतृत्व में स्थापित कमेटी की रिपोर्ट ने राष्ट्रीय स्तरपर जैविक खेती को बढ़ावा देने केलिए ‘स्थायी बोर्ड’ बनाने का सुझाव दिया था, जिस पर अमल नहीं हुआ। 10 वीं पंचवर्षीय योजना में जैविक कृषि केलिए महज़ 57 करोड़ का प्रावधान किया गयाहै,ऐसी घटनाएँ सरकार की उदासीनता को दर्शाती है। जबकि गाँव के कुछ किसान देसी बीज का जतन कर जैविक कृषि को बढ़ावा दे रहे हैं। जैसे राहीबाई सोमा पोपेरे नामक महिला ने सीड बैंक के माध्यम से देसी बीज का जतन किया। उनके इस ऐतिहासिक कार्य केलिए 2019 में उन्हें और मध्यप्रदेश के बाबूलाल दाहिया को पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित किया गया। डॉ। वंदना शिवा भी ‘नवदान्या’ संस्था के जरिए देसी बीज़ों को जुटा रही है। पियौराबाद में भी ‘जैव-विविधता प्रबंधन समिति’ गठित है जो परंपरागत देसी बीज बैंक बनाकर किसानों को जैविक खेती करने केलिए प्रोत्साहित करती है। प्रसिद्ध कृषि वैज्ञानिक डॉ। रिछारिया ने मध्यप्रदेश में धान की 23,500 क़िस्में एकत्रित की थी। विगत कुछ सालों में धान की 500 से अधिक क़िस्में गायब हुई है, जो हमारी प्राकृतिक संपत्ति की हानि है। अतः वर्त्तमान में देसी बीजों को संभालना और उसमें वृद्धि करना ज़रूरी है। हाइब्रीड बीज की भीतरीबुनावट ही ऐसी होती है कि वह पैदा होकर अपनी ही प्रजाति का बीज नहीं बन पाता है। इसीलिए किसानों को प्रतिवर्ष बीज ख़रीदना पड़ता हैं। मोनसेंटे इंडिया, सिजैंटा इंडिया लिमिटेड, बायर क्राप साईस, पायनियर हाइब्रीड इंटरनेशनल इंक आदि कंपनियों ने इसे अवसर बनाकर बीज सेक्टर में निवेश कर करोड़ों कमाए। आंकड़ें बतातें है कि 2014-15 में 22,292 टन, 2015-16 में 23,477 टन और2016-17  में21,064 बीजों का आयात किया गया। ये हाइब्रीड बीज काफ़ी मँहगे होते हैं और और दुबारा बोने पर अच्छी पैदावार नहीं होती है। जबकि देसी बीज अपनी प्रजाति का निर्माता होता है। वह बीज से बीज का निर्माण करता है। किंतु रासायनिक खेती के प्रभाव में हम भारतीय पारंपरिक किसान संस्कृति और देसी बीज की  धरोहर से वंचित हो रहे हैं।

 

अंकिता जैन ने इस किताब में कई किसानों से होनेवाली भेंट का विवरण दिया है, जो किताब को अधिक प्रामाणिक बनाती है। इसमें समर्थ के खेती से संबंधित कार्य का भी उल्लेख हुआ है। समर्थ ने विदेशों में चमकता भविष्य छोड़ पारंपरिक खेती करने का निर्णय लिया। अमूमन भारत में यह हास्यास्पद ही है। कई लोगों ने इस निर्णय की आलोचना की। मगर समर्थ अपने निर्णय पर अडिग रहा। खेती करते समय उसे आश्चर्य हुआ कि बचपन में खेलते समय साँप-केंचुए,रंग-बिरंगी तितलियाँ, टिड्डे, मकड़े, ड्रेगन फ्लाई दिखते थे, आज वे नदारद हैं। क्योंकि रसायन की अतिमात्रा ने अपना असर दिखाया था। यही वजह है समर्थ ने जैविक खेती को अपना हथियार बनाया। उसने किसानों को भी प्रेरित किया। छोटे-छोटे प्लॉट्स लगाकर रसायन मुक्त और रसायन युक्त खेती के फ़र्क को समझाया। फ़सल  चक्र (एक के बाद दूसरी प्रजाति की फ़सल लगाना) पर जोर दिया। समर्थ ने अपने खेतों को ‘टेस्टिंग सेंटर’ बनाया। गाँव-गाँव जाकर मल्टीक्रॉपिंग एवं रसायन मुक्त खेती का किसानों को ट्रेनिंग दिया। क्योंकि समर्थ ने अपने जीवन अनुभव से महसूस किया था कि किसान, मनुष्य, प्रकृति और पर्यावरण को बचाना है तो प्राकृतिक खेती की ओर मुड़ना ही बेहतर विकल्प है। उन्होंने आर्थिक पक्ष से भी लोगों को अवगत कराया। जैविक खेती से कुछ समय केलिए भले ही उत्पादन घट जाए लेकिन किसानों का नुकसान नहीं होगा। जैसे, “ यदि किसान रासायनिक में दस हजार खर्च करके एक लाख कमा रहा है और जैविक में एक हजार खर्च करके पचास हजार कमा रहा है तो फौरी तौरपर वह नुकसान में दिखेगा लेकिन यदि लागत-मूल्य देखा जाए तो वह पूरी तरह नुकसान में नहीं है। ”4समर्थ ने छोटे किसानों की हर समस्या का समाधान वैज्ञानिक तरीक़े से किया। जल्द ही इसका असर दिखने लगा। पहले समर्थ को लोगों के पास जाना पड़ता था; अब किसान खुद ‘वैदिक वाटिका’ की राह पकड़ने लगे, जहाँ समर्थ ने रसायन मुक्त खेती को साकार किया था। दूर-दराज से लोग ट्रेनिंग लेने केलिए वाटिका में आने लगे। लेखिका ने उदहारण स्वरूप भानुप्रताप जी की मुलाकात का विवरण किताब में दिया है। लखनऊ के एक गाँव माधवपुर के रहने वाले भानुप्रताप जी 2016 में अपनी बेटी और पत्नी के साथ ‘वैदिक वाटिका’ में आए थे। वैसे उनका परिवार 1965 से ही खेती से जुड़ा है। उस समय उनके परिवार के पास 33 एकड़ जमीन थी। परिवार बढ़ता गया, जमीन बँटती गयी। अब टुकड़ों-टुकड़ों में खेतीकरना मुश्किल हो रहा था । पहले जहाँ दो लोग पूरी खेती सँभालते थे, वहीं10 लोग सब काम छोड़कर खेती में जुट गए। बीज और खाद के दाम भी आसमान छू रहे हैं। ऐसे में छोटे किसान अपनी सहनशीलता और धैर्य खो बैठे हैं । भानुप्रताप जी बताते हैं, “हमारे यहाँ उत्तर प्रदेश में किसानों का बड़ा हिस्सा यूरिया, पोटाश, जिंक फास्फोरस एवं कीटनाशकों का इस्तेमाल करके खेती कर रहा है। उन्हें जो कह दिया जाता है, वे वहीं कर लेते हैं। शिक्षा के अभाव में वे सही आकलन ही नहीं करा पाते कि उनकेलिए क्या कितना नुकसानदायी है। यदि जानकारी और सही ज्ञान किसानों तक पहुचे तो संभव है उन्हें खेती से विमुख होने से रोका जा सके। ”5भारत के हर छोटे किसान की यह पीड़ा है। खेती में रसायन का प्रयोग करना उनकी मजबूरी है। क्योंकि देहात में किसान अधिकतम खरेदी उधारी पर करता है। ऐसे में जो उसे बेचा जाता है, जिस दाम में बेचा जाता है, उसे ख़रीदना पड़ता है। दुकानदार कौनसा खाद? कौनसी कंपनी का खाद दे रहा है? यह तक उसे पता नहीं होता है और अगर पता भी चला तो वह इसमें अपनी रूचि नहीं दिखा सकता है। अन्य किसान की देखा-देखी वह भी ख़रीदता है। उससे होने वाले फ़ायदे-नुकसान से वह अनभिज्ञ ही रहता है। अतः किसानों को शिक्षित एवं प्रशिक्षित करने की आवश्यकता है। वैसे, भारत में 668 कृषि विज्ञान केंद्र है। जिनपर प्रतिवर्ष 878 करोड़ रुपए खर्च किए जाते हैं। मगर जमीनी स्तरपर उनकी भूमिका प्रश्नांकित ही है। यहाँ पढ़ने वाले छात्र भी उपाधि मिलने के बाद गाँव से दूर ही भागते हैं। अतः अब आवश्यकता है कि सरकार गाँव-गाँव में एक कृषि अधिकारी नियुक्त करें, जो वहाँ का पर्यावरण, पानी, उपलब्ध संसाधन के आधापर किसानों को उचित फ़सलकी बुवाई के लिए मार्गदर्शन करें। सरकार भी पूंजीपतियों के हित में नहीं किसान हित में योजना बनाए। सरपंच, ग्रामसेवक, ग्रामपंचायत सदस्य आदि इस योजना को बिना स्वार्थ एवं लालच के ज़रूरतमंद किसानों तक ले जाएँ तो ही किसान और खेती बचेगी। एक अन्य जगह लेखिका ने किसान बलदेव भाई का भी उल्लेख किया है। बलदेव भाई छत्तीसगढ़ के पहाड़ी इलाके में बसे जशपुर के नज़दीक के छोटे से गाँव में रहते हैं। यहाँ आदिवासी बहुल समाज अधिक है। लेखिका से जब बलदेव भाई की मुलाकात हुई तो उन्होंने विगत तीस-पैंतीस साल में खेती में जो बदलाव आए उससे लेखिका को अवगत कराया। वे कहते हैं, “पहले की तुलना में अब किसानों के पास साधन ज्यादा है। चालानी खाद भी मिलता है और पानी की सुविधा है। ये अलग बात है कि  खाद के दुष्परिणाम के बारे में कभी न सरकार ने बताया न बेचने वाले ने। अब खेतों की मिट्टी आईसीयू में चली गयी है। किसान भी अब बिना यूरिया के खेती करने के बारे में नहीं सोचता।”6 यह वर्तमान सच्चाई है। आंकड़े बताते हैं  कि 1960-61 में खाद की कुल खपत  2। 92 लाख टन थी जबकि 2008-09 में यही 249। 09 लाख टन हो गयी। खेती बढ़ी नहीं लेकिन खाद की खपत कई गुना बढ़ी। बलदेव भाई अनुभवी किसान हैं। वे इस परिवर्तन एवं षड्यंत्र को भली-भांति पहचानते हैं। अतः पुरानी पीढ़ी के रूप में ज्ञान-विज्ञान का ख़जाना हमारे पास है,जिनका उपयोग किसान कानून या नीति बनाते समय किया जाना चाहिए। दुर्भाग्य से यह पीढ़ी घर से ही बेदखल हैं। घर के निर्णय में ही इनका हस्तक्षेप नहीं है, खेती तो दूर की बात है।

 

लेखिका ने इस किताब के बहाने खेती छोड़ने वाले किसानों के जो आंकड़े दिए हैं वे भी चौकाने वाले हैं। 2001 में हुई जनगणना के मुताबिक पिछले दस वर्षों में लगभग सत्तर लाख किसानों ने खेती छोड़ दी है। आज प्रतिदिन 2000 किसान खेती छोड़ रहे हैं। लेखिका बताती है कि, “किसानों की संख्या अब घट रही है। 2001 में किसानों की कुल संख्या 12। 73 करोड़ थी जो घटकर 2011 में 11। 87 करोड़ रह गयी है। ”7यह भयावह है। कृषि प्रधान देश में छूटती किसानी सरकार और समाज की मानसिकता की परिचायक है। एक समय था जब किसान अपने स्वाभिमान एवं मेहनत केलिए जाना जाता था, वर्तमान में उपेक्षा का पात्र बन गया है। ‘किसान’ नाम सुनते ही मन में दया उमड़ आती है। आखिर ऐसा क्यों ? खेती ‘आत्महत्या’ का रास्ता क्यों बन रहा है ? गलती किसान की है या हमारी नीतियों की ? हमें आत्मपरीक्षण करना चाहिए। आज कर्जमाफी को लेकर भी हंगामा होता है। कई बुद्धिजीवी देश के विकास में कर्ज़माफी को बाधक मानते हैं। क्या वे यह बताने का कष्ट करेंगे कि सरकार पूंजीपतियों के कर्ज को बट्टे खाते में डाल उन्हें माफ़ क्यों कराती है ? 2013-15 के बीच ही लगभग 9,204 करोड़ का ऋण बट्टेखाते में डाल दिया गया। क्या इससे देश का नुकसान नहीं होता? भारत का कोई किसान कर्ज़माफी नहीं चाहता है। वह तो सक्षम कृषि व्यवस्था चाहता हैजहाँ समयपर बीज, खाद, बिजली और पानी उपलब्ध हो। सरकार किसान सम्मान निधि जैसी योजनाओं द्वारा दो-चार हजार रूपए किसान के खाते में जमा कर अपनी पीठ थपथपाती है। यह एक हाथ से देना और एक हाथ से लेनेवाली स्थिति है। बीज, खाद और बिजली महँगी हुई है। पानी और बिजली का खेल तो किसान रात भर खेलता रहता हैं। किसान को रात में जाग-जागकर फ़सल में पानी भरना पड़ता है। फ़सल अच्छी आती है, तो भाव गिर जाते हैं। दुनिया में इकलौता किसान ही वह उत्पादक है, जो अपने प्रोडक्ट का दाम तय नहीं करता। फ़सल का दाम एसी हॉल में बैठे लोग तय करते हैं। किसान द्वारा उत्पादित सभी फसलों के लिए  न्यूनतम समर्थन मूल्य तय नहीं है। जिन फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य है भी उसका लाभ भी छोटे और मझोले किसानों को नहीं बल्कि बहुत बड़े किसानों को मिलता है। किसान हित का दावा करनेवाली सरकारें आज तक ‘स्वामीनाथन आयोग’ की सिफारिशें लागू  नहीं कर पायी है। आखिर ऐसा क्यों ? बार-बार के अकाल एवं प्राकृतिक आपदाओं ने पहले ही किसान की कमर तोड़ दी है, ऐसे में सरकार को किसान हित में निर्णय लेना ज़रूरी है। किंतु कुछ निर्णय सरकार की नीति पर संदेह पैदा करते हैं । जैसे, ताज़ा रिपोर्ट के मुताबिक 2019-20 में ही सरकार ने आयात कर घटाकर एक लाख टन मक्का आयात करना मंजूर किया है। इसके अलावा भी भारत गेहूँ, दालें, चावल, क़पास के अलावा कई अन्य खाद्य वस्तुएं आयात करता है। यदि हरित क्रांति से हम इतने ही संपन्न हो गए थे तो आज भी हमारी यह आयात निर्भरता क्या दर्शाती है ?”8 ऐसे निर्णय ही किसान को हताश करते हैं। सरकारी उदासीनता, समर्थन मूल्य का अभाव एवं प्राकृतिक आपदाओं ने ही किसान को आत्महत्या की ओर ढकेल दिया है। दरअसल यह आत्महत्या सामाजिक ‘हत्या’ ही है। वैसे,किसान आत्महत्या की पहली सूचना पी। साईनाथ ने ‘द हिन्दू’ में 1990 में दी थी। उसके बाद यह दर्दनाक सिलसिला थमा ही नहीं। अबतकआंकड़ों के अनुसार 1995 से 2000 के बीच लगभग सात लाख से अधिक किसानों ने आत्महत्या की हैवर्तमानमें इसमें और बढ़ोत्तरी हो रही है। अब भावी पीढ़ी अपने आपको किसान कहलवाने से बच रही है। वह किसानी छोड़कर कुछ भी करने केलिए तैयार है। क्योंकि किसानी कब गले की फ़ांस बन जाए पता नहीं।

 

शिक्षा आयोग ने 1964-66 में हर राज्य में कम से कम एक कृषि विश्वविद्यालय खोलने का प्रस्ताव दिया था। वर्त्तमान में देश में लगभग 668 कृषि विज्ञान केंद्र बनाए गए है। इसके बावजूद भी भावी पीढ़ी कृषि व्यवस्था से दूर भाग रही है। वे इंजिनीअर,अध्यापक, डॉक्टर, पत्रकार, कलाकार आदि बनना चाहते हैं , किंतु किसान नहीं। अगर कोई अच्छी नौकरी छोड़कर खेती करता है तो दुनिया उसे पागल घोषित करती है। खुद किसान माँ-बाप भी नहीं चाहते कि उनका बेटा किसान बनेक्योंकि हम कृषि की संभावनाएँ एवं क्षमताओं से अपरिचित है। वर्त्तमान निराशाजनक माहौल ने युवा कृषि के सपनों को ध्वस्त किया है। लेखिका इस सोच में परिवर्तन चाहती है। यह आसान नहीं है, लेकिन मुश्किल भी नहीं है। लेखिका कहती है, “कृषि विशेषज्ञों की माने तो कृषि ही एक ऐसा क्षेत्र है जो कभी ‘आउटडेटेड’ नहीं होगा। जब तक मनुष्य का अस्तित्व है तब तक भोजन की आवश्यकता कृषि को जीवित रखेगी। कृषि युवा उद्यमियों केलिए सोने की खान साबित हो सकती है यदि वे इसमें गहराई से उतरें और मेहनत करें। ”9मनुष्य, अनाज के बिना जीनव की कल्पना ही नहीं कर सकता, यही बात कृषि को सोने की खान साबित करती है। यही वजह है अब कई मल्टीनेशनल कम्पनियाँ खेती में निवेश करना चाहती हैं। हमारी निराशा में उनका ही फ़ायदा है। इसलिए सबसे जरूरी है खेती में कम लागत और युवा सोच में परिवर्तन। हमें यह समझना होगा कि खेती भारत का प्रमुख व्यवसाय होने के बावजूद भी हमारे मुख्य पाठ्यक्रम का हिस्सा नहीं है। हमें विश्वविद्यालयी स्तर पर ही युवाओं को खेती का महत्व एवं खेती की प्रक्रिया को समझाना होगा। कृषि विश्वविद्यालयों में जो पाठ्यक्रम पढाया जाता है वह मॉडर्न विज्ञान या पाश्चात्य कृषि वैज्ञानिकों के ज्ञान पर आधारित है। भारत की कृषि परंपरा विश्व में सबसे प्राचीन है। इस संदर्भ में भारत की ग्रंथ संपदा भी समृद्ध रही है। लेखिका ने हजार साल पहले लिखे ‘वृक्षायुर्वेद’ इस प्राचीन रचना की जानकारी दी है, जो भारत की प्राचीन कृषि ज्ञान-विज्ञान की समृद्धि की परिचायक है। 1996 में डॉ। वाय। एल। नेने ने यूके के बोल्ड़ीयन पुस्तकालय (ऑक्सफ़ोर्ड ) से इसकी पाण्डुलिपि प्राप्त की थी। प्राचीन देवनागरी में लिखी गयी इस किताब का अंग्रेजी में अनुवाद डॉ। नलिनी साधले ने किया है। इसमें पौधों की विशेषता, सुरक्षा और संरक्षण की व्यापक जानकारी मिलती है। जैसे, “इसमें श्लोकों द्वारा 170 पौधों की प्रजातियों, उनकी विशेषताएँ, उन्हें तैयार एवं पोषित करने की विधि, मिट्टी को पोषित करने की विधि, भूमिगत जल, पौधों की बीमारियाँ एवं उनके इलाज, सिंचाई, बागबानी आदि के बारें में बताया गया है। ”10हमें ज्ञान-विज्ञान की प्राचीन धरोहर को पाठ्यक्रमों में शामिल करना होगा। साथ ही खेती की पद्धति में भी बदलाव जरूरी है। क्योंकि यूरिया, खाद, कीटनाशक, हाइब्रीड बीज बाहर से आते हैं। इसीलिए इसके दाम ज्यादा होते हैं। ट्रैक्टर एवं सिंचाई केलिए तेल लगता है। जिससे किसान का खर्चा अधिक बढ़ जाता है। प्राकृतिक खेती से इस खर्चे में कटौती संभव है। स्थानीय बीज क्षेत्रीय जलवायु, जीव-जंतु, सूक्ष्म-जीव-कीटों के अनुकूल पनपते हैं, जिसपर प्राकृतिक आपदाओं का असर कम होता है। यह मिट्टी  में अपने अस्तित्व को बनाए रखते हैं। अपने पोषक तत्वों को खुद खोजते हैं। कुछ बीमारी होती है तो नीलगिरी, रतनजोत, सेंध्वायर, तंबाकू, नीम आदि देहाती नुस्कें से कीटनाशक बनाना आसान और किफ़ायती है। इन विधियों से कम लागत में अधिक उत्पादन करना संभव है। नुकसान हुआ तो उससे उभरना आसान है क्योंकि इस लागत केलिए किसान को कर्ज लेने की आवश्यकता नहीं होगी। युवाओं को समझना होगा कि प्रकृति की सुंदरता केवल पहाड़ों, जंगलों में नहीं बल्कि हर जगह है। पौधे भी संवेदनशील होते हैं। अतः हमें उनसे मनुष्य की तरह जुड़ना है। उनसे प्रेम करना है। पौधे हमें जीना और लड़ना सिखाते हैं। वे अपनी उर्जा को हमारे भीतर प्रवाहित करते हैं। स्वयं लेखिका इस अनुभव से गुजरी हैं। पाश्चात्य जगत में पौधों की संवेदना पर काफ़ी विचार अभिव्यक्त है। अरस्तु, कार्ल वोंग लीन, चार्ल्स डार्विन, बेस्टर आदि के विचार इस संदर्भ में महत्वपूर्ण है। 1960 के दशक में  बेस्टर‘पौलिग्राफिक डिटेक्शन’ का काम करते थे। पौधों को लेकर उन्होंने कई प्रयोग किए। उन्होंने सिद्ध किया कि पौधे महसूस करते हैं और अपनी संवेदना को अभिव्यक्त भी करते हैं। बेस्टर ने कहा कि, “एक बार यदि किसी पौधे की फ्रीक्वेंसी किसी इंसान से जुड़ जाती है, फिर वह दुनिया में कही भी रहें कितने ही लोगों के बीच रहें वह जुड़ी रहती है और पौंधा उसकी संवेदनाओं को इतनी दूर से भी महसूस कर सकता है”11 बेस्टरने इसे सिद्ध किया है। यदि प्रकृति के प्रति हमारा जुड़ाव हो जाए, हमारा नजरिया बदल जाए तो खेती से सच में सोना निकाल सकते हैं। इससे खेत बेचकर अमीर बनने की जो मंशा है, वह खेती जोतकर भी पूर्ण हो सकती है।

 

यह किताब कुल ग्यारह अध्यायों में विभाजित है। सभी अध्याय स्वयंपूर्ण एवं लेखिका के अनुभव, अध्ययन एवं मेहनत से परिपूर्ण हैं। ‘हल में जुता दूसरा कन्धा स्त्री का है’ नामक अध्याय अंकिता जैन की विशेष दृष्टि का परिचायक है। स्त्री होने के नाते स्त्री के दुःख-दर्द एवं सामाजिक विषमता को उन्होंने मार्मिकता से अभिव्यक्त किया है। स्त्री, पुरूष के कंधे से कंधा मिलाकर खेत में काम करती है। परिवार का भरण-पोषण करती है। बावजूद स्त्री को किसान का दर्जा प्राप्त नहीं है। क्योंकि इस देश में ज़मीन-जायदाद पुरुषों के ही नाम होते हैं। और खेत जिनके नाम पर है वही किसान कहलाता है। स्त्री बचपन में पिता के घर, शादी के बाद पति के घर और बुढ़ापे में बेटे के घर आश्रित होती है। क्या उसका खुद का कोई घर नहीं होता ? ये कैसी व्यवस्था समाज ने बनायी है, जो आजीवन स्त्री को गुलाम बनाकर रखती है। स्त्री खेती में बुवाई, रोपाई,सिंचाई, कटाई, जुताई, दवाई छिड़काव आदि सब काम करती है, फिर भी गृहिणी ही कहलाती है। कृषि वैज्ञानिक डॉ। स्वामीनाथन तो यहाँ तक कहते हैं कि ‘खेती का सूत्रपात और वैज्ञानिक विकास महिलाओं ने ही किया है’। बावजूद महिलाएँ अपने हक़, अधिकार, सम्मान से वंचित हैं । विश्व खाद्य एवं कृषि संगठन के अनुसार भारतीय खेती में महिलाओं का योगदान 32 प्रतिशत से अधिक है। लेखिका बताती हैं कि, “कृषि जनगणना 2010-11 को आधार बनायें तो आँकड़े कहते हैं कि लगभग 118। 7 मिलियन किसानों में से 30। 3 प्रतिशत महिलाएँ थीं। कृषि मजदूरों में भी 144। 3 मिलियन कृषि मजदूरों में से 42। 6 प्रतिशत महिलाएँ थीं । लेकिन इनका स्वामित्व देखा जाए तो वह जोतों की कुलसंख्या के आगे न के बराबर है। हालाँकि कृषि जनगणना 2015-16 की रिपोर्ट कहती है कि पिछले पाँच  सालों में परिचालन संपत्ति पर महिलाओं का स्वामित्व बढ़ा है। एक प्रतिशत ही सही बढ़ा है। 2010-11 में जो 12। 79 प्रतिशत था,2015-16 में वह बढ़कर 13। 87 प्रतिशत हो गया है। यानी कुल 146 मिलियन परिचालन संपत्ति में से महिलाओं का हिस्सा अब 20। 25 मिलियन है। ”12ये जानकारी महिलाओं की यथास्थिति को दर्शाती है। हम महासत्ता बनने की ओर अग्रेसर हैं, मगर हमारी सोच परंपरा के बंधनों में जकड़ी हुई है। एक पहिए को पीछे ढकेल हम महासत्ता बनने का लक्ष्य हासिल नहीं कर पाएँगे। किताब में उल्लेखित नीलमणि, मीना, शामली, दिलीप बाबू की माँ आदि का संघर्ष इसी बात को रेखांकित करता है। मीना को तो अपना अधिकार पाने केलिए अपने ही परिवारवालों से संघर्ष करना पड़ा। यह तो महज़ प्रातिनिधिक है। औरत की लड़ाई तो जन्म से लेकर मृत्यु तक चलती रहती है। यह अंतहीन यात्रा है। क्योंकि महिलाओं के दुःख-दर्द का अंत ही नहीं है। वे मशीन की तरह घर, परिवार और खेती में काम कर रही हैं। कृषि वैज्ञानिक मानते हैं कि महिलाओं को कृषि संबंधित तकनीकी ज्ञान और समान अधिकार दिए जाएँ तो कृषि में और मुनाफ़ा बढ़ जाएगा। किंतु सबसे पहले स्त्री को किसान रूप में पहचान दिलाना ज़रूरी है। संजीव ने भी ‘फ़ांस’ उपन्यास में आशा वानखेड़े नामक महिला किसान का चरित्रांकन किया है। इस उपन्यास का पात्र विजयेंद्र कहता है, “ महिलाएँ क्या नहीं कर सकती, बल्कि महिला किसान तो शेती (खेती) के साथ ही साथ बाकी जिम्मेदारियाँ भी संभालती है। परिवार, रसोई, बच्चों की भी और मर्द की सारी जिम्मेदारियाँ भी। आज रसोई में क्या बनेगा से लेकर किस खेत में बीया पड़ेगा, सब्जी में कौन-सा मसाला पड़ेगा से लेकर किस फ़सल में कौन-सी खाद पड़ेगी, बच्चे पैदा करने से लेकर संतानों तक केलिए सारे खर्चे जुटाने तक। ”13स्त्री के पास असीमित शक्ति और सामर्थ्य है। वह फिनिक्स की तरह उड़ना जानती है। इसीलिए तो वह आत्महत्याग्रस्त परिवार का पूरा बोज अपने कंधे पर लेकर जी रही है। पति ने भले ही आत्महत्या की हो वह अपने साहस और बलिदान से परिवार और खेती को सींचती है। अब हमें स्त्री के प्रति पारंपरिक और रूढ़िवादी नज़रिए को बदलने की आवश्यकता है। लेखिका ने इस अध्याय के बहाने हमें आत्ममंथन केलिए मजबूर किया है।

 

निष्कर्ष : ‘ओह रे!किसान’ यह किताब अंकिता जैन की कृषि और किसान के प्रति जुड़ाव का प्रतिफल है। लेखिका किसान को बेबस, असहाय, मजबूर  रूप में नहीं, ईमानदार और मेहनती व्यक्ति के रूप में देखती है। वैसे, हमारा अस्तित्व किसानों की मेहनत पर ही निर्भर है। भारत की कृषि परंपरा चार हजार साल पुरानी है। सदियों से किसान ने बिना थके, बिना रूके इस परंपरा का निर्वाह किया है। किंतु वर्त्तमान समय किसानों केलिए संघर्षपूर्ण है। दिनों-दिन उनकी समस्याओं में इजाफ़ा हो रहा है, जिसमें किसानों का अस्तित्व धूमिल हो रहा है। वर्त्तमान किसान पीढ़ी अपने अस्तित्व से जूझ रही है। यह किताब उस अस्तित्व को बचाने की जद्दोजहद करती है। ग्यारह अध्यायों में विभाजित इस किताब में भारत की प्राचीन कृषि परंपरा,जैविक खेती का महत्व, रसायनयुक्त खेती के दुष्परिणाम,पौधों की आतंरिक बुनावट आदि कई मुद्दों का सिलसिलेवार विवरण प्रस्तुत है। यह किताब चार दीवारी के भीतर नहीं, खेती के प्रत्यक्ष अनुभव एवं किसानों के साहचर्य से बनी है। लेखिका ने कृषि व्यवस्था के ज्ञान-विज्ञान को इसमें पिरोया है। इसे पढ़कर, समझकर खेती से संबंधित कई समस्याओं को सुलझाया जा सकता है। मनुष्य और प्रकृति के अभिन्न नाते को समझने के लिए भी इस किताब को पढ़ना आवश्यक है। यदि सरकार, प्रशासन, समाज एवं स्वयं किसान किताब में निर्देशित जानकारी का अनुसरण करें तो “ओह रे! किसान” से शुरू किसान की यह यात्रा “वाह रे! किसान” तक पहुँचेगी, ऐसा मुझे विश्वास है।

 

संदर्भ:

1. चम्पारण सत्याग्रह का गणेश, अजीत प्रताप सिंह, पृ. 31
2. ओह रे ! किसान, अंकिता जैन, पृ. 78
3. वहीं , पृ. 126
4. वहीं , पृ. 110
5. वहीं , पृ. 115
6. वहीं , पृ. 22
7. वहीं , पृ. 15
8. वहीं , पृ. 77
9. वहीं , पृ. 29
10. वहीं , पृ. 117
11. वहीं , पृ. 199
12. वहीं , पृ. 166
13. फ़ांस, संजीव , पृ. 150 

डॉ. महेश दवंगे
सहायक अध्यापक, हिंदी विभाग, सावित्रीबाई फुले पुणे विश्वविद्यालय, पुणे-07

 अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)  अंक-41, अप्रैल-जून 2022 UGC Care Listed Issue

सम्पादक-द्वय : माणिक एवं जितेन्द्र यादव, चित्रांकन : सत्या कुमारी (पटना)

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