शोध आलेख : महाराष्ट्र की कोरकू जनजाति में लोक चिकित्सीय संस्कृति / महेंद्र कुमार जायसवाल, फरहद मलिक

महाराष्ट्र की कोरकू जनजाति में लोक चिकित्सीय संस्कृति
- महेंद्र कुमार जायसवाल


शोध सार : चिकित्सा का एक लंबा इतिहास रहा है और प्राचीन काल से ही किसी किसी रूप में चिकित्सा का अभ्यास किया जाता रहा हैं। दुनिया भर में मानवजाति ने हमेशा स्वास्थ रखरखाव और बीमारियों के नियंत्रण से संबंधित अनेक चुनौतियों का सामना किया है। इसके जवाब में स्वास्थ्य देखभाल या चिकित्सा पद्धतियों की अलग-अलग क़िस्मों को विकसित किया है। प्रत्येक समाज बीमारियों की व्याख्या और उपचार अलग-अलग तरीके से करता रहा है। आज मानव वैश्विक युग में जीवनयापन कर रहा है। वह हर तरह की जानकारियों के लिए इंटरनेट का उपयोग कर रहा है, लेकिन आज भी लोक समाज एवं जनजाति समाज के लोग अपनी स्वास्थ्य संबंधी परंपराओं को बनाए हुए हैं तथा समय के साथ उसमें नवीनता को भी शामिल करते रहे हैं। विश्व का प्रत्येक मानव समुदाय अपने समुदाय के लोगों के लिए निरंतर प्रयत्नशील रहा है। लोक चिकित्सा पद्धति इन्हीं चिकित्सा आयामों से जुड़ी हुई है। बीमारी के संदर्भ में चिकित्सा अवधारणा एवं उपयोग किए जाने वाली औषधियाँ समुदाय विशेष की स्वीकृति के साथ विकसित होती है। लोक चिकित्सा पद्धति बीमारी और स्वास्थ्य संबंधी विश्वासों पर आधारित है, जिसे समुदाय के सभी सदस्य सरलता पूर्वक प्राप्त करते हैं। इस चिकित्सा पद्धति के प्रशिक्षण के लिए कोई प्रयोगशाला नहीं होता है, बल्कि यह चिकित्सा पद्धति प्रथाओं, रीति-रिवाजों, धार्मिक विश्वासों के माध्यम से मौखिक परंपरागत के रूप में एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में हस्तांतरित होती रहती है। यही कारण है कि कोरकू जनजाति की जीवन शैली, परंपराएं, विश्वास एवं मान्यताओं के आधार स्थानीय पारिस्थितिकी एवं अलौकिक शक्ति के प्रतिमानों पर ही आधारित रही है। 

बीज शब्दमेलघाट क्षेत्र, लोक संस्कृति, कोरकू जनजाति, लोक चिकित्सा, जड़ी-बूटी, झाड़-फूँक, तंत्र-मंत्र, अलौकिक शक्ति, धार्मिक विश्वास, देवी-देवता, जादू-टोना

मूल आलेख : कोरकू मध्यप्रदेश एवं महाराष्ट्र राज्य में रहने वाली एक प्रमुख जनजाति है। महाराष्ट्र राज्य की तुलना में कोरकू जनजाति का विस्तार मध्यप्रदेश में अधिक है। कोरकू जनजाति मध्यप्रदेश में बैतूल, खण्डवा (पूर्व-निमाड), देवास, छिंदवाड़ा, होशंगाबाद एवं सिहोर जिलों में निवास करते हैं। कोरकू जनजाति मुख्यतः चार भागों में विभाजित है, मवासी छिंदवाड़ा जिले से, बावरिया बैतूल जिले से, रुमा ठाकुर अमरावती जिला और बोंडेया पंचमढ़ी क्षेत्र (होशंगाबाद) जिले से संबंधित माने जाते हैं। कोरकू जनजाति की जनसंख्या 2011 की जनगणना के अनुसार मध्य-प्रदेश में (730,847) सर्वाधिक है। इसके बाद इनकी सर्वाधिक संख्या (264,492) महाराष्ट्र में है। महाराष्ट्र में कुल 45 जनजातीय समूह हैं, जिनमें से एक कोरकू जनजाति भी है। महाराष्ट्र सरकार ने बोपचे, निहाल, नहुल, बोंधी समूह को भी कोरकू जनजाति के वर्ग में ही रखा है। यह जनजाति मुख्य रूप से महाराष्ट्र राज्य के पश्चिमी विदर्भ क्षेत्र में पड़ने वाले अमरावती जिले में निवास करती है। कोरकू जनजाति की जनसंख्या जिलेवार क्रम जैसे अमरावती (2,40,784), अकोला (11684), बुलढाणा (5915) जिले में सर्वाधिक है। अमरावती जिले के कोरकू भोमादय (रूमा ठाकुर) कहलाते है। अमरावती जिले में मेलघाट बाघ अभयारण्य क्षेत्र फरवरी 1974 में घोषित भारत देश के सबसे बड़े एवं पहले 9 टाईगर रिज़र्व में से एक है। इस क्षेत्र में कोरकू जनजातीय आबादी का एक बड़ा हिस्सा है, जो दो प्रशासनिक तहसीलों, चिखलदरा और धारणी में फैलता है। यह क्षेत्र पूरी तरह से कोरकू जनजातीय बाहुल्य इलाका है, यही कारण है कि इस जनजाति का चयन एवं शोध क्षेत्र हेतु मेलघाट क्षेत्र का चुनाव कोरकू जनजाति की बहुलता के आधार पर किया गया है। मेलघाट क्षेत्र में चिखलदरा और धारणी तालुका आते हैं। मेलघाट क्षेत्र एक समय कुपोषण बीमारी के लिए जाना जाता था, लेकिन अब इस बीमारी पर पूरी तरह से काबू पा लिया गया है (Census, 2011)

            मेलघाट के जंगलों में मुख्य रूप से कोरकू जनजातियों का निवास है, जो जंगलों के आस-पास के क्षेत्र में एक स्थाई जीवन जीने का सबसे अच्छा उदाहरण प्रस्तुत करते है। उन्हें इन वनों से अपनेपन की अटूट भावना है, और इसीलिए इसने अभी भी अपनी शांति बनाए रखी है, जबकि अन्य आस-पास के वन क्षेत्र तेजी से अपने गौरव के दिन खो रहे हैं। कोरकू, निहाल, पारधी, गवली (स्थानांतरित पशुपालक), भिलाला (टट्टया भील), ठाटीया गोंड (गौ रक्षक), राजगोंड जनजाति के पास अपना खुद का देशज़ या स्वदेशी वैज्ञानिक वानस्पतिक एवं लोक चिकित्सीय ज्ञान है, जो आधुनिक वैज्ञानिकों को कुछ चीजें सीखा सकता है। मेलघाट में निवास करने वाली जनजातीय आबादी के पास बहुत ही विविध और समृद्ध सांस्कृतिक विरासत है, जिसका आस-पास के जंगलों के वनस्पतियों और जीवों के साथ सह-अस्तित्व बना के रखा गया है। कोरकू जनजाति के गोत्रों का नाम पेड़ों के नाम पर रखा गया है, जैसे जामुनकर, सेमलकर आदि जो प्रकृति के साथ अपनी संस्कृति के एकीकरण को सिद्ध करते हैं। भारत की जनसंख्या में चार विभिन्न मानव जातियों के लोग हैं, जैसे आस्ट्रिक, द्रविड़, मंगोल और नीग्रो इन चारों में आस्ट्रिक सबसे पुराने बताए जाते हैं। आस्ट्रिक वंश के लोग ही कोरकू जनजाति हैं (Deogaonkar & Deogaonkar, 1990)

 

मेलघाट जनजातीय क्षेत्र
        मेलघाट कोरकू जनजाति क्षेत्र कुपोषण के लिए विख्यात हैं। मेलघाट के कोरकू जनजाति के गांवों में कुपोषण, डेंगू बुखार, मलेरिया, चर्म रोग इस क्षेत्र में बहुत फैलते हैं। कोरकू लोग इन बीमारियों को दूर करने के लिए धार्मिक विश्वासों और जादू-टोनों झाड़-फूंक उपचार पर विश्वास करते हैं। बीमारियों से बचाव के लिए वे भूत-प्रेत भगाने जैसे आदिम तरीके से काम में लेते हैं, और पहले आज के दिनों में भी कुछ जड़ी-बूटियों का सहारा लेते हैं, इनके उपचार विशेषज्ञ पड़ियार जैसे लोग होते हैं क्योंकि उनका दृढ़ विश्वास है कि, रोग सीधे तौर पर कुछ बुरी आत्माओं की देन है, जिससे छुटकारा जानवरों के बलिदान के जरिए ही पाया जा सकता है। इसलिए ये लोग आधुनिक औषधियों का उपयोग बहुत कम करते है, क्योंकि अनेक विश्वास तथा जादू-टोने का प्रभाव स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। यहाँ कोरकू जनजाति के स्वास्थ्य संबंधी उन्हीं व्यवहारों एवं संस्कृतियों को अस्तित्व में लाने का प्रयास किया गया है। कोरकू जनजाति अपने अनुभवों के आधार पर अपने शरीर में होने वाले रोगों को पहचाना है तथा उसे ठीक करने के लिए जादुई, धार्मिक एवं परंपराओं को जन्म दिया है। उसने अपने अनुभवों से सीखा है कि बीमारी समय से पहले मृत्यु को निमंत्रण देती है तथा अगर सही ढंग से उपचार किया जाय तो उसका परिणाम निश्चित ही मृत्यु के रूप में सामने आता है। इसमें बिल्कुल भी संदेह नहीं है कि आज हम वैज्ञानिक क्रांति के युग में जी रहे हैं तथा इसके कारण आज हमारे बीच विविध रोगों के उपचार हेतु आधुनिक चिकित्सा पद्धति उपलब्ध हैं, लेकिन आज भी ये कोरकू जनजाति समाजों में रोग का कारण जादू, देव की नाराजगी, भूत-प्रेत, अलौकिक शक्ति आदि को मानते हैं तथा उनका उपचार जादू, तंत्र-मंत्र, अनुष्ठान, पूजा एवं जड़ी-बूटियों से करते हैं। जब ये सारे प्रयास विफल हो जाते हैं, तभी वे आधुनिक चिकित्सक के पास जाते हैं (Birdi & et al, 2014)                                

        आरंभ में मानव की चिकित्सा व्यवस्था देशज या परंपरागत ज्ञान पर आधारित रही है। प्रत्येक समाज में आज भी लोक चिकित्सा विशेषज्ञ है, जो रोग तथा जड़ी-बूटी की दवाओं का ज्ञान रखते है। वे बीमार व्यक्ति के रोग को पहचान कर जड़ी बूटी से दवा तैयार कर उसे स्वस्थ्य बनाया करते है। इसी तरह समाज में हड्डी तथा टूट-फूट रोग विशेषज्ञ, नस रोग विशेषज्ञ, स्त्री रोग विशेषज्ञ, प्रसव विशेषज्ञ आदि आज भी अस्तित्व में बने हुए है। ये लोग अपने परंपरागत ज्ञान तथा आस-पास के पर्यावरण में उपलब्ध जड़ी-बूटी से तैयार की गई दवाओं के माध्यम से उपचार किया करते है। ये अपने लोक चिकित्सकीय ज्ञान को आज भी संजोकर रखे हुए है। उन्हे इस बात का भय है कि जड़ी-बूटियों की जानकारी सार्वजनिक हो जाने पर उसका दुरुपयोग हो सकता है तथा जड़ी-बूटियाँ उनके पर्यावरण से अस्तित्वहीन हो जाएंगी इसीलिए ये वृद्धावस्था में वे अपने ज्ञान को अपने बड़े पुत्र को सौंप दिया करते है। इस तरह लोक चिकित्सक का पद समाज में वंशानुगत के रूप में अधिकतर पाया गया है। लोक चिकित्सक द्वारा जड़ी-बूटियों के माध्यम से उपचार के अतिरिक्त अलौकिक शक्तियों को पूजा-पाठ द्वारा प्रसन्न कर रोगों को ठीक करने की व्यवस्था भी समाज में पाई जाती है। अलौकिक शक्तियाँ अप्रसन्न होकर समाज में तरहतरह के रोग उत्पन्न कर देती हैं। उन्हे पूजा-पाठ के द्वारा प्रसन्न करके बीमारी के आने से तथा फैलने से रोका जा सकता है।


 कोरकू लोक चिकित्सक (पड़ियार) द्वारा धार्मिक अनुष्ठान कृत्य
       प्रत्येक समाज स्वास्थ्य एवं रोग को अपनी सामाजिक-सांस्कृतिक, पारिस्थितिकी एवं स्थानीय भाषा और पर्यावरण के आधार पर परिभाषित करता रहा है, जिसमें सदियों से लोग औषधीय पौधों, प्राकृतिक वातावरण और अलौकिक शक्तियों का उपयोग करते रहे हैं। स्थानीय चिकित्सा विशेष तौर पर लोक समाज एवं जनजातीय समुदायों में अलिखित स्वरूप मौखिक परंपरा के रूप में देखने को मिलता है। यह समुदाय द्वारा मान्यता प्राप्त स्थानीय चिकित्सा के रूप में देखा जा सकता है, जो लोक-परंपराओं के माध्यम से विभिन्न धार्मिक विश्वासों एवं रीति-रिवाजों, अनुष्ठानों, निषेधों, टोटम, प्रथाओं मान्यताओं आदि के द्वारा एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में हस्तांतरित होने वाले ज्ञान पर आधारित होती है। इस तरह से प्राकृतिक घटनाओं के गहन अवलोकन एवं पिछले अनुभवों के प्रयोगों के फलस्वरूप स्थानीय चिकित्सा की खोज लोक समाजों एवं जनजाति समाजों में संभव होती है। औषधि प्रयोग एवं अलौकिक कृत्यों का संपादन प्रकृति के गहन अवलोकन संबंधित घटनाओं से उपजे ज्ञान की सहायता से किया जाता है। लोक उपचार उस समाज विशेष के आस-पास के भौगोलिक क्षेत्र में पाए जाने वाले विभिन्न औषधीय पेड़-पौधे एवं जीव-जंतु और मानवीय क्रिया जैसे कि जादू-टोना, टोटका, झाड़-फूँक एवं मानवीय प्रयासों से परे विभिन्न अलौकिक शक्तियां जो कि अच्छे या बुरे किसी भी रूप में विद्यमान हो सकती है। इन तथ्यों का प्रयोग प्रत्येक समाज में सामाजिक-सांस्कृतिक एवं धार्मिक विश्वास पर्यावरण तालमेल के साथ संपन्न किया जाता है (Wagay, et al, 2019)

 

उपचार हेतु अनुष्ठानिक धार्मिक कृत्य
          मेलघाट के कोरकू जनजातियों के बीच जादू-टोना का आम रिवाज है। भूत-प्रेत पर विश्वास करते हैं। जब कोई व्यक्ति भूत-प्रेत के चक्कर में जाता है, तो गाँव के लोग पड़ियार (लोक चिकित्सक) के पास जाते हैं। भूत-प्रेत भगाने के मंत्र एवं कई प्रकार की जंगली जड़ी-बूटियाँ भी रहती हैं, जिसकी धुनी देते हैं। मंत्र-तंत्र से झाड़-फूँककर रोगी को अच्छा कर देते है। भूत-प्रेत को भगाने के लिए एक बोतल सीडू और मुर्गे तथा बकरे की बलि भी देते हैं। जादू-टोना पर इनका बहुत विश्वास है, और झाड़-फूँक इसका शर्तिया इलाज माना जाता है। पड़ियार के अलावा गाँव के भी कुछ लोग जादू-टोना और जड़ी-बूँटी के जानकार होते हैं। पड़ियार की अनुपस्थिति में वे भी तंत्र-मंत्रों से रोगी के रोग को दूर भगाते हैं। ये लोग विभिन्न शारीरिक बीमारियों जैसे बुखार, सिर दर्द आदि अन्य बीमारियों को भी जादू-टोना और झाड़-फूँक कर दूर करते हैं। जादू-टोना और झाड़-फूँक पर अधिक विश्वास होने के कारण ही ये लोग डॉक्टर के पास बहुत कम जाते हैं।

            बुखार आने पर पड़ियार मरीज को दराती या चाकू से मंतर देते हैं। गले में डोरा-धागा बांधते हैं। अधिकतम पड़ियार भूत-प्रेत या बाहरी बाधा संबंधी बीमारी बताते हैं, और उसी से संबंधित इलाज करते हैं। एक ही हाथ से कुएं से खींचे गए जल से पड़ियार मरीज को नीम की डगाल के जरिए अभिसिंचित करता है, दानबाण देता है। जंतर-मंतर जानने वाला कोरकू मुठवा ग्राम देवता की आराधना करता है। मुठवा के बारे में कोरकुओं का विश्वास है कि, जिस व्यक्ति के नाम से मूठ (देव-मंत्र) मारी जाती है, वह दिए गए समय में मर जाता है। जानकार मूठ बांधना या रोकना भी जानता है। बीरवट आदि राक्षसी शक्तियों का उपयोग करना भी कोरकू जानते हैं। पड़ियार के अंग में देवता आते हैं। पड़ियार बैठक करता है। इस प्रकार का कार्य करने वाली महिलाओं को कोरकू भगटो-डुकरी महिला लोक चिकित्सक कहते हैं। पड़ियार कोरकुओं का पूज्य और अति विशिष्ट व्यक्ति माना जाता है। पड़ियार का समाज में बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान है। इनकी ऐसी धारणा है कि, पड़ियार के शरीर में देवी-देवताओं का वास या अंश रहता है, इसलिए कोरकू समाज देव-दशहरा पर इनकी पूजा करते हैं। पड़ियार का प्रमुख काम कोरकू गरीब लोगों की आंतरिक एवं बाहरी बीमारियों और बाधाओं को दूर कर संकटकालीन स्थिति से रक्षा करना होता है (Tambekar & Khante, 2010)


धार्मिक अनुष्ठान कृत्य
कोरकुओं के मतानुसार पड़ियार जादू-टोना, मंत्र-तंत्र एवं झाड़-फूँक में सिद्धहस्त होता है। जब लोग किसी भी प्रकार की बीमारी से ग्रस्त हो जाते हैं, अथवा भूत-प्रेत के चक्कर में जाते हैं, तो वह सर्वप्रथम रोगी के सिर से पैर तक, गेंहू या ज्वार के मुट्ठी भर दाने उतारकर पड़ियार के पास जाते हैं। पड़ियार सभी कार्यों को छोड़कर, मुंह-हाथ धोकर अथवा स्नान कर देव के चबूतरे पर या किसी भी पवित्र स्थान पर बैठकर दान-बाण देखता है, और रोग की पहचान कर घरेलू उपाय बतलाता है। ज़्यादातर लोग पड़ियार के द्वारा बतलाए गए उपायों से ठीक भी हो जाते हैं। इसीलिए कोरकू पड़ियार के प्रति अपनी अटूट असीम श्रद्धा रखते हैं। बीमारी या बाहरी बाधाओं से मुक्ति मिलने पर पड़ियार देवी-देवताओं को चढ़ाने के लिए शराब और बकरे की बलि तथा सामर्थ अनुसार लोगों में प्रसाद बांटने के लिए कहता है। स्वयं के लिए एक चिलम गाँजा और एक बोतल सीडू मांगता है। लोगों के इच्छित कार्य सफल होने पर वे पड़ियार के आदेशानुसार सभी आज्ञाओं का पालन करते हैं, और उसकी सभी मांगे अपनी सुविधानुसार समयानुसार पूरी करते हैं। गाँव में पड़ियार की संख्या 10 से लेकर 15 तक होता है, और सब की अपनी-अपनी उपचार विशेषज्ञता रहती है। पर गाँव की पंचायत के लिए किसी एक ही पड़ियार का चुनाव किया जाता है। और उसी का चुनाव किया जाता है, जो लगभग हर समस्याओं का निदान कर सकें। 



कोरकू पड़ियार और उनके कुल देवता  

           इसीलिए पंचायत एक ही पड़ियार का चयन पूरे गाँव के उपचार के लिए करता है, क्योंकि कुछ पड़ियार सर्प एवं बिच्छू दंश, तो कुछ पीलिया तो कुछ लकवा तो कुछ फोड़ा-फुंसी तो कुछ झाड़-फूँक तो कुछ जड़ी-बूटी से उपचार करते है। प्रत्येक गाँव में पड़ियार एक से अधिक रहते है, जो पूरे गाँव की उपचार व्यवस्था को संभालते है। पर पंचायत एक ही पड़ियार को पूरे गाँव के लिए रखती है। पंचायत उसी पड़ियार को चुनती है, जो काफी अनुभवी हो और साथ ही लगभग बीमारियों का उपचार करना जानता हो। अनुभवी पड़ियार के अपने चेले भी होते है, जो इस मौखिक ज्ञान को सीखते रहते है, और इस मौखिक परंपरा को आगे बढ़ाते है। इनका मानना है कि, पड़ियार वही बनता है, जिसके अंग में देव आते है, क्योंकि देव ने उसको इस धरम-करम कार्य के लिए चुना है। और इनका कहना है कि देव उसी व्यक्ति को चुनता है, जो झूठ नहीं बोलता है, जिसका दिल साफ है, और वह लालची आदमी नहीं है। रात को उस व्यक्ति के सपने में देव आते है, और उसे उपचार करने की अलौकिक शक्ति प्रदान करते है। कोरकू समाज में भुमका का भी बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है। भुमका गाँव का पुजारी होता है। भुमका का काम है, गाँव के देवों को अगरबत्ती देना, साफ-सफाई करना, उनकी देखभाल करना, देवों की पूजा करते रहना, शादी में माता को कपड़ा चढ़ाना, पंचायत स्तर पे त्यौहार, पर्व पर पूजा करवाना आदि मेलघाट के कोरकुओं में प्रत्येक गाँव में सामाजिक परंपरागत व्यवस्था के अनुसार गाँव के देवों की देखभाल करने उनको पूजा अगरबत्ती देने के लिए एक भुमका रखा जाता है, जिसका चुनाव ग्राम सभा पंचायत करती है (Hari Ram, Choudhary & Azeez Abdul, 2020)


पूर्वज देव स्मृति स्तंभ
        भुमका गाँव का पुजारी होता है, जो गाँव के सभी देव जैसे मुठवा देव, खेड़ा देव, बाघ देव, डेटो (दैत्य) देव, महादेव, सूर्य देव, चंद्र देव, एवं पूर्वज देव आदि की पूजा विधि विधान अपने कोरकू रीति रिवाज परंपरा के साथ संपन्न करते हैं और देवों को खुश करने उन्हे प्रसन्न करने के लिए हर साल देवों को जीवदान की पूजा दिया जाता है। और साथ ही गाँव के बाहर वाले प्रसिद्ध देवों जैसे भुमका बाबा, डवरा देव, बहिरम बाबा, नरसिंघ देव, लंगड़ा बाबा, बीड़ी बाबा, मेघनाथ देव, कांदरी बाबा, डोलार देव, मोती माता, ताप्ती माई, सिपना माई, पूर्णा माई, वैराट देवी, दिवता माई, आदि बड़े पूजा में शामिल होकर भुमका को पूजा संपन्न कराने के लिए गाँव के लोगों के साथ जाना पड़ता है। पंचायत द्वारा भुमका को प्रत्येक फसल का कुछ भाग कुछ पैसा साल भर के लिए तय कर दिया जाता है। भुमका किसी भी पूजा को संपन्न कराने का पैसा नहीं लेता है, यह गाँव का सबसे सम्मानजनक प्रतिष्ठित पद होता है। यह गाँव का सबसे अनुभवी ईमानदार आदमी को बनाया जाता है, जो गाँव के भले के लिए समर्पित होकर कार्य करें और उसके मन में धन की लालच बिल्कुल भी नहीं होता है, क्योंकि यह एक धरम-करम का काम माना जाता है।

इनका मानना है कि, जो भी कोरकू भुमका अपने पद का इस्तेमाल अपने लालच लाभ के लिए करता है, उसका अलौकिक शक्ति देव छीन लेता है, और वह किसी गंभीर बीमारी से ग्रस्त हो जाता है। इसलिए कोई भी भुमका किसी भी प्रकार का लालच नहीं करता है। हाँ कोरकू लोग अपनी इच्छा से भुमका को उपहार स्वरूप दे सकते है, पर भुमका मांग नहीं सकता है। मुख्य भुमका के साथ एक सहायक भुमका भी होता है, जो उनके साथ रहकर सीखता रहता है, और मुख्य भुमका के अनुपस्थिति में उनका चेला ही यह कार्य देखता है। एक गाँव में एक ही भुमका रखा जाता है। शादी-विवाह के अवसर पर किए जाने वाले सभी मांगलिक कार्य इनके ही आदेशानुसार होते हैं। देव-पूजन, मंडप-प्रतिष्ठा और लग्न तथा विवाह से संबंधित अनेक कार्य भुमका ही करता है। यदि किसी कारणवश कोरकुओं को भुमका नहीं मिलता है, तो विवाह संबंधी सभी कार्य को आड़ा पटेल अथवा पड़ियार के निर्देशानुसार ही होते हैं। कभी शादी-विवाह के अवसर पर गोनोम (दहेज) के लेन-देन में कहासुनी या लड़ाई-झगड़ा हो जाये तो भुमका, पड़ियार और आड़ा पटेल इस समस्या को सुलझाने में मदद करते हैं।


पूजा अनुष्ठान विधि संपन्न कराते कोरकू भुमका (पुजारी)
       कोरकू जनजाति के प्रत्येक गाँव में एक लोक चिकित्सक पेटिया होता है, जो फोड़ा-फुंसी विशेषज्ञ होता है। जिसे गाँव की पंचायत पूरे गाँव की सेवा के लिए चुनती है और उसे सालभर में पंचायत कुछ पैसे और खाने के लिए कुछ अनाज देने के लिए तय करती है, जिससे उसका परिवार भी चलता रहे। पेटिया का घर कोरकू घरों से बिल्कुल अलग रखा जाता है। जब किसी व्यक्ति को फोड़ा फुंसी में कीड़े या जंतु पड़ जाते है, तो उसे पेटिया ही उपचार करता है। इसके लिए पेटिया सालभर में एक ग्यारस पूजा करता है। पड़ियार का कहना है कि,फोड़े में कीड़ा उन्ही को पड़ता है, जो बहुत बड़ा पाप किया रहता है, या बहुत बड़ा झूठा व्यक्ति होता है और जब तक उस व्यक्ति के फोड़े में कीड़ा रहता है, उस समय तक गाँव के सभी परिवार अपना भोजन घर के बाहर बनाते है। जब पेटिया उस व्यक्ति के फोड़े से कीड़ा निकाल कर अच्छा कर देता है, और गाँव का भुमका (पुजारी) पूरे गाँव को बेलपत्ती, नमक पानी से छिड़काव करता है, और गाँव को इस रोग से पवित्र शुद्ध कर देता है, तब जाकर गाँव के लोग अपना भोजन घर के अंदर बनाना शुरू करते हैं। मेलघाट के कोरकू लोगों में ज़्यादातर बीमारियाँ समस्याएँ देवों की नाराजगी से माना जाता है। व्यक्ति का लगातार तबीयत खराब रहना, बीमारी ठीक होना, बीमारी का घर में बसेरा होना, फसल में बीमारी लगना, बैलों में कमजोरी होना, बकरी का अचानक से बीमार होना, घर के सदस्य का रोग ग्रस्त होना आदि कही कही देवों की नाराजगी को ही मुख्य कारण माना जाता है।

निष्कर्ष : भारतीय जनजाति समुदाय में कोरकू जनजाति एक ऐसा समुदाय है, जो आज भी आधुनिक चहल-पहल से दूर जंगलों पहाड़ों की तराइयों में निवास करते हैं, जो आज भी अपने प्राचीनतम उपचार की लोक-रीतियों एवं देशज ज्ञान को संरक्षित करके रखे हुए हैं। कोरकू जनजाति अपने समुदाय में रोगों के निदान के लिए पड़ियार के मंत्रों, टोटकों, भुमका के देव अनुष्ठानों, दायनी द्वारा किए गए महिला प्रसव वैद्य द्वारा जड़ी-बूटियों से निर्मित औषधि पर अटूट विश्वास करते हैं। वही आधुनिक चिकित्सकों जैसे बंगाली डॉक्टर, सरकारी अस्पताल के चिकित्सा उपचार पर इनका विश्वास बहुत कम है ये लोग आज भी अस्पताल जाने से डरते हैं। लोक चिकित्सा के संबंध में विशेष तथ्य यह भी ज्ञात हुआ कि कोरकू जनजाति में लोक चिकित्सक के रूप में एक ही पद की मान्यता नहीं है, बल्कि चिकित्सक यहाँ अलग-अलग भिन्न श्रेणियों में बटें हुए हैं, जैसे पुजारी (भुमका), झाड़-फूँक विशेषज्ञ (पड़ियार), फोड़ा-फुंसी विशेषज्ञ (पेटिया), जड़ी-बूटी विशेषज्ञ (वैद्य), प्रसव विशेषज्ञ (दायनी), सर्प बिच्छू दंश विशेषज्ञ (भगत), बंगाली डॉक्टर (आधुनिक चिकित्सक), इस प्रकार से कोरकू जनजाति में चिकित्सकों के संबंध में बहुलतावाद की संस्कृति को देखा गया है। कोरकू जनजाति में लोक चिकित्सकों (पड़ियारों) को जो सम्मान दिया जाता है वह आधुनिक चिकित्सकों (डॉक्टरों) को नहीं दिया जाता है। कोरकू जनजाति में पड़ियार (लोक चिकित्सक) भुमका (पुजारी) का विश्वास महत्त्व बहुत अधिक है। 

         प्रायः कोरकू जनजाति लोग सरकारी अस्पतालों में कम ही आते हैं। इसका कारण है इनकी अपनी चिकित्सा पद्धतियाँ सुदूरवर्ती तथा दुर्गम क्षेत्रों में रहने वाली कोरकू जनजाति में यह विश्वास प्रचलित है कि बीमारियाँ दैवीय शक्तियों, भूत-प्रेतों के प्रकोप, देवों की नाराजगी एवं परंपरागत नियम निषेधों का उल्लंघन आदि के कारण होती है। इसलिए ऐसे उपचार के लिए उनके अपने विश्वास-चिकित्सक या नीम हकीम जैसा कार्य करने वाला पड़ियार होता है। सभी उपचारों से निराश होने के बाद ही ये लोग आधुनिक डॉक्टरों के पास जाते हैं। आधुनिक स्वास्थ्य सुविधाओं को अपनाने में कोरकू जनजाति शिक्षा की तुलना में भी पीछे है। स्वास्थ्य संबंधी उनके विचार स्थानीय पड़ियार एवं भुमका के निषेधों से संचालित होते हैं। केवल रोगी की चरम प्रस्थिति आने पर ही वे अपने धार्मिक आदेशों की सीमा लांघने के लिए विवश होते है और तब जाकर ये लोग अस्पताल जाते हैं। प्रत्येक समाज बीमारियों की व्याख्या और उनका उपचार अलग-अलग तरीके से करता है क्योंकि इसके साथ-साथ उस समाज विशेष की समाजिक-सांस्कृतिक मूल्य जुड़े होते हैं, जैसे कि भारत में अधिकतर समुदायों में चेचक रोग होने पर इसेदेवी का प्रकोपमानकर बचाव के रूप में पूजा संपन्न करते हैं। इसी प्रकार के कई अन्य कारक भी रोग की पहचान और चिकित्सा पद्धति को प्रभावित करते हैं। चिकित्सा पद्धति को ज्ञान, विश्वासों और अभ्यासों के सामंजस्य के रूप में देखा जा सकता है, जिसे स्वास्थ्य रखरखाव, बीमारियों की रोकथाम और रोग के उपचार के लिए विकसित किया गया है।

संदर्भ :

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महेंद्र कुमार जायसवाल
शोधार्थी, मानवविज्ञान विभाग, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा (महाराष्ट्र)
mahendrajaiswal712@gmail.com, 09554783277

  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
अंक-48, जुलाई-सितम्बर 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : डॉ. माणिक व डॉ. जितेन्द्र यादव चित्रांकन : सौमिक नन्दी

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