शोध सार : राजस्थान, भारत के राज्यों में सबसे सुन्दर एवं खूबसूरत राज्य है। राजस्थान की संस्कृति विश्व में मशहूर है। राजस्थान की समृद्ध संस्कृति में विभिन्न समुदायों और शासकों का योगदान रहा है। जब कभी भी राजस्थान का नाम लिया जाता है तो हमारी आखों के सामने थार रेगिस्तान, ऊंट की सवारी, घूमर और कालबेलिया नृत्य और रंग-बिरंगे पारंपरिक परिधान आते हैं। राजस्थान में पाग-पगड़ी या साफा पहनना उस परंपरा का निर्वहन है जिसमें “सिर पर सवा सेर सूत रखना” अनिवार्य माना जाता रहा है। सामाजिकमनोविज्ञान की दृष्टि से देखा जाए तो असल में पाग-पगड़ी व्यक्ति को उसकी सामाजिक भूमिका के प्रति हमेशा सजग रखती है। राजस्थान के परंपरागत समाज में आज भी पगड़ी पहनने का तरीका बताता है कि व्यक्ति किस वर्ग, जाति, धर्म, संप्रदाय, क्षेत्र एवं आर्थिक स्तर का है। पगड़ी का रंग उसके घर की कुशलता का सन्देश भी देता जाता है। ये एक तरह मूक संवाद है जिसकी जड़ें राजस्थान के परंपरागत समाज में आज भी बहुत गहरी है।
बीज शब्द : राजस्थान, मारवाड़, पाग-पगड़ी, किसान
वर्ग, संस्कृति
मूल आलेख : राजस्थान में पुरातन काल से 'सवा सेर सूत' सिर पर बांधने का रिवाज एक परम्परा के रुप में आज दिन तक प्रचलित रहा है। पाग व पगड़ी मनुष्य की पहचान कराती है कि वह किस जाति, धर्म, सम्प्रदाय, परगना एवं आर्थिक स्तर का है। उसके घर की कुशलता का सन्देश भी पगड़ी का रंग देती है। मारवाड़ में तो पाग पगड़ी का सामाजिक रिवाज आदि काल से प्रचलित रहा है। ऐसा कहा जाता है कि राजस्थान में 12 कोस (करीब 36 कि.मी.) पर बोली बदलती है, उसी प्रकार 12 कोस पर साफे के बांधने के पेच में फर्क आता है। प्रत्येक परगने में विभिन्न जातियों के पाग-पगड़ियों के रंगों में, बांधने के ढंग में एवं पगड़ी के कपड़े में विभिन्नता होती है।
राजस्थान में पगड़ी के बांधने के ढंग, पेच एवं पगड़ी की कसावट देख कर बता देते हैं कि वह व्यक्ति कैसा है? अर्थात् पाग-पगड़ी मनुष्य की शिष्टता, चातुर्य व विवेकशीलता की परिचायक होती है। राजस्थान में पगड़ी सिर्फ खूबसूरत एवं शोभा बढ़ाने को नहीं बांधते हैं बल्कि पगड़ी के साथ मान, प्रतिष्ठा, मर्यादा और स्वाभिमान जुड़ा हुआ रहता है। पगड़ी का अपमान स्वयं का अपमान माना जाता है। पगड़ी की मान की रक्षा के कारण तो पुराने समय में कई बार तलवारें म्यान के बाहर हुई और खून के फव्वारों ने इस धरती को अनेकों बार सींचा है। पगड़ियों के कारण समझौते हुये, झगड़े संधि में बदले, टूटे रिश्ते बने तथा दुश्मन पाग बदल कर भाई बने तथा कई महत्वपूर्ण घटनायें होते-होते रुक गई।
राजस्थान में क्षेत्र, प्रान्त, समय, स्थिति, शिक्षा, धर्म-जाति, परगने एवं परम्परा के अनुसार पाग-पगड़ियों के पृथक-पृथक नाम हैं। लम्बाई में बड़ी है तो ‘पाग', छोटी है तो ‘पगड़ी' तथा रंगीन हो और अन्तिम छोर जिसे ‘छेला' कहते हैं, झरी के बने हों तो ‘पेचा' कहलायेगा। पेचा सिर्फ एक रंग का होता है। यदि वह बहुरंगा है या जरी का काम हो तो उसे ‘मदील' कहते हैं। मदील किसी भी रंग की हो सकती है, पर बहुरंगी नहीं। लोहे की है तो ‘कनटोप', सोने की है तो उसे ‘मुकुट' और हाथभर का कपड़ा बन्धा है तो ‘चिन्दी' भी कहा जा सकता है। लोक भाषा में पाग पगड़ी के अनेक नाम यहां प्रचलित हैं - जैसे पोतीयो, साफो, पगड़ी, पाग, फालियो, घूमालो, फेंटो, सेलो, लपेटो, शिरोस्त्राण, अमलो, पगड़ी इत्यादि।
प्रस्तुत शोध कार्य मारवाड़ क्षेत्र मे किसान वर्ग जिसमे जाट, बिश्नोई और माली जिनकी इस क्षेत्र मे बहुलता है, किस प्रकार की पाग-पगड़ियाँ धारण करता है, उनमें क्या विभिन्नताएं है तथा साथ ही किसान वर्ग की विभिन्न जातियों में पगड़ी को लेकर क्या समानताएं है और क्या उनमें क्या अलग है जो उनकी जातीय पहचान बताती का अध्ययन किया गया है। मेरे शोध विषय से संबंधित कार्य पूर्व में भी हो चुका है लेकिन वह कार्य ज्यादातर राज परिवार और उनसे जुड़े लोगों पर ज्यादा आधारित है। पाग-पगड़ियों पर सबसे प्रमुख कार्य डॉ. महेंद्र सिंह नगर द्वारा रचित एवं संपादित पुस्तकें “राजस्थान की पाग-पगड़ियाँ” और ”पगड़ी” में किया गया है किन्तु इस पुस्तक में भी ज्यादातर कार्य राज-दरबार और उनसे संबंधित लोगों की पाग-पगड़ियों पर है। इनके अलावा डॉ. महेंद्र सिंह नगर की एक और पुस्तक “मारवाड़ के राजवंश की सांस्कृतिक परम्पराएं” में राज दरबार से जुड़ी सांस्कृतिक परंपराओं जिनमे साफे और पाग-पगड़ी से संबंधित परंपराओं का भी उल्लेख किया गया है। रानी लक्ष्मी कुमारी चुंडावत द्वारा लिखित पुस्तक “राजस्थान के प्रसिद्ध दोहे सोरठे” में राजस्थान के प्रसिद्ध दोहों और सोरठों के बारे में बताया गया है जिनमें पाग-पगड़ी से जुड़े दोहों सोरठों के बारे में भी बताया गया है।
मारवाड़ क्षेत्र में पगड़ियों से संबंधित प्रमुख शब्दावली-
साफा- साफा से तात्पर्य ऐसी पगड़ी से होता है जो साफ तरीके से बांधी गई हो। यह संभवत: फारसी के ‘साफ:’ से बना हुआ है, जिसका अर्थ है पवित्रता।1
पेच- यह साफा बांधने की शैली है। अगर पगड़ी गोल बांधी गई है तो वह गोल पेच कहलाती है है और अगर वह राठोड़ी तरीके से बांधी गई है तो वह राठौड़ी पेच अथवा राठौड़ी साफा कहलाता है।
पोत्या- किसी भी पोत के कपड़े को अगर सिर के चारों और लपेटते समय अगर बट देकर बांधा जाता है तो वह पोत्या अथवा फेंटा कहलाता है।
छिणगो- राठौड़ी साफे में साफा बांधकर एक हिस्सा चोटी के रूप में पीछे लटकाया जाता है जिसे छिणगा कहा जाता है।
तुर्रा- इसे छुरंगा भी कहा जाता है। साफा बांधकर उसमें से उसके ऊपर एक छोटा हिस्सा जो तीन चार इंच का होता है निकाल जाता है तुर्रा या छुरंगा कहलाता है।
रंग
के
आधार
पर
पगड़ी
के
प्रकार-
पचरंगा-पाँच रंगों से मिलकर बना साफा जीनमें मुख्यत: हरा, पीला, लाल, केसरिया व नीला रंग होते है। पाँच रंग होने के कारण ये पचरंगा कहलाता है।
केसरिया- इसमें सिर्फ एक रंग केसरिया ही होता है। इस रंग का सामान्यतया दूल्हे के द्वारा पहना जाता है। इसी कारण लोकगीत में कहा गया है कि-
सफेद- सफेद रंग कर साफे में बिल्कुल सफेद तथा हल्का मटमैला सफेद साफे आते हैं।
हरा-यह बिल्कुल हरे रंग का साफा होता है।
चुंदड़ी-यह सामान्यत: प्रचलित चुंदड़ी की ही तरह होता है। इसमें प्रिंटेड तथा बंधेज दोनों प्रकार होते हैं।
मटिया-इस रंग की पगड़ी खाकी रंग की होती है।
छापल-इस प्रकार की पगड़ी सफेद रंग की होती है जिसमें छोटी-छोटी रंग-बिरंगी बिंदिया अथवा छोटी-छोटी पेड़ पत्तियां होती है।
मारवाड़ में किसान वर्ग द्वारा पहने जाने वाली पाग-पगड़ियाँ- लोकजीवन में पगड़ी की विशेष महत्ता है। इसका इतिहास हजारों वर्ष पुराना है। पगड़ी जहां एक ओर लोक सांस्कृतिक परंपराओं से जुड़ी हुई हैं, वहीं सामाजिक सरोकारों से भी इसका गहरा नाता है। राजस्थान के मारवाड़, मेवाड़, ढूंढाड़, हाड़ौती, शेखावटी, बृज, मेवात आदि सभी क्षेत्रों में पगड़ी की विविधता देखने को मिलती है।
किसान वर्ग द्वारा प्राचीन काल से ही सिर को सुरक्षित ढंग से रखने के लिए पगड़ी का उपयोग किया जाने लगा। पगड़ी को सिर के ऊपर पहना जाता है। इसलिए इस परिधान को अन्य सभी परिधानों में सर्वोच्च स्थान प्रदान किया गया है। पगड़ी को लोकजीवन में पग, पाग, पग्गड़,पोत्या, पगड़ी, साफा, पेचा, फेंटा, आदि नामों से जाना जाता है। जबकि साहित्य में पाग-पगड़ी को रूमालियो, शीशकाय, परणा, जालक, मुकुट, कनटोपा, मुरैठा, मदील, मोलिया और चिंदी आदि नामों से भी जाना जाता है।3 वास्तव में पगड़ी को पहनने का मूल ध्येय शरीर के ऊपरी भाग (सिर) को सर्दी, गर्मी, धूप, वर्षा आदि विपदाओं से सुरक्षित रखना रहा है, लेकिन धीरे-धीरे इसे सामाजिक सरोकार और मान्यता के माध्यम से मान-सम्मान और प्रतिष्ठा के प्रतीक के साथ जोड़ दिया गया, क्योंकि पगड़ी सिरोधार्य है।
राजस्थानी कविता के कबीर अमरदान जी ने ‘छपना रो छंद’ कवता में यहां के परिश्रमी किसानों की वेशभूषा में उनके छोगा के फेंटो का वर्णन इस प्रकार किया है-
किसान वर्ग द्वारा विभिन्न अवसरों यथा शादी-विवाह, तीज-त्योहार तथा मृतक शोक आदि अवसरों पर उनके द्वारा पहने जाने वाली पाग-पगड़ियों में विभिन्नताएं देखने को मिलती है। जोधपुर तथा और उसके आस-पास के क्षेत्र को मारवाड़ के नाम से जाना जाता है। मारवाड़ का ज्यादातर हिस्सा थार के मरुस्थल का हिस्सा है। मारवाड़ मे कृषि मानसून आधारित कृषि है। मारवाड़ की अधिकांश जनसंख्या की आजीविका कृषि और उनसे जुड़े कार्यों पर ही आधारित है। जोधपुर और उसके आस-पास के क्षेत्र में मुख्य रूप से तीन जातियाँ बहुलता से निवास करती है यह तीन जातियाँ है- जाट, माली और बिश्नोई। प्रस्तुत शोध पत्र में इन तीन जातियों के पाग-पगड़ी पहनने के तौर तरीके, उनमें विभिन्नताएं आदि का अध्ययन करेंगे।
जाट समुदाय की पाग-पगड़ियाँ- मारवाड़ क्षेत्र की कृषक जातियों में जाट समुदाय प्रमुख है। मारवाड़ क्षेत्र में जाट समुदाय बहुलता से निवास करता है। मारवाड़ के कृषि भू-भाग का एक बड़ा भाग जाटों के पास है जिसके कारण यह समुदाय काफी समृद्ध एवं सम्पन्न है। पगड़ी बांधने की शैली एवं विभिन्न अवसरों पर पगड़ी संबंधी रीति-रिवाजों के संदर्भ में यह समुदाय अन्य समुदायों से अलग है। 1891 ई. मारवाड़ में जाटों की जनसंख्या 3,15,562 थी और राज्य की एक चौथाई कृषि भूमि जाटों के पास थी।5
पगड़ी बांधने की शैली- जाट जाति आमतौर पर गोल साफा ही बांधती है। किन्तु कुछ खास अवसरों पर गोल साफे के साथ जोधपुरी पेच का भी प्रचलन है। पगड़ी बांधने की शैली को हम किसानों के आराध्य देवता वीर तेजाजी के इस गीत से जान सकते है-
राजपूतों मे भले ही राठौड़ी पेच पसंद किया जाता हो जाटों ने तोरीफुला या बूटीदार दुपटे की पाग बांधने की परंपरा को निभाया है। वीर तेजाजी के इस गीत में उनकी वेशभूषा के साथ उनकी पगड़ी की शोभा को भी आप देख सकते हैं।
जाट जाति में ज्यादातर गोल सफर का ही प्रयोग किया जाता है। मांगलिक अवसरों पर जोधपुरी एवं गोल दोनों ही पेच का इस्तेमाल किया जाता है। जाट समुदाय का गोल पेच अन्य जातियों के गोल पेच से भिन्न होता है। पगड़ी को आमतौर पर ‘पोत्या’ नाम से ही पुकारा जाता है। पोत्या ऊंचाई में कुछ ज्यादा रहता है। पोत्ये को रंग के आधार पर स्थानीय बोली में पीला पोत्या, धोला पोत्या, मटिया पोत्या, राता पोत्या आदि नामों से पुकारा जाता है। पगड़ी की लंबाई लगभग 9 मीटर या आम बोलचाल मे 18 से 20 हाथ होती है।7 पगड़ी की चौड़ाई 38 से 44 इंच तक होती है। 12 मीटर लंबाई और 44 इंच चौड़ाई वाली पगड़ी को ही पूरी पाग अथवा पूरा साफा माना जाता है।
विभिन्न अवसरों पर जाट समुदाय द्वारा पहने जाने वाली पाग-पगड़ियाँ-विभिन्न अवसरों पर जाट समुदाय के लोग भिन्न-भिन्न प्रकार पगड़ियाँ पहनता है। आमतौर पर सामान्य दिनों में जाट समुदाय द्वारा गोल सफेद फेंटे का ही प्रयोग किया जाता है इसके अलावा तोरीफुला, मोलिया और चुंदरी साफे का भी प्रयोग किया जाता है।
मांगलिक अवसरों पर जाट समुदाय द्वारा पहने जाने वाली पाग-पगड़ियाँ-मांगलिक अवसरों पर जाट समुदाय के लोगों द्वारा विभिन्न प्रकार के साफों का प्रयोग किया जाता है। शादी के अवसर पर दूल्हे के द्वारा मुख्यत: केसरिया रंग जोधपुरी साफे का प्रयोग