समय से जूझते हुए
(1) जीवन में दु:ख ही स्थायी भाव है। सुख और आनंद पानी का बुलबुला है। अपने आसपास की ज़िंदगी को देखते हैं तो यह बात बहुत गहराई से समझ आती है। रोटी, कपड़ा और मकान परिश्रम के बाद उपलब्ध तो हो सकता है लेकिन इस मानसिक क्लेश का क्या किया जाए? आज के दौर में यह मानसिक क्लेश हर आदमी को दीमक की तरह चाट रहा है। इससे छुटकारा पाने के लिए कोई बंगाली बाबा के तंत्र-मंत्र का सहारा ले रहा है तो कोई शांति पाठ करा रहा है। कोई ज्योतिषी के आगे हाथ दिखा रहा है। बाबाओं के यहाँ बढ़ती बेलगाम भीड़ भी मानसिक क्लेश से मुक्ति की उम्मीद लगाए बैठी है। इधर मेरे साथी संपादक माणिक कोई 'जीवन-विद्या' शिविर से जुड़े हुए हैं। उनके अनुसार वह एक जीवन की पाठशाला है। वहाँ जाने के बाद जीवन के प्रति सकारात्मकता आती है। मन में कभी-कभी विचार आता है कि अवसर मिला तो एक बार जरूर शरीक होंगे। संकट के समय साहस और धैर्य यही दोनों मनुष्य के सबसे बड़े दोस्त अनुभव होते हैं। जिसके पास यह दोनों रहेंगे वह बड़ी से बड़ी बाधा को पार कर सकता है। इस प्रसंग में कुँवर नारायण की पंक्ति याद आ रही है- ‘कोई भी दु:ख मनुष्य के साहस से बड़ा नहीं/हारा वहीं जो लड़ा नहीं’। तुलसीदास भी ‘आपतकाल’ में जिन चार चीज धरम, धीरज ,मित्र और नारी को परखने की बात करते हैं, उनमें धैर्य भी शामिल है। मुझे लगता है कि धैर्य और साहस एक दूसरे के पूरक हैं। इन दोनों के सामंजस्य से ही मनुष्य बाधाओं से आगे निकल पाता है। कल्पना कीजिये कि क्या धैर्य के अभाव में साहस टिक सकता है? और यदि साहस साथ न दे तो धैर्य कब तक परिस्थितियों से लड़ सकता है? एक अच्छे साहित्य का उद्देश्य मनुष्य के अंदर साहस और धैर्य पैदा करना भी होता है।
प्रेमचंद ने 1936 में ही साहित्य की कसौटी को बदलने की बात कही थी। जिस पर अमल करते हुए बाद के लेखकों ने साहित्य की संवेदना को विस्तार भी दिया। यदि देखा जाए तो साहित्य की चिंता व्यापक होती है, वह चाहता है कि समाज के अंतिम पंक्ति में खड़े व्यक्ति की पीड़ा भी साहित्य की आवाज बने। तभी साहित्य का सच्चे अर्थों में लोकतंत्रीकरण होगा। किन्तु समकालीन साहित्य की दिशा शहरों की तरफ उन्मुख है। ग्रामीण समाज की व्यथा-कथा उतनी शिद्दत के साथ नहीं लिखी जा रही है। एक दौर था जब आंचलिक कथाकारों ने ग्रामीण जन जीवन की कहानियों को अपने साहित्य का आधार बनाया था। किन्तु अब ठहराव सा दिखाई देता है। किसान जीवन पर शोध करते हुए मुझे इसका आभास बहुत गहराई के साथ हुआ। लेखकों की नई पीढ़ी जीविकोपार्जन की तलाश में शहरों में बस गई है। उनके पास ग्रामीण जन जीवन के नाम पर सिर्फ स्मृतियाँ ही रह जाती हैं। कुछ लेखक स्मृतियों के आधार पर ग्रामीण जीवन की कथा लिखने का प्रयास करते हैं लेकिन वह भाव और ताजगी दिखाई नहीं पड़ती है,जो होनी चाहिए। साहित्य को जीवंत बनाने के लिए जरूरी है कि उसमें नए-नए विचारों और विमर्शों की तरफ ध्यान खींचा जाए।
(2) दुनिया अपनी गति से चल रही है। हर रोज जीवन का एक दिन घट रहा है। मुक्तिबोध की तरह महसूस होता है कि ‘अब तक क्या किया जीवन क्या जिया’। ऐसा लगता है कि जीवन अपनी सार्थकता खोता जा रहा है। जीवन को देखने का नजरिया इधर तेजी बदला है। यह सच है कि ज़िंदगी का रास्ता सपाट नहीं होता है बल्कि पहाड़ी रास्तों की तरह उतार-चढ़ाव और जोखिम भरा होता है। अभी कुछ दिन पहले पहाड़ी मार्गों को देखा तो याद आया कि ज़िंदगी इन्हीं रास्तों की तरह है। हमें सतर्क और सावधान होकर जीवन की डगर पर चलना है। मन में बहुत बेतरतीब खयाल आते जा रहे हैं। यह लिखूँ ,वह लिखूँ या फिर कुछ न लिखूँ। लिखने से ज्यादा पढ़ने की जरूरत है। किताबें आलमारी में धूल फाँक रही हैं। सोचता हूँ कि फुर्सत मिलेगी तो पढ़ूँगा लेकिन अब लगता है कि किताबों को पढ़ने के लिए जुनून चाहिए न कि फुर्सत। फुर्सत आती है और चली जाती है। किताबें पड़ी रह जाती हैं।
अपनी माटी पत्रिका के इतिहास में एक अच्छी बात यह हुई कि पहली बार हम लोग एक विशेषांक को प्रिंट में ले आए। उसका प्रिंट वर्जन भी लोगों ने सहर्षता से स्वीकार किया। प्रोफेसर गजेन्द्र पाठक जी के अतिथि सम्पादन में ‘प्रतिबंधित साहित्य’ विशेषांक ने एक अलग पहचान स्थापित की है। आगे भी हम महत्त्वपूर्ण अंक को प्रिंट वर्जन में भी प्रकाशित करेंगे ताकि लोग उसे संगृहीत कर पाए। हम लोगों की कोशिश रहती है कि पत्रिका में हमेशा गंभीर और मौलिक लेख प्रकाशित हों। इस उद्देश्य में हम लोग कितने सफल हैं इसका निर्णय आप लोग ही करेंगे। इस सामान्य अंक में विविधतापूर्ण लेख आपको मिलेंगे। जो हमारे गंभीर अध्येताओं के लिए उपयोगी सिद्ध होंगे। ऐसा मेरा मानना है।
वैचारिकी वाला कॉलम हमारे अंक की मूल ताकत होता है। इस बार मृत्युंजय भाई और साथी शशिभूषण मिश्र का योगदान पठनीय है। कबीर, मलयज सहित आलोचना पर रोशनी डाली गयी है। भक्तिकाल से लेकर आधुनिक काल तक की विविधता आपको यहाँ मिलेगी। 'बतकही' के दोनों इंटरव्यू आपको रुचिकर और ज्ञानवर्धक लगेंगे। प्रो. संतोष चतुर्वेदी और संजीव जी ने 'अपनी माटी' के लिए वक़्त निकाला यह आभार योग्य कदम है। समीक्षा के लिहाज़ से पलक दाधिच स्नातक की छात्रा है और उसके जैसे युवाओं को शामिल करना हमारी प्राथमिकता रही है। कथेतर में इस बार दिनेश कर्नाटक और नीलू शेखावत नया स्वर है। हमारे दलित, आदिवासी सहित स्त्री विमर्श के तीनों स्तम्भ में भरपूर और सार्थक रचनाएं शामिल की गयी हैं। मानविकी के साथ ही सामाजिक विज्ञान से जुड़े आलेख आपका ध्यान आकर्षित करेंगे ऐसी आशा है। पूरे देशभर से लेखकों ने इसमें हिस्सा लिया है। केम्पस के किस्से में इस बार हैदराबाद से किस्से आए हैं। डॉ. मायादेवी जी का शुक्रिया। लेखकीय योगदान हेतु सभी रचनाकारों का आभार।
- जितेंद्र यादव
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati), चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका
अंक-47, अप्रैल-जून 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक व जितेन्द्र यादव चित्रांकन : संजय कुमार मोची (चित्तौड़गढ़)