शोध आलेख : तहसील धारचूला के व्यांस और दारमा में आवासरत रंड0 जनजाति का इतिहास / महिपाल सिंह कुटियाल, डॉ. प्रेमलता काण्डपाल पंत

तहसील धारचूला के व्यांस और दारमा में आवासरत रंड0 जनजाति का इतिहास
- महिपाल सिंह कुटियाल एवं डॉ. प्रेमलता काण्डपाल पंत

 

शोध सार : संभवत: लोगों को विश्वास होगा कि संसार में आज भी अनेक ऐसे समूह हैं। जिनके परम्परागत जीवन के विषय में बहुत कम जानकारी लोगों को हो। भारत के उच्च हिमालय क्षेत्रों में ऐसे जन-जातियों सहित इस प्रकार के समूह पर्याप्त संख्या में पाए जाते हैं। यद्यपि ये समूह आधुनिक सभ्यता से जुड़ने के बाद भी अपनी परम्पराओं के कारण विशिष्ट पहचान बनाए हुए हैं। यही कारण है कि पर्वतीय अंचलों एवं सघन वनों के बीच ये समुदाय आज भी आवासरत हैं। वास्तविक रूप से रंड0 जनजाति के लोग जनपद पिथौरागढ़ के तहसील धारचूला के निवासी हैं। अनेक विद्वानों और इतिहासकारों ने इस समुदाय को शौका कहकर पुकारा है लेकिन यह समाज और समुदाय अपने को रं कहलाना पसन्द करते हैं। यूरोपीय विद्वानों में एटकिन्सन, वाल्टन, ट्रेल क्रुक्स ने भीशौकशब्द के लिए भोटिया नाम प्रयुक्त किया। जो इस क्षेत्र के तीन अंचल(घाटी)- दारमा, व्यांस और चौंदास के लिये किया गया है। यह तीनों अंचल काली एवं धौली नदी उपत्यका में स्थित है। यहाँ की आवासरत जनजातियों को शारीरिक गठन के लिहाज से यह तिब्बती और मंगोलाइट के निकट माना गया है। वहीं वाल्टन के अनुसार भोटिया/ रंड0/ शौका स्वयं को हिन्दू राजपूत मानते हैं। इस जाति को केवल अंग्रेज अपितु भारतीय लेखकों ने भी शौका कहकर भोटिया नाम से ही सम्बोधित किया। लेकिन यह जनजाति स्वयं को भोटिया के स्थान पररंड0जनजाति के नाम से सम्बोधित करवाना पसन्द करती है। धारचूला के रंड0 जनजाति अपने को ऋग्वेद और मनुस्मृति के वर्ण व्यवस्था के अनुरूप सृष्टिकर्ता के मुख से ब्राह्मण, बाँह से क्षत्रिय, उदर से वैश्य तथा पैर से शूद्र की उत्पति के अंतर्गत बाँह से उत्पन्न मानते हैं, जिस कारण रंड0 स्वयं को पूर्णतया क्षत्रिय मानते हैं, क्योंकि शौका जनजाति की भाषा में रंड0 शब्द मेंरंका अर्थ है बाँह या भुजा होता है।

बीज शब्द : रंड0, पर्वतीय, शौका जनजाति, समुदाय, व्यांस, दारमा, भोटिया, संस्कृति, उच्च हिमालय।

मूल आलेख : यद्यपि संख्या की दृष्टि से सीमित होते हुए भी रंड0 (शौका) समाज का फैलाव कदापि सीमित नहीं है। क्योंकि ये सोर वैली के धारचूला तहसील के व्यांस, चौदास एवं दारमा घाटी में बसे होने के साथ-साथ नेपाल के दूर-दराज के क्षेत्रो में भी इस संस्कृति के लोगों के बसने का प्रमाण मिलता है। स्वामी प्रवणानन्द के अनुसार धोली गंगा से भोट प्रांत प्रारम्भ माना जाता है। जो धौली गंगा के तट पर स्थित सोबला से भारत की रंड‌(शौका) जनजाति की सीमा दारमा परगना एवं धौलीगंगा काली नदी पर स्थित विन्दाकोट (विन्ध कुटी) तक का क्षेत्र चौदास भूमि में और विन्दाकोट से काली नदी के तट कुटी यंक्ती तक का क्षेत्र व्यांस घाटी और गोरखा आधिपत्य नेपाल सीमा का छांगरू तिन्कर गाँव इस संस्कृति का क्षेत्र रूप है। सदियों से जन-जातीय समुदायों के सतत संपर्क के फलस्वरूप शौका अर्थात रंड जनजाति ने वाह्य समाजो के भौतिक सांस्कृतिक तत्वों और जीवन प्रतिमान के तौर-तरीक़े को ग्रहण किया लेकिन अपनी परम्पराओं, प्रथाओं,विश्वासों आदि से जुड़े अभौतिक सांस्कृतिक तत्वों को यथावत बनाते हुए अपने निकटस्थ क्षेत्रो में आवासित नृ-समूह के समांतर अपनी एक विशिष्ट पहचान बनाये रखने के लिये आज भी रंड0 जनजाति कृत संकल्प प्रतीत होते हैं।

हिमाच्छादित शिखरों में उतराखंड के उत्तरी भूभाग में 29.49 से 31.27 उत्तरी अक्षांश और 78.30 से 81.3 पूर्वी देशांतर के मध्य में लगभग 5000 से अधिक वर्ग मील से अधिक क्षेत्र में उच्च हिमालय की तरफ तिब्बत नेपाल की सीमाओं से लगे तीन हजार से 14 हजार फिट की ऊँचाई पर निवास करने वाले शौका जनजाति की कुल जनसंख्या का वह भाग जो कुमायूँ मण्ड़ल के तहसील धारचूला के दारमा, व्यांस, चौदास घाटियों में सदियों से निवास कर रहे हैं। विश्व की इस आदिम जनजातियों में शौका (रंड‌) लोगों का परिवेश, संस्कृति की एक अलग पहचान है, जो जातिगत विशेषताओं में प्राचीन वैदिक काल से भी पूर्व समय को दर्शाता है। इस जाति में हिन्दू धर्म का प्रादुर्भाव सम्भवत: अलगअलग समय में हुआ होगा। यद्यपि प्रारम्भ में अपनी घुमक्कड़ी जीवन जीने देशकाल के वातावरण के अनुरूप स्वयं को ढालते ये शौका (रंड‌) जाति के पूर्वज हिमालय के दुर्गम प्रदेश में कब स्थापित हुऐ इसका स्पष्ट उल्लेख प्राप्त नहीं होता है। जब कुमायूँ में परवर्ती कत्यूरी एवं चंद शासकों का राज्य था तब दारमा, चौंदास और व्यांस तीनों परगना दरमा राज्य के नाम से जाना जाता था और इस क्षेत्र के लोग अपने को रंडअर्थात योद्वा या क्षत्रिय राजपूत कहलाना पसंद करते थे। जो उत्तर पूर्व में नेपाल सीमा से लगी काली नदी घाटी जो प्राय: व्यांस और चौंदास को रेखांकित करता है, वहीं उत्तर में धौली नदी घाटी दारमा को रेखांकित करता है, आदिकाल से यहॉ के वास्तविक मूल निवासी माने जाते हैं।

भौगोलिक परिस्थितियों ने शौका रंड0 जन-जीवन को सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक रूप से प्रत्येक क्षेत्र को प्रभावित किया है। उच्च हिमालय पर्वत की नीरव विस्तीर्णता ने यद्यपि यहाँ के लोगों को संघर्ष का असहाय अनुभव कराया वहीं हिमश्रृंगों के सौन्दर्य और नदी घाटियों की समृद्ध हरीतिमा में प्राकृतिक लावण्य और प्रकृति के तांडव से भी परिचित रहे हैं जो वर्तमान समय तक चला रहा है। जिस कारण यहाँ के लोग कठोर संघर्ष, श्रम के साथ-साथ सहिष्णुता, कर्तव्यनिष्ठा, सशक्त मानसिकता वाले पाए जाते हैं। तिब्बत से परम्परागत व्यापार ने शौकाओं (रंड0) में प्रत्युत्पन्नमति और अवसर को पहचानने की कुशलता दी तो श्रम और संघर्ष कष्ट साध्य जीवन के निर्वाह के लिए यहाँ के लोगों के स्वभाव में कर्मठता बहुत अधिक पाया जाना विषम भौगोलिक परिस्थितियों की देन माना गया है। रंड0 (शौका) जनजाति की सांस्कृतिक विशेषता का पता उसके सिंधुतल से 2500 ‍मीटर की ऊँचाई से लेकर 22661 मीटर की ऊँचाई के रहन-सहन से स्पष्ट हो जाता है कि रंडजनजाति के व्यांस घाटी, चौंदास घाटी के समस्त लोग 7500 फीट से 18000 फीट की ऊँचाई और हिमखंड भूमि में निवास करते हैं। यहाँ के हिम उच्च शिखरों में पंचाचूली, बूदीग्राम के पश्चिम में जौरों धूरा की चोटी, अपि पर्वत, जिब्ती की चोटी, पुलोमापर्वत एवं लिम्पायालेख, सिनला पास, ओम पर्वत और आदि कैलाश पर्वत, बिढांग चोटी इन क्षेत्रों की विशेषता है जो पूरे विश्व में रंड0 जनजाति का प्रचारप्रसार करता है। चौंदास, व्यांस दारमा घाटी के शौका अपनी जाति रंडऔर अपना गोत्र भारद्वाज व्यांस बताते हैं। द्वापर युग के बाद जब ऋषि वेदव्यांस तपस्या के लिए उच्च हिमालय की ओर इन्हीं रंड0 क्षेत्र के व्यांस वैली में आये साधारण जीवन व्यतीत करने के लिये कृषि का कार्य करने लगे। कहा जाता है कि जहाँ वो रहे अन्न की कमी रही। तब से रंड0 जनजाति के व्यांस वैली के पाँच गाँव- कुटी, गुंजी, नपल्च्यु, नावी, रोंकांग के लोग वेदव्यास ऋषि मेला का आयोजन कर अपने को उनके गोत्र का मानते हैं। वस्तुत: यूरोपीय लेखक जिनमें क्रुक (1897), एटकिंसन (1882), ट्रेल (1880) तथा वाल्टन (1928) का नाम प्रमुख है, ने सर्वप्रथम शौकाओं के लिए भोटिया शब्द का प्रयोग किया था। वास्तव में चटर्जी के अनुसार भोटिया शब्द वह जातिगत नाम है। जिसे तिब्बत-चीन सीमा से लगे उप-हिमालयी क्षेत्र में रहने वाले मानव समूह के लिए प्रयोग किया गया। अगर देखा जाए तो कुमायूँ और गढ़वाल की भाषा और बोलियों, लोककथा, लोक साहित्य और इनकी परम्पराओं में कहीं भी भोट शब्द का प्रयोग नही मिलता है। यहाँ भोट शब्द का अर्थ तिब्बत तथा भोटियाँ का अर्थ तिब्बती से है। 11वीं सदी के तातारी अभिलेख में तिब्बत के लिए तू-पोते(Tu-po-te)आया है। जिसके अंतिम चरण का उच्चारण बोंदू होता है। इसी बोंदूपा शब्द से भोतूपाभोटियाँ शब्द तिब्बतवासियों के लिए ही प्रयुक्त हुआ है।

काली नदी की पश्चिमी उपत्यका में सोरवैली के उत्तर तथा सीरा के पूर्व में अस्कोट मण्डल है। राहुल सांकृत्यायन और डॉ. शिव प्रसाद डबराल ने इन जातियों के लिए भौगोलिक सीमा के अंतर्गत भोटान्तिक शब्द का प्रयोग किया। वहीं शेरिंग (1906) तथा एस.डी. पन्त (1935) ने तो स्पष्ट रूप से लिखा है, कि यदि कपकोट और अस्कोट के बीच एक रेखा खींच दी जाए, तो इस रेखा का उत्तरपूर्वी क्षेत्र भोट या भोटिया प्रदेश को निर्मित करता है और इस क्षेत्र में रहने वाले लोग को भोटिया कहा गया। इस क्षेत्र में दारमा, व्यास और चौंदास का उल्लेख प्राप्त हुआ है। जिसके अपने-अपने गढ़ी अर्थात किला या गढ़ थे जिस पर बुढेरों का अधिपत्य था। ये बुढेरा राजाओं द्वारा शौकाओं को दिया गया सामंत पदवी होता था। इन्होंने कत्यूरी नरेशों के शासनकाल में नाममात्र की अधीनता को स्वीकार किया होगा। काली कुमायूँ के सोर, सीरा, अस्कोट, कोटा और दानपुर मंडलों में अधिकाशत: खस गढ़पतियों का आधिपत्य था, उस समय ये रंड जनजाति शीतकाल में पठार की तरफ उतरते थे तब वो धर्मतप्ती कर दिया करते थे। इसलिए व्यावहारिक रूप से ये भोटिया के स्थान पर स्वंय को शौका रंडकहलाना अधिक पसंद करते हैं।

अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि रंड0 जनजाति आदिकाल से अपने आजीविका के लिये व्यापार किया करते थे जिसे रंड0 जनजाति के लोग अपनी भाषा में पण या लन-पन कहा करते हैं। इन पण-व्यापार के लिये एक स्थान से दूसरे स्थान में आने-जाने के कारण इन रंडजनजाति को भिन्न-भिन्न स्थानों के व्यापारिक मार्गो, उन स्थानों में रहने वाले लोगों की आवश्यकता के विषय में, अन्न, कृषि के पैदावार, विनिमय और विक्रय की पद्वति, वेशभूषा, संस्कृति, भाषा और भौगोलिक स्थिति के साथ दिशाओं नक्षत्रों, मौसमों, आपदा के साथ-साथ विषम मार्गों के विषय में सबसे अधिक जानकारी रहती थी। इसलिये पूर्व से रंडजनजाति को संस्कृति और समाज के व्यावहारिकता का प्रसार करने वाला और विषम मार्गों और पहाड़ों का ज्ञान रखने वाला समुदाय भी कहा गया है।

हयात सिंह फकलियाल ने अपनी पुस्तक रंड0 जनजाति में उल्लेख किया है कि धारचूला सीमांत क्षेत्र की जनजाति रंड0 है। वहीं श्री रतनसिंह रायपा ने शौका सीमावर्ती जनजाति में उल्लेख किया है कि रंड0 जनजाति शब्द का प्रयोग केवल धारचूला क्षेत्र के जनजातियों के लिए ही किया जाता है। डॉ. शेरसिंह पांगती ने मध्यहिमालय की भोटिया जनजाति-जोहार के शौकामें उल्लेख किया है कि, शाक्य लामा के प्रभाव में आने के बाद से ही आदिवासी शौका कहलाए एवं ये लोग भोटिया नहीं हैं। श्री जवाहर सिंह नबियाल के रचना रंमिर्रा के प्राक्कथन में उल्लेख किया है कि विश्व की जनजाति में रंड0 एक जाति है। जिसे सरकार द्वारा भोटिया नाम से जाना जाता है।

रायपा ने शौका सीमावर्ती जनजाति में लिखा है कि, शौका जनजाति भारत के मूल आदिवासी है। ये द्रविड़ों की शाखा एवं किन्नर, किरात नाग यक्षों की शाखा के वंशज हैं। बाद में इनसे खस, यवन, शक हुण जातियाँ आकर मिलीं और अपने शक्ति बल के आधार पर इनके बोली, भाषा, रहनसहन, संस्कार, संस्कृति, धार्मिक स्थिति पर असर डाला। यद्यपि वैदिक आर्यों की स्थाई संस्कृति के पश्चात भी इनमें विदेशी संस्कृति का प्रभाव कम रहा है। इस प्रकार शौका संस्कृति का यह क्षेत्र आदिकाल से ही विभिन्न जातियों के समागम, सम्पर्क और सम्मिश्रण की रंगस्थली रहा है। यह भी सत्य है कि निरंतर प्रवाहमान नदियों की उपत्यकाओं में जातियों के सम्मिश्रण से जिस लोकसंस्कृति का प्रादुर्भाव हुआ वह कत्यूरी, चन्द, डोटी और गोरखा राजाओं के उद्दभव और पराभव के बीच शताब्दियों से अपने व्यापारिक संपर्को को बनाए हुए अपनी विशिष्ट आस्थाओं, रीति- रीवाज, परम्पराओं को आज तक जीवित रखने में ये रंडजनजाति सफल हुई है। 

जब कुमायूँ में लक्ष्मणपाल देव कत्यूरी का शासन था उस समय1223 . में क्राचल्ल ने मानस भूमि पर आक्रमण कर डोडी जुम्ला में दैलेख को सामंत बनाकर अपनी अधीनता में उसे राज्य करने की स्वतंत्रता प्रदान की परन्तु लक्ष्मणपाल देव की मृत्यु के बाद डोडी जुम्ला के राजा ने उत्तर-पूर्वी पट्टी में स्थित व्यांस और चौंदास परगना पर अधिकार किया और कालान्तर में जुम्ला के राजा ने अपनी शक्ति बढ़ाकर डोडी के मार्ग से अर्थात व्यांस, दारमा, चौंदास के मार्गो पर आक्रमण किया। यह स्पष्ट है कि 1290 . तक मानस भूमि में डोडियों का आधिपत्य हो चुका था। वहीं व्यांस, दारमा, चौंदास अब स्वतंत्र क्षेत्र थे। 1223 . से 1553 . तक के अवधि में सोरवैली में लगभग 20 राजा हुए। जिसमें दारमा राज्य का उल्लेख मिलता है। चन्दवंशीय शासक लक्ष्मीचन्द ने 1597 . में जो राज्य स्थापित किया उसमें उच्च हिमालय के जोहार दारमा परगना पर अधिकार कर इन क्षेत्रों को चन्द राज्य में मिलाने का भी उल्लेख मिला। जिस कारण चन्दवंश के शासकों की सीमा तिब्बत से टकराने लगी इसलिए लक्ष्मीचन्द ने दारमा परगना की सीमा का निर्धारण कर तिब्बत से होने वाले व्यापार में संशोधन किया तथा तिब्बत के साथ होने वाले व्यापार के लिए कर भी लगाए। मुग़ल बादशाह अकबर, जहांगीर, शाहजहाँ, नूरजहाँ, दाराशिकोह आदि शासको ने किरात, कत्यूरी चन्द वंश के शासको से पुरस्कार के रूप में- गूंठ अर्थात भोटिया धोड़ा भेंटस्वरूप प्राप्त किया था। शौका/ रंड0 जनजाति व्यापारियों को तिब्बत में व्यापार करने के लिये अतिरिक्त कर भी देना पड़ता था।

जैसे - छांग ठल अर्थात व्यापार कर, रांग ठाल अर्थात व्यापार के लिये तिब्बत में प्रयुक्त की जाने वाले भूमि हेतु कर, लाठल अर्थात पशु जिनके द्वारा व्यापार किया जाता है उन पशुओं को चराने के लिये चारा कर, लुनठल अर्थात भेड़ों पर कर, या ठल अर्थात धूप कर आदि अनाज, गुड, कपडे और अन्य सामग्री के रूप में वसूला जाता था।

            अत: इससे स्पष्ट है कि व्यांस, दारमा, चौंदास के बुढेराओं का सम्बन्ध व्यापार राजस्व से था। यद्यपि यह स्पष्ट है कि शौका/ रंड0(रं) जनजाति का तिब्बत के साथ व्यापारिक सम्बन्ध बहुत पुराना है। क्योंकि कश्मीर से लेकर अरुणाचल प्रदेश तथा उच्च हिमालय में जोहार घाटी, व्यॉस घाटी, दारमा घाटी का तिब्बत के साथ व्यापार का उल्लेख महाभारत, हर्षचरित, कादम्बरी तथा वृहद संहिता, राहुल साकृत्यांयन और इतिहासकर टालमी, बद्रीदत्त पाण्डेय, शिव प्रसाद डबराल, स्वामी प्रणवानंद द्वारा प्राप्त होता है। तिब्बत के साथ शौकाओं के व्यापार का उल्लेख सम्राट हर्षवर्धन के शासन काल में भी मिलता है। प्राचीन समय से परम्परागत रूप से व्यापार-वाणिज्य में लगे रहने के कारण इस रंड0 जनजातियों को शौका या शउका अर्थात साहूकार भी कहा गया जिसका सम्बन्ध कुमायूँ के उच्च हिमालय में रहने वाले जनजातियों से लगाया गया है।

इतिहासकारों का मानना है कि इस क्षेत्र में व्यापार लगभग नौवीं शताब्दी के आसपास शुरू हुआ होगा। उस समय इस सीमांत क्षेत्रों के शासन की देख-रेख का कार्य कत्युरी शासकों ने बुढेरों अर्थात स्थानीय प्रमुख व्यक्तियों को सौपा था। 1670 . में चंद शासकों के शासनकाल में चंद शासक बाजबहादुर चंद ने व्यास घाटी के लीपूलेख तक के मार्ग पर अधिकार किया और कृषि के अभाव के कारण यहाँ के आवासरत रंड0 जनजातियों को पशुपालन व्यापार के लिये प्रोत्साहित किया था। 16 वीं शताब्दी के अंतिम भाग में कुमायूँ के राजाओं द्वारा भूमि एवं राजस्व सम्बन्धित विषय के विवरण तथा बहीखाता तैयार करने तथा निरीक्षण करने का कार्य दारमा, व्यांस, चौंदास के शौकाजन अर्थात बुढेरा या सामंत सरदार को सौंपा। इसमें कुमाऊँ के राजाओं ने दारमा, व्यांस, चौदास के शौकाओं को सम्मानित पद भी दिया था एवं दूसरी तरफ़ परम्परागत रूप से व्यापार कार्य और व्यापार वाणिज्य से सम्बंधित होने के कारण शौकाओं को साहूकार पणी भी कहा जाता था, जो वर्तमान समय तक शौका रंड0 जनजाति की विशिष्ट पहचान बनी हुई है। 1815 में जब अंग्रेजों ने कुमायूँ पर अधिकार किया तो अंग्रेज सेनापति आक्टर लौनी ने काली नदी के उत्तर पश्चमी क्षेत्र जहाँ रंड0 (शौका) जनजाति व्यापार किया करते थे उन्होंने भी इन व्यापारियों को व्यापार करने को प्रोत्साहित किया वहीं कुमायूँ में अंग्रेजी साम्राज्य की स्थापना से पहले 1776 . में जार्ज बोग्ले और 1814 . में विलियम मूर क्राप्ट ने तिब्बत व्यापार से कम्पनी सरकार को होने वाले आर्थिक लाभों से अवगत कराया।

शौका संस्कति वैदिक काल से भी पूर्व की आदिम मानव जाति की सर्व सम्पन्न संस्कृति रही है। आदिकाल से युगों-युगों तक और वर्तमान समय तक हिमालय की जलवायु, भौगोलिक परिस्थितियों के तांडव को सहकर भी अपनी संस्कृति और परम्परा को रंड0 जनजाति के समुदायों ने वर्तमान समय तक नहीं छोड़ा है। देखा जाए तो शौका/ रंड0 जनजाति समाज और संस्कृति एवं धार्मिक स्थिति अनेक परिस्थितियों से गुज़रते हैं साथ ही परिस्थितियों के अनुरूप उनकी संस्कृति, बोलीभाषा में समय-समय पर बदलाव हुऐ हैं। शौका लोक संस्कृति- लोक गीतों, लोक कथाओं, मुहावरों, किंवदन्तियों तथा पर्वत शिलाओं तथा पौराणिक गाथाओं में आज भी जीवित है। प्रकृति आत्मा के पूजक रंड0/ शौकाओं के जनजीवन में उनकी लोकगाथा, लोकगीत, भाषा, बोली, रहनसहन रीति-रिवाजों पर कृत्रिम समस्याओं ने बुरा प्रभाव अवश्य डाला है परंतु रंड0 जनजाति समुदाय ने अपनी परम्पराओं का मूल रूप वर्तमान समय तक गतिमान रखकर अपने संस्कृति का मूल्य महत्व को बनाये रखा है।

विद्वानों का मानना है कि, किरात जाति की एक उपशाखा रंड0 अर्थात शौका जाति रही होगी, क्योंकि प्राचीनकाल में पशुचारक भिल्ल-किरात जाति का प्रवेश पूर्व की ओर से लघु हिमालय की ढालों पर अरूणाचल, आसामकुमायूँ, नेपाल और कांगड़ा से लाहुल लद्दाख तक यह जाति फैले होने के कारण किरात उत्तराखंड के मूल निवासियों में एक माने गए थे। परंतु शौका रंड0 जनजाति खोजी तथा पर्यटक प्रवृत्ति के होने के कारण अपने व्यापारिक कार्यों को अपने पशुओं याक, झुब्पू, भेड़बकरीयों, घोड़ेखच्चर के साथ भारत में सभी ओर व्यापार करते फैलते गए। सिन्धु सभ्यता के क्षेत्र में सिन्धु सभ्यता के रहन-सहन सभ्यता के निर्माण में इन शौका (रंड0) जन का सहयोग माना जाता है और खस जाति से संघर्ष के कारण ये मध्य हिमालय और महाहिमालय के आदिवासी बने थे।

यूँ तो हिमालय में निवास करने वाली आदि मानव जाति के विषय में कोई स्पष्ट इतिहास उपलब्ध नहीं है। फिर भी यहाँ की भाषाबोली, सांस्कृतिक परम्पराओं, कथाकहानियों, मुहावरों, लोकोक्तियों, पौराणिक गाथाओं तथा रीतिरिवाजों के आधार पर बहुत कुछ जानकारी प्राप्त होती है। मध्य हिमालय के अंतर्गत रंड0 जनजातियों का क्षेत्र प्राचीन समय से कैलाश धाम का मुख्य द्वार जौलजीबी से लेकर धर्मद्वार दर (दरियालों का निवास स्थान) सीमा तक का क्षेत्र माना गया है। वहीं उच्च हिमालय में ये अलग-अलग परगना के रूप में है जैसे- दारमा परगना में 14 गाँव, जिसमें दो गाँव तल्ला दारमा परगना में धौली नदी के तट पर बसे हैं, जिसका मुख्य धरम द्वार दर से प्रारम्भ होता है- दर, बौंग्लिंड, स्वाला (जिसे आधुनिक समय में सेला गाँव कहा जाता है और यहाँ के निवासियों को सेलाल पुकारा जाता है) चल, नागलिंड, दुगतू, सोन, दांतू, बौन, फिलम, ग्वो, तिदांड., माराछा, सीपू, आदि कोतिलीन दारमाकहकर पुकारा जाता है। वहीं दूसरी तरफ काली नदी के तट पर व्यांस वैली स्थित है, जिसेज्युड़ व्यंखोकहा जाता है, कुटीगॉव से लगी हुई कुटी यंग्ति (नदी) आगे चलकर काला पानी से आने वाली ज्युड़ यंग्ति नदी के साथ मिलकर काली नदी के रूप में बहती है, जिसके तट पर रोकांड., नाबी, गुंजी, नपलच्यु, गर्व्यांग, बूदी गाँव बसे हैं जो एक उच्च हिमालयी क्षेत्र है। रंड0 क्षेत्र के व्यांस वैली में नेपाल के छांगरु और तिन्कर के रीति-रिवाज एवं सामाजिक परम्पराएँ व्यांस वैली के समान हैं।

 

तालिका 1 (दारमा घाटी)

परगना

उच्च हिमालय आवास

मध्य हिमालय आवास

वर्तमान उपजाति

दारमा

धरम द्वार दर

दर

दरियाल

धौली नदी के  तट पर स्थित

स्वाला (सेला)

छारछुम

सेलाल

 

चल

नया बस्ती

चलाल (स्यालाल)

 

नागलिड.

गलाती

नगन्याल

 

बालिंड.

गलाती

बनग्याल

 

दुग्तू

निगालपानी,  गोठी

दुग्ताल

 

सोन

निगालपानी

सोनाल

 

दांतू

जौलजीबी

दताल

 

बौन

गोठी

बौनाल

 

फिलम

तल्ला  छारछुम

फिरमाल

 

ग्वो

बलुवाकोट

ग्वाल

 

ढाकर

बलुवाकोट ,गाटीबगड़

ढकरियाल

 

तिदांग

कालिका

तितियाल

 

मारछा

नयाबस्ती, कालिका

मार्छाल

 

सीपू

नया बस्ती

सीपाल

 

दारमा परगना में दर और बुंलिन के लोग स्थायी रूप से 12 माह इसी क्षेत्र में निवास करते हैं शेष जाति अन्य स्थल पर तालिका-1 के अनुसार शीत आवास एवं ग्रीष्म आवास में निवास करते हैं।

 

तालिका - 2 (व्यांस  घाटी)

व्यांस वैली

उच्च हिमालय आवास

मध्यहिमालय आवास

वर्तमान  उपजाति

कुटी यंती

कुटी

धारचूला

कुटियाल

काली  नदी

रोंकंड.

धारचूला

रौन्कली

 

नाबी

धारचूला

नबियाल

 

गुंजी

धारचूला

गुंज्याल

 

नपलच्यू

धारचूला

नपलच्याल

 

गर्व्यांग

धारचूला

गर्व्याल

 

बूदी

धारचूला

बुदियाल

 

 

चौंदास वैली के रंड0 जनजाति के लोग भी स्थायी रूप से चौंदास वैली में ही रहा करते हैं। इसके अतिरिक्त रंड0. जनजातियों के शीतकालीन आवास और ग्रीष्म कालीन आवास दोनों पाए जाते हैं।

 

सन्दर्भ :

  1. डबराल, डॉ. शिवप्रसाद, उत्तराखण्ड का राजनैतिक एवं सांस्कृतिक इतिहास भाग 1, पृ० सं०1014
  2. बिष्ट, वी, एस, उत्तरांचल ग्रामीण समुदाय; पिछड़ी जाति एवं जनजाति परिदृश्य, पृ० सं०113
  3. जोशी, डॉ. अवनींद्रकुमार, भोटान्तिक जनजाति
  4. Wallton. H.G.District gazette of the united provinces vol xxxv Almoraparkashan, p- 97
  5. स्वामी प्रवणानंद ,साभार 1943 मेंप्रकाशित कैलाश मानसरोवर,
  6. अमटीकरस्मारिका, 2008,
  7. डबराल, डॉ. शिव प्रसाद, उत्तराखण्ड के भोटान्तिक पृ० सं० 22 & 113 
  8. नावियाल, जवाहर सिंह, रंड0 मिर्रा
  9. रायपा, रतनसिंह, शौका सीमावर्ती जनजाति
  10.  पंत, जगदीश चंद्र, हिमालय की प्राचीन अर्थव्यवस्था में भोटांन्तिक की भूमिका
  11.  वैष्णव, यमुनादत्त, अशोक, कुमायूँ का इतिहास,  पृ० सं० 63, 65 &71
  12.  डॉ. जोशी, महेश्वर प्रसाद, उत्तराखंड की भोटिया जनजाति एक परम्परा का आविष्कार
  13.  रावत, डॉ अजय सिंह, उत्तराखण्ड का समग्र राजनैतिक इतिहास, अंकित प्रकाशन हल्द्वानी नैनीताल, पेज-165 & 208
  14.  थपलियाल, प्रकाश, हिमालयन गजेटियर, ग्रन्थ-दो, भाग-दो, उत्तराखण्ड प्रकाशन हिमालय संचेतना संस्थान चमोली, पेज-293-294
  15.  थपलियाल, प्रकाश, हिमालयन गजेटियर, ग्रन्थ-तीन, भाग-एक, उत्तराखण्ड प्रकाशन हिमालय संचेतना संस्थान चमोली, पेज- 89-94
  16.  रावत, जय सिंह, उत्तराखण्ड: जनजातियों का इतिहास, विनसर पब्लिकेशन, पृ-39-79
  17.  चौहान,विद्या सिंह, श्रीमती राय, भारत की जनजातियॉ उत्तराखण्ड के विशेष संदर्भ में, ट्रांसमीडिया प्रकाशन श्रीनगर, पृ-11&171-172.

 

महिपाल सिंह कुटियाल
असिस्टेंट प्रोफेसर, इतिहास, राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय बेरीनाग, पिथौरागढ
mahipalkutiyal@gmail.com, 9389341869
 
डॉ. प्रेमलता काण्डपाल पंत
प्रोफेसर इतिहास, एल. एस. एम. राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, पिथौरागढ


अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
अंक-49, अक्टूबर-दिसम्बर, 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : डॉ. माणिक व डॉ. जितेन्द्र यादव चित्रांकन : शहनाज़ मंसूरी

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