साक्षात्कार : 'अच्छी और सबल प्रेम कहानी लिखना खासा कठिन होता है।' ( मशहूर कथाकार प्रियंवद से विष्णु कुमार शर्मा )

'अच्छी और सबल प्रेम कहानी लिखना खासा कठिन होता है।'
28 फरवरी, 2022 की सुबह हुई मशहूर कथाकार प्रियंवद से विष्णु कुमार शर्मा की बातचीत)




विष्णु : अपने जन्म और परिवार के बारे में बताएं

प्रियंवद जी : जन्म तो मेरा यहीं कानपुर में हुआ। पढ़ाई मेरी सब कानपुर में हुई। मैं कानपुर के बाहर कहीं नहीं गया। मैं संयुक्त परिवार में रहा। पिता हमारे बहुत पढ़े-लिखे नहीं थे; बल्कि अनपढ़ से ही थे। मुड़िया भाषा होती थी उसमें दस्तखत कर लेते थे। लेकिन धीरे-धीरे काम करते रहे। मेहनत करते रहे। फिर भाई का व्यवसाय शुरू हुआ। तीस-चालीस साल की मेहनत के बाद हमारा परिवार एक व्यावसायिक परिवार के रूप में प्रतिष्ठित हुआ उसी परिवार में मैं पला-बढ़ा सबके साथ में परिवार में ही रहा। बस इतना ही है।


विष्णु : आपका चपन कहाँ और कैसे बीता? चपन की कोई यादें हो तो बताएं।

प्रियंवद जी : बचपन मेरा कानपुर में बीता। यहीं सारी पढ़ाई हुई और यही मैं रहा। बचपन कहे तो बहुत बर्बाद ही बीता क्योंकि तब घर बहुत छोटा था और लोग बहुत थे। घर में जगह ही नहीं होती थी, सुबह निकलते थे तो दिन भर घूमना-फिरना। देर रात घर लौटते। इस दौरान सब तरह के काम किए। सब तरह के खेल खेले पढ़ाई-लिखाई में बहुत दिलचस्पी नहीं थी। मैं अच्छा विद्यार्थी कभी नहीं रहा। सेकेंड क्लास में आता रहा। बस पास हो गए, यही किया। फीस जाए बेकार इसलिए मैं पढ़ता रहा। ठीक-ठाक आवारगी का चपन था। हमने वो सारे खेल खेले; वो सारे काम किए जो आवारगी की श्रेणी में आते हैं। ये सब कुछ मेरी कहानियों में जो आता है। कानपुर, ये गालियाँ या ये सड़कें जो कुछ आता है उसका कारण यही है कि उस समय मैं वही जिंदगी जीता रहा। ये सब मैंने बहुत बाद तक किया। बचपन क्या ये तो मैंने एम. . तक किया। उसके बाद धीरे-धीरे जब किताबों की तरफ रुझान हुआ और जब किताबे मैंने पढ़ना शुरू किया तब थोड़ा सा चीजें व्यवस्थित हुई और जिन्दगी भी


विष्णु : आपका मूल नाम क्या है और प्रियंवद नाम कैसे पड़ा?

प्रियंवद जी : मूल नाम देव कुमार जैन है और प्रियंवद नाम मैंने खुद ही रख लिया। मैं पढ़ रहा था भवभूति का उत्तररामचरित तो एक जगह यह शब्द था। मुझे अच्छा लगा तो मैंने रख लिया। उस समय रखा जाता था एक नाम, तो मैंने रख लिया

विष्णु : कब रख लिया? मतलब किस उम्र में रख लिया?

प्रियंवद जी : जब मैं बी. . के दौरान लेख वगैरह लिख रहा था तब रख लिया था। शुरुआती कविताओं में दोनों नाम है लेकिन बाद में प्रियंवद के नाम से ही छपी हैं।

विष्णु : एक जगह आपने कहा है कि अगर मैं लेखक नहीं होता तो एक छोटा-मोटा गुंडा होता

प्रियंवद जी : हाँ, मुमकिन है। मैंने कहा कि मैंने आवारगी के सब काम किये। तो निश्चित रूप से कोई छोटा-मोटा गुंडा होता। जो मेरी सोहबत थी, मैं काम करता था और कानपुर का जो उस समय माहौल था तो वो मुमकिन था। मेरे दोस्त थे जिनके साथ मैं क्रिकेट वगैरह खेलता था, वो बाकायदा जेल में बंद हुए थे और कत्ल भी किया था उन्होंने। आस-पास का माहौल ऐसा ही था। कोई पढ़े-लिखे दोस्त नहीं थे ............ मेरे दोस्त मामूली से थे। मेरा परिवार भी मामूली ही था मेरे घर में तो पढ़ने का कोई माहौल नहीं था बस किताबों ने बचाया और मैं उस तरफ से निकल आया


विष्णु : किताबों की ओर रुझान कैसे हुआ? घर का वातावरण ऐसा था या कोई अध्याप जिससे प्रेरणा मिली?
प्रियंवद जी : मेरे घर में किताब कोई नहीं पढ़ता था .............. नहीं, कोई अध्यापक भी नहीं। बस मैं ...... मैंने किताबों की शुरू चन्दा मामा, बालक, बेताल पचीसी, सिंहासन बत्तीसी आदि से की जो उस समय सड़क पर किराये से मिलती थीं। उसके बाद फिर जासूसी किताबें। मैं तो हमेशा कहता हूँ कि पढ़ने का चस्का लगाने में सस्ती जासूसी किताबों की बहुत बड़ी भूमिका है।

विष्णु : कैसे?

प्रियंवद जी : उससे पढ़ने की आदत पड़ती है। अगर चीज रोचक है तो इनसे पढ़ने की ये आदत ऐसी पड़ती है कि आप छह से आठ घंटे तक लगातार किताबें पढ़ सकते हैं। हाँ, ............ मैं बारह-बारह, चौदह-चौदह जासूसी किताबें एक साथ लाता था और सब की सब पढ़ जाता था। किराये पर मिलती थी चार आने में। फिर वापिस कर आता, फिर ले आता था। उससे ये हुआ कि धीरे-धीरे किताब पढ़ने की आदत बन गई। ....... किताब पढ़ना बोझिल नहीं लगता था। आधा घंटा पढ़ना मामूली लगता था। तो पढ़ते रहे हर तरह की किताबें। बच्चों की किताबें पढ़ीं जो उस समय निकलती थीं ..........नंदन, बालक, चन्दा मामा वगैरह ............ (कुछ सोचकर ) पराग तो बाद में आयी, कॉमिक्स निकलने लगे थे

विष्णु : कॉमिक्स?

प्रियंवद जी : हाँ, मेंड्रिक्स और फेंटम के कॉमिक्स खूब पढ़े ............ (कुछ सोचकर ) शुरू में हिंदी में फेंटम आया था, चाचा चौधरी वगैरह बाद में उसको देख कर आए। तो ये मैं सब पढ़ता रहा। जासूसी कहानियां पढ़ीं। जासूसी नॉवल पढ़ें  ‘जलती सिगरेट की कसमटाइप के। प्रेम वाजपेई, प्यारेलाल आवारा ..........

विष्णु : मनोहर कहानियांपढ़ीं?  

प्रियंवद जी : ये सब बाद की हैं। मनोहर कहानियां का स्तर तब इतना खराब नहीं था। लेकिन ये जो जलती सिगरेट की कसम, चलते फिरते ले .......... प्रेम वाजपेयी, प्यारेलाल वगैरह कुछ लेखक थे। से ऊपर गुलशन नंदा थे। गुलशन नन्दा का स्तर इनसे बेहतर था। बहुत हिट थे उस समय। गुलशन नंदा को जब मैंने पहली बार पढ़ा तो उसके छब्बीस उपन्यास थे, सब पढ़ गया था मैं। किराए पर मिलते थे उस समय। गुरुदत्त को मैंने उस समय बहुत पढ़ा। दत्त भारती को पढ़ा। थानवी को मैंने बहुत पढ़ा। पेपरबैक में बहुत सस्ते आते थे। फिर जब यहाँ तक पढ़ा तो फिर वो ग्राफ उठता चला गया धीरे-धीरे। फिर ये पढ़ने के बाद धीरे-धीरे बंगला उपन्यासों को जब पढ़ना शुरू किया तब समझ आया उपन्यास क्या होता है? मैंने पहले बंगला उपन्यास पढ़ें; हिन्दी उपन्यास बाद में। बंगला उपन्यासों का हिन्दी अनुवाद खूब आता था। लगभग सब बड़े लेखक मैंने अनुवाद में पढ़े। धीरे-धीरे बस आदत हो गई।


विष्णु : लेखन की शुरू कब और कैसे हुई ?

प्रियंवद जी : उसी दौरान, पढ़ते-पढ़ते। लेख, कविता वगैरह लिखना तो मैंने बी.. में शुरू कर दिया था।

विष्णु : कानपुर साहित्य की दृष्टि से बहुत ही उर्वर भूमि रहीं है। महर्षि बाल्मीकि से लेकर गिरिराज जी तक बहुत समृद्ध परम्परा यहाँ देखने को मिलती है। तो आपके साहित्यकार बनने में कानपुर की आबोहवा की क्या भूमिका रही ?

प्रियंवद जी : बहुत बड़ी भूमिका है। मेरे साहित्यिक संस्कार और समझ सब कानपुर से ही बने हैं समझ से मतलब साहित्य की जानकारी से नहीं है। साहित्य और जीवन का जो सम्बंध है ..... वह जाना। एक लेखक के रूप में मुझे साहित्य को कैसे देखना है ? अपने जीवन में कहाँ रखना है ? ये सब यहीं सीखा। मेरे घर पर उस समय के कानपुर के सब साहित्यकार आते थे। जितने भी बड़े कवि और लेखक थे वे सब घर आते थे। मैंने देखा है। सुना है, छोटे से। मेरे जो संस्कार बने इसका कारण एक वो भी है। मैं बैठता था वहां और उनकी बातें सुनता था

विष्णु : बीज़ रूप में कहीं वो विद्यमान था ?

प्रियंवद जी : निश्चित रूप से बिल्कुल था। और मैंने देखा कि वो लोग सब गरीब, फटे हाल। बड़े-बड़े नाम सुना दूँ तो आपको हैरानी हो जायेगी। हिन्दी के बड़े पाखंडों में एक पाखंड मैं कहता हूँ कि रचनाकार का हत्यारा है हमारा समाज। हिन्दी समाज रचनाकार और लेखक का हत्यारा है। ये उसकी हत्या करता है। निराला, भुवनेश्वर, शैलेश मटियानी ............ आपको पच्चीस ऐसे नाम मिल जाएंगे। भूखे नंगे मरे हैं .........आपने कुछ नहीं किया। हत्यारे हैं आप श्याम लाल गुप्त पार्षद बड़ा नाम लिया जाता है........... ‘झंडा ऊँचा रहे हमारा...............’ फटी धोती पहने और नंगे पैर हमारे घर आते थे। हमने देखा है।


विष्णु : जी (विस्मित भाव से)

प्रियंवद जी : प्रतापनारायण श्रीवास्तव, सत्रह उपन्यास लिखे उन्होंने, मरे तो सोलह आदमी नहीं थे अर्थी उठाने वाले। शील जी... क्या मौत मरे हैं? अकारमें मैंने डिटेल्स दिया है। कंटक जी तीन बार जेल गए कविता पढ़कर। आप हिन्दी का एक कवि बता दीजिए जो रचना पढ़कर जेल गया हो। एक भी नाम नहीं है। आपातकाल में सब आगे-पीछे घूम रहे थे। समर्थन कर रहे थे इंदिरा गांधी का। कंटक जी जेल में थे और बीबी मरी तो पेरोल से भी नहीं छूटे। उनकी कविताएं ............ जेल से छूट कर आते थे अगले दिन प्रभात फेरी में निकलते थे और फिर उठाकर उन्हें बंद कर देते थे क्या चाल थी ? घुंघराले बाल यहाँ तक थे ......... केसरिया कपड़ा पहनकर झूमकर निकलते थे और  पढ़ते थे- ‘माँ कर विदा आज जाने दे। बलि वेदी पर चढ़ जाने दे। एक अंग्रेज भिखारी आया हमने तरस देख दुख पाया।............बंद होना ही था। हम तो इन सबको देख कर ही बड़े हुए हैं। तो साहित्य मेरे लिए दूसरी चीज है। मै अगर हिन्दी में तीस साल नहीं भटका। अपने रास्ते से विचलित नहीं हुआ तो उसका एक बहुत बड़ा कारण है।


विष्णु : एक समृद्ध परम्परा आपने देखी थी।

प्रियंवद जी : परम्परा क्या ! लोग देखें थे। बड़े साहित्यकार देखें थे। उनसे सीखा की साहित्य से आशय क्या होता है?

विष्णु : कहानियों पर हम बात करें तो... आप अपनी एक रचना में कहते है कि दुनियां में सिर्फ अधेड़ उम्र की औरत ही प्रेम करना जानती है किन्तु अधेड़ अवस्था में स्त्री हो या पुरुष वे थक चुके होते हैं। उनमें यौवन का उद्दाम आवेग थम चुका होता है। फिर आपने अधेड़ उम्र की अवस्था में प्रेम की बात कैसे कही?
प्रियंवद जी : (ठहाका लगाकर) ये हमने किस कहानी में कहा ? ..........ये बात तो समझनी पड़े कि यह बात कब, कैसे और कहाँ कही गई है? कोई पात्र कहता होगा।


विष्णु :  नहीं, लेखक ही कह रहा है।

प्रियंवद जी :  पता नहीं, कहा होगा।

विष्णु : आपकी अधिकांश कहानियों का केन्द्रीय विषय हैप्रेम। क्या प्रेम या स्त्री-पुरुष संबंध के अतिरिक्त समाज की अन्य समस्याएं महत्त्वपूर्ण नहीं हैं ?

प्रियंवद जी : नहीं। वो तो मैंने उसके लिखने का कारण जो है कहानी संग्रहउस रात की वर्षा में भूमिका में विस्तार से दिया है कि मैंने क्यों लिखी हैं ? उस हिसाब से तो मैंने शायद बाइस-तेईस प्रेम-कहानियां लिखी हैं। मतलब पैंतालीस-पचास कहानी में अच्छी खासी आधी संख्या है प्रेम कहानियों की मैं हर एक-दो कहानियों के बाद एक प्रेम कहानी लिखता रहा हूँ क्योंकि प्रेम कहानी लिखना मैं कठिन मानता हूँ उसे लिखना। तो अपने को भी एक कसौटी पर कसने के लिए लिखता हूँ एक अच्छी और सबल प्रेम कहानी लिखना खासा कठिन होता है।


विष्णु : आपने शुरुआत ही प्रेम कहानियों से की ?

प्रियंवद जी : हाँ, जब मैंने लिखना शुरू किया कि अस्सी के दशक में ........... उस समय खासतौर से तो प्रेम एक वर्जित विषय था। उस समय साहित्य में लिखते थे क्रांति पर, परिवर्तन पर, विचारधारा पर, समाज पर, यथार्थ पर... वगैरह वगैरह। तो जब मैंने लिखना शुरू किया तो तीनों प्रेम कहानियां लिखीं और तीनों ही छपी भी दो सारिका में और एक धर्मयुग में। और जब वो छप गई तो मेरे उपर लेबल लगा दिया कि प्रेम कथा लिखते हैं। और एक टैग लग गया पूंजीपति हैं, तो लोगों ने दो-चार साल बाद बहिष्कृत करना शुरू किया कि ये तो प्रेम कहानी लिखता है। तो मैंने थोड़ा-सा इसलिए और लिखीं कि ठीक है भई, तुम्हें बुरा लगता है तो... एक तो इसलिए लिखी। दूसरा मुझे सामाजिक ढांचा क्या कोई भी ढांचा पसंद नहीं आया। किसी भी सत्ता का ........... धर्म का, राज्य का, ना समाज का। जो बना बनाया जो कुछ भी स्थापित है, मैं उसके खिलाफ लिखता हूँ, उसके खिलाफ बोलता हूँ। तोड़ता हूँ। ये मेरे बुनियादी लेखन में है। मैं कन्फर्मिस्ट नहीं हूँ। स्त्री के समर्थन में लिखा लेकिन स्त्रीवाद  का मैंने समर्थन नहीं किया। 


विष्णु : मतलब, परम्परा से जो चला रहा है उसके समर्थन में कभी नहीं लिखा।

प्रियंवद जी : अगर कहीं होगा तो मैंने लिखा नहीं समर्थन में। लेकिन विरोध में जरूर लिखा। ये नहीं ............चाहे राजनीति पर हो, चाहे धर्म हो .............विरोध में धर्म के खिलाफ खूब मिलेगा और राजनीति के खिलाफ भी।

विष्णु : हमारे यहाँ एक विरोधाभास दीखता है कि हमारा भारतीय समाज राधा-कृष्ण को प्रेम के प्रतीक के रूप में पूजता हैं और फिर ये भारतीय लोग ही प्रेम का सबसे ज्यादा विरोध करते हैं?

प्रियंवद जी : भारतीय समाज बहुत ही पाखंडी है हर चीज में... दुर्भाग्य से। भारतीय समाज को भी छोड़ दें भारतीय शब्द भी गलत बोल दिया। 

विष्णु : हिन्दू समाज?

प्रियंवद जी : नहीं, .......देखि किसी को संज्ञा नहीं देनी चाहि

विष्णु : तो?

प्रियंवद जी : ये जो हमारी जो हिन्दी पट्टी है..... हम्म.... ये कह सकते हैं। तो ये तो खैर... राधा-कृष्ण की बात भी देखि, उसकी गहराई में जाएं। उसकी कहानी समझि तो राधा तो बड़ी थी कृष्ण से। छह साल बड़ी थी।
विष्णु : जी।

प्रियंवद जी : तो सम्बंध तो जो मैं कहता हूँ, वही था।

विष्णु : जी, बिल्कुल।

प्रियंवद जी : कोई लोक मान्य वाला सम्बंध तो था नहीं फिर क्या दिक्कत है जब वो है तो भइ।

विष्णु : और उसको स्वीकार करते हैं।

प्रियंवद जी : कर ही रहे हैं। आपके मंदिरों में सारे मंदिर वैसे ही बने हुए हैं। धर्मों में है। आपके धर्मों मे तंत्र शास्त्र है। देखि क्या है उनमें

विष्णु : बिल्कुल, बिल्कुल।

प्रियंवद जी : तो वो सब बड़ा घालमेल है। हमारा प्राचीन समाज काम को, सेक्स को, बुरा कभी नहीं मानता था। हमारे यहां तो आम्रपाली, वसंतसेना आदि सब .............. विश्व भर में कोई समाज इतना मुक्त और खुला हुआ नहीं था। दुर्भाग्य है कि आज हम यहां पर गए हैं

विष्णु : हाँ

प्रियंवद जी : लेकिन एक समय तो रहा

विष्णु : बिल्कुल

प्रियंवद जी : ये तो पीछे लौटते-लौटते हम यहाँ तक गए। हमारा जो आगे वाला.............. पुराना इतिहास जो है, वो तो बहुत मुक्त और खुला हुआ उसका इतिहास है। तो उसमें राधा-कृष्ण तो मामूली बात है। उसमें आपके यहां पंचकन्याएं भी तो हैं। मंदोदरी और तारा को आप देख लीजिए। आप द्रौपदी जैसा कोई चरित्र गढ़ सकते हैं ? कुंती को गढ़ सकते हैं ? जो कुँवारे में माँ बन जाती है। तो बड़ा सहज था ये।


विष्णु : आपकी कहानीये खण्डहर नहीं हैं में आप लिखते हैं कि औरत को कोई आदमी पूरी तरह तभी जान सकता है जब वो उसकी देह को जान ले। स्त्री उसकी देह पुरुष के लिए सदैव रहस्यमय रहीं है। पुरुष उसकी देह से आतंकित भी रहता आया है इसलिए उसने मर्दाना ताकत के लिए हज़ारों फार्मूले इजाद किए हैं। फिर भी अपने को पराजय  महसूस करता है। क्या है आखिर स्त्री की देह का रहस्य?

प्रियंवद जी : हा हा हा हा, वो कोई चरित्र बोला होगा, हाँ।

विष्णु : वेना जो इस कहानी की नायिका है, उसके सन्दर्भ में कहा है आपने ही

प्रियंवद जी : मैंने क्या ? नहीं, कोई पात्र ही बोल रहा होगा। लेखक थोड़े ही बोल रहा है

विष्णु : लेखक ही बोल रहा है।

प्रियंवद जी : नहीं, नहीं। हा हा हा हा...............कहानी में कुछ आया होगा ना, आप जिसको लेखक का कहा ही समझ रहे हैं... देखि ये जो है ना। अस्ल में, यहीं पर लोग कहते हैं कि मेरी कहानी जटिल हो जाती है। लेकिन स्त्री मनोविज्ञान को इस परिप्रेक्ष्य में देखना या दोनों के सम्बन्ध को इस परिप्रेक्ष्य में देखना; ये एक जटिल मामला है। इस पर लिखा नहीं गया है कभी हिन्दी में। सीधे-सीधे स्त्री चरित्र गढ़ लिए गए। जैनेन्द्र ने शायद थोड़ी बहुत बात की है। सीधे सीधे बात की लेकिन इस स्तर पर नहीं की किसी ने।


विष्णु : लेकिन अंत में आकर वो भी आदर्शवादी हो जाते हैं।

प्रियंवद जी : हाँ, इंग्लिश उपन्यासों में तो खैर मिल जाता है उस तरह का, वो द्वंद्व,वो चीज असल में बुनियादी झगड़ा सारा क्या है कि मैं जो निजी तौर पर मानता हूँ... मैं इसको अलग-अलग कभी नहीं करता.......... प्रेम और देह को। हिन्दी साहित्य में माना गया है कि वो अलग चीज है और ये अलग चीज है हिंदी साहित्य में प्लेटोनिक लव की बात की गई है। यह एक यूटोपिया है कि आप एक आदर्श प्रेम की कल्पना करते हो जिसमें त्याग-बलिदान की बात हो मैं उसको नहीं मानता। मैं जब भी प्रेम की बात करता हूँ तो अपनी इस बात को कहने के लिए, अपने इस पक्ष को रखने के लिए मैं बार- बार कहता हूँ कि उसके साथ देह का सहयोग होना जरूरी है वर्ना प्रेम-व्रेम नहीं होता तो जितनी बार भी मेरी कहानी में प्रेम आएगा उसके साथ देह अवश्य आएगी। तो ये सब वही तर्क है कि दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।


विष्णु : एक मनुष्य को प्रेम के तीनों रूपों प्लेटोनिक, रोमांटिक और एरोटिक की आवश्यकता होती है। एक स्त्री ये तीनों प्रेम एक ही पुरुष में चाहती हैं जबकि एक पुरुष को सम्भवतः तीन अलग-अलग स्त्रियां चाहिए इसके लिए क्या आप इससे सहमत हैं ?

प्रियंवद जी : नहीं, ऐसा है देखिए। ये प्लेटोनिक ............ (लम्बा विराम ) प्लेटोनिक शब्द तो एक अलग चीज है प्लेटोनिक तो ये हुआ कि वो एक कल्पना में ही है बस। वो यथार्थ में नहीं आता। तो उसको तो छोड़ दीजिए। बाकी दो यथार्थ के पर्याय हैं उसमें रोमांटिक भी है, उसमें दैहिक भी है। सब मिलाजुला होता है; अलग नहीं है


विष्णु : स्त्री-पुरुष संबंधो के अलावा भी तो हम प्रेम को देखते हैं; उसे आप किस श्रेणी में रखेंगे?

प्रियंवद जी : स्त्री-पुरुष संबंधों के अलावा.................. मतलब?

विष्णु :  जैसे मैं आपसे प्रेम करता हूँ

प्रियंवद जी : ये तो एक संबंध है।

विष्णु :  संबंध तो ये भी हैं - भाई-भाई का, भाई-बहन का, मित्र-मित्र का;  क्या इनमें प्रेम नहीं होता? .......इनमें तो कोई दैहिक संबंध नहीं होता। क्या इन्हें प्लेटोनिक लव की श्रेणी में नहीं रख सकते?

प्रियंवद जी : इसमें प्लेटोनिक से कोई मतलब नहीं है। ये एक ऐसा सम्बंध है कि दो रिश्ते हैं, उसका सम्बंध है।

विष्णु : प्रेम तो उसमें भी होता है ना? 

प्रियंवद जी : हाँ, प्रेम तो होता है। ये प्रेम दूसरा होता है। ये तो आत्मीय प्रेम है। संबंधों का प्रेम है

विष्णु : इस आत्मीय या भावनात्मक प्रेम को भी तो हम प्लेटोनिक की श्रेणी में रख सकते हैं?

प्रियंवद जी : नहीं, भावात्मक प्रेम नहीं। प्लेटोनिक मतलब भावात्मक नहीं हुआ। प्लेटोनिक का मतलब काल्पनिक मतलब ....... आप एक ...... प्लेटोनिक शब्द कैसे बनता है? प्लेटो ने एक यूटोपिया गढ़ा कि ऐसा समाज होना चाहिए, ऐसा राज्य होना चाहिए, उसमें एक राजा ऐसा हो, मतलब सबकुछ आदर्श।
अपनी रचनारिपब्लिक में उसने एक आदर्श समाज और राज्य की कल्पना की तो वो प्लेटोनिक हो गया।  प्लेटोनिक लव का मतलब एक ऐसा प्रेम जो वास्तविक जीवन में नहीं है, लेकिन ऐसा होना चाहिए। इतना पवित्र और ऐसा जो एक आदर्श स्थिति कल्पना में है वो प्लेटोनिक हो गया

विष्णु : एक स्त्री पुरुष के बीच में बौद्धिक और भावात्मक प्रेम भी हो सकता है?

प्रियंवद जी : हाँ, वो तो खूब होता है। बहुत होता है।

विष्णु : उसको किस श्रेणी में रखेंगे हम?

प्रियंवद जी : देखिए वो एक प्रेम ही है। प्लेटोनिक से कोई मतलब नहीं; वो तो काल्पनिक हो गया है जो कि आप बैठे-बैठे  विचार में कर रहे हैं। ...... स्त्री-पुरुष के बीच में बौद्धिक प्रेम होता ही है। हम कई लेखकों के बीच जानते हैं जैसे वो सार्त्र और सिमोन के बीच पहले प्रेम बौद्धिक स्तर पर ही शुरू हुआ था। देखि आपको एक मजेदार बात बताता हूँ कि मनुष्य जीवन में दैहिक प्रेम की जरूरत और उपस्थिति सबसे कम होती है। अगर कहीं आपका किसी से बौद्धिक  प्रेम है; समझदारी के स्तर पर अंडरस्टैंडिंग है तो वो ज्यादा बड़ी चीज है दैहिक अभिव्यक्ति उसकी बहुत थोड़ी होती है, बहुत थोड़े हिस्से में होती है

विष्णु : कैसे?

प्रियंवद जी : दैहिकता बहुत थोड़ी देर के लिए होती है लेकिन वो खारिज नहीं की जा सकती। होती तो है। तो कोई प्रेम में कितना ..........असल में प्रेम में कोई सीमा नहीं होती। प्रेम यदि बौद्धिक स्तर पर है तो दिक्कत की कोई बात ही नहीं है। .................. लेकिन जो बात आपने पहले कही कि तीनों प्रेम एक में ही मिले ........ मुश्किल से मिलता है ऐसा प्रेम। ऐसा कि आपका किसी से बौद्धिक प्रेम भी हो, दैहिक प्रेम भी हो और रूमानियत भी बची रहे। जरा-सा मुश्किल है, ऐसा होता नहीं, लेकिन हो जाए तो बहुत अच्छी बात है


विष्णु : मैं ये पूछना चाह रहा था कि एक स्त्री पति या प्रेमी में ये तीनों रूप चाहती है और पुरुष जो है सम्भवतः इन तीनों के लिए तीन अलग-अलग स्त्रियां खोजता है

प्रियंवद जी : नहीं, वो भी पा सकता है। तीन क्यों? एक क्यों नहीं हो सकती? हो सकती है। ऐसा तो स्त्री में भी हो सकता है और पुरुष में भी करीब-करीब अगर एक स्त्री और पुरुष के बीच लंबा संबंध चल रहा है तो जाहिर है कि दैहिक सम्बंध तो होगा ही। रूमानियत भी रहती है उसके बगैर नहीं चलेगा।  बौद्धिक प्रेम या आपसी समझ उसे आप जो चाहे कह ले; वह भी हो ही जाती है। वास्तव में सच तो ये है कि तीनों के साथ ही जीवन आगे बढ़ता है। कोई एक भी अनुपस्थित होगा तो संबंध में दिक्कत बढ़ जाएगी।

विष्णु : बहुत सारे पुरुष विवाह के बाहर प्रेम खोजते हैं और उसे इस तरह जस्टिफाई करते हैं कि वो एक बौद्धिक  प्रेम है। चूँकि मेरी पत्नी का बौद्धिक स्तर इतना नहीं है जितना मेरा है इसलिए मैं एक ऐसा साथी चाहता हूँ।आप क्या कहना चाहेंगे?

प्रियंवद जी : (मुस्कराते हुए ) ये सफाई आप भले ही दे लें कि आपका अपनी पत्नी से बौद्धिक प्रेम नहीं है और आप बाहर कोई ऐसा साथी ढूंढ रहे हैं वो एक अलग बात है। लेकिन पत्नी का बौद्धिक स्तर इतना नहीं है ........क्यों नहीं हो सकता है? खूब हो सकता है। ऐसा कुछ नहीं है। और बौद्धिक  प्रेम बाहर कहीं मिल जाए तो वो भी बड़ी बात है ना। अगर वो बाहर मिल जाता है तो वास्तव में एक उपलब्धि है। किसी को किसी स्त्री से बौद्धिक  प्रेम मिल रहा है तो जरूर करें। क्या दिक्कत है?

विष्णु : और उसमें तो कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए पत्नी को, समाज को और परिवार को?

प्रियंवद जी : पत्नी या परिवार को आपत्ति है या नहीं है, ये तो मैं नहीं कह सकता। क्योंकि वो बौद्धिक प्रेम कब तक बौद्धिक बना रहता है, आगे की हदों के पार नहीं जाता; इसकी कोई गारंटी नहीं है। क्योंकि मैं तो नहीं मानूँगा कि वो सिर्फ वही तक सीमित रहेगा। लेकिन रह गया और बौद्धिक  है तो कोई बुरी बात नहीं।


विष्णु : स्त्री प्रेम में व्यवस्था चाहती है। विवाह स्त्री की सबसे बड़ी साध है, सम्भवतः पुरुष की नहीं। रांगेय राघव की कहानी गदल की नायिका पचास की वय में भी अपने पति की मृत्यु के उपरांत अपने प्रेमी देवर से विवाह करना चाहती है। इस बारे आप क्या सोचते हैं ?

प्रियंवद जी : देखिए विवाह चाहने के दो कारण हैं। एक आर्थिक सुरक्षा, दूसरी सामाजिक सुरक्षा। अविवाहित स्त्री के लिए समाज में बड़ी कठिनाई है। लोग बातें करते हैं। उसके लिए बहुत-सी असुरक्षा की स्थितियाँ हैं एक दूसरी उसकी संतान की अगर इच्छा है तो अगर विवाह व्यवस्था से ही पूरी होती थी हालांकि अब तो कानून बन गए हैं। विवाह के बिना भी संतान संभव है पर उसमें अभी भी दिक्कतें हैं। स्त्री के साथ दो चीजें हैं - तो उसे विवाह के  बाहर सोचना सिखाया गया है और ही वह बाहर की दुनिया जानती है। जिसको आप कह रहे हो वो उसकी साध है। साध तो क्या है वो उसकी सीमा है। वो सिर्फ ये जानती है कि विवाह करना ही है हम को। अगर विवाह नहीं करेगी तो कहां जाएगी? या तो वो आर्थिक रूप से इतनी सक्षम हो .........जैसी आजकल की लड़कियां हैं .... नहीं करती .... बिल्कुल नहीं करती विवाह। वो अपना निर्णय ले रहीं हैं। चाहे वो लिव इन हो ... मतलब वो चाहे जैसे अपना जीवन जी रहीं हैं। आर्थिक सुरक्षा होगी तो विवाह संस्था पर असर पड़ेगा और स्त्री की यदि संतान की इच्छा नहीं है तो और पड़ेगा। ये भी उससे ही जुड़ी चीज है। और चूंकि भारतीय समाज का बहुत बड़ा हिस्सा पिछड़ा या पुरानी सोच का है इसलिए आप उसे स्त्री की साध कह रहे हैं


विष्णु : मतलब कंडीशनिंग ही ऐसी है?

प्रियंवद जी : बस इतनी ही बात है और कुछ भी नहीं। पुरुष भी ऐसा ही चाहता है, वो भी इसके आगे नहीं सोच पाता। वो ........... उसके साथ निजी जरूरतों के लिए भी शादी करता है। भई वो मान कर चलता है कि पत्नी आएगी तो खाना वगैरह........... दुनिया भर की चीजें उसको मिल जाएंगी तो ये इस तरह का मामला है तालमेल वाला और जरूरत वाला इसके आगे कुछ नहीं

विष्णु : आपकी हर तीसरी चौथी-कहानी की नायिका विवाहेतर संबंधो को उन्मुक्त भाव से जी रहीं है; उसे दाम्पत्य पवित्र का दंश चुभता है और ही इसका अपराध बोध है। हालांकिहोठों के नीले फूलमें बूबा के होंठ इसी अपराध बोध से नीले पड़ जाते हैं। आपके अनुसार इस बहुस्तरीय भारतीय समाज में इन विवाहेतर संबंधो की सामाजिक स्वीकारिता कहाँ तक हो सकी है ?

प्रियंवद जी : नहीं, सामाजिक स्वीकार्यता तो नहीं होगी स्वीकार। वो इसलिए नहीं होगी क्योंकि ये कानूनन अपराध है। आप अगर विवाहित होते हुए भी विवाह के बाहर जाकर सम्बंध बनाते है तो आप अपराध करते हैं अगर पकड़े जाते हैं तो आप


विष्णु : अभी 2020 में इस कानून को खत्म किया है सुप्रीम कोर्ट ने।

प्रियंवद जी : हाँ, अब अगर खत्म किया हैलेकिन उस समय तो ये अपराध था। कोई मतलब ही नहीं है और पता लग गया तो पता लग गया नहीं तो करता रहे कोई। अब अगर इसको अपराध की दृष्टि से हटा दिया तो सुप्रीम कोर्ट ने मेरी ही बात को माना ना।

विष्णु : हा हा हा

प्रियंवद जी : मैं इस बात को तब से कह रहा हूँ कि ये होना चाहिए।  

विष्णु : लेकिन समाज तो कानून से भी ऊपर चलता है

प्रियंवद जी : नहीं, कानून के ऊपर नहीं चलता।

विष्णु : कानून की बहुत सारी बातों को नहीं मानता समाज

प्रियंवद जी : नहीं, वो एक अलग बात है।

विष्णु : प्रेम तो विवाह या अविवाहित होकर….

प्रियंवद जी : नहीं, अपराध से मुक्त किया है केवल। स्वीकृति तो कोई भी नहीं देगा। कौन देगा? हम भी नहीं देंगे। कहने की बाते हैं। कोई भी नहीं चाहेगा। दो संबंध कौन जीना स्वीकार करेगा! कोई भी नहीं करेगा। इसलिए मैं अपनी कहानियों में ये सब दिखाता हूं। क्योंकि इसके बहाने मैं समाज की रूढ़ियों और मान्यताओं को ठोकर मारता हूँ


विष्णु : लेकिन बूबा तो अंततः अपराध बोध से ग्रस्त है।

प्रियंवद जी : बूबा मेरी दूसरी कहानी है। उसके बाद नहीं लिखा मैंने। उसमें मुझे थोड़ा एहसास हो गया था ग्लानि या अपराध मानती है वो, इसके लिए यम और यमी का सन्दर्भ भी लेती है। यम भी अपराध मानता है वो तो विवेक का सबसे प्रचण्ड उदाहरण है। ......... लेकिन उसके बाद मैने अपराध बोध नहीं दिखाया।


विष्णु : नहीं दिखाया, ठीक बात है। आपकी कहानियों में पुरुष पात्रों की तुलना में स्त्री अधिक सशक्त हैं कि कैक्टस की नाव देहएक पीली धूप, दावा कुछ कहानियां उदाहरण के रूप में देखी जा सकतीं हैं। उपन्यास परछाईं नाच का अनहद भी कमजोर पात्र हैं। पुरुष पात्रों में साहस और निर्णय का अभाव दीखता है। लगता है वे बस परिस्थितियों का लाभ उठाना चाहते हैं, दायित्व से बचना चाहते हैं। प्यार भी तो एक जिम्मेदारी है ?
प्रियंवद जी : ये मैं मानता हूँ कि बहुत से मामलों में स्त्री बहुत सशक्त होती है। पुरुष नहीं होते। निजी गुणों में भी स्त्री ज्यादा ताकतवर होती है। जो गुण हम मानते हैं कि मनुष्य को ऊपर उठाते हैं या एक श्रेष्ठ मनुष्य में होने चाहिए वो स्त्रियों में अधिक होते हैं। धैर्य है, सहानुभूति है, करुणा है; ये सब पुरुष की तुलना में स्त्री में अधिक होते हैं प्रेम भी वो निष्ठा के साथ करती है, संबंधो को भी निष्ठा के साथ जीती है। ..............(कुछ सोचकर) मेरा ऐसा मानना है कि स्त्री में ऐसा होना एक कुदरती चीज है। पुरुष पात्र इसलिए थोड़ा सा कमजोर दिखाते हैं कि इससे स्त्री पात्र सशक्त होता है। पुरुष को थोड़ा सा अनिर्णय और दुविधा में दिखाएंगे तो स्त्री निर्णायक की भूमिका में दिखेगी।

विष्णु : तो आपकी कहानियों को स्त्री-सशक्तीकरण की कहानियां कहा जा सकता है?

प्रियंवद जी : इस क्षेत्र में तो हैं ही। निजी स्वतंत्रता के क्षेत्र में, प्रेम के क्षेत्र में

विष्णु : इसे आपका बोल्ड स्टेप कहा जा सकता है?

प्रियंवद जी : बिलकुल। है ही।

विष्णु : विवाह संस्था के ढांचे को लेकर आप क्या कहना चाहेंगे?

प्रियंवद जी : मैं उसके समर्थन में नहीं हूँ। मैंने विवाह नहीं किया। हांसंबंध का महत्त्व ज़्यादा है। संस्था तो समाज के लिए है। अविवाहित रहना तो हमारा अपना चुनाव  है। कोई रह सकता है, अपनी इच्छा से। साथ रह सकता है, अलग रह सकता है। देखिए विवाह का जो ढांचा है हमारा मैं उसके खिलाफ नहीं बोल रहा। वो तो होना ही है और कमोबेश दुनिया मे वही होता है। थोड़ा बहुत उन्नीस-बीस होता है। ऐसा नहीं है कि और देशों में बड़ा कुछ फर्क होता है। लेकिन मैं व्यक्ति की निजता और स्वतंत्रता के पक्ष में खड़ा हूँ। ..............लेकिन जब मुझसे कोई पूछता है विवाह करूँ या नहीं करूँ? तो कहता हूँ –‘भइ, जरूर करो जीवन तो नहीं काट पाओगे। मेरे पास स्थितियां दूसरी थी। मैं तो निकाल कर ले गया, तुम्हारी वो स्थितियां नहीं हैं


विष्णु : जी, हमारे यहाँ विवाह का जो परंपरागत रूप चलता है उसमें बहुत सारी समस्याएं हैं। वहाँ पर रिश्ता तो है लेकिन प्रेम नहीं है

प्रियंवद जी : बिलकुल, अगर स्त्री उसमें संतुष्ट है और उसको तोड़ना चाहती है और जिन्दगी में मुक्त होना चाहती है तो मैं उसका समर्थन करता हूँ। जब पहले स्त्री आर्थिक रूप से पुरुष पर निर्भर रहती थी, बाहर नहीं निकालती थी; तब उसके पर बहुत दबाव रहता था। आज वो दबाव नहीं है। अब तो स्त्रियां काम करती हैं, बराबर का अधिकार रखती हैं आज तो स्त्री बहुत बदल गई है


विष्णु : हाँ, आपके हिसाब से रिश्ता ठीक नहीं चल रहा  तो मुक्त हो जाना अच्छा है ?

प्रियंवद जी : आप देखिए कि आज तलाक नहीं मिलता।  सालों साल लग जाएंगे तलाक लेने में। आप ये मानने को तैयार ही नहीं हैं कि दो लोग अलग-अलग हो जाएं। कोर्ट आपको नहीं देगा। आजमा कर देखना चाहे तो देख लीजिए

विष्णु : कूलिंग पीरियड देगा।

प्रियंवद जी : पता नहीं। कोई बीस साल मुकदमा खींचेगा। दो लोग साथ नहीं रहना चाहते तो आपको क्या परेशानी है? लेकिन आदमी को वो अधिकार नहीं है। स्त्री अलग होना चाहती है तो आर्थिक स्थिति जाती है, बच्चे जाते हैं। वो दबी रहती है। अब कुछ स्थिति बदल रही है। अब स्त्रियाँ इस ढाँचे को तोड़ कर निकल रही हैं बहुत-सी फ़िल्में भी इस तरह की आयी हैं


विष्णु : बहुत सारे पुरुष भी निकालना चाहते हैं इस ढांचे से।

प्रियंवद जी : तो निकलना चाहिए, जबरदस्ती ......विवाह बंधन कोई बेड़ी तो नहीं हैं।

विष्णु : हाँ

प्रियंवद जी : शादी मतलब ........लोगों ने साथ रहने की एक कोशिश की, एक शुरुआत की। अब नहीं चल रहा है तो ठीक है, उसे घसीटने की क्या जरुरत है?

विष्णु : लेकिन वो बेड़ी के रूप में ही समाज में दिखाई पड़ रहा है कि बहुत कम लोग दाम्पत्य जीवन में संतुष्ट हैं। अदरवाइज तो ज़्यादातर असंतुष्ट ही हैं समझौतावादी स्वभाव ज्यादा दिखाई देता है।

प्रियंवद जी : आज बहुत मुश्किल हो गया  है। आज लड़का-लड़की शादी नहीं कर रहे हैं। शादी की तो बच्चे नहीं कर रहे हैं कर रहे हैं तो एक ही बच्चा। भाई क्या होता है? बहन क्या होती है? बच्चा ये नहीं जानता। रिश्ता क्या होता है नहीं जानता

विष्णु : मौसी-चाचा?

प्रियंवद जी : वो सब तो छोड़ ही दीजिए। तो जिस सामाजिकता को लेकर विवाह का ढांचा बनाया गया था वो आज नहीं है। जैसे मैं एक संयुक्त परिवार में रहा तो मुझे तो सब मालूम है। तो जो वो सुरक्षा मिलती थी वो गायब है। तो विवाह अगर आप करते हैं और दोनों नौकरी करते हैं तब यह कल्पना तो हमारे पारंपरिक समाज में नहीं है पारंपरिक समाज में तो दोनों की भूमिका बँटी हुई थी आज ऐसा नहीं है। आज आपको बहुत-सी चीजों के साथ तालमेल बैठाना पड़ता है अक्सर वो नहीं बनता है। यह भी वजह है।

विष्णु : और दबाव भी बहुत सारे हैं।

प्रियंवद जी : तो फिर इसको जबरदस्ती खींचने का भी कोई मतलब नहीं है आप अलग होना चाहते हैं तो आप हो लें

विष्णु : लेकिन अलग होने की प्रक्रिया आसान नहीं है।

प्रियंवद जी : नहीं।       

विष्णु : इसलिए ऐसे सम्बंध जन्म ले रहे हैं

प्रियंवद जी : अगर कोई स्त्री विवाहित सम्बंध या प्रेम सम्बंध में है तो सबसे पहले इस रूप में विद्रोह फूटता है कि आपको उसकी जगह कोई दूसरा व्यक्ति अच्छा लगने लगता है आप उसके साथ समय बिताना चाहते हो उसके साथ बैठना चाहते हो। अब ये तो बड़ी यंत्रणा है कि जिसके साथ आप रह रहे हो उसको पसंद नहीं कर रहे हो।  और फिर ये और बड़ी यंत्रणा है जब दैहिक स्तर पर आपको वो सब करना पड़ता है जिसे उसके साथ करना आप पसंद नहीं  करते तो ये मेरी रचनाओं में कभी इस रूप में आता है कि उस यंत्रणा से मुक्त होने का उसे अधिकार है।
विष्णु : नदी होती लड़की में आपने ये दिखाया है। 

प्रियंवद जी : हां, पूरी कहानी ही इसी चीज पर है इसलिए मेरी रचनाओं में ऐसे सम्बंध आपको दिखते हैं जो ये कहना चाहते कि आपको ये हक मिलना चाहिए।

विष्णु :  कुछ आलोचको और पाठकों ने आपकी कहानियों की नायिकाओं की मुखर यौन अभिव्यक्ति के लिए उनके लिए बोल्ड विशेषण का उपयोग किया है। तो अपनी नायिकाओं के लिए बोल्ड शब्द को आप किस तरह ग्रहण करते हैं?

प्रियंवद जी : (मुस्कराते हुए ) बोल्ड का क्या मतलब है? इसमें बोल्ड क्या है? स्वाभाविक जीवन की बात है। उसमें बोल्ड क्या?

विष्णु :  साहसिकता से लेते हैं या ?

प्रियंवद जी : किस बात का साहस ? इसमें साहस क्या हैं ? जीवन की अभिव्यक्ति है यह तो इसमें साहस क्या? हाँ, साहस आप कहि जब कोई मन हो हा हो उसको तोड़ा हो

विष्णु : स्त्री तो बंधन में ही है।

प्रियंवद जी : उसमें साहस की क्या बात है? उसमें तो मुक्ति की बात है। बोल्ड होने के बजाय कहें कि वो मुक्त है इसलिए मुक्त दिखाया है। किसी गुलामी को तोड़ना, किसी मन को तोड़ना, अत्याचार को तोड़ना; वो उसकी मुक्ति है साहस तो चाहिए ही मुक्ति के लिए। बोल्ड का मतलब, कहते हैं जो काम किसी ने अभी तक नहीं किया वो आपने कर दिया तो कहा जाता है कि बोल्ड का काम कर दिया।


विष्णु : यौनिकता या यूँ कहे कि प्रेम का एरोटिक-रोमांटिक रूप खुलकर आपकी कहानियों में अभिव्यक्त हुआ है। चूँकि सेक्स एक प्राकृतिक आवेग है लेकिन क्या व्यक्ति की सहजता और सामाजिक व्यवस्था के लिए इसका नियमन और प्रबंधन आवश्यक नहीं है?

प्रियंवद जी : नहीं, समाज कौ होता है? समाज में कौन तय करेगा? और कैसे तय करेगा? जो तय करेगा उसका कितना विवेक है?  कितनी समझ है? जीवन को कैसे जिएं ये कोई धर्म गुरु तय कर देगा क्या? जैसे आज हो रहा है।


विष्णु : हाँ।

प्रियंवद जी : क्या खाना है? क्या पहनना है? हम तो नहीं करने देंगे। कौन तय करेगा सब?

विष्णु : जी।

प्रियंवद जी : समाज क्या होता है?  समाज तो बहुत परतों वाली चीज है। उसमें कौन तय करेगा? कोई नहीं तय करेगा। ठेकेदार बनाने का क्या मतलब है भइ? कौन उसको ठेकेदार बनाएगा? या तुम तय करोगे? किसने उसको  अधिकार दिया? राज सत्ता में तो समझ में आता है कि जनता ने तुम्हें चुनकर या वोट देकर अधिकार दे दिया? समाज में किसने दे दिया? हमारे बारे में कोई बात समाज क्यों तय करेगा? मेरा जीवन है, मैं तय करूँगा।

विष्णु : लेकिन सामाजिक व्यवस्था तो चाहता है ना मनुष्य? समाज अपने आप में एक व्यवस्था ही तो है।
प्रियंवद जी : बुरी व्यवस्था है। मैं पहले ही कह चुका हूँ। समाज बुरी व्यवस्था है।

विष्णु : स्त्री के सम्बंध में बात करे तो अधिकांश स्त्रीवादी विचारकों और लेखकों ने सदियों से चले रहे स्त्री शोषण के लिए पितृसत्तात्मक व्यवस्था के टूल के रूप में विवाह और परिवार को उत्तरदायी माना है आप किसे मानते हैं? और इनके विकल्प क्या हैं?

प्रियंवद जी : ये बात तो ठीक है। मैं कह रहा हूँ विवाह और परिवार तो उस पर अंकुश करता ही है और पितृसत्तात्मक व्यवस्था का अंश भी है। विकल्प है कि आप स्त्री को आजाद करो, मुक्त करो वह अपना जीवन जिए।


विष्णु : इसी व्यवस्था में रहते हुए?

प्रियंवद जी : नहीं, कोई जरूरी नहीं है। अब तो बहुत-सी आजादी कोर्ट ने दे दी है। लिव इन रिलेशनशिप है, समलैंगिकता है, दो स्त्रियाँ साथ रह लें, विवाह कर लें; बहुत सी चीजें दे दी हैं तो आप उसका उपभोग करि
विष्णु : लेकिन लिव एक व्यवस्था तो नहीं है। लिव में जो दो लोग आज साथ में रह रहे हैं, कल यदि वो अलग हो जाते हैं तो उनसे उत्पन्न जो बच्चे हैं, उनकी जिम्मेदारी किसकी होगी?

प्रियंवद जी : नही, कानून ने कुछ किया होगा और कुछ स्पष्टीकरण दिया होगा। और अगर उसमें नहीं है तो इस चीज को तय कर सकते हैं यह एक कानूनी मसला है।

विष्णु : सामाजिक मसला भी है?

प्रियंवद जी : सामाजिक मसला क्यों है? वो मिलकर तय कर लेंगे क्या किसकी जिम्मेदारी होगी?

विष्णु : बच्चे को बड़ा होने में परिवार तो चाहिए?

प्रियंवद जी : नहीं, बिल्कुल नहीं चाहिए। सड़कों पर लाखों बच्चे लावारिश पैदा होते हैं, बड़े होते हैं, अनाथ हैं,

उनको कौन पालता है?

विष्णु : लेकिन अच्छी परवरिश के लिए परिवार की तो भूमिका है ही।

प्रियंवद जी : तो ये जिम्मेदारी किसकी है? कोई बच्चा अनाथ है, .............कोरोना में जिनके माँ बाप मर गए, उनकी अच्छी परवरिश कौन करेगा ? करे राज्य। समाज के  ठेकेदार कोई आगे आएं जो समाज के ठेकेदार भाषण देते हैं हर चीज पर वो आगे आएं ना। इनकी परवरिश करें। कौन रोकता है? धर्म इनकी परवरिश करें ........... कोई नहीं करेगा। दुनिया में सभी की परवरिश घर और समाज थोड़े ना करता है। एक गरीब का बच्चा कैसे पढ़ता है? उसके पास तो स्कूल जाने का पैसा है और कुछ है कौन परवरिश कर रहा है? कोई नहीं कर रहा। तो फिर क्या चिंता की बात है? जिसको चिंता है वो उनका ठेका लें। समाज करें इंतजाम। समाज बना ही इसलिए था


विष्णु : हाँ।

प्रियंवद जी : वही बात, समाज क्या जिम्मेदारी निभा रहा है? समाज हम पर अंकुश लगाने के लिए है, गुलाम बनाने के लिए है, अपनी अय्याशी के लिए है बस। ऐसा समाज कल मरता हो आज, मर जा व्यवस्था कल ढहती है वो आज ढह जा किसको जरूरत है उस व्यवस्था को बचाकर रखने की? में तो नहीं है। किसी समझदार आदमी को नहीं है। उसको देता है क्या समाज? धर्म क्या देता है? राज्य क्या देता है? ये व्यवस्थाएं कल ढहती हो आज ढह जाए।

विष्णु : इसलिए आज की पीढ़ी धर्म, राज्य और समाज किसी की वाह नहीं करती।

प्रियंवद जी : अगर ऐसा करती है तो बिल्कुल उसे ऐसा करना चाहि देखि एक लेखक होने के नाते व्यक्ति की आजादी से बड़ा कुछ नहीं है मेरे लिए। उसकी स्वतंत्रता सब कुछ है। अराजक स्वतंत्रता। अगर आप अगला सवाल करेंगे कि कैसी स्वतंत्रता?  तो मैं कहूँगा अराजक स्वतंत्रता, कुछ भी करने की स्वतंत्रता

विष्णु : उसका समर्थन करते हैं आप?

प्रियंवद जी : हाँ, बिल्कुल। चाहे वो प्रेम हो, देह हो, कपड़ा हो, खाना हो, बोलना हो, संबंध हो, चाहे जीवन हो मैं उसका अराजक स्वतंत्रता का पक्षधर हूँ। अब ये सवाल : फिर ऐसा हुआ तब क्या होगा? तो पच्चीस सवाल ऐसे हैं ये होगा तो क्या होगा? वो होगा तो क्या होगा?  उसका जवाब तो हम नहीं दे पाएंगे गालिब का वो शे है

मर गया गालिब, पर अक्सर याद आता है

वो हर एक बात पर कहना, कि यूँ होता तो क्या होता?”


विष्णु : एक स्वस्थ समाज के लिए स्त्री और पुरुष की बराबरी जरूरी है। क्या ये यूटोपिया कभी यथार्थ बन पाएगा? आपकी दृष्टि में इसका क्या विजन होना चाहिए ?

प्रियंवद जी : सीधा सवाल तो ये है कि स्त्री पुरुष को बराबरी का अधिकार होना चाहिए? होना चाहिए। बिल्कुल होना चाहिए।

विष्णु : अभी तो नहीं है ना। उसके लिये क्या होना चाहिए?

प्रियंवद जी : कानूनी रूप से तो है। सामाजिक रूप से नहीं है। समाज ने नहीं दिया है। लेकिन देना चाहिए। नहीं देता है तो छीन लेना चाहिए स्त्रियों को। बहुत छीना है। बहुत ज्यादा छीना है हिजाब, बुरका, सती प्रथा और जौहर होता था। छीना है तभी तो मिला है। पूरी दुनिया में छीन रहीं हैं वो। अपना जेंडर वर्ग बना रखा है। आप स्त्री के खिलाफ बोलकर देखि वो सब एक हो जाती हैं।

विष्णु : हा हा हा। स्वतंत्रता के बाद स्त्री मे ज्यादा परिवर्तन आया है। मतलब वो ज्यादा बदली है।
प्रियंवद जी : हाँ, हक छीनना पड़ता है भई, पुरुष नहीं दे रहा है तो स्त्री छीन ले।


विष्णु : साहित्य और जीवन में नैतिकता या अनैतिकता या शील अश्लील के प्रश्न को आप किस नजरिए से देखते हैं? और साहित्य की नैतिकता और समाज की नैतिकता मे क्या कोई फर्क मानते हैं?

प्रियंवद जी : मैं इन प्रश्नो को नहीं मानता। शील और अश्लील कुछ नहीं होता। ये सब बनाई हुई परिभाषाएं हैं कि समाज में ये शील है, ये अश्लील है, नैतिक है, ये अनैतिक है। कानून नहीं कहता कि नैतिक-अनैतिक क्या होता है? उसकी अपनी भाषा है कि ये अपराध है, ये अपराध नहीं है

विष्णु : हाँ, तो क्या मनुष्य की अन्तश्चेतना तय करती है कि नैतिकता क्या है?

प्रियंवद जी : हमारी नैतिकता हम तय करेंगे। हम शराब पीते हैं, आप नहीं पीते तो मैं अनैतिक हूँ आपके लिए, मेरे लिए आप अनैतिक हैं जो नहीं पीते। अपना जीवन मैं तय करूँगा कि क्या करना है। नैतिक-अनैतिक तो मैं नहीं जानता। क्या करना है, क्या नहीं करना है, ये मैं तय करूँगा। नैतिक है कि नहीं? मैं नहीं जानता। अश्लील है कि नहीं? ये मैं नहीं जानता।

विष्णु : साहित्य के सम्बंध में आप इसको कैसे देखते हैं ?

प्रियंवद जी : ये जो बात मैं कह रहा हूँ ये बात मेरे साहित्य में  भी है। मैंने कभी नैतिक और अनैतिक की बाइनरी में कुछ नहीं कहा। कहा है तो जिसको अनैतिक कहते हैं, उसके पक्ष मे कहा है। मेरे स्त्री चरित्र वो सब काम करते हैं जो अश्लील है, जो अनैतिक हैं। मेरी ही बात है जो मैं कहता हूँ उनके माध्यम से।

विष्णु : हिन्दी कथा साहित्य में आप किन महिला चरित्रों को महत्वपूर्ण मानते हैं ?

प्रियंवद जी : कथा साहित्य में तो नहीं। जैसा मैंने पहले बताया था कि इतिहास के चरित्र मुझे बहुत आकर्षित करते हैं। खासतौर से वो स्त्रियां जो बहुत शक्तिशाली रहीं हैं जैसे क्लियोपेट्रा है, स्पासिया है, आम्रपाली है, वसंतसेना है, या जो अपने दायरे को तोड़कर नए तरीके से निकली हैं, वो मुझे  आकर्षित करती हैं। कथा साहित्य में अगर नाम से पूछना है तो पूछ लीजिए।

विष्णु : जैसे कृष्णा सोबती कीमित्रो

प्रियंवद जी : बिल्कुल आकर्षित करता है कृष्णा जी के यहाँ बहुत अच्छे चरित्र हैं। कृष्णा सोबती दमदार महिला थी। ठेठ पंजाबी। उनका एक खास तरह का रुआब था जो उनकी बातचीत और जीवन शैली में भी दिखता था। उनकी भाषा में भी एक अलग रवानगी थी, अलग रंग-ढंग था। ..............और दूसरों के यहाँ भी हैं जैसे ग़दल को ही लें क्या जबरदस्त चरित्र है?

विष्णु : हाँ।

प्रियंवद जी : शैलेश मटियानी की एक कहानी में भी एक बहुत अद्भुत चरित्र है। गफ़ूर नाम है उसका। देखिए, वही चरित्र मजबूत होगा जो तोड़कर परंपराओं को निकला होगा, जिसने कुछ नया किया होगा जो बेबाक होगा, वही आकर्षित करेगा और उसी में दम होगा।

विष्णु : सर थोड़ा रचना-प्रक्रिया के बारे में बताइये? आप कैसे लिखते हैं? एक सीटिंग्स में लिखते हैं कहानियां या कई बार में लिखते हैं?

प्रियंवद जी : मैं बीस मिनट से ज्यादा नहीं बैठता एक बार में। जब मैं हानी लिखता हूँ बमुश्किल एक पेज, पौन पेज .......बीस मिनट, पच्चीस मिनट से ज्यादा नहीं बैठता। फिर मैं उठ जाता हूँ टहलता हूँ बहुत टुकड़ों में लिखता हूँ। कहानी हमेशा टुकड़ों में लिखता हूँ लेख वगैरह लंबा कर सकता हूँ लेकिन वो एक सिटिंग वाला कोई मामला नहीं है। दिमाग में चलती रहती है वो एक अलग बात है। मैं सुबह ती बजे के करीब उठ जाता हूँ। तब लिखने का काम सिर्फ सुबह ही करता हूँ ये मेरी दिनचर्या दस पंद्रह साल से है। पंद्रह साल तो हो ही गए बल्कि बीस साल हो रहे होंगे। तो मैं लिखने का काम सुबह कर लेता हूँ। उसके बाद दोपहर शाम को पढ़ता हूँ। कुछ भी करता हूँ। और सात- साढ़े सात बजे सो जाता हूँ। तो छह-सात घंटे मेरा लेखन का काम होता है। चूंकि मैं इतिहास ज्यादा लिखता हूँ तो पढ़ना ज्यादा पड़ता है। कहानी दिमाग में चलने में बहुत ज्यादा समय लेती हैं। जब दिमाग में पक जाती है तभी मैं लिखता हूँ। समय नहीं लगता लेकिन दो चार दिन हो जाते हैं।

विष्णु : जी, बहुत शुक्रिया


विष्णु कुमार शर्मा
सहायक आचार्य, हिंदी, डॉ. बी. आर. अम्बेडकर राजकीय महाविद्यालय महुवा, दौसा
vishu.upadhyai@gmail.com, 9887414614
 

अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)  अंक-45, अक्टूबर-दिसम्बर 2022 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक व जितेन्द्र यादव चित्रांकन : कमल कुमार मीणा (अलवर)

2 टिप्पणियाँ

  1. पूरा साक्षात्कार मैंने कॉलेज की छुट्टी के बाद लॉन में खड़े-खड़े पढ़ा है।जवाब निश्चय ही सारे प्रियंवद नहीं हैं, अप्रियंवद भी हैं पर सत्यंवद जरूर हैं।प्रश्नों पर बहुत मेहनत की गई है।लेखन की पृष्ठभूमि से लेकर हिंदी लेखकों के अभावग्रस्त जीवन संदर्भों से गुजरता साक्षात्कार समाज, व्यक्ति स्वातंत्र्य, स्त्री पुरुष संबंध, नैतिकता, अनैतिकता, श्लीलता,अश्लीलता जैसे अनेक विषयों पर बेबाक राय रखता है।भेंटकर्ता ने बिना लेखक के कद से आतंकित हुए प्रतिप्रश्न किए हैं, असहमति के स्वर में सवाल पूछे हैं।प्रियंवद जी के कथा चरित्रों को संदर्भित किया है।सहजता से आरंभ होती भेंटवार्ता एक विमर्श मूलक संवाद की भंगिमा ग्रहण करता सा लगता है।प्रियंवद जी की बेबाकी 'ओशो' की याद दिलाती है।विष्णु जी ने बहुत मेहनत की है पर कौशल से उसे इतना सहज बना दिया है कि ''आयास' कहीं नजर नहीं आता।

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  2. मनीष कुमारअप्रैल 06, 2023 12:02 pm

    समसामयिक सामाजिक संदर्भों में महत्वपूर्ण बातचीत! शुक्रिया प्रियंवद जी, विष्णु जी, अपनी माटी!

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