संस्मरण : मैं उसी चवन्नी को ढूँढ रहा हूँ, इंशाअल्लाह... / डॉ. विष्णु कुमार शर्मा

मैं उसी चवन्नी को ढूँढ रहा हूँ, इंशाअल्लाह...
- डॉ. विष्णु कुमार शर्मा


“तुम्हारी बायीं आँख से टपकी थी एक बूँद
उस चवन्नी के बराबर
जिसे इस पीढ़ी के बच्चों ने कभी देखा तक नहीं”
                                                                                           -  (बाबुषा कोहली)


    चवन्नी से मेरा एक अलग तरह का रिश्ता है। पाँच-छह बरस का रहा होऊँगा तब शायद। पॉकेट-मनी के रूप में हमें चवन्नी मिला करती थी। मेहंदीपुर में बालाजी मंदिर के ठीक सामने हनुमान के आराध्य सीता-राम का मंदिर है। मंदिर में सीताराम जी के बहुत सुन्दर विग्रह हैं। क्या ही मनहर जोड़ी है? विग्रह इतने जीवंत हैं कि मानो अभी बोल पड़ेंगे। इधर मैं बरसों से बालाजी मंदिर में दर्शन के लिए भीतर नहीं गया हूँ। वहाँ दर्शनार्थियों की भीड़ बहुत रहती है। सीताराम मंदिर में ही दर्शन कर उसकी सीढ़ियों पर खड़े हो, बाहर से ही हनुमान लला को धोक लगा आता हूँ। बालाजी के पीछे भैरव और प्रेतराज सरकार हैं। दुपहरी बाद दो से चार बजे तक प्रेतराज सरकार के यहाँ भूत-प्रेतों की हाजिरी लगती है। सीताराम मंदिर से ठीक सटी हुई हमारे काका की दुकान थी। काका यानी हमारे दादा मिश्रीलाल। पूरा गाँव उन्हें काका या बड़े काका कहकर पुकारता था। हमारा मूल गाँव टोडाभीम से आगे बेरोज है। अपनी जवानी के दिनों में बेरोज़गार काका रोज़गार की तलाश में बेरोज से मेहंदीपुर बालाजी आए। अब बालाजी में प्रसाद-सवामणि के अलावा क्या बिजनेस हो सकता था? और काका को ये भी पता नहीं था कि लड्डू में चाशनी कितने तार की ली जाती है। सो, हमारी अम्मा ने उन्हें हलवा, पूरी, सब्जी आदि बनाना सिखाया। आसपास के दुकानदारों को देख उन्होंने लड्डू बनाना सीखा। काका बहुत मेहनती थे। किसी भी काम में लगते तो भूत की तरह। धीरे-धीरे उनकी दुकान और गृहस्थी जमने लगी। परिश्रम के साथ निश्छलता और ईमानदारी के चलते उन्होंने नई जगह पर बढ़िया नाम व दाम कमाया। पहले पक्का घर बनाया। पशुओं के लिए बाड़ा खरीदा, खेती के लिए ज़मीन खरीदी। दुकान भी की, खेती व पशुपालन भी किया। भरी गर्मी या सर्दी में भी वे नंगे पाँव चल पड़ते। कहते- “जितनी देर में चप्पल या जूती पहनूँगा उतनी देर में आधा काम हो जाएगा।” अक्सर धोती व बनियान में ही रहते। कुर्ता कोई काज पड़ने पर ही पहनते। उनका डील-डौल अच्छा-ख़ासा था। रंग गेहूँआ, छोटी मूँछें, आगे के बाल उड़ जाने से चौड़ा ललाट। लम्बाई कोई छह फीट के करीब। अनथक मेहनत ने जिस्म को फौलादी बना दिया था। दमे के कारण खाँसी रहती पर बीड़ी पीना उन्होंने नहीं छोड़ा। उनके एक छोटे भाई भी थे जो अल्पवय में परलोक सिधार गए, उन्हें सब छोटे काका कहकर बुलाते। छोटे काका कर्मकांडी पंडित थे। ज्योतिष शास्त्र पर उनकी गहरी पकड़ थी। वे बालाजी मंदिर में पूजा करते थे। उनकी विद्वता के कारण मंदिर के महंत जी उन्हें बहुत आदर देते। सभी पुजारियों में वे अकेले ऐसे थे जो काशी से पढ़कर आए थे। काशी हमेशा की तरह उन दिनों भी ज्ञान का केंद्र था। काशी नरेश और सेठ-साहूकारों के सौजन्य से अनेक विद्यालयों में देश के विभिन्न हिस्सों से आए बालकों व युवाओं को निःशुल्क शिक्षा दी जाती थी। छोटे काका काशी से ग्रेजुएट थे। वे बच्चों से खूब हेलमेल रखते। छोटे काका को लोगों की मूर्खतापूर्ण बातों पर गुस्सा बहुत आता और लोग हैं कि आप चलाकर ऐसी हरकतें करते। वे चिढ़ते और गालियाँ देते। लेकिन वे अपने बड़े भाई से बहुत डरते थे। कोई भी काम होता अपनी भाभी यानी हमारी अम्मा से कहते। उनसे खूब बतियाते, उन्हें मातृवत आदर देते। मेरी माँ छोटे काका यानी अपने चचिया ससुर को ख़ूब याद करती हैं। केदार की बहू यानी हमारी माँ का उन्होंने खूब लाड़-चाव किया। मुझे छोटे काका की कोई स्मृति नहीं। उनका निधन संभवतः मेरे जन्मने से पहले ही या उसी साल हो गया था। बड़े काका भी पचपन से साठ की उम्र में ही चल बसे। तब मैं बहुत छोटा था। उनकी यादें इतनी हैं कि उनके अंतिम प्रयाण के कुछ बरस हमने उनको अस्वस्थ देखा। उन्हें दमा की शिकायत थी। अम्मा उन्हें मुनक्का के बीज निकालकर उसमें कालीमिर्च व काला नमक मलकर आग में भूनकर खिलाती ताकि उनका एनर्जी लेवल बना रहे। हमें वे नमकीन मुनक्का खूब भातीं। जब भी अम्मा ऐसा करतीं हम पहुँच जाते और माँगने लगते। तब काका गुस्से में कहते– “इनकूं द बेटी का लोड़ा-न कू…इनकूं द पैले।” हम खूब हँसते। ‘बेटी का लोड़ा’ उनका तकिया कलाम था। काका ने जैसा कि दादा अपने पोते-पोतियों का लाड़-चाव करते हैं वैसा हमारे साथ कभी नहीं किया। उन्हें शायद ऐसा करना आता नहीं था। हमसे प्रेम ख़ूब था लेकिन लाड़ लड़ाना नहीं आता था उन्हें। गुस्से और प्रेम के अतिरेक में गाली अवश्य उनके श्री-मुख से सुनने को मिलती थीं। गाँव के बहुत सारे लोग केवल गालियाँ सुनने के लिए उन्हें छेड़ते थे। हम दोनों-तीनों भाइयों को पॉकेट-मनी के रूप में दो चवन्नियाँ मिलती थीं। एक सुबह स्कूल जाते वक़्त दूजी शाम के समय। सुबह की चवन्नी माँ या दादी से मिलती, शाम की चवन्नी के लिए हमें दुकान पर जाना होता। शाम के समय वहाँ अक्सर मेरे छोटे चाचा मिलते। वे मुझे गेंडा छाप चवन्नी देते और मैं चिढ़ जाता। उस चवन्नी पर एक ओर काजीरंगा नेशनल पार्क में विचरते गेंडे की तसवीर छपी होती। मुझे गेंडा बिलकुल अच्छा नहीं लगता। हालाँकि मैंने असल में गेंडा आज तक नहीं देखा लेकिन उसकी थूथन से मुझे घिन आती। धीरे-धीरे दुकान पर काम करने वाले हलवाई व आसपास के दुकानदार सब जान गए कि मुझे गेंडे छाप चवन्नी पसंद नहीं। अब तो मैं जब जाता तब उन सबके लिए एक खेल हो जाता। एक चवन्नी के लिए वे मुझे रुला-रुला देते। तब मुझे एक दोस्त ने एक आईडिया दिया। उसने बताया कि सुबह राममंदिर में मंगला भोग लगने के बाद प्रसाद का दोना मिलता है जिसमें चवन्नी मिलती है। सो हम अपने दोस्तों के साथ सुबह राम मंदिर जाने लगे। लोभ बढ़ा तो हम दुबारा-तिबारा लाइन में लगकर और दोने ले आते। कभी एक हाथ में दोना पकड़े दूसरे हाथ से माँगते और पंडित जी की नज़र पड़ जाती तो वे हमें डपटकर भगा देते। तब हम बाहर आकर पहले वाले दोनों को छिपाकर फिर लाइन में लगते। एक बार हम तीन दोने लाकर एक पत्थर की आड़ में छिपा गए और चौथा लेकर लौटे तो देखा कि हमारे सारे दोने चोरी हो गए। हम पर भारी वज्रपात हुआ। हमने मित्र को बताया। उसने सलाह दी कि कल से हम लाइन में नहीं लगेंगे। जो लाइन में लगकर दोनें इकठ्ठा करेंगे, हम उनके दोनें चुरा लेंगे। हिसाब भी बराबर और कम मेहनत में ज़्यादा कमाई। अगले दिन हमने यही किया। मैं चार दोनें उठा लाया। आज मेरे पास पूरी चार चवन्नियाँ थीं लेकिन मैं ख़ुश नहीं था। मुझे अच्छा नहीं लग रहा था। आगे से मैंने पक्का इरादा किया कि दो से ज़्यादा दोने नहीं लूँगा। दो चवन्नियाँ क्या कम दौलत है? रुपया गर मिल जाए तो हम हिंदुस्तान के बादशाह कहलाएँ। किस्सा है कि शाहजहाँ को अपदस्थ करने के बाद औरंगजेब ने कैदखाने में डाल दिया। एक दिन जब शाहजहाँ की चप्पलें टूट गईं तो उसे नई चप्पलों की दरकार हुई। शाहजहाँ पर नज़र रखने वाले हिजड़े ने चप्पल वाले को बुलाया। उसने तीन तरह की चप्पलें दिखाई। एक चवन्नी की, दूजी अठन्नी की और तीजी जो थोड़ी मुलायम थी, एक रुपए की। शाहजहाँ ने रुपए वाली चप्पल पसंद की। हिजड़े ने ताजमहल और तख्ते ताउस के निर्माता शाहजहाँ को हड़काते हुए कहा कि “तुम्हारी औकात है रुपए की चप्पल पहनने की? बादशाह सलामत ने चप्पल के लिए बस अठन्नी मुकर्रर की है, समझे? जियादा से जियादा आठ आने वाली चप्पल ले सकते हो बस।” सो, जिस दिन हमारे पास एक रुपया हो जाता उस दिन तो हम खुद को शाहजहाँ का बाप समझने लगते। मिठाई के दोनों से अठन्नी हो जाने पर एक दिन चवन्नी की राजू सुपारी और चवन्नी की इमली खाते, दूसरे दिन शाम में अठन्नी की गणपत बाबा की पकौड़ी खाते। ऐसी बादशाहत के दिन थे वे। पिता के मित्र मोहन ताऊजी की मिठाई की दुकान थी जहाँ जाने पर हमें सौ ग्राम बर्फी और पचास ग्राम सेव नमकीन मिलती। देर रात उनके यहाँ जाते तो मलाई वाला कुल्हड़ का दूध मिलता। आज भी मोहन मिष्ठान भंडार के जैसी मिठाई पूरे बालाजी में नहीं मिलती। अब भी कभी साल में एकाध बार बालाजी जाता हूँ तो मोहन ताउजी से ज़रूर मिलकर आता हूँ और वे कुशल-क्षेम जानने के बाद सौ ग्राम बर्फी और पचास ग्राम सेव नमकीन आगे रख देते हैं। बालाजी में देशभर के भूत-प्रेतों का निवारण होता है लेकिन हमें कोई डर नहीं था। हमारी अम्मा ने कभी नहीं कहा कि “रात में दूध या बर्फी खाकर झूठे मुँह मत घूमा करो, भूत लग जाएगा।” न कभी गले में या बाँह पर कोई गंडा-ताबीज बाँधा... बालाजी के आसपास के गाँवों-शहरों में लोगों का कहना हैं कि वहाँ के महंत जी दर्शनार्थियों में से पैसे वाले लोगों को चिह्न लेते हैं और उनके भूत चिपका देते हैं ताकि उनकी भूत-बाधा हटाकर उनसे पैसा कमाया जा सके। यह उतनी ही निरी गप्प है जितनी कि यह कि भूत होते हैं। जब भूत-प्रेत होते ही नहीं तो क्या चिपकाएँगे और क्या हटाएँगे? ये कोरे मानसिक विकार हैं। यदि भूत होते और उनका निवारण बालाजी में होता तो आज वहाँ जीवित इनसानों से जियादा भूत होते; क्योंकि वहाँ तो कोई सौ-पचास बरस से ये काम हो रहा है। मुझसे छोटे नीलेश का लगभग रोज़ का काम था दो से चार बजे प्रेतराज के दरबार में भूतों की पेशी देखने का। उसे इसमें बड़ा मज़ा आता। वह सात बरस की उमर तक स्कूल ही नहीं गया। सुबह नत्थू काका के साथ खेत पर या भैंस चराने जाना, दुपहर बाद भूतों की पेशी देखना। नत्थू काका हमारे काका (दादा) के हाळी थे। वे दस-बारह बरस की उमर में अनाथ हो गए तब वे मिश्री काका के पास आए। काका ने उन्हें अपने घर में रख लिया। नत्थू काका जाति से राजपूत थे। वे आजीवन अविवाहित रहे। न माँ-बाप, न परिवार…शादी कौन करता? जवानी में उन्हें दारू की लत लग गई। शाम में एक पव्वा रोज चाहिए था उन्हें। कई बार तूड़े (चारा) में छिपाया गया उनका पव्वा हम पत्थर लेकर फोड़ देते तब वे गुस्सा हो उठते और गालियाँ देते। नीलेश उनका विश्वसनीय आदमी था। उसे वे कंधे पर बिठाकर जंगल ले जाते और ऐसे ही लौटते। वे बिना नमक का खाना खाते थे। उन दिनों हमने सुना था कि जो आदमी नमक नहीं खाता वह ज़हरीला हो जाता है। वह यदि किसी को नोंच ले या काट ले तो उसकी मृत्यु अवश्यम्भावी है। उन्हीं दिनों ‘चंद्रकांता’ सीरियल टीवी पर आया करता था। उसमें चुनारगढ़ का राजा शिवदत्त साँप से अपनी जीभ पर डसवाता था और कभी विषकन्या तारा अपने लंबे नाखूनों से उसकी पीठ पर खरोंच कर ज़हर का डोज देती थी। हाय ! कितनी ख़ूबसूरत थी तारा। मुझे उस पर क्रश था। उन दिनों होमवर्क भी थोड़ा ही मिलता था जिसे हम अक्सर स्कूल में ही निपटा आते थे। पाँचवी कक्षा तक माँ एक घंटे पढ़ाती ज़रूर थीं। माँ के उस नियमित दुहरान का ही परिणाम था कि हम हमेशा अव्वल आते। परिणाम के दिन शाबासी के साथ माँ या अम्मा से सवा रुपया यानी एक रुपया और एक चवन्नी मिलती।

    जवां हुए तो हम फिर चवन्नी ढूंढने लगे। वृंदा करात की चवन्नी के आकार की बिंदी हमें खूब जँची। हमने उसे कहा तो बोली- “हुँह, अब कौन लगाता है गँवारों के जैसी इतनी बड़ी बिंदी।” हमने कहा- ममता कालिया लगाती हैं, वृंदा करात लगाती हैं... बंगाली औरतें लगाती हैं।” तो बोली- “कोई बंगालन ही ढूँढ लो फिर अपने लिए, मैं तो नहीं लगाने वाली हुई।” फिर तेल-लूण-लकड़ी के फेर में ऐसे फँसे कि भूल गए चवन्नी, राजू सुपारी, इमली, गणपत की पकौड़ी, बर्फी, सेव नमकीन, कुल्हड़ का दूध और तारा को…चवन्नी के आकार की बिंदी लगाने वाली कोई लड़की भी नहीं मिली। बरसों बाद एक मिली जिसने कहा कि “चवन्नी के आकार की बिंदी तो नहीं लगाऊँगी पर चवन्नी भर काजल ज़रूर आँज लूँगी इन आँखों में।” उस चवन्नी भरे काजल की आँखों को हम अपनी आँखों से नहीं लगा सके सदा के लिए.. और एक दिन उसकी बायीं आँख से एक बूँद टपक पड़ी और जमीं पर बन गई एक चवन्नी।

    खो गई वो आँखें, खो गई वो चवन्नी... मैं उसी चवन्नी को ढूँढ रहा हूँ... सयाने लोगों ने बताया कि कविता में मिल जाया करती हैं गुमी हुई चवन्नियाँ। इसी खोज़बीन में बाबुषा कोहली का नया कविता संग्रह ‘तट से नहीं... पानी से बँधती है नाव’ हाथ पड़ा। यहाँ बाबुषा लिखती हैं-

“दोस्त!
अँधेरे जानते हैं उन लोगों की इज़्ज़त करना
जो कोने में छुपकर अब भी गढ़ लेते हैं
दुनिया से गुम हो चुके छोटे-छोटे सिक्के
आकाश और कुछ नहीं उनकी चमचमाती चवन्नियों का म्यूजियम है”

पिछले कई दिनों से रात को आकाश रूपी म्यूजियम की ओर तकते हुए मैं उसी चवन्नी को ढूँढ रहा हूँ... इंशाअल्लाह...

डॉ. विष्णु कुमार शर्मा
सहायक आचार्य, हिंदी, डॉ. बी. आर. अम्बेडकर राजकीय महाविद्यालय महुवा, दौसा, राजस्थान, पिन- 321608

अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati), चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका
अंक-47, अप्रैल-जून 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक व जितेन्द्र यादव चित्रांकन : संजय कुमार मोची (चित्तौड़गढ़)

1 टिप्पणियाँ

  1. डॉ. हेमंत कुमारजुलाई 17, 2023 7:04 am

    बरसों बाद ऐसा अद्भुत संस्मरण पढ़ा है।काका मिश्रीलाल के व्यक्तित्व और संघर्ष के साथ -साथ शहर का व्यक्तित्व भी उभर आया है। चीजों के संतुलित विवरण देते जाना डॉ. विष्णु की लेखन शैली की खासियत है। खाने-पीने की चीजों का उल्लेख , स्त्रियों के अवदान की यथावसर स्वीकृति के साथ प्रेम की उपस्थिति रचना को नया स्तर देती है। संस्मरण के आखिरी हिस्से आहिस्ता पढ़े जाने की माँग करते हैं। जहाँ खोया हुआ प्रेम पाठक की आँख करने के साथ रचना के शीर्षक को नया अर्थ दे जाता है।

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