कैम्पस के किस्से : गृहस्थी से कैम्पस तक / पुष्पा कुमारी

गृहस्थी से कैम्पस तक
- पुष्पा कुमारी

कई बार जो चीजें किसी के लिए साधारण या आम होती हैं वह किसी और के लिए या बहुतों के लिए एक बहुत बड़ा सपना होता है। ऐसा सपना जिसे देखते हुए वे डरते हैं कि यह तो कभी पूरा नहीं होगा। यदि यह सपना दिल में बस जाए और अधूरा रह जाए तो तकलीफ बढ़ जाएगी। सुकून खो जाएगा कि कुछ बहुत महत्त्वपूर्ण था जो अधूरा-सा रह गया। हम अधूरे रह गए। ऐसे हमारे युवावस्था का एक बड़ा हिस्सा रंगों के रंगीनियों से अछूता रह जाएगा। यह तो एक पक्ष हुआ और अब दूसरा पक्ष यह है कि तब सूचना क्रांति का स्वरूप आज के जैसा नहीं था और उसकी पहुँच बहुत से लोगों तक नहीं थी कि स्कूल के बाद क्या करें?, कहाँ जाएँ? और ऐसे में जब उन्हें कोई बताने वाला भी नहीं होता था तब वह स्थिति एक अंधेरे कमरे में बंद व्यक्ति जैसी होती थी। वह व्यक्ति अंधेरे में कुछ ढूंढ तो रहा होता है पर उसे पता नहीं होता कि उसे क्या मिलेगा? आसपास का अंधेरा इतना घना होता है कि पता ही नहीं चलता कि अगले कदम पर कोई गड्ढा है या समतल भूमिमेरी स्थिति इन दोनों के बीच की थी। 12वीं कक्षा के बाद स्नातक की पढ़ाई के लिए मैंने 'इग्नू' का चयन किया। यह मेरे लिए आवश्यक भी था कि मैं मुक्त विश्वविद्यालय से अपनी आगे की शिक्षा को जारी रखूँ और रोजगार के अवसर की भी तलाश करूँ। ओपन यूनिवर्सिटी से स्नातक और साथ में फुल टाइम नौकरी 

        सेल्स एण्ड मार्केटिंग में 8 घंटे का समय देना और उसके बाद किसी नियमित कॉलेज में प्रवेश पाने का सपना देखना मुझे उस समय असंभव सा लगता था। दिल में कहीं यह टीस भी उठती थी कि मैंने कॉलेज का सपनों भरा सफर नहीं देखा। जीवन के आपाधापी में पता ही नहीं चला और 3 साल बीत गए। गुजरते वक्त के साथ एक एहसास ऐसा था जो नहीं बदला था। वह था कॉलेज में प्रवेश पाने का सपना जो कि असंभव तो लगता था किंतु उसके प्रति आकर्षण इतना अधिक था कि सोशल मीडिया साइट पर जब भी मैं अपने दोस्तों और उनके कॉलेज की तस्वीर को देखती थी तब जीवन के उस खालीपन का एहसास मुझे होने लगता था। किंतु मुझे मेरी परिस्थितियों ने ऐसे उलझाया कि कॉलेज लाइफ को जीने का मुझे अवसर ही नहीं मिला था। पर कहते हैं कि जिंदगी सभी को मौके देती है और मुझे भी यह मौका मिला। मैंने निर्णय किया कि मुझे एक नियमित महाविद्यालय या विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर की पढ़ाई करना चाहिए और फिर इसकी तैयारी में मैं जुट गई। कुछ समय बीता और इसकी तैयारी की जांच पड़ताल के बाद मैंने उन लोगों को खोजना शुरू किया जिन्होंने इस सफर की ओर कदम बढ़ाने में मेरा सहयोग किया। इसी तलाश में मैंने सबसे पहले जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय का रुख किया।

        तब तक मेरा प्रवेश वहाँ नहीं हुआ था किंतु स्नातकोत्तर (हिंदी) में प्रवेश हेतु मैंने आवेदन किया था। उस समय जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में वहाँ के शोधार्थियों द्वारा 1 महीने की मुफ्त कक्षाएँ दी जाती थी। इससे आवेदन करने वाले विद्यार्थी लाभान्वित होते थे। मैंने वहाँ जाना शुरू किया और तब मुझे विश्वविद्यालय, वहाँ का परिवेश, छात्र जीवन, विश्वविद्यालय में आपसी प्रेम तथा एक ऐसा स्थान या मंच जहाँ सब अपने विचार रखते हों, इनकी जानकारी मिली। यह मेरे लिए पहली बार था जब मैंने नियमित कक्षाओं का आनंद लिया और ओपन यूनिवर्सिटी एवं नियमित रूप से चलने वाली कक्षाओं वाले विश्वविद्यालय के अंतर को समझा।

दोनों ही विश्वविद्यालयों में शिक्षा दी जाती है।  नियमित रूप से जहाँ कक्षाएं चलती हैं वहाँ पढ़ने, सीखने के अवसर में बहुत अंतर होता है। अंतर व्यक्तित्व के निर्माण का, अंतर स्व को व्यक्त करने का। अंतर परस्पर संवाद का आदि ये सभी गुण जिससे मैं दूर थी मुझे वहाँ जाकर पता चला। वहाँ के शोधार्थियों द्वारा जो कक्षाएँ दी जा रही थीं, उन कक्षाओं के माध्यम से जो दूरस्थ शिक्षा में पढ़ते हुए मैंने कहीं कुछ खो दिया था उसे एक सहारा मिला और पहली बार विधिवत रूप से मुझे हिंदी साहित्य, भाषा, कहानी, कविता और महत्त्वपूर्ण किताबों की जानकारी मिली। यहाँ से जो कक्षाएँ, जो मार्गदर्शन और सहयोग मुझे मिला उससे मैं बहुत प्रेरित  हुई।

जिन किताबों की चर्चा होती थी उसे मैं खरीद लेती थी। इसके बाद मैंने व्यवस्थित रूप से पढ़ाई शुरू की इस प्रक्रिया में मुझे सर्वाधिक मदद वहाँ के एक शोधार्थी दिव्यानंद देव सर से मिली। उन्होंने हिंदी साहित्य विषय को बहुत ही सरल शब्दों में सभी को समझाया और इसके बाद मेरी रुचि हिंदी भाषा और साहित्य में बढ़ने लगी। उनके पढ़ाने के बाद मैंने उनके द्वारा बताए गए विषयों को पढ़ा और बहुत कम समय में ही मैंने अपना कैम्पस जाने के सपने को पूरा किया। पहली बार कैम्पस और नियमित कक्षाओं का, विश्वविद्यालय का जो माहौल था वह मुझे जामिया जाकर मिला। मैंने जामिया मिलिया इस्लामिया में स्नातकोत्तर की पढ़ाई के लिए दाखिला लिया

वह दिन मेरे लिए किसी खजाने को पा जाने जैसा था। उस एहसास को शायद मैं कभी शब्दों में बयां कर सकूँ किंतु जब भी मैं उस पल को याद करती हूँ  तो आज भी उसी नयेपन के साथ वो खूबसूरत पल मेरी आँखों के सामने जाता है और इस तरह से मैंने गृहस्थी से कैम्पस तक का सफर तय किया।

यह अपने आप में बहुत अनूठा सफर था जहाँ पहली बार विश्वविद्यालय में पहुँचने के बाद जो समय मैं वहाँ कैम्पस में बिताती थी, वह मुझे केवल मेरा प्रतीत होने लगा। ऐसा लगा जैसे कैम्पस के बाहर और कैम्पस के भीतर की दुनिया में बहुत फर्क है। कैम्पस के बाहर जो मैं हूँ वह घरपरिवार, जिम्मेदारी इनसे जुड़ी हुई हूँ और कैंपस के भीतर जब मैं हूँ तब वह केवल मैं हूँ। वहाँ की जो पहचान है वह केवल मेरी है, मेरे खुद के द्वारा बनाई गई है।

एक व्यक्ति सामाजिक संस्थाओं की भूमिका में जिस रूप में रहता है उसके साथ ही स्व बोध को समझना जानना भी आवश्यक होता है।

जामिया मिल्लिया इस्लामिया में मैंने विधिवत रूप से नियमित कक्षाएँ ली। यह पहली बार था जब मुझे इस तरह का अवसर मिला था। शुरू-शुरू में तो मुझे इसमें कुछ कठिनाई हुई लेकिन जैसे कहते हैं हाथ पकड़कर लिखवाना, उसी तरह जामिया के  प्राध्यापकों ने मुझे हर विषय को बहुत धीरज के साथ समझाया, पढ़ाया और सीखने का अवसर दिया। मैं अपने उन सभी शिक्षकों के प्रति सम्मान प्रकट करती हूँ। विश्वविद्यालय में पुस्तकालय के महत्त्व को भी मैंने वहाँ जाकर देखा और समझा कक्षाओं के बाद गार्डन में बैठना, कैंटीन में बातें और हर मुद्दे पर चर्चा-परिचर्चा का जो माहौल मुझे मिला उसने शिक्षा के प्रति और जीवन को देखने, समझने के प्रति मुझे एक दृष्टि देने का कार्य किया।

कैम्पस आपको एक मंच देता है। अभिव्यक्ति का मंच, सीखने का मंच, बनने का मंच और जीवन को समझने का मंच कैम्पस देता है। और मुझे कैम्पस से जीवन में गति मिली जिससे मैंने आगे का सफर तय किया। अगला कैंपस और उसके सफर की बातें फिर कभी करेंगे।

पुष्पा कुमारी
शोधार्थी, हिंदी विभाग 
दक्षिण बिहार केन्द्रीय विश्वविद्यालय, गया, बिहार  

अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)  अंक-46, जनवरी-मार्च 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक व जितेन्द्र यादव चित्रांकन : नैना सोमानी (उदयपुर)

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