शोध आलेख : वैश्विक साहित्य जगत में तेजी से उभरता हुआ आदिवासी साहित्य : एक विवेचनात्मक अध्ययन / डॉ. राकेश सिंह परस्ते

वैश्विक साहित्य जगत में तेजी से उभरता हुआ आदिवासी साहित्य : एक विवेचनात्मक अध्ययन
- डॉ. राकेश सिंह परस्ते

शोध सार : प्रस्तुत शोध पत्र के माध्यम से वैश्विक साहित्य जगत में तेजी से उभरता हुआ आदिवासी साहित्य और संस्कृति के विभिन्न पहलुओं को अध्ययन करने का एक प्रयास किया गया है आदिवासी समाज कोई वनवासी नहीं हैं, जैसा कि अक्सर बताया जाता है बल्कि वे देश के मूल निवासी हैं भारत के संविधान द्वारा घोषित अनुसूचित जनजाति समुदाय हैं जिनकी अपनी एक समृद्धशाली सभ्यता, सांस्कृतिक विरासत और पुरखौती साहित्य है आदिवासी समाज सदियों से ही जल, जंगल और जमीन से जुड़े हुए हैं जिनकी रख-रखाव एवं बचाव के लिए प्रतिबद्ध हैं लेकिन बड़े ही दुर्भाग्य की बात है कि मूल निवासी होने के बावजूद भी इन्हें समाज की मुख्य धारा में लाने के लिए पर्याप्त एवं उचित सुविधाएं जैसे स्वास्थ्य, शिक्षा एवं मूलभूत संसाधनों से वंचित रखा गया और समृद्धशाली संस्कृति और समाज के होने के बावजूद भी इनके साहित्य को सदियों से जानबूझकर नकारा गया है और लिखित रूप में नहीं लाया गया है वर्तमान समय में शिक्षा के प्रचार-प्रसार, आधुनिकता और वैश्वीकरण के प्रभाव से आज आदिवासी समाज जागरूक हो रहा है और सदियों से अपने साथ हुए भेदभाव और छलावा को अब आदिवासी साहित्यकार अपने समाज एवं संस्कृति के बारे में लिख रहें है निश्चित रूप से आज लिखे जा रहे आदिवासी साहित्य में मूल स्वर असहमति और रखाव एवं बचाव का है देश और विदेश के अकादमिक जगत में आज आदिवासी साहित्यपर चिंतन एवं विमर्श दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है इस प्रस्तुत शोध पत्र के माध्यम से भारतीय परिप्रेक्ष्य में आदिवासी साहित्य का अध्ययन करने का प्रयास किया गया है जो निश्चित ही अपनी पैठ वैश्विक साहित्य जगत में उचित स्थान बनाने के लिए प्रयासरत है, एक मौलिक साहित्य का सृजन हो रहा है और भविष्य में आदिवासी साहित्य एक नए समृद्धशाली साहित्य के रूप में अपना एक अलग पहचान बनाएगा

बीज शब्द : आदिवासी, आदिवासी साहित्य, जनजाति, जीवन शैली, परंपरा, समाज और संस्कृति, दर्शन, नई साहित्य, वैश्विक साहित्य में स्थान

मूल आलेख : आदिवासी शब्द दो शब्दों से मिलकर बना हुआ हैआदिऔरवासीअर्थात् इसका अर्थ है- मूल निवासी भारतीय संविधान में आदिवासियों के लिएअनुसूचित जनजातिशब्द का प्रयोग किया गया है आदिवासी समाज, देश के लगभग सभी राज्यों में मुख्य रूप से मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, ओडिशा, राजस्थान, झारखण्ड, बिहार, आंध्रप्रदेश, गुजरात, पश्चिम बंगाल तथा पूर्वोत्तर राज्यों में विशेषकर मिजोरम में निवासरत हैं ये प्रकृति के सच्चे रखवाले होते हैं क्योंकि इनका सम्पूर्ण जीवन-यापन जल, जंगल और जमीन से सदैव जुड़ा रहता है जनगणना 2011 के अनुसार, भारत की जनसंख्या का लगभग 8.6 प्रतिशत हिस्सा अनुसूचित जनजातियों का है(1) आदिवासियों का जीवनयापन बहुत ही सीधा-सादा एवं सरल होता है इनकी अपनी एक विशिष्ट सभ्यता एवं संस्कृति होती है और मुख्यतः इनके जीवनयापन का मुख्य आधार कृषि एवं मजदूरी पर निर्भर रहता है ये स्वभाव से शांतिप्रिय, प्रकृति प्रेमी, अपनी दुनिया में खुश रहना एवं मेहनती होते हैं आदिवासियों के सन्दर्भ में रमणिका गुप्ता ने अपनी पुस्तक आदिवासी स्वर और नई शताब्दी में लिखती हैं -आदिवासियों की गति में नृत्य है, वाणी में गीत जब वह चलता है तो थिरकता है और बोलता है तो गीत के स्वर फूटते हैं वह अकेला नहीं, समूह में रहता है, समूह में सोचता है, समूह में जीता है दरअसल आदिवासी अपने श्रम के बलपर सदैव आत्मनिर्भर और स्वावलंबी रहा है अपने समूह और समाज से जुड़कर, प्रकृति का साथी बनकर जीना उसकी शैली और स्वभाव रहा है(2)    

आदिवासी समाज का अपना एक अलग विशिष्ट समृद्धशाली सभ्यता, संस्कृति, कला, लोकगीत एवं साहित्यिक विरासत है जिसे ये सदियों से एक पीढ़ी से दूसरे पीढ़ी को वाचिक रूप से हस्तांतरित करते रहे हैं दुर्भाग्य की बात है कि आज तक इनके लोक साहित्य को, जो वाचिक एवं पुरखौती साहित्य के रूप में उपलब्ध है उसे साहित्य की मुख्य धारा में नहीं लाया गया है या कहें कि साहित्य की मुख्य धारा से दरकिनार किया गया है आदिवासी का मतलब है-प्रथम निवासी या मूल निवासी अर्थात् आदिवासी इस देश के मूल निवासी हैं आदिवासी जंगली हो सकते हैं लेकिन वनवासी नहीं  लेकिन आज विकास के नाम पर आदिवासियों को उनके मूल निवास स्थानों से विस्थापित किया जा रहा है आदिवासी समाज को हमेशा से ही यह दिखाने का प्रयास किया गया है कि आदिवासी समाज एक पिछड़ा, गरीब, अनपढ़, अंधविश्वासी, बर्बर और वनवासी आदि जाने किन किन शब्दों से जनमानस की शब्दावली में भर दिया गया है और यह स्वाभाविक सी बात है कि जो शब्द जनमानस के मस्तिष्क में एक बार छा जाती है वह शब्द हमेशा के लिए प्रचलित हो जाता है और लोग भी फिर उसी नजरिए से देखते एवं बोलते हैं इन परिस्थितियों में आदिवासी साहित्य, जो वैसे भी वाचिक एवं पुरखौती साहित्य के रूप में उपलब्ध है उसे मुख्य साहित्य जगत में स्थान प्राप्त करना वास्तव में अत्यंत चुनौतीपूर्ण कार्य है आदिवासी साहित्य, जो धीरे- धीरे साहित्य के क्षेत्र में एक अलग पहचान बना रहा है, एक नई साहित्य के रूप में दिनोदिन जिसका सृजन हो रहा है जो वैश्विक साहित्य जगत में निरन्तर उभर रहा है आखिर ये साहित्य आज तक क्यों लिखा नहीं गया था और अचानक ही आज देश एवं विदेश के अकादमिक जगत में आदिवासी साहित्य की चिंतन एवं विमर्श का प्रमुख केंद्र कैसे बनता जा रहा है इन्ही कुछ सवालों को लेकर यह शोध पत्र प्रस्तुत है जिसके माध्यम से आदिवासी साहित्य का वैश्विक साहित्य में पैठ बनाना और नए साहित्य के रूप में जो अभी तक दबी हुई थी, एक अलग समृद्धशाली साहित्य के रूप में पहचान दिलाने और लिखित साहित्य में प्रवेश कराने के लिए इस शोध पत्र के माध्यम से एक छोटा सा प्रयास किया गया है

आदिवासी साहित्य का अर्थ : आदिवासी साहित्य को मुक्त ज्ञानकोष विकिपीडिया के द्वारा इस प्रकार से परिभाषित किया गया है:- “आदिवासी साहित्य से तात्पर्य उस साहित्य से है जिसमें आदिवासियों के जीवन यापन और समाज उनके दर्शन के अनुरूप अभिव्यक्त हुआ हो आदिवासी साहित्य के लिए विश्व में अलग-अलग नामों का प्रयोग किया गया है यूरोप और अमेरिका में इसेनेटिव अमेरिकन लिटरेचर’, ‘कलर्ड लिटरेचर’, स्लेव लिटरेचर औरअफ्रीकन-अमेरिकन लिटरेचर’, अफ्रीकन देशों मेंब्लैक लिटरेचरऔर आस्ट्रेलिया मेंएबोरिजिनल लिटरेचर’, तो अंग्रेजी मेंइंडीजिनस लिटरेचर’, ‘फर्स्ट पीपुल लिटरेचर’, एवंट्राइबल लिटरेचर’, कहा जाता है भारत में इसे हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषाओं में सामान्यत: ‘आदिवासी साहित्यकहा जाता है(3) अत: उपरोक्त परिभाषा से स्पष्ट है कि आदिवासी साहित्य एक ऐसा साहित्य है जो मूलतः किसी देश की मूल निवासियों, वंचित एवं उपेक्षित आदिवासियों के जीवन-यापन, समाज, सभ्यता, संस्कृति एवं दर्शन के आधार पर अभिव्यक्त किया गया हो साहित्य है यह प्रस्तुत शोध आलेख में, भारतीय सन्दर्भ के आदिवासी साहित्य से है इसलिए भारत देश के मूल निवासी आदिवासी जनजाति समाज के आदिवासी साहित्य का विवेचनात्मक और विश्लेषणात्मक अध्ययन किया गया है       

आदिवासी साहित्य के बारे में वीर भारत तलवार के तद्भव - 34 में प्रकाशित स्वयं के लेख में उन्होंने आदिवासी संबंधी साहित्य को मुख्य रूप से चार भागों में विभाजित किया है – 1. कुछ ऐसे लेखक हैं जो आदिवासी समाज के बारे में बहुत कुछ कम और सतही जानकारी रखते हैं और साथ ही अपने सवर्ण हिन्दू संस्कारों से ग्रस्त हैं, अपने सामाजिकसांस्कृतिक पूर्वाग्रहों से ग्रस्त हैं और उसी दृष्टि से अपनी लेखनी में आदिवासी समाज को चित्रित करते हैं 2. दूसरी श्रेणी उन लेखकों की है जो लंबे समय से आदिवासियों के करीब रहते आए हैं और उनसे पूरी तरह से सहानुभूति रखते हैं, उनके समाज से थोडा बहुत वाकिफ भी होते हैं इनकी मुख्य प्रवृत्ति आदिवासियों के दमन, शोषण और उत्पीड़न को चित्रित करने और उनकी आर्थिक राजनीतिक समस्याओं को उठाने की है 3. उन लेखकों का साहित्य जो आदिवासियों के बीच लम्बे समय तक रहे हैं, जिन्होंने उनका अच्छा-बुरा देखा है और उनकी प्रवृतियों को समझने का प्रयास किया है और अंतिम श्रेणी 4. चौथी श्रेणी में खुद आदिवासियों द्वारा लिखे गए साहित्य की है जिसे वह अपनी मूल भाषाओं में लिखा हो या हिंदी, बांग्ला या अन्य प्रादेशिक भाषाओं में, इससे फर्क नहीं पड़ता इन चार श्रेणियों में से वीर भारत तलवार चौथी श्रेणी को ही सबसे प्रामाणिक आदिवासी साहित्य मानते हैं और शेष तीन श्रेणियों को आदिवासी संबंधी साहित्य चौथी श्रेणी, यानि आदिवासियों द्वारा लिखित साहित्य के बारे में वे लिखते हैं, “इसकी गुणवत्ता बिल्कुल अलग किस्म की है आदिवासियों के जीवन और समाज के सच्चे चित्र यहीं मिलते हैं”(4)

अत: स्पष्ट है कि यदि आदिवासी साहित्य का मूल रूप एवं असली गुणवत्ता मुख्यतः आदिवासी रचनाकारों द्वारा लिखी गई साहित्य से प्राप्त हो सकती है क्योंकि वे सदियों से उपेक्षित, वंचित और प्रताणित समाज में जी रहे हैं इसलिए उनकी रचनाओं में वो मौलिकता है जो गैर-आदिवासी लेखकों के रचनाओं में नहीं मिल सकता यहां इसका तात्पर्य ये बिल्कुल भी नहीं है कि गैर-आदिवासी लेखकों द्वारा लिखित आदिवासी जीवन-दर्शन से संबंधित साहित्य सही नहीं होताबिल्कुल हो सकता है लेकिन उनमें वो मौलिकता देखने को नहीं मिलेगी उनमें सिर्फ सतही अनुभव और सिर्फ सहानुभूति नजर आएगा क्योंकि वे लोग इन चीजों से गुजरे नहीं हैं 

शोध के उद्देश्य :

(1) उभरते हुए आदिवासी साहित्य को वैश्विक साहित्य जगत में उचित स्थान दिलाना

(2) आदिवासी साहित्य को एक नए साहित्य के रूप में स्थापित करना

(3) आदिवासी साहित्य की मिथकों को दूर कर लिखित साहित्य में जनमानस में प्रस्तुत करना शोध के उक्त उद्देश्यों की प्राप्ति करने के लिए निम्न शोध प्रविधि का प्रयोग किया जाएगा

शोध प्रविधि : शोध के उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए प्रस्तुत शोध में विवेचनात्मक और विश्लेषणात्मक पद्धति का उपयोग किया गया है तथा मुख्य रूप से शोधकर्ता का स्वयं एक आदिवासी समुदाय से प्राप्त अनुभव तथा द्वितीयक स्त्रोत का उपयोग किया गया है इसके अंतर्गत आदिवासी समाज, संस्कृति एवं साहित्य से जुड़े संबंधित व्यक्तियों, सामाजिक संगठनों, प्रत्यक्ष साक्षात्कार, एक आदिवासी के रूप में स्वयं का अनुभव, उपलब्ध पुस्तकों, पत्रिकाओं एवं आदिवासी समाज के लिए संविधान द्वारा अनुसूचित जनजातियों हेतु प्रावधानों और लिखित साहित्य के लिए किए जा रहे उपायों का अध्ययन कर उद्देश्यों की प्राप्ति की गई है

साहित्य की समीक्षा : साहित्य की समीक्षा करना प्रत्येक शोध कार्य का एक महत्वपूर्ण भाग होता है जिसके माध्यम से संबंधित शोध शीर्षक से जुड़े हुए विषयों के बारे में अध्ययन किया जाता है और शोध अंतराल को पूर्ण किया जाता है इसी परिप्रेक्ष्य में वर्तमान शोध के विषय में जब साहित्य की समीक्षा अध्ययन करने का प्रयास किया गया तब इस क्षेत्र में नहीं के बराबर शोधकार्य प्राप्त हुए अथवा यदि कहीं कुछ शोध कार्य करने का प्रयास भी किया गया है तो सिर्फ आदिवासी समाज की सभ्यता, लोकनृत्य, लोकगीत और उनके सामाजिक आर्थिक पक्ष पर ही विशेष रूप से ध्यान दिया गया है उक्त सभी संबंधित शोध कार्यों के द्वारा यही बताने का प्रयास किया गया है कि आदिवासी समाज पिछड़ा समाज है, बर्बर समुदाय है, अशिक्षित और अंधविश्वास एवं रूढ़िवादी से ग्रसित है आदि-आदि कुछ आदिवासी साहित्यकारों के द्वारा आदिवासी समाज के परंपरा और प्रयोजन तथा रितिरिवाजों पर भी विशेष ध्यान दिया गया है इनमें से प्रमुख साहित्यकार हैं जैसे वंदना टेटे, गंगा सहाय मीणा, श्रमण कुमार मीणा आदि उपरोक्त अध्ययनों की समीक्षा करने के उपरांत यह पता लगा कि नई आदिवासी साहित्य का वैश्विक साहित्य जगत में उभरता हुआ एक नए साहित्य के रूप में अध्ययन करना अभी बाकि है जिससे कि उक्त शोध अंतराल को यह वर्तमान शोध कार्य पूर्ण करने का प्रयास करेगा और साहित्य जगत में एक नए समृद्धशाली आदिवासी साहित्य को उचित स्थान मिलेगा अंतत: आदिवासी साहित्य के योगदान से विश्व साहित्य को एक नया मुकाम मिलेगा और साहित्यिक संसार अधिक सशक्त एवं मजबूत होगा   

मूलभूत सुविधाओं से वंचित समाज :

आदिवासी समाज सदियों से ही वंचित वर्ग रहा है जो मूलभूत सुविधाओं और आधुनिकता से परे सुदूर अंचल में निवासरत रहा है कुछ राजनैतिक लाभ से विभिन्न कल्याणकारी योजनाएं भी बनाई गई लेकिन उनका समुचित कार्यान्वयन नहीं हो पा रहा है और उन तक पहुचने से पूर्व ही बीच रास्ते में ही कुछ सूदखोरों के द्वारा ऐसे योजनाओं को कागजी कार्रवाई कर सीमित कर दी जाती हैं या यूं कहें कि वांछित अधिकार को छीन लिया जाता है बेचारा सदियों से मारा ये आदिवासी समाज, आज किसी से कुछ नहीं मांग रहे हैं और यदि आवाज उठाते भी हैं तो सिर्फ अपने अस्मिता को बचाने के लिए, जिस मिट्टी में वे पले बढ़े हैं, जिस धरती से अन्न उगा रहे हैं, जिस जंगल को सदियों से संभाल के रखे हैं सिर्फ उसे बचाने के लिए आवाज उठाते हैं हमेशा से ही प्रकृति प्रेमी रहे ये आदिवासी समाज जल, जंगल और जमीन से वैसे ही जुड़े हैं जैसे बरगद की पेड़ से जकड़कर उनकी जड़ और यदि इस जड़ को उखाड़ने का प्रयास यदि किया जाएगा तो स्वाभाविक है ये आदिवासी समाज अपने इन अधिकारों को पाने के लिए अपनी सभ्यता और अस्मिता बचाने हेतु आन्दोलन का रूख अपनाएंगे और लड़ते रहेंगे जिसको कभी नक्सली, कभी देशद्रोही कहकर समाज में भ्रम फैलाया जा रहा है क्या ये वास्तव में देशद्रोही हैं, बिल्कुल भी नहीं क्योंकि कभी भी ये देश के खिलाफ नहीं गए हैं और हमेशा से ही अपनी सभ्यता और संस्कृति को बचाने के लिए बाहरी दुनिया से लड़ रहे हैं, जूझ रहे हैं पर इनकी आवाज को सुनने वाला कौन हैं कोई नहीं कुछ आदिवासी समाज के लोग अपने अधिकारों के लिए लड़ते-लड़ते सरकार के खिलाफ आवाज उठाते हैं तो इन्हे नक्सली कहा जाता है, इन्हें बर्बर समाज कहा जाता है लेकिन क्या कभी किसी ने सोचा है कि इन्हे नक्सली बनाने में किसका हाथ है और ये लोग इस रास्ते पर क्यों जाते हैं आदिवासियों को उनके गांव जमीन से बेदखल किए जा रहें हैं जिसके चलते उन्हें अपने नैसर्गिक संसाधनों, परंपराओं, जीवन मूल्यों और परिवेश से भी पूरी तरह से विस्थापित होना पड़ता है और जिससे वो अपने आप को सामंजस्य नहीं कर पाते हैं अब समय गया कि इनकी परम्पराओं, नैसर्गिक संशोधनों, संस्कृति, सभ्यता एवं साहित्यिक विरासत को सुरक्षित एवं जीवंत रखा जाए

आधुनिकता से जूझता आदिवासी समाज :

वर्तमान समय आधुनिकता और वैश्वीकरण का है आदिवासी समाज अपनी जीवन-शैली को इस परिवेश के साथ सामंजस्य बैठाने में थोड़ा असहज महसूस करते हैं क्योंकि सदियों से प्रकृति के गोद में पले बढ़े ये समाज, आधुनिकता के इस भागम भाग दौड़ में शामिल होने में हिचकिचाते हैं विकास के नाम पर इन्हें इनके मूल निवास से विस्थापित किया जा रहा है, उनके प्राकृतिक एवं पारंपरिक परिवेश से बेदखल किया जा रहा है कुछ विशेष प्रांतों के आदिवासी समाज के बारे में कहा जाता है कि ये बर्बर और असभ्य लोग होते हैं लेकिन क्या इनकी बर्बरता और असभ्यता के पीछे के कारणों का पता लगाने की कोशिश नहीं किया गया जबकि आदिवासी समाज, शांति और सुकून से जीवन यापन करने में विश्वास रखते हैं यदि उनके अस्तित्व और संरक्षित क्षेत्र को स्वार्थ हेतु मिटाने का प्रयास किया जाता है तभी ये लोग अपनी अस्मिता और अस्तित्व को बचाने के लिए बर्बरता के रास्ते को अपनाने के लिए मजबूर होते हैं ये कोई जन्म जात असभ्य समाज नहीं है जैसा कि इनके बारे में बताया जाता है बल्कि ये शांति प्रिय लोग होते हैं, प्रकृति प्रेमी होते हैं, और अपने में ही खुश रहते हैं इन्हें कोई उच्च राजनीतिक पद प्राप्त करने की लालसा भी नहीं होती हैं और ना ही चकाचौंध करने वाली दुनिया इन्हे लुभाती है फिर भी राजनैतिक दल अपने वोट बैंकिंग के लिए इनको समाज की मुख्य धारा में लाने के बहाने इनको विस्थापित करने का प्रयास करते हैं जिससे स्वाभाविक है इनके समाज में विस्थापन होने का डर सताएगा और आक्रोश की भावना इनके अंदर जागेगी

आदिवासी साहित्य के बारे में भ्रांतियां :

साहित्य की भाषा में साहित्य किसे कहा जाता है उस साहित्य को जो लिखित रूप में उपलब्ध हो  लेकिन बड़े दुर्भाग्य की बात है कि जिस देश के मूल निवासी के पास स्वयं की अपनी एक समृद्ध संस्कृति, समाज, सभ्यता, परंपरा, लोकगीत, रीति-रिवाज, दर्शन और जीवन शैली है उसी का अपना एक लिखित साहित्य क्यों नही हैं यह अपने आप में एक महत्वपूर्ण प्रश्नचिन्ह है उत्तर बिल्कुल स्पष्ट है कि जागरूक और शिक्षित सामाजिक वर्ग के साहित्यकारों एवं लेखकों द्वारा जानबूझकर आदिवासी साहित्य को दरकिनार करना आज आदिवासी समुदाय समय के साथ-साथ शिक्षित हो रहे हैं और जागरूकता उनके समाज में फैल रही है परिणामस्वरूप आदिवासी लेखकों एवं साहित्यकारों द्वारा वर्षों से उपेक्षित एवं अनुभवों को लिखित साहित्य के रूप में लाने का प्रयास किया जा रहा है आदिवासी साहित्य का मूल स्वर असहमति एवं विद्रोह नहीं है बल्कि ये साहित्य आदिवासी समाज के करुणा, वेदना, पीड़ा एवं उपेक्षित अनुभवों को व्यक्त करता है और अपने अस्तित्व एवं अस्मिता को बचाने के लिए प्रयासरत है दलित साहित्य की तरह इस साहित्य में क्रोध एवं बदले की भावना नही हैं बल्कि आदिवासी साहित्य सभी को एकजुटता में लाने की और रख-रखाव एवं बचाव की साहित्य है आदिवासी साहित्य के प्रसिद्ध लेखक वंदना टेटे ने अपनी पुस्तकआदिवासी साहित्य परंपरा और प्रयोजन (2021)पृ.सं. 82 में लिखती है- आदिवासी साहित्य अपनी सामुदायिक अस्मिता, पहचान और संस्कृति के लिए सजग तो है ही, परंपरागत अधिकारों के प्राप्ति के लिए चलाये जा रहे संघर्ष की भी पुरजोर अभियक्ति है आदिवासी लेखन मुख्य धारा के रंगभेद एवं नस्लीय साहित्य के मानदंडों को नकारते हुए अपने प्रतिमान गढ़ रहा है आदिवासी साहित्य की अपनी भावभूमि, सौंदर्यबोध और विश्वदृष्टि है वह सामूहिक मूल्यों और सहअस्तित्व में यकीन करता है और इसलिए वहां व्यक्तिवादी नायक नहीं हैं(5)  

भारत में जब दलित साहित्य की शुरुआत हुई थी तो पहले उसका खूब विरोध हुआ कई तर्क भी दिए गए और कई प्रकार के सवाल भी उठाया गया कि दलितों के द्वारा लिखित साहित्य में साहित्य की कलात्मकता नहीं है, सौंदर्य बोध का अभाव है और साहित्यिक मानदंडों पर वह खरी नहीं है आदि-आदि वैसे यह हमला तब हुआ जब वे दलित साहित्य को अपने भीतर समाहित नहीं कर पाए वरना पहले पहल तो उनकी कोशिश यही थी कि वह दलित साहित्य का प्रतिनिधि रचनाकार बन जाए परंतु दलित साहित्य के विचार, आवेश और उनकी एकता ने मुख्यधारा के वर्चस्ववादी ताकतों के मंसूबों पर पानी फेर दिया तब वे साहित्य का पंडित बनकर चिल्लाने लगे कि दलितों द्वारा रचित साहित्य साहित्य ही नहीं है इस साजिश को दलित लेखक समझते थे इसलिए अपने यहां उनकी दाल नहीं गलने दी (6) 

कई गैर आदिवासी साहित्यकार भी अपने व्यक्तिगत स्वार्थ एवं प्रलोभन के चलते दलित साहित्य को जिस तरह से दबाने और भ्रम फैलाने की कोशिश कर रहे थे वे लोग अब अपने निजी स्वार्थ के लिए इस तेजी से उभरते हुए आदिवासी साहित्य को मनगढ़ंत शब्दों में गढ़ने और बहकाने का प्रयास करने की लगातार कोशिश करते हैं लेकिन आदिवासी समाज जैसे अपनी सभ्यता एवं संस्कृति को छोड़ नहीं सकता है वैसे ही आदिवासी साहित्य एक नए मूल साहित्य के रूप में निरंतर उभर रहा है जिसमें कोई आक्रोश है और ना ही बदले की भावना, ये आदिवासी जनजाति साहित्य सिर्फ अपनी अस्मिता, सभ्यता और संस्कृति को रखाव एवं बचाव का साहित्य है जो अपने आप में विशिष्ट एवं समृद्धशाली है बस आवश्यकता इस बात की है तथा वर्तमान समय की मांग है कि कि आदिवासी साहित्य जिसे सदियों तक दबाया गया, उचित स्थान नही दिया गया और जो अभी वाचिक पुरखौती रूप में उपलब्ध है उसे लिखित साहित्य के रूप से संजोया जाए, संरक्षित किया जाए तथा साहित्य की मूल विधा में दस्तावेजीकरण करके शामिल किया जाए

आदिवासी साहित्य का वर्तमान में ओरेचर स्वरुप :

प्राय: यही कहा जा रहा है कि आदिवासी साहित्य एक लोक साहित्य है, एक पुरखौती साहित्य है जिसका अपना कोई लिखित स्वरूप नही है कोई अपना पहचान नहीं है बिल्कुल सही कहा जा रहा है लेकिन क्या साहित्यकारों द्वारा हिंदी साहित्य या अन्य भारतीय भाषाओं अथवा विश्व साहित्य में कहीं भी आदिवासी साहित्य को स्थान देने का प्रयास किया गया, तो आप पाएंगे बिल्कुल भी प्रयास नहीं किया गया हमेशा से ही उपेक्षित एवं वंचित मानकर आदिवासी साहित्य को दरकिनार किया गया वर्तमान में उपलब्ध आदिवासी साहित्य, वाचिक, पुरखौती और लिखित रूप में उपलब्ध है और शीघ्र ही विश्व साहित्य जगत में एक नए साहित्य के रूप में यह उभर रहा है

आदिवासी समाज क्योंकि आज भी बाहरी समाज की जटिल पंचों को सही तरह से समझ नहीं पाए हैं इसलिए आदिवासी साहित्य के नाम पर फिलहाल बाहरी लोगों का बोलबाला थोड़ा ज्यादा है और उनकी दुकान भी खूब चल रहा है लेकिन यह लंबे समय तक नहीं चलने वाला है और बहुत जल्दी ही उनका भी वही हश्र होने वाला है जो दलित साहित्य आंदोलन में उनके साथ किया है जब हम आदिवासी साहित्य पर नजर डालते हैं तो पाते हैं कि जिस तरह से अभी भी आदिवासी समुदाय चौतरफा संकटों से घिरे हुए हैं ठीक उसी प्रकार से उनका साहित्य भी कई तरह की सहानुभूति दिखाने वाले लोगों की चपेट में है आदिवासी समाज आज अपनी अस्मिता एवं अस्तित्व की सुरक्षा के लिए राष्ट्रीय स्तर पर जिस उर्जा से रचनात्मक जगत पर उभर रहा है यही एक नया आदिवासी साहित्य का उदय है जिसके बारे में गंगा सहाय मीणा ने अपनी पुस्तक आदिवासी साहित्य विमर्श में लिखते हैं- “आदिवासी साहित्य अस्मिता की खोज, दिकुओं द्वारा किये गए और किये जा रहे शोषण के विभिन्न रूपों के उद्घाटन तथा आदिवासी अस्मिता और अस्तित्व के संकटों और उनके खिलाफ हो रहे प्रतिरोध का साहित्य है यह उस परिवर्तनकामी चेतना का रचनात्मक हस्तक्षेप है जो देश के मूल निवासियों के वंशजों के प्रति किसी भी प्रकार के भेदभाव का पुरजोर विरोध करती है तथा उनके जल, जंगल, जमीन और जीवन को बचाने के हक़ में उनकेआत्मनिर्णयके अधिकार के साथ खड़ी होती है”(7) निश्चित रूप से वर्तमान में आदिवासी साहित्य अपनी अस्मिता एवं अस्तित्व की बचाव एवं रखाव की साहित्य है जो लिखित साहित्य में उपलब्ध नहीं है इसलिए यह लोकसाहित्य है और अभी इसके शिष्ट साहित्य का प्रारंभिक चरण है और अब आदिवासी साहित्य के लिए वह दिन दूर नहीं जब ओरेचर से लिटरेचर बन जाएगा और एक नया समृद्धशाली विश्व साहित्य जगत में अपना परचम लहराएगा 

आदिवासी साहित्य लेखन हेतु मूलाधार

आज आदिवासी साहित्य को एक नई साहित्य के रूप में लिखी जा रही है और एक नया पहचान मिला है एक ऐसा साहित्य जिसमें आदिवासियों के जीवन-दर्शन, परम्परा, सभ्यता और संस्कृति समाहित है हिंदी में आदिवासी साहित्य की अवधारणा का निरन्तर विकास हो रहा है जिसके अंतर्गत समाहित है मूल स्वर आदिवासियों की परंपरा और आधुनिकता का, उनके विकास और विनाश का मुख्यधारा की संस्कृति और मूल्यबोध काउनके अस्तित्व और अस्मिता का जो सबसे अलग एक नई अवधारणा का साहित्य का सृजन कर रहा है प्रकृति से लगाव और आदिवासियत ही आदिवासी साहित्य का मूल आधार है क्योंकि कोई भी अभिव्यक्ति ‘स्व’ के बिना निर्मित नहीं हो सकती है आदिवासी साहित्य और समाज तथा उनके जीवन-दर्शन को समझने की दिशा में सबसे महत्वपूर्ण दस्तावेज़ ‘राँची घोषणा-पत्र है जिसके अनुसार आदिवासी साहित्य का स्वरूप आदिवासी दर्शन के अनुरूप कैसे होना चाहिए इस पर घोषणा-पत्र जारी किया गया है इसके मूल तत्व इस प्रकार हैं -

1. प्रकृति की लय-ताल और संगीत का जो अनुसरण करता हो

2. जो प्रकृति और प्रेम के आत्मीय संबंध और गरिमा का सम्मान करता हो

3. जिसमें पुरखा-पूर्वजों के ज्ञान-विज्ञानकला-कौशल और इंसानी बेहतरी के अनुभवों के प्रति आभार हो

4. जो समूचे जीव जगत की अवहेलना नहीं करें। 

5. जो धनलोलुप और बाजारवादी हिंसा और लालसा का नकार करता हो

6. जिसमें जीवन के प्रति आनंदमयी अदम्य जिजीविषा हो

7. जिसमें सृष्टि और समष्टि के प्रति कृतज्ञता का भाव हो

8. जो धरती को संसाधन की बजाय माँ मानकर उसके बचाव और रचाव के लिए खुद को उसका संरक्षक मानता हो

9. जिसमें रंगनस्ललिंगधर्म आदि का विशेष आग्रह हो

10. जो हर तरह की गैर-बराबरी के खिलाफ हो

11. जो भाषाई और सांस्कृतिक विविधता और आत्मनिर्णय के अधिकार के पक्ष में हो

12. जो सामंतीब्राह्मणवादीधनलोलुप और बाजारवादी शब्दावलियोंप्रतीकोंमिथकों और व्यक्तिगत महिमामंडन से असहमत हो

13. जो सहअस्तित्वसमतासामूहिकतासहजीवितासहभागिता और सामंजस्य को अपना दार्शनिक आधार मानते हुए रचावबचाव में यकीन करता हो

14. सहानुभूतिस्वानुभूति की बजाय सामूहिक अनुभूति जिसका प्रबल स्वर-संगीत हो

15. मूल आदिवासी भाषाओं में अपने विश्वदृष्टिकोण के साथ जो प्रमुखतः अभिव्यक्त हुआ हो ”(8)

निश्चित रूप से आदिवासी साहित्य लेखन में रूचि रखने वाले साहित्यकारों को उपरोक्त घोषणा पत्र में वर्णित सभी तत्वों को समाहित कर लिखा जाना चाहिए वास्तविक आदिवासी साहित्य का सृजन हो सकता है डॉ. नाजिश बेगम लिखती है कि - “आदिवासी साहित्य में आत्मसजग अभिव्यक्तियों का एक ऐसा प्रखर स्वर सम्मिलित हैजो दीर्घ समय से शोषितउत्पीड़ित और वंचित आदिवासी समाज की चेतना को दिन दिन तीव्र और प्रखर बना रहा है लेखकों ने कविता-कहानीउपन्यास और नाटकों में आदिवासी जन-जीवन के यथार्थ चित्र प्रस्तुत किए हैं। (9)

आदिवासी साहित्य सिर्फ शब्दों में लिखित कल्पनाअनुभवभावविचार और यथार्थ की कलात्मक स्वानुभूति या सहानुभूति की अभिव्यक्ति नहीं हैबल्कि यह मानवीयता सहित समस्त जीव-जगतप्रकृति और समष्टि का जीवंत दस्तावेज है जो आध्यात्मिक अनुष्ठानोंदैनिक क्रियाकलापों और विविध कलात्मक अभिरूचियों एवं अभिव्यक्ति के विभिन्न रूपों के माध्यम से निरंतर प्रदर्शित होता रहता है समकालीन आदिवासी साहित्य ने उदारवादी वैश्विक परिदृश्य में समस्याओं से जूझते आदिवासियों के जीवन-संघर्ष एवं चुनौतियों को भी सामने रखा है। आदिवासी साहित्य प्रायः मौखिक रूप में ही परंपरानुसार पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित होता रहा हैकिन्तु आज समाज में उनकी अभिव्यक्तियाँ लिखित रूप में यथार्थ निरूपण का पुष्ट आयाम बनकर उभरी है। वर्तमान में आदिवासी जीवन और चेतना से संबंधित साहित्य एवं आलोचना साहित्यिक संसार में अपनी पैठ बनाने के दौर से गुजर रही है(10) अलिखित आदिवासी समाज की भाषा संस्कृति, कला-साहित्य, ज्ञान-विज्ञान, धर्मंपरम्परा और जीवन-शैली उसके वाचिक साहित्य में जो पूर्वजों के द्वारा कही गई पुरखौती साहित्य है, में संग्रहित होता है इस दृष्टि से यदि आदिवासी समाज का वाचिक साहित्य अत्यंत समृद्ध और सशक्त है अब अत्यंत जरुरी हो गया है कि वाचिक लोक साहित्य को शिष्ट साहित्य में लाना आदिवासी साहित्य एक ऐसा साहित्य है जो नैसर्गिक परम्पराओं, जीवन-शैली और संस्कृति को सुरक्षित रखने तथा मानव में मानवता की भावना जगाने, सामूहिक समझ विकसित करता है और साथ ही विश्वदृष्टि भी प्रदान करता है

निष्कर्ष : आदिवासी समाज का अपना एक विशिष्ट एवं समृद्धशाली साहित्यिक विरासत है जो उनकी लोकगीत, लोककथा, पर्व, नृत्य, कला, पहेलियाँ एवं दिनचर्या में परिलक्षित होता है आदिवासी साहित्य सृजनात्मकता का एक नया साहित्य रच रहा है एक ऐसा नया साहित्य, जो आदिवासी समाज के जीवन-मूल्यों और दर्शन को अभिव्यक्त करने वाला साहित्य है, जो मानता है कि प्रकृति और सृष्टि में जो कुछ भी है वह जड़ चेतन सभी कुछ सुंदर है उनके लिए असुंदर और अनुचित जैसा कुछ भी नहीं है और इसे वह सिर्फ मानता नहीं है बल्कि माने हुए को जीता भी है निश्चित रूप से सबसे अलग किस्म का मौलिक साहित्य का उदय हो रहा है जिस साहित्य को स्वयं आदिवासी लेखकों एवं साहित्यकारों द्वारा सृजन किया जा रहा है तथा एक नए साहित्य के रूप में विश्व साहित्य जगत में निरंतर प्रगति पथ पर सवार है आदिवासी साहित्य लेखन के इस रास्ते पर चुनौतियां भी होंगी, मुश्किलें भी आएंगी लेकिन आदिवासी साहित्य में रूचि रखने वाले, ये सभी लेखक एवं साहित्यकार अब मन में ठान लिए हैं और वो दिन अब दूर नहीं, अब आदिवासी साहित्य लिखा जा रहा है, स्वयं आदिवासियों के द्वारा क्योंकि सदियों से वंचित, उपेक्षित एवं प्रताड़ना झेल रहे आदिवासी समाज और साहित्य को अब और ज्यादा दिनों तक नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है वे अब रहे हैं, वे अब सृजन कर रहे हैं और रच रहे हैं मानवीय गरिमा से युक्त, मौलिकता से परिपूर्ण एक ऐसी नई साहित्य, एक ऐसी नई दुनिया, जिसकी आकांक्षा पूरी दुनिया बेसब्री से करती रही है निरन्तर उभर रहा है आदिवासी साहित्य विश्व पटल पर और धीरेधीरे पैठ बना रहा है विश्व साहित्य जगत पर प्रस्तुत शोध का निष्कर्ष निम्न पंक्तियों के माध्यम से शोधकर्ता द्वारा व्यक्त किया गया है -   

सदियों से वंचित उपेक्षित आदिवासी, जिन्हें सदा रखा गया समाज की मुख्यधारा से कोसों दूर,

सजग होकर अब वो लिख रहा है अपना साहित्य, एक दिन साहित्य की विधा में शामिल होगा जरुर

जिनके लोक साहित्य में बसा है, आदिवासियों की सम्पूर्ण जीवनगाथा की कहानी,

जिस पुरखौती साहित्य को अभी तक संजोकर रखा गया है, पूर्वजों द्वारा वाचिक जुबानी   

विशिष्ट समृद्धशाली संस्कृति और साहित्यिक विरासत लिए, ऐसे हैं अद्वितीय धरोहर से परिपूर्ण,

सृजन हो रहा है ऐसे साहित्य का, जिसमें समाहित है आदिवासियों की अस्मिता मौलिकता सम्पूर्ण

उदय हो रहा है उस नए साहित्य का, जो एक दिन मानवीय गरिमा से युक्त साहित्य लिखा जाएगा,

वह दिन अब दूर नहीं जब आदिवासी साहित्य भी, वैश्विक साहित्य जगत में अपना परचम लहराएगा

 

संदर्भ :

1.    भारत की जनगणना 2011, https://censusnda.gov.n/census.webste/data
2.    गुप्ता, रमणिका, आदिवासी स्वर और नई शताब्दी, वाणी प्रकाशन, द्वितीय संस्करण, 2008, पृष्ठ सं. 8
3.    मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से-https://h.wkpeda.org/wk/आदिवासी साहित्य- मुख्य पृष्ठ 
4.    तलवार, वीर भारत, आदिवासी और आदिवासी साहित् की अवधारणा, तद्भव-34, नवंबर 2016, पृष्-29-45, 46
5.    टेटे, वंदना, ‘आदिवासी साहित्य: परंपरा और प्रयोजन (2021)नोशनप्रेस.कॉम इण्डिया, फरवरी 2021, पृ.सं. 82
6.    वहीपृ.सं. 80
7.    मीणा, गंगा सहायआदिवासी साहित्य विमर्शसंपादक की कलम से, अनन्या प्रकाशन, नई दिल्ली, 2013, पृष्ठ सं. 8
8.    राँची (झारखंड) में झारखंडी भाषासाहित्यसंस्कृति अखड़ा के तत्वावधान दिनांकः 14-15 जून2014 को आदिवासी दर्शन और समकालीन आदिवासी साहित्य सृजन’ विषय पर दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी संपन्न हुई उक्त राष्ट्रीय संगोष्ठी के दौरान आदिवासी समाज साहित्य के बारे में सही समझ विकसित करने एवं उसका मूल्यांकन करने की बुनियादी शर्तों के रूप में पन्द्रह सूत्रीय तत्वों की पहचान करने की कोशिश की गई है इसे ही ‘राँची घोषणा-पत्र’ के नाम से जाना जाता है
9.    मीणा, श्रवण कुमार (सं.)समकालीन विमर्श : बदलते परिदृश्यपृष्ठ सं. 55
10.  मीना, रविन्द्र कुमार, वैचारिकी: आदिवासी साहित्य विमर्श: अवधारणा और स्वरुप, अपनी माटी पत्रिका, संपादकीय जुलाई 2020, मुख्य पृष्ठ 32 

डॉ. राकेश सिंह परस्ते
सहायक प्राध्यापक (अंग्रेजी) स्वामी विवेकानंद शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, हरदा (.प्र.)-461331
बरकतुल्लाह विश्वविद्यालय, भोपाल से संबद्ध
dr.rakeshparaste15@gmal.com, 9425803487

अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
अंक-48, जुलाई-सितम्बर 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : डॉ. माणिक व डॉ. जितेन्द्र यादव चित्रांकन : सौमिक नन्दी

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