आलेख : जीवन की सार्थकता का प्रश्न / राजाराम भादू

जीवन की सार्थकता का प्रश्न 
 - राजाराम भादू

अक्सर हम सफल और सार्थक जीवन को लेकर बहस सुनते रहते हैं। सफलता के प्रायः भौतिक मायने निकाले जाते हैं और उनकी उपलब्धि को जीवन की सफलता के मापदंडों की तरह देखा जाता है। हालांकि कई लोगों के लिए सफलता का अर्थ नितांत व्यक्तिनिष्ठ होता है। दूसरी ओर जीवन की सार्थकता को समष्टि के शुभ से जोडकर देखनेकी परंपरा रही है। लेकिन इसमें भी व्यक्ति का निजी सुकून बडी अहमियत रखता है। हम यहां जीवन की सार्थकता को लेकर कुछ पहलुओं पर विचार कर रहे हैं। 


समग्रतः जीवन : 


समग्र जीवन के संदर्भ में महात्मा गांधी के दो सिद्धांत- जीवन की एकता और साध्य साधन की एकता महत्वपूर्ण हैं। ये दोनों सिद्धांत परस्पर जुडे हैं। किसी एक जीवन, विशेषकर मानव जीवन को साध्य के रूप में नहीं देखा जा सकता। यदि हमारा उद्देश्य आजीविका है, तो इसका मतलब जीवन का विस्तार है, लेकिन, हम इस एकता को कैसे समझें ? इसका एक सरल अर्थ नजदीकी है, पृथक्करण के विरुद्ध। जीवन के विचार के साथ हमारे दिमाग में जीवन के बहुत से रूप आते हैं, लेकिन, स्वयं और अन्य जीवित तत्वों से इतर मानव जीवन ही समाज में जगह पाता है। संस्कृति मनुष्य को श्रेष्ठ जीव ठहरा कर इसे औचित्य प्रदान कर देती है। 


यदि हम साध्य और साधन की एकता पर विचार करें तो दिमाग में बहुत तरह की गतिविधियां आने लगती हैं। इनके बीच में कार्य- कारण संबंध है और ये सामाजिक समय से संचालित होती हैं। साधन का पवित्र होना आवश्यक है, जिसमें भविष्य की दृष्टि हो। इसके बिना कोई क्रांति या समाजवाद और वृद्धि अथवा पूंजीवाद अंततः विनाशकारी सिद्ध होगा क्योंकि यह लाखों लोगों की बलि ले लेगा। पवित्र शब्द आनुभविक सफलता की शब्दावली की तुलना में कठिन, किन्तु, मानव और प्रकृति के लिए ज्यादा शुभ है।


हम बनाम अन्य की नजर से चीजों को देखने वाली दृष्टि हिंसा को सही ठहरा सकती है और अहिंसक साध्यों की अपेक्षा कार्य- कारण संबंधों के संदर्भ में हिंसा को औचित्यपूर्ण बता सकती है। गांधी मार्क्स के क्रांति और श्रमिकों के कठोर क्षय के प्रति संवेदनशील थे, भले ही इससे श्रमिकों की एक- दो पीढियों की बेहतरी होने वाली थी। किन्तु, गांधी के लिए सभी जीवों की पवित्रता का सम्मान महत्वपूर्ण था। इसलिए साध्य और साधन को लेकर सावधानी का अर्थ सभी जीवों की चिंता करने से था। इसीलिए जीवों की एकता का सिद्धांत पर्यावरण- संतुलन से कहीं गहरे अर्थ रखता है, जिसमें सभी मनुष्यों के जीवन एवं सभी प्राणियों के लिए चिंता है। गांधी के लिए धर्म और विचारधारा के भिन्न मायने हैं। साध्य और साधन की एकता में सभी के लिए निहित अनवरत रूप से काम करने का सिद्धांत है, कि किसी खास चरण तक ही आगे बढना है। ईसाई विचार की पिरामिडीय अवधारणा, जिसमें आस्था के अनुकरण में नीचे कार्यों की सतह होती है, से भिन्न गांधी का यह विचार बुद्ध के चक्र की उस अवधारणा के अधिक निकट है, जिसमें विचार, वाणी और कार्य समान स्तर पर सक्रिय रहते हैं।

 

जीवन को जानने के लिए उसके विलोम  मृत्यु को जानना भी जरूरी है। मृत्यु जीवन का अंत है और प्रत्येक व्यक्ति जानता है कि अंततः उसे मर जाना है। लेकिन उसकी मनुष्यता और सृजनशीलता इस बात में है कि जब तक वह अंत जाये, जीवन की हर तरह से रक्षा की जाये और उसे सुखी सुंदर बनाया जाये। लेकिन इसके लिए शांति और अहिंसा के मूल्य आज पुनः अत्यंत प्रासंगिक हो गये हैं। हिंसा, चाहे वह हत्या के रूप में हो या आत्महत्या के रूप में, हर हाल में बुरी है। उससे जीवन की किसी समस्या का समाधान नहीं होता। वह जीवन को नष्ट करती है। दूसरों के जीवन को ही नहीं, हमारे अपने जीवन को भी। इसलिए जीवन से प्यार करने का मतलब हिंसा से नफरत करना भी है और जीवन को प्रतिष्ठित करना भी।

 

महात्मा गाँधी नेयंग इंडियामें लिखा था कि भारत अपने मूल स्वरूप में कर्मभूमि है, भोग भूमि नहीं। इसे विकास के संदर्भ में भी समझा जाना चाहिए। हमारा विश्वास केवल संसाधनों के उलीचे जाने में नहीं होना चाहिए। महात्मा गाँधी की यह बात भी याद आती है कि यह धरती सभी की आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकती है, लेकिन एक भी व्यक्ति के लालच को पूरा नहीं कर सकती। सोचना चाहिए कि क्या विकास का कोई ऐसा तरीका हो सकता है, जहाँ पर मानवीय विकास को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जाये। उसमें समानता का, पर्यावरण का और स्थायित्व का खयाल रखा जाये। गांधी कहते हैं, भारत का भविष्य पश्चिम के उस रक्त- रंजित मार्ग पर नहीं है, जिस पर चलते- चलते पश्चिम खुद थक गया है। भारत का भविष्य सरल धार्मिक जीवन द्वारा प्राप्त शांति के अहिंसक रास्ते पर चलने में ही है। जहां जमीन कम हो और लोग ज्यादा, वहाँ विकास के नजरिये में फर्क तो होना चाहिए। गांधी यह भी कहते हैं, हम सच्चा उद्योग करें तो हिन्दुस्तान के छोटे- छोटे उद्योगों से करोड़ो रुपये का धन पैदा कर सकते हैं। उसमें पैसे की भी विशेष आवश्यकता नहीं है, जरूरत है तो लोगों की मेहनत की।

 

खुशहाल जीवन के निहितार्थ :

 

जीवन की गुणवत्ता और खुशहाल जीवन की धारणाएं इतने घनिष्ठ रूप में आपस में जुडी हुई हैं कि दोनों लगभग पर्यायवाची लगती हैं और इनका इस्तेमाल अदल- बदलकर कर लिया जाता है। लेकिन दोनों के बीच एक सूक्ष्म अंतर है और कुछ प्रसंगों में यह अंतर करना जरूरी होता है। सारत: जीवन की गुणवत्ता की धारणा खुशहाली की धारणा से ज्यादा व्यापक है। खुशहाली का मतलब है- एक व्यक्ति का अभावों या वंचनाओं से मुक्त होना और सार्थक गतिविधियों में लग सकने के लिए सकारात्मक रूप से स्वतंत्र होना। और यह सचमुच उस व्यक्ति के जीवन की गुणवत्ता का एक महत्वपूर्ण पहलू है। लेकिन जीवन की गुणवत्ता का अर्थ केवल खुशहाली नहीं है। कारण यह है कि हमारे लिए केवल अपनी खुशहाली ही मूल्यवान नहीं होती, बल्कि जीवन में कुछ और चीजें भी होती है, जिन्हें हम मूल्यवान मानते है। हम अक्सर दूसरे लोगों की खुशहाली की भी चिंता करते हैं। हम अपनी निजी खुशहाली के अलावा कुछ दूसरे निजी या सामाजिक लक्ष्यों की चिंता भी करते हैं, जैसे विज्ञान की प्रगति में योगदान करना, या अपने प्रिय नैतिक सिद्धान्तों पर चलना। जरूरी नहीं कि ये चीजें हमारी निजी खुशहाली को बढायें, उल्टे यह भी हो सकता है कि ये हमारी निजी खुशहाली को कम कर दें, फिर भी वे हमारे जीवन की गुणवत्ता को बढा सकती हैं।

 

उदाहरण के लिए हम गांधीजी के जीवन को देखें। क्या वे कोई बड़ी खुशहाल जिंदगी जीते थे ? हालांकि हम यह बात दावे से नहीं कह सकते। वे अक्सर बीमार रहते थे, या भूखे रहते थे और सो नहीं पाते थे। उनकी आध्यात्मिक शक्तियों के बावजूद इन  अभावों का प्रतिकूल प्रभाव उनकी खुशहाली पर अवश्य पड़ा होगा। इसका दर्द भी उन्होंने अवश्य महसूस किया होगा। फिर भी, अगर हम उनके जीवन की गुणवत्ता पर विचार करें तो कह सकते हैं कि वह बहुत ऊंची थी। बहुत से लोग ऐसा आदर्श जीवन जीना चाहते हैं, चाहे उसके लिए उन्हें कितने ही कष्ट उठाने पडें। इस प्रकार यह संभव है कि खुशहाली अपेक्षाकृत कम होने पर भी जीवन की गुणवत्ता अधिक हो। जीवन की गुणवत्ता का संबंध उस चीज से होता है जिसे हम जीवन में मूल्यवान समझते हैं और यह चीज हमारी अपनी खुशहाली तक महदूद नही होती।

 

 

कुछ लोगों का कहना है कि गरीब लोग मजे में हैं, और गरीबी लोगों की खुशहाली को प्रभावित नहीं करती। जबकि वास्तव में गरीब लोग गरीबी से प्यार नहीं, नफरत करते हैं क्योंकि गरीबी ऐसा कांटा है जो हमेशा उनके पांव में चुभता रहता है। यह जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उनकी आजादी पर पाबंदियां लगा देता है। आखिर जो व्यक्ति निरंतर बीमारी और अल्प- पोषण का शिकार रहता हो, कैसे अच्छा जीवन जी सकता है। भारत में बड़ी भारी संख्या में लोग अल्प- पोषण के शिकार हैं। भारत के लगभग आधे बच्चों को पूरी और अच्छी खुराक नहीं मिलती तथा भारत की करीबन आधी वयस्क स्त्रियों में खून की कमी पायी जाती है। दरअसल इस चीज का पता लगाने के लिए हमें वैज्ञानिक सर्वेक्षणों की जरूरत नहीं है। इसके लिए आसपास नजर डाल लेना ही काफी है। खेतिहर मजदूरों की बात छोडिए, रिक्शे चलाने वालों को देख लीजिए, या इमारती काम करने वाले मजदूरों को देख लीजिए, अथवा झुग्गी- झोंपड़ियों में रहने वाले लोगों को देख लीजिये, उनमें से ज्यादातर कमजोर और खून की कनी से पीड़ित नजर आयेंगे। चालीस- पचास की उम्र तक पहुंचते- पहुंचते उनमें से ज्यादातर की सेहत खराब हो जाती है। उनकी ये कठोर जीवन स्थितियां उनके जीवन की गुणवत्ता को गंभीर रूप से कम कर देती हैं। औरों के ऐसे बदहाल जीवन के बीच हमारी खुशहाली एक नैतिक संभ्रम के भंवर में फंसी नजर आती है।

 

 भविष्य की प्रत्याशा :

 

दार्शनिक और सांस्कृतिक मनोविश्लेषक एरिक फ्रोम के अनुसार आधुनिक संस्कृति की सबसे बड़ी उपलब्धियां हैं- मनुष्य की वैयक्तिकता और उनके व्यक्तित्व की अद्वितीयता, जिनसे उसकी स्वतंत्रता परिभाषित होती है। आधुनिक युग से पहले के समाज में अर्थात सामंती या मध्ययुगीन समाज में, मनुष्य का अस्तित्व वैयक्तिक नहीं, बल्कि एक एक तरह का सामूहिक अस्तित्व हुआ करता था, जिसमें उसे एक प्रकार की सुरक्षा प्राप्त होती थी। लेकिन साथ ही वह अनेक प्रकार के बंधनों में भी बधा रहता था।  आधुनिक युग में वे बंधन टूट गये। मनुष्य उनसे स्वतंत्र हो गया। लेकिन किसी चीज से स्वतंत्र हो जाना एक प्रकार की नकारात्मक स्वतंत्रता है। सकारात्मक स्वतंत्रता वह है, जो किसी चीज के लिए हो। सकारात्मक स्वतंत्रता का अर्थ है- व्यक्ति की आत्मोपलब्धि। अर्थात उसकी बौद्धिक, भावनात्मक और ऐन्द्रिय संभावनाओं की अभिव्यक्ति। लेकिन आधुनिक मनुष्य पुराने बंधनों से मुक्त होकर ऐसी सकारात्मक स्वतंत्रता प्राप्त नहीं कर पाया। उसे इसकी दिशा में आगे बढना है और इसे प्राप्त करना है। फिलहाल वह एक नकारात्मक स्वतंत्रता की स्थिति में है। वह स्वतंत्र तो हो गया है लेकिन अलग- थलग पड गया है, अकेला हो गया है। इसलिए वह स्वयं को असुरक्षित और अशक्त अनुभव करता है तथा चिंतित रहता है। अलग- थलग पड जाने की यह स्थिति उसे असहनीय लगती है और वह इसके विकल्प खोजता है, तो उसके सामने दो ही विकल्प होते हैं : या तो वह अपनी इस स्वतंत्रता को बोझ समझकर उतार फेंके  और नयी पराधीनता स्वीकार कर ले, अथवा उस सकारात्मक स्वतंत्रता को प्राप्त करने की दिशा में आगे बढे, जो मनुष्य की वैयक्तिकता और अद्वितीयता पर आधारित होगी। पहला विकल्प उसे किसी किसी तरह की  तानाशाही को स्वीकार कर लेने की दिशा में ले जाता है, जबकि दूसरा विकल्प एक सच्चे जनतांत्रिक समाज के निर्माण की दिशा में।

 

 सारत: कहा जा सकता है कि किसी चीज से स्वतंत्र हो जाना सच्ची स्वतंत्रता नहीं है, सच्ची स्वतंत्रता है किसी चीज के लिए स्वतंत्र होना। और जिस चीज के लिए मनुष्य को स्वतंत्र होना है, वह है अपने आत्म की उपलब्धि, जीवन में आस्था, दुनिया के सभी मनुष्यों से प्रेम और एकजुटता, और उस प्रेम और एकजुटता के सहारे  अपनी साझी नियति को बदलना।

 

एरिक फ्रोम ने फ्रायड आदि मनोवैज्ञानिकों के इस विचार का खंडन किया है कि मानव स्वभाव प्रदत्त और अपरिवर्तनीय है। फ्रोम का कहना है कि यद्यपि सभी मनुष्यों की कुछ आवश्यकताएं समान होती हैं, जैसे- भूख, प्यास और सेक्स- लेकिन वे प्रेरणाएं, जो मानवीय चरित्र को भिन्न बनाती हैं, जैसे- प्रेम, घृणा, सत्ता- लोभ, आत्म- समर्पण की चाह, ऐन्दिय- सुख का भोग तथा भय- वे  सामाजिक प्रक्रिया में उत्पन्न होती हैं। समाज का एक प्रकार्य दमनात्मक है तो दूसरा प्रकार्य सर्जनात्मक भी है। मनुष्य का स्वभाव, उनके आवेग, उसकी चिंताएं सांस्कृतिक उत्पाद हैं। मनुष्य स्वयं उस सतत् मानवीय प्रयास की सबसे महत्वपूर्ण कृति और उपलब्धि है, जिसके अभिलेखन को हम इतिहास कहते हैं। मनुष्य के इस ऐतिहासिक सृजन की प्रक्रिया को समझना ही सामाजिक मनोविज्ञान का काम है।

 

अंत में, एरिक फ्रोम आधुनिक मनुष्य की स्वत: स्फूर्त सर्जनात्मक गतिविधि को बहुत मूल्यवान मानते हैं। वे कहते हैं कि हमारे समय के सांस्कृतिक और राजनीतिक संकट का कारण यह नहीं है कि व्यक्तिवाद बहुत बढ गया है, उसका कारण यह है कि जिसे हम व्यक्तिवाद समझते हैं, वह वास्तव में व्यक्तिवाद नहीं, बल्कि उसका खाली खोल है। स्वतंत्रता की लड़ाई अभी समाप्त नहीं हुई है। उस लड़ाई में हमारी विजय तभी संभव है, जब हमारा जनतंत्र ऐसे समाज के रूप में विकसित हो, जिसमें संस्कृति का उद्देश्य व्यक्ति और उसकी सुख- समृद्धि हो, जिसमें जीवन का औचित्य सफलता या किसी और चीज के आधार पर समझा जाता हो, जिसमें व्यक्ति तो किसी बाह्य सत्ता के द्वारा छल- कपट से किन्हीं अन्य उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल किया जाये, और जिसमें व्यक्ति की अंतरात्मा और उसके आदर्श बाहरी मांगों के आभ्यंतरीकरण नहीं, बल्कि वास्तव में उसके अपने हों तथा उसके अपने आत्म की विशिष्टता या अद्वितीयता को व्यक्त करते हों।

 

 एरिक फ्रोम के इस सैद्धान्तक विवेचन से हम समकालीन परिदृश्य का विश्लेणण कर सकते हैं। हमें देखना होगा कि हमारे समाज की बाह्य आंतिरिक गतिकी कैसे काम कर रही है। जिस समाज में ऊर्ध्वाधर श्रेणीबद्धिताएं ( वर्टिकल हायरार्कीज ) नहीं होतीं और क्षैतिजिक ( हारिजेन्टल ) स्तर पर किसी भी तरह के अलगाव या भेदभाव को पूरी ताकत से रोका जाता है, उसी समाज को शिष्ट ( डिग्नीफाइड ) समाज कहा जा सकता है। क्या हम ऐसे समाज की निर्मिर्ति की ओर बढ रहे हैं ? लोग कैसे जीना चाहते हैं, इसका अर्थ केवल यह नहीं है कि वे आज कैसे जीना चाहते हैं, इसका अर्थ यह भी है कि यदि मनुष्य होने की संभावनाओं के बारे में उन्हें पर्याप्त जानकारी हो तो वे किस तरह जीना चाहेंगे।

 

रिचर्ड कीनी से साक्षात्कार में समकालीन दार्शनिक मार्था नुसबाम कहती हैं : मानवीय आवश्यकताओं पर ध्यान केन्द्रित करने का एक निहितार्थ यह है कि एक- दूसरे की और दुनिया की जरूरत को स्वीकार करते हुए जीना सभी मनुष्यों के लिए महत्वपूर्ण है। आत्यंतिक आत्म- निर्भरता का आदर्श एक मिथ्या और सामाजिक जीवन के लिए क्षतिकारक आदर्श है। दूसरी तरफ मैं यह कहना चाहती हूं कि जरूरतों के कुछ रूप ऐसे है, जिनसे किसी व्यक्ति का वास्ता नहीं पडना चाहिए। यदि आप विश्व के विभिन्न भागों में लोगों की असमान आवश्यकताओं पर ध्यान केंद्रित करें तो पायेंगे कि जब बुनियादी चीज़ों की जरूरतों का सवाल आता है, जैसे- खाने, सिर छुपाने और इलाज कराने की जरूरतें वगैरह- तब औरतों की हालत बहुत- से समाजों में बहुत खराब दिखाई पडती है। बहुत- से समाजों में औरतों की बुनियादी जरूरतें पूरी नहीं होतीं, यह बहुत ही चिंता की बात है और इसके लिए तुरंत सामाजिक कार्रवाई की जरूरत है।

 

एक और समकालीन दार्शनिक आयन रैंड कहती हैं कि सौंदर्यशास्त्रीय दृष्टि से भी हमने मनुष्य की उदात्त संभावनाओं की  टोह लेना छोड दिया है। हमारी कलाएं मनुष्य की गर्हित स्थिति का विवरण मात्र प्रस्तुत कर रही है, यह एक तरह का प्रकृतवाद है। मनुष्य किसी नियति से आबाद्ध  नहीं रहा, वह प्रदत्त सीमाओं का अतिक्रमण करता रहा है और चुनौतियों के समय उसने संभावनाओं के नये क्षितिजों का संधान किया है। आयन रैंड चिंतन और सृजन के लिए एक तरह की स्वतंत्रता का प्रस्ताव करती हैं, जो हमारी कल्पनाशीलता को सौंदर्यात्मक पंख प्रदान कर सके, जिसे खुद हमने ही विस्मृत कर दिया है। वे इसकी पुनर्उपलब्धिं का प्रस्ताव करती हैं।

 

इतनी चर्चा से ही साफ है कि जीवन की सार्थरता का प्रश्न वैयक्तिक और सामाजिक संदर्भ और सापेक्षताओं में ही अर्थ ग्रहण करता है। लेकिन मनुष्य की सात्विक भावना और उसके उदात्त उपक्रम से इसका सहसंबंध असंदिग्ध है।


संदर्भ :
. दि फियर आफ फ्रीडम (१९४१)  - एरिक फ्राम, रुटलेज एंड कीगन पाल, लंदन
मार्था नुसबाम से रिचर्ड कीनी का साक्षात्कार, कथन-२२, सं. रमेश उपाध्याय, अप्रैल- जून, १९९९, दिल्ली
. सांस्कृतिक हिंसा के रूप- राजाराम भादू, २०२०, प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर
. दि रोमांटिक मेनिफेस्टो- आयन रैंड, १९७५, न्यू अमेरिकन लाइब्रेरी, न्यूयॉर्क
 
राजाराम भादू

  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)  अंक-46, जनवरी-मार्च 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक व जितेन्द्र यादव 
चित्रांकन : नैना सोमानी (उदयपुर)

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