साक्षात्कार : 'मधुमती' पत्रिका एवं प्रकाश आतुर के संबंध में डॉ. माधव हाड़ा से बातचीत / ज्योति वर्मा

 'मधुमती' पत्रिका एवं प्रकाश आतुर के संबंध में डॉ. माधव हाड़ा से बातचीत
- ज्योति वर्मा



ज्योति वर्मा : आपके जीवन में ऐसी कौनसी घटना घटित हुई, जिसके तहत आप साहित्य की ओर उन्मुख हुए?

माधव हाड़ा : कक्षा आठवी-नवीं से ही कविता लिखने लग गए थे, बाद में खूब कविताएँ लिखी। उस समय जो पत्रिकाएँ निकलती थी उनमें ‘सरिता’, ‘मुक्ता’, ‘मधुमती’ में बहुत सारी कविता छपती थी। एम. ए. तक यह क्रम निरंतर रहा, उसके बाद गद्य की ओर उन्मुख हुए जिसमें आलोचना लिखने लगे। सारा विद्यार्थी जीवन कविताएँ लिखते निकला, तब पारिश्रमिक भी बहुत अच्छा मिलता था एक कविता से ‘सरिता’, ‘मुक्ता’ से पंद्रह रुपए मिलते थे, जो कि उस समय की बड़ी राशि होती थी। हिंदी के बहुत सारे कवि ‘सरिता’, ‘मुक्ता’, ‘मधुमती’ से पैदा हुए। ये पत्रिकाएँ उस समय की बड़ी लोकप्रिय पत्रिकाएँ थी। हिंदी के कई बड़े कवि एवं आलोचकों ने भी वहीं से लिखना शुरु किया।

ज्योति वर्मा : आप साहित्य जगत् के गद्य विधा में सबसे अच्छी विधा कौन सी मानते हैं?

माधव हाड़ा : आलोचना के अलावा बाद में दूसरी विधा में काम ही नहीं किया, सारा काम आलोचना में ही किया। आरंभ में राजस्थान के बहुत सारे कवियों पर लिखा। यह सब काम मधुमती में किया। मधुमती का एक बड़ा योगदान यह है कि जो बहुत सारे बड़े कवि या लेखक हैं, उन सब ने अपनी शुरुआत मधुमती से की और मधुमती ने ही उनकों एक पहचान दी। आज हम जैसे हैं मधुमती के कारण हैं। प्रांत के कई बड़े आलोचकों के लेखन की शुरुआत मधुमती से ही हुई क्योंकि प्रांत में यही एक मंच था। उस समय रचनात्मक एवं साहित्यिक पत्रकारिता का माहौल बहुत अच्छा था। ऐसा समय न तो पहले कभी रहा और न बाद में कभी आया। एक साथ कई पत्रिकाएँ निकलती थीं। उनमें से ‘लहर’, ‘वातायन’, ‘मधुमती’ ने साहित्यिक दृष्टि से अनुकूल वातावरण तैयार किया। ‘बिंदु’ पत्रिका नंद चतुर्वेदी जी निकालते थे। इन सारी पत्रिकाओं ने राजस्थान में एक प्रकार से साहित्य माहौल तैयार किया। ‘धर्मयुग’ साप्ताहिक’, ‘हिंदुस्तान’, ‘सारिका’, ‘ज्ञानोदय’ आदि पत्रिकाएँ भी निकल रही थी।

ज्योति वर्मा : ‘पचरंग चोला पहर सखी री’ आपकी बहुत ही लोकप्रिय पुस्तक रही है। उसके संबंध में आप क्या कहना चाहेंगे?

माधव हाड़ा : मीरां की पहचान जनसाधारण और अकादमिक-साहित्यिक विमर्श में कवयित्री और रहस्यवादी के संत भक्त के रूप में है। यह पहचान लेफ्टिनेंट टॉड ने बनाई थी। दरअसल मीरां सबसे पहले मनुष्य है, उसका भक्त रूप उसके मनुष्य रूप का विस्तार है। यह किताब यह कोशिश करती है कि मीरां के मनुष्य-भक्त रूप को पहचाना और समझा जाए। मीरां केवल भक्त, संत या रहस्यवादी कवयित्री नहीं है, वह एक मनुष्य भी है। हर संत भक्त के साथ उसका मनुष्यत्व जुड़ा रहता है और किताब में मीरां को भक्त के रूप में मनुष्य के साथ रखकर समझने की कोशिश की गई है।

ज्योति वर्मा : आप लंबे समय से उदयपुर में निवासरत रहे हैं तो निश्चित तौर पर राजस्थान साहित्य अकादमी से आपका जुड़ाव रहा होगा तो राजस्थान साहित्य अकादमी के बारे में आप बताइए?

माधव हाड़ा : आजादी के बाद प्रांत में कई साहित्यिक संस्थाओं की स्थापना हुई। आजकल जिसे राजस्थान विद्यापीठ कहते हैं, उसकी स्थापना भी सबसे पहले साहित्य संस्थान के रूप में यहीं हुई। जब प्रांतों का पुनर्गठन हुआ और राजस्थान अस्तित्व में आया तो राजस्थान साहित्य अकादमी की स्थापना हुई। आरंभ में अलग-अलग अकादमियाँ नहीं थीं। राजस्थानी, उर्दू, ब्रजभाषा आदि सभी के लिए एक ही राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर में थी। उसके नाम के साथ इसीलिए संगम लिखा जाता था। हम लोगों में साहित्य में रुचि सन् 1980 के आसपास हुई तब तक राजस्थान साहित्य अकादमी बहुत अच्छे-अच्छे काम कर चुकी थी, कई पुस्तकों का प्रकाशन हो गया एवं प्रांत में साहित्यिक गतिविधियाँ के इसके माध्यम से अकादमी से जुड़े। हिंदी का जो आज साहित्यिक का आधार है वह राजस्थान से बना, कम लोग ही इस बारे में जानते हैं। आरंभिक हिंदी के बड़े साहित्यकार गौरीशंकर हीरानंद ओझा, चंद्रधर शर्मा ‘गुलेरी’, आलोचकों में मुनि जिनविजय, हरिनारायण पुरोहित यह सब लोग राजस्थान के थे।

ज्योति वर्मा : राजस्थान साहित्य अकादमी से जुड़े संपादक प्रकाश आतुर जी और आप के उनके कैसे संबंध रहे है?

माधव हाड़ा : प्रकाश आतुर से केवल परिचित ही नहीं, बल्कि वे मेरे संरक्षक एवं गुरु भी थे। मैंने अपना पी.एचडी. का शोध कार्य उनके अधीन ही किया, मैं उनका अंतिम पी.एच.डी स्कॉलर हूँ। मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग में आचार्य थे और आचार्य रहते हुए ही वे साहित्य अकादमी के अध्यक्ष बने। साहित्य अकादमी का अध्यक्ष होने के नाते उन्होंने मधुमती का काम देखना शुरू किया। वे मनुष्य बहुत अच्छे थे, मेरी पत्नी एवं बच्चे उनसे बहुत अधिक परिचित रहे है, एक तरह से उनसे पारिवारिक संबंध था। कवि तो बहुत बड़े थे ही, अच्छी बात यह है कि वे समावेशी स्वभाव के थे, सबको साथ लेकर चलते थे। यह राग-द्वेष, घृणा, अच्छा-बुरा उनके स्वभाव में नहीं था।

ज्योति वर्मा : संपादक के रूप में डॉ. प्रकाश आतुर जी की भूमिका को आप किस सृष्टि से देखते हैं?

माधव हाड़ा : प्रकाश आतुर सबसे पहले मनुष्य बहुत अच्छे थे किसी कवि के लिए, किसी संपादक के लिए, किसी भी साहित्यकार के लिए पहले अर्हता यही होती है कि वह मनुष्य अच्छा हो। वे मनुष्य बहुत अच्छे थे, इसलिए संपादक भी अच्छे रहे। संपादक के रूप में उनकी सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि वे समावेशी स्वभाव के थे। बिना किसी राग-द्वेष, दुराग्रह, पक्षपात के उन्होंने सभी को अपने साथ लिया। प्रांत में उस समय दो तरह सोच चल रही थी। कुछ लोग प्रगतिवादी, तो कुछ लोग कलावादी थे परंतु इस खेमेबाजी से दूर उन्होंने दोनों को मधुमती में स्थान दिया। दूसरी बात, उन्होंने मधुमती में कुछ चीजें जोड़ीं, कुछ स्तंभ शुरु किए जैसे कृतिकार योजना एवं साहित्यिक गतिविधियों का एक कॉलम होता था, जिसमें कविता, कहानियाँ प्रकाशित होती थी। उन्होंने एक प्रकार से संतुलन कायम किया। प्रांत के रचनाकारो के साथ बाहर के भी रचनाकारों को प्रकाशित करते थे। क्योंकि केवल प्रांत के रचनाकार को छापेंगे, तो उनको कौन पढ़ेगा। मेरी भी कहीं अच्छी रचनाएँ उस समय प्रकाशित हुई। मैंने स्वयं ने उस समय के प्रांत के बड़े कवि नंद चतुर्वेदी, नंदकिशोर आचार्य, ऋतुराज, रणजीत, सुधा गुप्ता आदि पर भी लिखा।

ज्योति वर्मा: राजस्थान साहित्य अकादमी लंबे अरसे से मधुमती पत्रिका का संपादन कर साहित्य जगत् का संवर्धन का कार्य करती है इसके बारे में आपकी क्या राय है?

माधव हाड़ा : प्रकाश आतुर के बाद हेतु भारद्वाज एवं ब्रजरतन जोशी ने मधुमती को एक पहचान देने का प्रयास किया लेकिन उनका कार्यकाल भी बहुत सीमित रहा। ब्रजरतन जोशी ने मधुमती को ऊँचाई दी, उसकी पहचान राष्ट्रीय पत्रिकाओं में होने लगी। केवल मधुमती ही नहीं किसी पत्रिका की पहचान और निरंतरता संपादक के स्थायित्व पर निर्भर करती है। संपादक संपर्क का दायरा कितना बड़ा है, दूसरी उसकी सुरुचि होना भी जरूरी होता है। रचनाएँ चुनने का विवेक भी उसमें अच्छा होना चाहिए। संपादक के संपर्क का दायरा बड़ा नहीं है तो, उसकी जान पहचान भी बड़ी नहीं होगी तो, पत्रिका का स्तर भी नहीं बनता। श्रेष्ठ संपादक के रूप में प्रकाश आतुर, हेतु भारद्वाज और ब्रजरतन जोशी का कार्यकाल महत्वपूर्ण रहा।

ज्योति वर्मा : अन्य पत्रिकाओं की तुलना में मधुमती अलग तरह की पत्रिका है इस संबंध में आप क्या कहते हैं?

माधव हाड़ा : मधुमती की सबसे खास बात यह है उसकी निरंतरता, जब से अकादमी की स्थापना हुई है तब से निरंतर निकल रही है, उसमें कभी व्यवधान नहीं आया। अकादमी की भी सराहना की जानी चाहिए कि सरकार के बदलने के बावजूद इसने इस निरंतरता को बनाए रखा है। देश की ऐसी कम ही पत्रिकाएँ हैं, जो मधुमती की तरह निरंतर निकलती है। कुछ पत्रिकाएँ आठ-दस साल, तो कुछ पत्रिकाएँ तो दो-तीन अंक में ही खत्म हो गई, लेकिन मधुमती निरंतर निकली है, यह उसका सबसे महत्वपूर्ण एवं सकारात्मक पक्ष है।

ज्योति वर्मा : मधुमती की स्थापना के समय और वर्तमान के समय, दोनों के प्रकाशन में क्या अंतर है?

माधव हाड़ा : मधुमती जब स्थापित हुईं तब हिंदी का भी आरंभिक समय था। हिंदी भाषा, स्वरूप एवं गठन की प्रक्रिया चल रही थी। वह कविताओं का दौर था तो उसमें कविताओं का वर्चस्व रहा। तब साहित्यिक पत्रिकाओं के तौर पर सब तरह की रचनाएँ प्रकाशित होने लगी। मधुमती अपनी सामग्री दृष्टि से भी उस समय सबसे ऊँचाई पर थी। प्रकाश आतुर ने कई योजनाएँ शुरू की जो बाद में भी कुछ जारी रही और कुछ बंद भी हुई। जैसे, कृतिकार प्रस्तुति योजना एक नई योजना थी जिसमें एक अंक में किसी कवि की कविताएँ या वक्तव्य और अलग से सामग्री भी होती थी बाद में उसे बुकलेट फार्म में भी निकालते थे। प्रांत के रचनाकारों के साथ, देश के बाहर के श्रेष्ठ रचनाकारों के साथ सम्मिलित कर प्रकाशित करने लगे। मधुमती का जो वह कार्यकाल सबसे समृद्ध काल था। प्रकाश आतुर एवं ब्रजरतन जोशी के कार्यकाल में भी मधुमती में सभी तरह की रचनाएँ कविता, कहानी, उपन्यास-अंश, निबंध और अन्य रचना भी प्रकाशित होने लगी। मधुमती की रीति-नीति में एक बदलाव तो आया है कि आरंभ में वह लगभग कविता केंद्रित थी, बाद में धीरे-धीरे कविताओं का प्रकाशन कम हुआ है। अब उसमें विचारपरकता आई है।

ज्योति वर्मा : साहित्य अकादमी से निकलने वाली मधुमती पत्रिका के भविष्य को लेकर आप क्या कहना चाहेंगे?

माधव हाड़ा : सरकारी पत्रिका का भविष्य बहुत अनिश्चित भविष्य होता है उसकी रीति-नीति भी बहुत अनिश्चित होती है। फ़िलहाल तो सब कुछ अच्छा है, एक बड़े वर्ग या लोगों में लोकतांत्रिक चेतना के कारण और मीडिया विस्फोट के कारण एक चेतना आई है जिसमें सभी लोग भागीदारी चाहते हैं। ऐसी चीजें संपादक के विवेक को भी प्रभावित करती है। मीडिया विस्फोट के कारण छोटे-छोटे कस्बों में साहित्य के प्रति रुचि बढ़ी है। सब-को को कैसे झेलते हैं, उनमें कैसे संतुलन एवं समन्वय कायम रखते हैं। यह कहना मुश्किल है कि मधुमती का भविष्य क्या होगा।

ज्योति वर्मा : मधुमती पत्रिका भारत और राज्य के उभरते लेखकों को आगे लाने में कारगर साबित हो रही है अपने विचार बताइए?

माधव हाड़ा : राजस्थान के बहुत सारे लोग जो आज बाहर भी जाने जाते हैं उन सब की पहचान मधुमती के कारण हुई। मधुमती ने लोगों को मंच दिया, अभिव्यक्ति, विचार, आग्रह एवं कहीं सरकारी रीति-नीति के बावजूद वह निरंतर निकल रही है। निरंतर लोगों को और हमारी प्रांत की जो रचनात्मक सक्रियता है उसको जगह दे रही है तो उसका योगदान बहुत महत्वपूर्ण है। प्रांत की बहुत सारी अच्छी विधाएँ आलोचना, कहानी इन सबकी पहचान हुई है। उस दौर में प्रांत से बहुत पत्रिकाएँ निकल रही थी। सब बंद हो गई है, लहर, वातायन भी बंद हो गई है लेकिन मधुमती निकल रही है इसलिए सबकी नजर मधुमती पर ही रहती है।

ज्योति वर्मा : राजस्थान साहित्य अकादमी साहित्य में किस प्रकार विकास और प्रगति कर रहा है इस संबंध में सर आपका दृष्टिकोण बताइए?

माधव हाड़ा : राजस्थान साहित्य अकादमी बुनियादी तौर पर सरकारी उपक्रम है। उसका अध्यक्ष सरकार का मनोनीत अध्यक्ष होता है। सरकार बदलने के बाद अकादमिक की भी रीति-नीति बदलती रहती है। उतार-चढ़ाव के बीच में कभी वह वर्ग विशेष की संस्था बन जाती है लेकिन इन सब के बावजूद राजस्थान साहित्य अकादमी ने प्रांत के लेखकों को रचनात्मक सक्रियता की अभिव्यक्ति का मंच दिया है। एक सरकारी संस्था से बहुत अपेक्षा भी नहीं करनी चाहिए, उसकी अपनी सीमा है। सरकारी पत्रिका एवं मनोनीत अध्यक्ष होने के नाते सरकारी रीति-नीति का प्रतिनिधित्व भी करती है। हमारे यहाँ अध्यक्ष की नियुक्ति सबसे बाद में जब उसका कार्यकाल एक-दो का साल रहता है तब की जाती है, इसलिए अध्यक्ष बहुत कुछ अच्छा करने की स्थिति में नहीं होते हैं। सरकार को प्राथमिकता के आधार पर प्रांत की सांस्कृतिक संस्थाओं में भी सरकार गठन के तत्काल बाद अध्यक्ष नियुक्त कर देना चाहिए। अध्यक्ष को लंबा कार्यकाल मिलता है, तो वह अपनी रीति-नीति को तय कर सकता है, एक-दो साल के वक्त में अध्यक्ष रीति-नीति का तय नहीं कर सकता। कोई भी व्यक्ति हो, उसको लंबा कार्यकाल दिया जाना चाहिए, दूसरा उसकी रीति-नीति में हस्तक्षेप नहीं किया जाना चाहिए, उसको स्वतंत्र रखा जाना चाहिए। केंद्रीय साहित्य अकादमी का संविधान ऐसा है कि कोई सरकार चाहे, तो भी उस पर वर्चस्व कायम नहीं कर सकती। उसका संगठन इस प्रकार का है कि अलग-अलग विचारधाराओं के लोग आकर एक जगह बैठते हैं। कहने को तो राजस्थान साहित्य अकादमी स्वायत्त है, दरअसल उसकी स्वायत्तता सीमित है। इस बात पर सरकार को विचार करना चाहिए इनको स्वतंत्र ढंग से काम करने दिया जाए। फिर, ये विशेषज्ञता का भी क्षेत्र है, जिसमें सरकार को हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए।

डॉ. ज्योति वर्मा
हिंदी प्राध्यापक (शिक्षा विभाग)
पता - ग्राम व पोस्ट करमोदा, तहसील व जिला - सवाई माधोपुर (राज.) 322027
jhonjems2013@gmail.com, 9414791700

 अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
अंक-49, अक्टूबर-दिसम्बर, 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : डॉ. माणिक व डॉ. जितेन्द्र यादव चित्रांकन : शहनाज़ मंसूरी
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