शोध आलेख:आधुनिकीकरण के दौर में बनारस की बदलती संस्कृति : विशेष संदर्भ ‘काशी का अस्सी’/ शिवम यादव

आधुनिकीकरण के दौर में बनारस की बदलती  संस्कृति : विशेष संदर्भ ‘काशी का अस्सी’
शिवम यादव


‘संस्कृति’ किसी भी देश या स्थान के पहचान का प्रथम माध्यम होती है। जिसका निर्वहन पीढियाँ परम्पराओं के जरिये करती आयी हैं। भारतीय संस्कृति की एक लम्बी परम्परा रही है। संस्कृतियों के संरक्षित करने का कार्य प्राणी मात्र का ही है, परन्तु इसमें सन्देह नही कि अपनी सुख- सुविधाओं के चलते मनुष्य इतना संवेदनहीन हो चला है कि इन संस्कृतियों एवं परम्पराओं का लगातार विध्वंस कर रहा है। आजादी के इतने वर्षों के बाद भी मनुष्य वैश्वीकरण जैसी अवधारणा, बाजारवाद एवं मशीनीकरण का गुलाम बन कर रह गया है। भारतीय राजनीति में व्याप्त सांप्रदायिकता एवं जातिवाद जैसी अवधारणाओं ने समाज को बाँट कर रख दिया है।

            ऐसे में ‘काशी का अस्सी’ यह उपन्यास समय के झंझावातों मे ‘अस्सी’ नगर के बिखर जाने की दास्तान को व्यक्त करता है। ‘काशी का अस्सी’, ‘अस्सी’ जैसे सांस्कृतिक मुहल्लों के बहाने पूरे देश में व्याप्त सांस्कृतिक संकट को रेखांकित करता है। लेखक काशीनाथ सिंह जी उन कारणों को प्रमुख रूप से प्रकाश में लाते हैं , जिनके चलते आज नगरों की संस्कृतियों का विध्वंस हो रहा है।

            समकालीन हिन्दी कथा-साहित्यकारों में काशीनाथ सिंह अग्रणी रहे हैं। इनके बहुचर्चित उपन्यास ‘ काशी का अस्सी ’(2002) आने से पूर्व ही वे हिन्दी कथा-साहित्य में अपनी अमिट छाप छोड़ चुके थे। इनके प्रसिद्ध कहानी-संग्रह ‘लोग विस्तारों पर’(1968), ‘सुबह का डर’(1975),  ‘आदमीनामा’ (1978), ‘नयी तारीख’(1979), ‘कल की फटे हाल कहानियाँ’ इत्यादि तथा इनका उपन्यास ‘अपना मोर्चा’(1972) एक साहित्यकार की ख्याति दिला चुका था। इनके संस्मरण ‘याद हो कि न याद हो’(1992), ‘आछे दिन पाछ भए’(2004), घर का जोगी जोगड़ा’(2013) भी चर्चित रहे हैं। इनका उपन्यास ‘रेहन पर रग्घू’,(2008) प्रसिद्ध रहा है। ‘रेहन पर रग्घू’ के लिए 2011 में इन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार प्रदान किया गया। इनका एक उपन्यास ‘उपसंहार’(2014) भी प्रकाशित हो चुका है। किंतु इनकी प्रसिद्धि का आधार इनका उपन्यास ‘काशी का अस्सी’ ही है। जिसके चलते काशीनाथ सिंह हिन्दी कथा-साहित्य में शिखरस्थ को प्राप्त किए।

            दरसल ‘काशी का अस्सी’ एक ऐसी कृति रही है जो लम्बे समय तक पाठकों एवं आलोचकों के बीच चर्चा का केन्द्र रही। इस रचना की प्रसिद्धि का आधार इसी से लगा सकते हैं कि इतने कम समय में ही अब तक राजकमल प्रकाशन से इसके अठ्ठारह संस्करण निकल चुके हैं, जो हिन्दी कथा-साहित्य में किसी भी पुस्तक के संस्करणों में सर्वाधिक हैं। यह रचना जिन विशेष कारणों से अपनी पहचान रखती है, उसमें भाषा, शिल्प, रचना शैली एवं रचना की सामाग्री इत्यादि महत्वपूर्ण हैं। इस उपन्यास में पाँच कहानियाँ संकलित हैं, जो हंस पत्रिका में अलग-अलग नामों से निकलती रहीं, जो एकत्र होकर ‘काशी का अस्सी’ बनीं। चौपाल पत्रिका के सोलहवें अंक में दिनबंधु तिवारी लिखते हैं कि “ काशीनाथ सिंह द्वारा समय-समय पर लिखी गई पाँच कहानियों की धुरी अस्सी है और इसी धुरी का पहिया लोकल से ग्लोबल तक की सैर कराता है। रचनाकार के अपने खास विजन के साथ।”1

            काशीनाथ सिंह ने इस कृति के माध्यम से अस्सी की दिनचर्या के सजीव चित्र को एक रचनात्मक स्वरूप दिया है। जिसमें बनारस की अल्हण एवं फक्कड़ जीवन शैली का चित्रण तो है साथ ही वहाँ की रोजमर्रा के सहज-जीवन बोध को अपने कलमरूपी कैमरे से बड़े सरल ढंग से चित्रित किया है। पप्पू की चाय की दुकान को केन्द्र में रखकर लेखक ने अपने बिंदास पात्रों के माध्यम से बनारस की संस्कृति को प्रस्तुत किया है। यही चाय की दुकान उनके लिए संभाषण स्थल है। जहाँ लोकल से ग्लोबल तक का सफर सहज ही तय हो जाता है। यहाँ पहनावे के नाम पर गमछा, लंगोट, लुँगी और जनेऊ तथा मुँह में वीणा पान अपनी मस्ती में मस्त। अस्सी की जीवन्त-परम्परा को काशीनाथ सिंह ने बहुत ही सहज रूप से प्रस्तुत किया है। जिसको रेखांकित करते हुए कामेश्वर सिंह लिखते हैं कि “ परिवेश, पात्र और भाषा की जीवन्त संगति उनके लेखन को एक नये मुहावरे की शक्ल देती है। भदेस कहे जाने वाले अप्रतिष्ठित जीवन बोध को उन्होंने साहित्य में प्रतिष्ठित करने का जो महत् उपयोग किया है, वह अत्यन्त स्मरणीय है। ”2 उक्त टिप्पणी इस उपन्यास को और भी खोलती है जहाँ काशीनाथ जी परिवेश, पात्र और भाषा के माध्यम से अस्सी की उस भदेस और जीवन्त परम्परा का चित्रण करके यह सिद्ध कर दिया है कि अप्रतिष्ठित जीवन-बोध लोक का वह आधार स्तम्भ है जहाँ जीवन की वास्तविक सहजता और सरलता को देखा जा सकता है। लोक की इसी वास्तविक महत्ता को लेखक ने इस उपन्यास के माध्यम से उच्च स्थान पर प्रतिष्ठित किया है।

           इस उपन्यास में प्रस्तुत पात्र प्रत्येक कहानी में अपने चरित्र के माध्यम से अस्सी की जीवन्त-परम्परा को प्रस्तुत करते हैं। कथावाचक स्वयं काशीनाथ जी हैं जिनके माध्यम से अन्य मुख्य पात्र गया सिंह, तन्नी गुरु, कन्नी गुरु, रामराय जी इत्यादि अपने संवादों एवं चरित्र के माध्यम से अस्सी की संस्कृति को चित्रित करते हैं। माधव हाड़ा इस उपन्यास के सम्बन्ध में लिखते हैं कि “ इसके कुछ पात्र और संवाद तो मन में ऐसी जगह बना चुके थे कि जब भी मौका निकलता वे खट से प्रकट हो जाते थे। ”3

            हिन्दी कथा-साहित्य के इतिहास में बहुत कम ऐसी कृतियाँ हैं जिन्हें उनके पात्रों या संवादों के माध्यम से याद किया जाता हो। प्रेमचन्द के ‘होरी’ के स्मरण मात्र से पूरा ‘गोदान’ सामने से गुजर जाता है। रेणु के ‘मैला आँचल’ तथा श्रीलाल शुक्ल का ‘राग दरबारी’ भी अपने पात्रों एवं संवादों के माध्यम से सदैव जीवन्तता प्रदान करते रहे हैं।

            यह उपन्यास अपनी भाषा और संवाद के माध्यम से ही चर्चा में रहा है। भाषा वही अस्सी की रोजमर्रा की ठेलमपेल भाषा। अक्खड़ता और अल्हड़ता से लबरेज जीवन्तता को प्रस्तुत करती हुई। उपन्यास के शुरुआत में ही काशीनाथ जी लिखते हैं कि “ मित्रों, यह संस्मरण वयस्कों के लिए है, बच्चों एवं बूढों के लिए नहीं; और उनके लिए भी नहीं जो यह नहीं जानते कि अस्सी और भाषा के बीच ननद-भौजाई और साली-बहनोई का रिश्ता है। ”4 भारतीय परिवेश में व्याप्त सम्बन्धों के माध्यम से लेखक अस्सी की भाषा को रेखांकित करता है।

            यह वह दौर था जिस समय देश की राजनीति में भारी उथल-पुथल मची हुई थी। बी.पी. सिंह द्वारा भ्रष्टाचार के विरुद्ध आंदोलन, पहले जनमोर्चा एवं बाद में जनता दल का गठन फिर 1989 में वामपंथियों एवं भाजपा के सहयोग से सरकार का गठन , फिर मण्डल कमीशन का लागू होना, वैश्वीकरण के बाद अस्सी की बदलती संस्कृति। इन सारे मुद्दों की धुरी अस्सी थी तथा पप्पू की चाय की दुकान इन बहसों का केन्द्र।

            काशीनाथ सिंह जी ने अपने इस उपन्यास में बनारस को केन्द्र में लिया, और लिया ही नहीं बल्कि थोड़ा पीछे से लिया है, ताकि परिवर्तन स्पष्ट रुप से दिखाई पड़ सके। उसकी घनीभूत पीड़ा तथा उसके सांस्कृतिक मूल्यों में हुए बदलावों को स्पष्ट तौर से देख सकें।

            उपन्यास में वर्णित एक ऐसा मुहल्ला जहाँ कोई विभेदीकरण नहीं, कोई असमानता नहीं, एकदम बिंदासपन लिए हुए सामने आता है। यहाँ के नागरिकों की कोई जातीय संकल्पना नहीं, सभी का सरनेम ‘गुरु’ ही है। काशीनाथ जी  इस सम्बन्ध में लिखते हैं कि “ गुरु ही इनकी नागरिकता का सरनेम है, यहाँ न कोई सिंह, न पांडे, न जादो, न राम! सब गुरु! जो पैदा भया, वह भी गुरु, जो मरा, वह भी गुरु! ”5 पर यहाँ यह सोचने पर मजबूर होना पड़ता है कि क्या भारतीय लोकतंत्र में जाति व्यवस्था समाप्त हो गयी है? किन्तु यहाँ ‘गुरु’ जाति व्यवस्था को चुनौती अवश्य देता है। भारतीय राजनीति में जाति व्यवस्था को बड़े पैमाने पर एक हथियार के तौर पर प्रयोग किया गया है। धर्म जैसे मुद्दों को उभारा जाता है जिसके चलते ‘गुरु’ जैसे सुनने में अच्छा लगता है, वह धरातल पर धरा का धरा रह जाता है। इस उपन्यास को केन्द्र में रखकर उमाशंकर चौधरी ने भारतीय राजनीतिक पार्टियों ने धर्म को साध कर कैसे सत्ता का अधिग्रहण किया है, इस सम्बन्ध में लिखते हैं कि “ आज तमाम पार्टियों ने जिस जातिवाद और धर्म के सहारे अपने वजूद को बचाए रखा है उसके बनने की पूरी कहानी। बाबरी मस्जिद विध्वंस ने मुसलमान को मुसलमान बनाया और हिन्दू को हिन्दू। भाजपा की यह चाल थी जिसमें वे सफल रहे। यह गौरतलब है कि 1984 की दो सीटों के मुकाबले 1989 में भाजपा को 86 सीटें मिलीं और जो लगातार बढ़ते हुए 1991 में 119 और 1998 में केन्द्र में सत्ता तक पहुँच गयी। इसी हिन्दुत्ववादी कार्ड से भाजपा ने 1991 में उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान और हिमांचल प्रदेश में अपनी सत्ता स्थापित की। भाजपा की राजनीति काम आयी हिन्दुओं ने उन्माद में ओट किए। और भाजपा ने जिस सम्प्रदायवाद की शुरुआत अपने को स्थापित और अपने को सत्ता तक पहुँचाने के लिए की वह कभी भी खत्म नहीं हो पाया। ”6 उक्त टिप्पणी से यह भली-भाँति समझ सकते हैं कि भारतीय राजनीति में बाबरी विध्वंस जैसी घटना के चलते कैसे कोई राजनीतिक पार्टी हिन्दू-मुस्लिम कार्ड के दम पर खुद सत्ता के केन्द्र में स्थापित कर लेती है जिसका विस्तृत विवरण इस उपन्यास में  काशीनाथ जी प्रस्तुत करते हैं।

            आज के राजनेताओं और उनकी राजनीतिक सभाओं में कितना फर्क आ चुका है, इसको रेखांकित करते हुए काशीनाथ जी लिखते हैं कि “ बहुत कुछ बदल गया है गुरुजी! नेहरू, लोहिया, जयप्रकाश नारायण के लिए भीड़ नही जुटानी पड़ती थी। भीड़ अपने आप आती थी। अब नेता भीड़ अपने साथ लेकर आता है कारों में, जीपों में, बसों में, ट्रैक्टरों में। किसी भी सभा को देख लीजिए तो दरी-चौकी बिछाने वालों और तम्बों कनात वालों को निकाल दीजिए तो भीड़ वही रहती है जो कारों, जीपों में नेता जी के साथ चलती है, हर जगह वही चेहरा। ”7 भारतीय राजनीति में राजनेताओं की लोकप्रियता कैसे कम होती गयी है तथा भ्रष्टाचार की राजनीति कैसे हावी होती गयी जिसे काशीनाथ जी ने बखूबी ढंग से दर्शाया है।

            अस्सी की अपनी एक संस्कृति और परम्परा रही है। संस्कृति भी कैसी भाँग की संस्कृति तथा परम्परा कवि सम्मेलनों की परम्परा। भाँग को बनाने और पीने में लोकल का एक खास अंदाज हुआ करता था। सामूहिक रुप से भाँग का सेवन तथा कवियों का सम्मेलन अस्सी पर जरूर दिख जाया करता था किन्तु बढ़ता हुआ पूँजीवादी बाजार तथा मशीनीकरण ने इस व्यवस्था को ध्वस्त करके रख दिया है। जैसे-जैसे इन विदेशियों  का यहाँ आवागमन तीव्र होता गया, यहाँ की भाँग की संस्कृति ध्वस्त होती गयी। पात्र गया सिंह एक जगह कहते हैं कि “ यह भारतीय संस्कृति पर हमला है! गाँजा-भाँग की संस्कृति पर! जब से अस्सी पर अंग्रेज-अंग्रेजिन आने शुरू हुए हैं तभी से मुहल्ले के लौंड़े हेरोइन और ब्राउन शुगर के लती हो रहे हैं। ”8 भाँग की संस्कृति कैसे बढ़ते पूँजीवाद के चलते हेरोइन और चरस के  रुप में परिणत हो गयी। साथ ही साथ अलग-अलग शहरों और राज्यों से इसी समय यूनिवर्सिटी में पढ़ने आये लड़के पुरानी संस्कृति की कब्र को रौंदते हुए, नई संस्कृति की दिशा में ही प्रवाहमान रहे।

           सन् साठ के आस-पास ही कवियों का जमघट यहाँ कम होने लगा तथा केन्द्र भी टूटने लगे। “ अस्सी से धूमिल क्या गया, जैसे आँगन से बेटी विदा हो गयी। घर सूना और उदास। ”..... “ सच्ची कहें तो नमवर-धूमिल के बाद अस्सी का साहित्य-फाहित्य गया एल. के. डी.। ”9 अस्सी पर कवि सम्मेलनों की इतनी समृद्धि परम्परा इतनी जल्दी तबाह हो जायेगी इसका किसी को भी अंदेशा नहीं था। सबकुछ बदलने की प्रक्रिया में था, लेकिन इतना तीव्र वेग से बदलेगा, चीजें इतनी विकृत हो जायेगीं, कहाँ सोचा था किसी ने। तभी तो काशीनाथ जी कहते हैं, आपसे यह बता दें कि जिसने 1990 के अक्टूबर-नवम्बर महीनें में अस्सी नही देखा, उसने दुनिया भी देखी तो क्या देखी?


            भूमण्डलीकरण के दौर में पश्चिमी संस्कृति सम्पूर्ण विश्व में कैसे अपना पैर पसार रही थी,साथ ही वह  भारत में किस तीव्रतम वेग से प्रवेश कर रही थी,और देखते ही देखते कैसे उसकी विकृति सम्पूर्ण भारतीय परिवेश पर एक आवरण का रुप ले लेती है। इस परिदृश्य को पात्र गया सिंह के माध्यम से काशीनाथ सिंह जी व्यक्त करते हुए कहते हैं कि “ वह शुरू में ऐसे ही किसी मुल्क को चाटना शुरू करता है जैसे गाय बछड़े को चाटती है– प्यार के साथ! बाद में जब चमड़ी छिलने लगती है, खाल उधड़ने लगती है, दर्द शुरू हो जाता है, जीभ पर काँटे उभरते दिखाई पड़ने लगते हैं, जबड़े चलने की आवाज सुनाई पड़ती है तब पता चलता है कि यह जीभ गाय की नहीं किसी और जानवर की है। और क्या समझते हो जो देखते-देखते देश का देश चबा गया हो और उसमें भी सोबियत रूस जैसा देश– उसके लिए नगर का मुहल्ला क्या चीज है? ”10

            ग्लोबलाइजेशन के नाम पर भारतीय संसाधनों एवं जमीनों पर किस तरह से पश्चिमी लोग कब्जा कर रहे हैं उपन्यास में पात्र गया सिंह इस पर व्यंग करते हुए कहते हैं कि, “ कितने ऐसे मकान हैं जिनकी मरम्मत के लिए इन्होंने पैसे लगाए हैं खुद रहने के लिए। फर्जी शादियाँ की हैं वीजा एक्सटेंशन के लिए। बीसों ‘ साइबर कैफे ’खुलवाए हैं घरों में अपने जनसंपर्क और सुविधाओं के लिए। इसे ही समझते हैं ‘ ग्लोबलाइजेशन ’। उन्हें जितनी बार आना-जाना हो आएँ-जाएँ, जब तक रहना हो, तब तक रहें, लेकिन हम? है हमारी हैसियत एक बार भी अमेरिका जाने की? हमारा घर उनका घर है, लेकिन उनका घर उन्हीं का घर है, हमारा तुम्हारा नहीं।… अभी क्या देख रहे हो थोड़े दिन बाद बोलेंगे– अस्सी जर्जर हो रहा है, ढह रहा है, मर रहा है; हमें दे दो तो नया कर दें–एकदम चमाचम! कल बनारस को चमकाएँगे, परसो दिल्ली को ठीक करेगें, नरसों पूरे देश को ही गोद ले लेंगे और झुलाएँगे-खेलाएँगे अपनी गोद में। यह बाद में पता चलेगा कि हम किसकी गोद में है– जसोदा मइया की कि पूतना की? ”11

            उपन्यास के भीतर वर्णित एक कहानी ‘पाण्डे कौन कुमति तोहें लागी’ के माध्यम से काशीनाथ जी ने घाटों पर रहने वाले पण्डों के जीवन की बहुत ही बारीक पड़ताल की है। सन 1985 के आसपास विदेशी बड़े पैमाने पर संगीत-समारोह और घाटों के दर्शन के लिए बनारस आना शुरू हुए, इन कार्यक्रमों का आयोजन अस्सी-भदैनी के आसपास ही हुआ करता था करता था। रहने की सुविधा की दृष्टि से केदारघाट से नगवा के बीच मकान लाॅज बनने लगे। उनकी इन जरूरतों का ज्यादातर ख्याल नीची जाति के लोगों ने किया। क्योंकि ब्राह्मण इन्हे अछूत समझते थे इसलिए इनको अपने मकान में जगह देने से रहे। लेकिन इन नीची जाति के लोगों ने नगर में एक नई संस्कृति चलाई–‘पेइंग गेस्ट’ की। मुहल्ले के ब्राह्मण-ठाकुर इन निचली जाति के लोगों को धिक्कारते और गाली देते रहे किन्तु इनकी हैसियत में फर्क आता देख पछताते भी रहे। यहाँ पर पण्डों की परम्परावादी रूढ़ियों से ग्रसित जीवन शैली आधुनिकता रूपी यथार्थ भाव बोध से टकराती है। जिसके चलते काशी के घाटों पर मुक्ति की राह खोजते जजमानों को मुक्ति का रास्ता बताने वाले पंडित धर्मनाथ शास्त्री का मनोविज्ञान एक यथार्थ से टकराता है, और वे अपनी आवश्कताओं की पूर्ति के लिए नये तर्क और नये सिद्धान्त के साथ खड़े होकर विदेशी मादलेन को अपने मकान में पेइंग गेस्ट के रूप में किराये पर रख लेते हैं और घर के अन्दर शिव की प्रतिमा को खण्डित प्रतिमा बताकर गंगा में प्रवाहित कर देते हैं। घर में एक अच्छी रकम की आमदनी के लिए अपनी पत्नी को समझाते हैं, जिसे काशीनाथ सिंह ऐसे प्रस्तुत करते हैं, “ देखी है कभी जगुआ की मेहर की साड़ी? और अपनी देखो, अपने कान, नाक, गला और कलाई देखो, उसे पहले भी देखा है तुमने और अब देखो। तुम्हारा मन भले न करे, लेकिन मै अपने मन का क्या करूँ? क्या मै नही चाहता कि तुम लुगरी नहीं, साड़ी पहनों, गहने पहनों! बच्चियाँ कायदे से पढ़े-लिखें अच्छी शादी हो, अच्छा वर मिले, घर मिले, जाएँ तो सास ताना न मारे! संस्कृत लिखने-पढ़ने का सुख तो भोग लिया तुमने! क्या चाहती हो, लड़के भी घाट पर बैठें? दिनभर पतंग उड़ाएँ? गली में टिल्लो मारें! लड़कियाँ तो, मान लो चली जाएँगी ; कल बहुएँ आयेगीं, बच्चे होगें। क्या इन्ही दो कोठरियों में रहेगीं बहुएँ पति और केंचा-केची के साथ हम तुम कहाँ जाएँगे? और महँगाई का जो हाल है, देख रही हो उसे? बोलो, हाँ-ना कुछ तो बोलो! ”12 विदेशियों को अछूत समझने वाले पण्डित धर्मनाथ शास्त्री भौतिक सुख सुविधाओं के भोग के लिए वर्षों से चली आ रही परम्परा से भी टकरा जाते हैं। अपने तथा अपने बच्चों के सुनहरे भविष्य के लिए भगवान शंकर की मूर्ति को भी घर से बाहर निकाल फेकनें को तैयार हो जाते हैं।

            काशीनाथ सिंह की विशेषता है कि वे अपने समय के बाजारवाद के अर्थशास्त्र और विज्ञापन को समझाने के लिए लोक गीत (बिरहा) विधा के दो मशहूर गायकों हीरालाल और बुल्लू की प्रतियोगिता को आधार बनाकर हमारे सामने वैश्विक दुनिया के उस चित्र को लाते हैं, जिसमें विकसित देशों की बहुराष्ट्रिय कम्पनियाँ बनारस जैसे शहर के भीतर अपना पैर पसार चुकी हैं और लोगों के जीवन की दिशा ही मोड़ दी हैं। ऐसी कम्पनियों के प्रभाव का वर्णन करते हुए काशीनाथ सिंह जी लोक गीत कलाकारों के माध्यम से एक जगह बाजार को परिभाषित करते हुए लिखते हैं कि “ बाजार वह नहीं है जो सड़क पर है, दुकान में है, नुक्कड़ पर है, शोकेस में है। बाजार वह है जो तुम्हारे दरवाजे पर है, पोर्टिको में है, ड्राइंगरूम में है, बेडरूम में है, आलमारी में है, किचेन में है, टायलेट में है और यही क्यों तुम्हारे बदन पर है सिर के बाल से लेकर पैरों के नाखून तक है। ”13 उपरोक्त कथन से यह सहज ही अनुमान लगा सकते है कि बनारसी जीवन शैली में किस तरह से लोगों के घरों एवं दिलो-दिमाग पर हवा के वेग की तरह बाजार प्रवेश करता गया है।

            जब टी.वी. बाजार के रास्ते घरों में प्रवेश करना शुरू करती है तो उस दृश्य को काशीनाथ सिंह जी व्यक्त करते हुए लिखते हैं कि, “ किसी के घर कर्ज के रास्ते, किसी के घर किस्त के रास्ते, किसी के घर गहनों के रास्ते, किसी के घर पेट के रास्ते। उन्हें कोई मतलब हो या न हो, इज्जत का सवाल था ; घर की औरतें और बच्चे कब तक पड़ोस में फिल्म और सीरियल देखते। ”14 टी.वी. अपने पीछे अपनी एक भाषा लेकर घरों में प्रवेश हुई, वह एक अभियान के तहत आयी। उसने हँसने की जगह निश्चित की। इस सम्बन्ध में काशीनाथ जी लिखते हैं कि “ मैंने पढ़ ली है टी.वी. के पीछे की भाषा। बताएँ क्या लिखा है? यह एक अभियान है हमारी हँसी और मस्ती के खिलाफ। कि हँसों मत। हँसते हुए आदमी को देखो। और हर जगह हँसने की चीज नही होती। इसकी जगह निश्चित कर दी गयी है–पर्दा। ”15 इसी टी.वी. के रास्ते घरों के अन्दर बाजार के आने को भी एक अभियान के रूप में और अस्सी वालों की हँसी और मस्ती के खिलाफ देखते हैं, काशीनाथ सिंह। इसी कड़ी में वे आगे लिखते हैं कि, “ अमेरिका ने एक टीका इजात किया है। टीका क्या है ड्रॉप है। हँसी निरोधक ड्रॉप। पैदा होते ही बच्चे को एक बूँद दे दी जाय तो हँसी जीवन-भर के लिए खत्म।”16

            कहने का तात्पर्य है कि उपभोक्तावादी विश्व बाजार ने नयी पीढ़ी को अपनी चपेट में ले लिया है। तन्नी गुरु का बेटा कन्नी नये परिवर्तन का प्रतीक है तो उसके पिता तन्नी गुरु खाटी बनारसी शैली, हँसी ठिठोली और मस्ती के प्रतीक हैं, जो परम्परागत बनारस का प्रतिनिधित्व करते हैं। पिता-पुत्र के बीच अंतर पीढ़ी संघर्ष का सिद्धांत काम करता है। पीढ़ी गत संघर्ष का चित्रण हिन्दी कथा साहित्य में प्रमुख रूप से चित्रित होता आया है। गोदान में प्रेमचन्द ने होरी और उसके पुत्र गोबर के माध्यम से पीढ़ी गत संघर्ष को चित्रित किया है। काशीनाथ सिंह यहाँ दर्शाते हैं कि इस नये युग ने युवकों के मन में परम्परागत जीवन मूल्यों और सांस्कृतिक, सामाजिक मूल्यों के प्रति आस्था को कम किया है, परन्तु अभी तक नवीन मूल्यों की स्थापना पूरी तरह से नहीं हो पायी है। अतः वर्तमान समय में दो विरोधी मूल्यों का संघर्ष दिखता है, जो पुरानी और नयी पीढ़ी के लिए उत्तरदायी है।

            उपन्यास के उत्तरार्द्ध में वर्ग पीढ़ी संघर्ष इतना हावी होता है कि पिता-पुत्र के बीच अन्तर्विरोध सामने उभर कर आता है। जिसके चलते तन्नी गुरु घर छोड़ कर चले जाते हैं। उधर उस बुढ्ढे की हँसी ने अमेरिका तक को परेशान किया है। आखिर वह हँसी कैसी है? काशीनाथ सिंह लिखते हैं कि “ हँसी का मतलब है जिन्दादिली और मस्ती का विस्फोट, जिन्दगी की खनक। यह तन की नहीं मन की चीज है। यह किसी भी सनसनी खेज खबर से कम नहीं कि जम्बूद्वीप में एक ऐसी भी जगह है जहाँ हँसी बची रह गयी। ” 17 तन्नी गुरु के घर से जाने का कारण यही था, इस नगर को उन्होंने बनते और सँवरते बहुत करीब से देखा था, उसको बनाया था, उसको लूटते हुए देखने की हिम्मत उनमें नही रही। अब यह नगर ‘अस्सी’ नही ‘तुलसी नगर’ हो गया था। सब व्यस्त थे परेशान थे। कोई किसी को नही पहचानता था।

          आज वैश्वीकरण ने सारी दुनिया को उपभोक्तावादी दलदल में फँसा दिया है। बाजार है, उपभोक्ता है, उपभोग के सामान हैं किन्तु जीवन में संतुष्टि नही है। जीवन एक नीरस मशीन स्वरूप हो गया है। लोग संसाधनों से बस खेल रहे हैं, हँसी और मस्ती की संभावनाऐं क्षीण होती जा रही है। सब कुछ तो है हमारे पास किन्तु सरस और सघन जीवन क्यों नही है? भूमण्डलीयकरण का शिकार जब सम्पूर्ण विश्व हो रहा था तो यह छोटा सा नगर ‘अस्सी’ उसकी चपेट से कैसे बचा रह सकता था?

            इस कृति की ख्याति का हम इसी से अनुमान  लगा सकते हैं कि इसकी कहानी को केन्द्र में रखकर उषा गांगुली की टीम ने ‘काशीनामा’ की सौ से अधिक प्रस्तुतियाँ दी है, जिसकी जनमानस पर अमिट छाप पड़ी है। इसी उपन्यास को लेकर फिल्म निर्माता चन्द्र प्रकाश द्विवेदी ने ‘मोहल्ला अस्सी’ नाम से फिल्म भी बनायी।

            ‘काशी का अस्सी’ कृति की भाषा को लेकर सबसे ज्यादा बहस हुई। क्यों न हो, एकदम बिंदास, अल्हण, खाटी अस्सी की बोली। इसमें इस्तेमाल की गयी भाषा में अपशब्दों पर सबसे ज्यादा सवाल उठाया गया है। चुँकि यह पुस्तक हंस संपादक राजेन्द्र यादव को समर्पित है। इस सम्बन्ध में काशीनाथ सिंह लिखते हैं, हंस संपादक राजेन्द्र यादव के लिए जिन्होंने जाने कितनों-कितनों और कैसों-कैसों के बोल सहे मेरी खातिर। चुँकि यह पुस्तक अस्सी की जीवन्त लाइव शो की तरह रही है, जिसके चलते उसकी फक्कड़ता और अल्हड़ता एकदम सटीक व्यक्त हुई है। काशीनाथ सिंह ने इसमें शुरू में ही लिख दिया था कि बदनाम सिर्फ अभिजनों में, आमजनों में नही। आम जन और आम पाठक ही इस उपन्यास की जमीन रहे हैं।

निष्कर्ष : ‘काशी का अस्सी’ यह उपन्यास वास्तव में समय के थपेडों में अस्सी के बिखर जाने की दास्तान को व्यक्त करता है। एक ऐसे नगर की कहानी जिसे लूटा जा रहा है। ‘काशी का अस्सी’ में ‘अस्सी’ जैसे सांस्कृतिक मुहल्लों के बहाने पूरे देश के सांस्कृतिक संकट को उठाया जाना था। इसके लिए यह जरूरी था कि उन सभी प्रभावकारी तत्वों के प्रभाव को जस-का-तस दिखाया जाए। उपन्यास में वर्णित बनारस पर शोध करने वाली एक विदेशी लड़की जब यह कहती है कि, “ बुरा न मानो तो मै कहना चाहती हूँ कि ‘वाराणसी इज डाइंग’! बनारस जिसे लोग पढ़ते, सुनते, जानते थे- मर रहा है आज! ”18 तब ऐसा लगता है कि लेखक की चिंता के केन्द्र में यह पंक्ति है और जिसके लिए पूरी पुस्तक लिखी गयी। तो बनारस सिर्फ एक कारण से नही मर रहा है। इसके विनास के कारण है, जिसने इसे अलग-अलग बर्बाद किया है। काशीनाथ सिंह की तीव्र वेदना इस सम्बन्ध में उभर कर आयी है। जातिवाद, सम्प्रदायवाद तथा बाजारवाद ये तीन प्रमुख कारण जिसके चलते समाज को रोज मारा जा रहा है।

            ‘काशी का अस्सी’ विधा के रूप में चाहे कुछ भी हो लेकिन इस रूप में यह बहुत महत्वपूर्ण किताब है कि यह अपने समय की सबसे बड़ी समस्या, सबसे बड़ी चुनौती से रूबरू होती है, उसके कारणों को खोलती है, उसकी प्रक्रिया को खोलती है और समाज के दुख-दर्द उसकी टीस को सामने लाती है।

              आजादी के बाद भारतीय संस्कृति पर कैसे-कैसे आघात हो रहे थे उसकी व्याख्या प्रस्तुत करता है ‘काशी का अस्सी’। भारतीय राजनीति में धर्म एवं जातिवाद ने अपनी गहरी पैठ किस कदर स्थापित कर ली है, उसकी दास्तान व्यक्त करती है यह कृति। भूमण्डलीयकरण के इस दौर में उपभोक्तावादी बाजार का व्यक्ति कैसे शिकार होता गया है। मशीनीकरण से जहाँ एक तरफ सहजता और सुगमता आयी है तो वहीं दूसरी तरफ व्यक्ति का जीवन कैसे नीरस और सारहीन होता चला गया है। व्यक्ति की संवेदनायें मरती जा रही हैं। अब किसके पास है इतना समय कि पप्पू की दुकान पर बैठ कर घण्टों बकैती करने का। अब तो सारी मस्ती, हँसी-ठिठोली मोबाइल, टी.वी. और वीडियो गेम्स पर ही रह गयी है।

संदर्भ :

  1. काशीनाथ सिंह : समय को थाहती आँखें- दीनबन्धु तिवारी, पृष्ठ संख्या-21, चौपाल अंक-16 संपादक कामेश्वर सिंह
  2. एक सहज मिथक की निर्गुण गाथा- कामेश्वर सिंह, पृष्ठ- 6 , चौपाल अंक- 16
  3. काशीनाथ सिंह जी, जैसे सदियों से जानता हूँ- माधव हाड़ा, पृष्ठ- 11, चौपाल अंक- 16
  4. काशी का अस्सी- काशीनाथ सिंह, पृष्ठ-11,राजकमल प्रकाशन ( 18 वाँ संस्करण)
  5. वही, पृष्ठ- 12
  6. ‘वाराणसी इज डाइंग’, बनारस मर रहा है- उमाशंकर चौधरी, पृष्ठ-163-64 , बनास जन, संपादक- पल्लव
  7. काशी का अस्सी, पृष्ठ- 91
  8. वही, पृष्ठ- 81
  9. वही, पृष्ठ- 17
  10. वही, पृष्ठ- 112
  11. वही, पृष्ठ- 112-13
  12. वही, पृष्ठ- 126
  13. वही, पृष्ठ- 142
  14. वही, पृष्ठ- 150
  15. वही, पृष्ठ- 151
  16. वही, पृष्ठ- 151
  17. वही, पृष्ठ- 162
  18. वही, पृष्ठ- 110

   

शिवम यादव
शोधार्थी, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणासी– 221005
Shivam.Kabeli@gmail.com8299504812
   
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
अंक-49, अक्टूबर-दिसम्बर, 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : डॉ. माणिक व डॉ. जितेन्द्र यादव 
चित्रांकन : शहनाज़ मंसूरी
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