महाकवि विद्यापति की रचना में नारीवादी दृष्टिकोण : एक समाजशास्त्रीय विवेचना / अम्बेदकर कुमार साहु

महाकवि विद्यापति की रचना में नारीवादी दृष्टिकोण : एक समाजशास्त्रीय विवेचना

- अम्बेदकर कुमार साहु


शोध सार : प्रस्तुत शोध आलेख में मैथिली कवि विद्यापति की रचना को नारीवादी परिप्रेक्ष्य से विश्लेषित किया गया है। भारत की विचारधारा में शामिल तुलसीदास, नामदेव, कबीर, संत तुकाराम जैसे विद्वानों की श्रेणी में कविवर विद्यापति को भी देखा जा सकता है। वस्तुतः शास्त्रीय ग्रंथों में नारीवाद का स्वरूप विविधता से युक्त रहा है। अतिवादिता के दौर में नारी को दैविक शक्ति माना गया है तो दूसरी ओर नारी को मोक्ष मार्ग में अड़चन के रूप में प्रस्तुत किया गया है। इस स्थिति में कविवर विद्यापति ने महिलाओं की सामाजिक दशा का यथावत चित्रण मैथिली साहित्य में किया है। विद्यापति अपनी लेखनी में रेडिकल नारीवादी विचारक है जिन्होंने महिलाओं की शोषण हेतु पितृसत्तात्मक व्यवस्था को दोषपूर्ण माना है। साहित्य के रीतिकाल में कवि द्वारा रचित वीरभोग्यावसुन्धरा उक्ति नारी की स्वतंत्रता के संदर्भ में है। इस काल में प्रभुत्व वर्ग के लिए नारी मात्र काम तृप्ति की वस्तु होती थी। यद्यपि कवि विद्यापति ने अपनी लेखनी के माध्यम से सामाजिक एकता सौहार्दपूर्ण जीवन को स्थापित किया है। बाल विवाह, सती प्रथा, सामाजिक संस्तरण जाति-व्यवस्था जैसी घोर विषमताओं से ओतप्रोत समाज के बीच कवि विद्यापति ने धर्मनिरपेक्ष लेखनी को स्वीकार किया है। मैथिल कोकिल से विख्यात कवि विद्यापति परंपरा के रूप में मैथिली भाषा को जीवंत रखना चाहते थे। उत्तर-आधुनिकता के पैदान पर मिथिलांचल में आयोजित होने वाली सांस्कृतिक एवं धार्मिक अनुष्ठान से संबंधित कार्यक्रम की आगाज कवि रचित गोसाउनिक गीत से होना विद्यापति की रचना को प्रासंगिकता प्रदान करती है। परंपरागत गतिशीलता में आज भी कवि विद्यापति की रचना जाति-धर्म से दूर हटकर समाज को जोड़ने पर बल देती है। वास्तव में विद्यापति की रचना संग्रह मिथिला का समाजशास्त्र है जिसमें महिला सशक्तिकरण से लेकर मिथिला का संम्पूर्ण दर्शन स्थापित है।

बीज शब्द : नारीवादी, उत्तर-आधुनिकता, सांस्कृतिक, श्रृंगार, प्रेम, द्वेष, असमानता, जाति, विषमता, सौहार्दपूर्ण, पितृसत्ता।

मूल आलेख : नारी शब्द समाज निर्मित है, जबकि नारीवाद लैंगिक असमानता के विरूद्ध स्थापित एक विचारधारा है। यह विचार पुरुष प्रधानता से इतर महिला समानता की वकालत करती है। भारत में नारीवाद की प्रथम लहर को भक्ति आन्दोलन के साथ संबंध स्थापित किया जाता है। भक्ति आंदोलन की शुरुआत सर्वप्रथम दक्षिण भारत के अलवार तथा नयनार संतों द्वारा मध्यकाल में की गई। उत्तर भारत में भक्ति आंदोलन की नींव स्वामी जगतगुरु श्री रामानन्दाचार्य जी ने रखी थी। इस आंदोलन में चैतन्य महाप्रभु, नामदेव, तुकाराम, जयदेव की श्रेणी में कविवर विद्यापति भी शामिल है।

नव जयदेव से चर्चित विद्यापति ठाकुर मिथिला के प्रतिष्ठित दरबारी मैथिली ब्राह्मण कवि थे। विद्यापति प्रेम-प्रसंग युक्त रचना भूपरिक्रमा एवं प्रेम कविताओं का संग्रह के लिए विशेष रूप से जाने जाते है। विद्यापति, कबीर के समकालीन थे लेकिन प्रकार्यात्मक लेखनी की वजह से वे कबीर की तरह आलोचित नहीं हुए। हालाँकि विद्यापति अपनी रचना में कवि और समाजशास्त्री दोनों है। वे प्रथम मैथिली लेखक है जिन्होंने लघु परंपरा के रूप में नारीवादी परिप्रेक्ष्य को अपनी कविता में जगह दी है। डब्ल्यूजी आर्चर ने कवि जयदेव और विद्यापति की रचना में अंतर स्पष्ट किया है। वे कहते है, ‘’जयदेव की शैली दृष्टिकोण मर्दाना है जबकि विद्यापति राधा की स्त्री भावनाओं को कृष्ण के मुकाबले शूक्ष्म दृष्टिकोण से देखते है। इसके अलावा दोनों की मौसम प्रेम की प्रस्तुति भी भिन्न है।"(1)

साहित्य को समाज का दर्पण कहा जाता है। यह समाज की संरचना व्यक्तिक संबंध, जातीय संघर्ष, शैक्षणिक एवं व्यवसायिक स्थिति, समाज में दमित जातियों के साथ भेदभाव और स्त्रीयों की शोषण से संबंधित तमाम पहलूओं का छवि प्रस्तुत करती है। वस्तुत: साहित्य के निर्धारण में सामाजिक, आर्थिक राजनीतिक दशाएं महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। कवि विद्यापति ठाकुर का संबंध उत्तर वैदिक काल से है जिसे नारी जाति के लिए काला युग से संबोधित किया गया है। इस समय विदेशी आक्रांताओं के कारण चारों तरफ दहशत का माहौल बना रहा। इसके अलावा तत्कालीन समाज में जाति-व्यवस्था उन्नति की ओर अग्रसर था, जाति-व्यवस्था के अंतर्गत महिलाओं के लिए विशेष मूल्य एवं प्रतिमान बनाए गए। नारी को विभिन्न अधिकारों यथा शिक्षा, स्वतंत्रता, धार्मिक अनुष्ठान आदि से वंचित किया गया। मनु के द्वारा ‘’नारी को बचपन में पिता के अधीन, युवावस्था में पति के सानिध्य और वृद्धावस्था में पुत्र का संरक्षण प्रदान किया गया।" (2) नारी अब घर की चार दिवारी में भोग्या बनकर रह गई। यह वही समय था जब नारी दासी थी। स्त्री जानवर की तरह जीवन व्यतीत कर रही थी। सामंतवादी शक्ति का प्रहार नारी जगत के विरुद्ध किया गया। समाज में स्थापित सामंती भोग-विलास की मनोदशा ने वेश्या बाजार का निर्माण किया। इस समय विद्यापति की रचना उत्कर्ष पर था। वेश्या बाजार के संदर्भ में कवि अपनी रचना कीर्तिलता में लिखते है...

 

"उँगर आनक तिलक आनकाँ लाग यात्राहू तह परस्त्रीक बलया भाँग।।

ब्राह्मणक यज्ञोपवित चाण्डाल ह्दय लूल वेश्यान्हि करो पयोधर जटीक ह्दय चूर।।" (3)

 

अर्थात- उक्त बाजार में साधु भी चक्कर काटते होगें, इससे विदित होता है कि वेश्या के आकर्षण से साधु भी मुक्त नहीं थे। पुष्पदंत की रचना णायकुमारचरित' से भी पता चलता है कि आज से लगभग दस सौ साल पहले महिलाएं सिर्फ मनोरंजन की यंत्र होती थी। वे कभी राज दरबार में अप्सराओं की भूमिका निभाति थी तो कभी कुटुंब की रात्री सहवास पर इन्द्रिय सुख की भेंट स्वरूप अपना जिस्म न्योछावर करती थी। पुष्पदंत नारी की दशा बताते है...

‘‘वेश्यावाटहि झट्ट पइट्ठेउ मकरकेतु-पुरवेषहि देखउ

कोई वेश्य चितै गति शून्या एक थनरात हूँ नखौर नवि भिन्न

कोई वेश्य चितै का बाढ़िय नीलालक एतहिन काढ़िय ‘’ (4)

कविवर विद्यापति द्वारा साहित्य में पहली बार मैथिली भाषा का प्रयोग किया गया है। उनकी प्रमुख रचनाएं- कीर्तिलता, कीर्तिपताका, पुरुषपरीक्षा, लिखनावली तथा पदावली है जिसमें उन्होंने राधा-कृष्ण एवं शिव-पार्वती की प्रेम प्रसंग के अतिरिक्त दुर्गा एवं गंगा की स्तुति की है। वे मुख्यतः शृंगार रस के कवि थे जिसमें उन्होने प्रतिकात्मक अंतः क्रियावाद परिप्रेक्ष्य से सामाजिक वास्तविकता को अपनी लेखनी में पिरोया है। विद्यापति की रचना संग्रह 'मिथिला का समाजशास्त्र की तरह है जिसमें मिथिला का सम्पूर्ण दर्शन स्थापित है। चूंकि वे मिथिला की संस्कृति, इतिहास, शिल्पकला, पेटिंग आदि को अपनी कविता के जरिए संरक्षित रखना चाहते थे। कवि ने कई सामाजिक मुद्दें पर अपनी कविता लिखी है, परंतु नारीवादी दृष्टि उनकी आत्मा है। समाज में बाल-विवाह, बेमेल विवाह आदि प्रचलित सामाजिक कुरीतियों पर जमकर प्रहार करते है। कवि लिखते है कि पति मेरा नाबालिग प्राप्त हुआ है। हे विधाता तपस्या में किस गलती के कारण मुझे नारी के रुप में जन्म लेना पड़ा।

‘‘पीया मोर बालक हम तरुणी कौन तप चुकलाँह भेलौह जननि ।।‘’ (5)

इस तरह कवि विद्यापति ने 15वीं शदी में सामाजिक समस्या को कविता के माध्यम से प्रस्तुत करते है जिसे बाद में तुलसीदासजी लिखते है

‘’कत विधि सृज नारि जग माहीं पराधीन सपनेहु सुख नाहीं।।‘’ (6)

प्रस्तुत चौपाई में नारी जाति की विडंबना व्याप्त है जिसमें पार्वती की माँ मैना कहती है, विधाता ने स्त्री जाति को क्यों पैदा किया। स्त्री पराधीन होती है और पराधीन स्त्री को सपने में भी सुख की प्राप्ति नहीं होती है।

भारतीय संस्कृति में कहा गया है यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता अर्थात जहाँ नारी की पूजा की जाती है, वहाँ देवताओं का निवास होता है। परंतु नारी के लिए यह कहावत झूठी चेतना के समान है जो कि विद्यापति की लेखनी में देखने को मिलती है। बहुधा कवि की रचनात्मक शैली प्रेम की विविधता से मौजूद है जिसमें विविध कोटि की प्रेम युक्त नारी के चित्र में उपस्थित किया गया है। कुछ प्रेम इस कोटि के है जिसमें प्रेमिका, प्रेमी के समक्ष अपनी अस्तित्व भूल जाती है। कवि दो प्रेमी हृदय को व्यक्त करते है...

‘’साजनि माधव देखा आज महिमा छाड़ी पलाएल लाज।

नीवी ससरि भूमि पनि गेलि देह नुकाबिला देहक सेरि।" (7)

उपर्युक्त बंदिश छनछीराग में पिरोया गया है। इस बंदिश में भी नायिका अपने प्रेमी के प्रति समर्पित है। प्रेमी के सामने नायिका लज्जा विहीन हो जाती है। कवि ने दूसरे गीत में एक ऐसी नारी की भी बात की है जो नायक से प्रेम करने में घबराती है। नायिका को प्रेम करने का संकेत दिया जाता है, परंतु नायिका अपनी सामाजिक एवं पारिवारिक परंपराओं से घिरी होने के कारण अपने प्रेमी का नाम तक लेने का साहस नहीं कर पा रही है। वे लज्जा से ओतप्रोत है। नायिका को प्रेम विपाशा में लाने की चेष्टा की जा रही है, लेकिन वह अपने समाज से भयभीत है। कवि कविता के माध्यम से बताते है कि तत्कालीन समाज में नारी को प्रेम करने की भी स्वतंत्रता नहीं थी। वे लिखते है...

‘’एरे नागरि मन देएसुन   जे रस जान तकर बढ़ गुण ।।‘’ (8)

विद्यापति की रचना में मानवीयता भी है और मानव की खोज का अदभुत प्रयास भी है। उन्होंने साहित्य के साथ-साथ समाज की वास्तविकता को भी प्रदर्शित किया है। कवि विद्यापति ने अपने युग की आहट और वेदना को वाणी प्रदान किया है। नारी की पीड़ा ने कवि के हृदय को तार-तार कर दिया है। कवि ने दरबार में सामंती परिवेश को जिया है, वहीं राजमहलों की उद्दाम यौवन को भी करीब से देखा है। आज से लगभग सात सौ वर्ष पूर्व कवि विद्यापति के साहित्य में महिला तस्करी का रूप देखा जा सकता है। उनकी मलारी राग रचनाओं से पता चलता है कि प्रेम-व्यापार भारत में पहले से मौजूद था जिसमें बिचौलिए का प्रमुख हाथ होता था। इसके अलावा प्रेम विवाह, प्रेमी-प्रेमिकाओं का मिलन जिसे आजकल लव मैरिज, बॉय फ्रेंड और गर्लफ्रेंड की संस्कृति से संबोधित किया जाता है की प्रथा कुछ खास सामंत तक ही मौजूद थी। वही बहुपत्नी प्रथा का भी चलन देखने को मिलता है। उनकी रचना में कुलवधु काम तृप्ति के साधन है। युग ने नारी की स्थिति को दमित बना दिया है। श्रंगार पद में कवि लिखते है...

‘’प्रथमहि ह्रदय बुझओलह मोहि बड़े पुने बड़े तपे पौलिसि तोहि।

काम कला-रस दैव अधीन  मञ बिकाएब तञे बचनहु कीन।

दूती दयावति कहहि विशेषे पुनु बेरा एक कैसे होएत देषि।

दुर दूरे देषलि जाइते आज मन छल मदने साहि देब काज।

ताहि लए गेल विधाता बाम। पलटलि डीठि सून भेल ठाम।‘’ (9)

एक तरफ उनकी श्रृंगार रस में आधुनिकता का लक्षण दिखाई देती है तो दूसरी तरफ भक्ति परंपरा की रचना में अध्यात्मवाद का पाठ समाहित है। कवि की रचना में खुलापन है ऐसा लगता है उत्तर-आधुनिकता को सबसे पहले विद्यापति ने ही देखा था। उनकी कविता में महिलाओं का अंग वर्णन प्रत्यक्षवाद पद्धति पर आधारित है।  

‘’ससन-परस रबसु अस्बर रे देखल धनि देह नव जलधर तर चमकय रे जनि बिजुरी रेह।

आजु देखलि धनि जाइत रे मोहि उपजल रंग कनकलता जनि संचर रे महि निर अवलम्ब। ता पुन अपरूब देखल रे कुच-जुग अरविन्द विकसित नहि किछुकारन रे सोझा मुख चन्द। विद्यापति कवि गाओल रे एस बुझ रसमन्त देवसिंह नृप नागर रे हासिनि देह कन्त।‘’ (10)

अर्थात हवा के स्पर्श से नायिका के शरीर से वस्त्र गिर जाने के कारण उनकी देह को देख पा रहा हूँ। एक ऐसा परिदृश्य है मानो बादल से बिजली चमक रही हो, आज जाते हुए नायिका को देखकर मेरे अंदर अनुराग उमड़ रहा है। उन्हें देखकर मैं महसूस कर रहा हूँ जैसे कोई कनकलता भ्रमण कर रही है। अचानक उस कनकलता में रतन-युगल रूपी कमल देखा, परंतु वह खिला हुआ नहीं था। कमल नहीं खीलने का कारण सामने मुख चाँद का होना था। विद्यापति कहते है, इसका रस मर्म कोई रसिक ही समझ सकता है। विद्यापति की बहुत कम ऐसी रचना है जिसमें पुरुषों को नारी के समक्ष याचक के रूप में देखा गया है। एक संबंधित काव्य में कवि उल्लेख किया है...

‘’मानिनि जब उचित नहि मान एखनुक रंग एहन सन लागय जागल पर पंचवान।

जूडि रयनि चकमक करन चाँदनी एहन समय नहि आन एहि अवसर पिय मिलन जेहन सुख जकाहि होय से जान।

रभसि रभसि अलि बिलसि-बिलसि कलि करय मधुपान। अपन-अपन पहु सबहु जेमाओल भूखल तुऊ जजमान।

त्रिबलि तरंग सितासित संगम उरज सम्मु निरमान आरति पति मंगइछ परति ग्रह करु पनि सरबस दान।

दीप-बाति सम भिर रहम मन दिढ करू अपन गेयान संचित मदन बेदन अति दारून विद्यापति कवि भान।‘’ (11)

अर्थात एक प्रेमी अपनी नायिका (प्रेमिका) से कहती है, हे प्रियतम इस तरह तुम्हारा रूठ जाना उचित नहीं है। अब छोड़ो इन बातों को देखो, आज ऐसा प्रतीत हो रहा है जैसे कामदेव जग चुके हो। रात्री कितनी आकर्षक है। चारों तरफ स्पष्ट दिखाई दे रही है। इससे अच्छा और भला क्या हो सकता है प्रियतम। इस रीति क्षण में अपनी प्रेमिका से मिलने का जो सुख मिलता है उसका अनुभव वही कर सकता है जिसने ऐसे पल को जिया है देखो भँवर भी रसपान कर अपने-अपने प्रियतम की भूख मिटा चुके है, केवल तुम्हारा प्रियतम ही अभी तक भूखा है। तुम्हारे नाभि में लहर तरंगित है और संगम स्थित दोनों स्तन शिव शम्भु के समान दिख रहा है। इस अवसर पर खड़े होकर तुम्हारा प्रियतम याचक के मुद्रा में कुछ माँग रहा है। हे नायिका, अपने मन को दृढ़ करो और इस पल में सबकुछ दान कर दो। चंचल मन तो हमेशा थरथराहट होती रहेगी।

कवि की धार्मिक रचना भारतवर्ष में अंतर्निहित गरीबी को प्रदर्शित करती है। विद्यापति की धार्मिक लोकप्रियता की वजह समाज में व्याप्त दरिद्रता भूखमरी है। लोग उनकी रचना से भावनात्मक संबंध स्थापित करते है ताकि सुखद जीवन की प्राप्ति हो सके। कवि ने स्पष्ट किया है

कखन हरब दुख मोर हे भोलानाथ।

दुखहि जनम भेल दुखहि गमाएब।

सुख सपनहु नहिं भेल। (12)

विचारों के आधार पर कवि विद्यापति के दो रूप है। एक रसिक साहित्यकार युवा विद्यापति है जिनके मस्तिष्क में यौवन का प्रेम दिखता है। अतः युवा विद्यापति ही वास्तव में नारीवाद के समर्थक है। कवि का दूसरा रूप परिपक्व अथवा प्रौढ़ विद्यापति का है। प्रौढ़ विद्यापति धार्मिक, समाजशास्त्री तथा पर्यावरणविद है। यह संस्कृति संरक्षण के पक्षधर है। वे अब कला को समाज के साथ संबंध स्थापित करते है। जैसाकि समाजशास्त्री राधाकमल मुकर्जी कहते है, "एशिया में कला सामाजिक और अध्यात्मिक जागरण का प्रतीक रही है।" (13) विद्यापति ठाकुर विदेशी मुस्लिम आक्रांताओं को देखते हुए बतौर समाजशास्त्री धार्मिक रचनाओं से सामाजिक एकजुटता का काम किया है। उनकी प्रकार्यात्मक शैली इमाईल दुर्खीम के धार्मिक सिद्धांत को प्रासंगिकता प्रदान करती है जिसमें उन्होंने कहा था, ‘’धार्मिक प्रतिनिधित्व सामूहिक प्रतिनिधित्व है, जो कि सामूहिक वास्तविकताओं को व्यक्त करता है।"(14)

कवि विद्यापति की रचनात्मक मूल्यांकन से भारतीय समाज में नारी की दशा और दिशा का पता चलता है। हालांकि विद्यापति धार्मिक प्रसंग के लिए भी विशेष रूप से जाने जाते है। उनकी गंगा स्तुति पर्यावरण संरक्षण पर आधारित है, अर्थात स्वच्छ भारत मिशन की पहल कवि ने 15वीं शदी में ही की थी जिसका प्रभाव आज देखने में मिलता है। कवि की श्रंगार रस में नारीवाद की पुष्टि तुलसीदास, कबीर, संत तुकाराम, पेरियार, ज्योतिबा फूले, सावित्रीबाई, बाबा साहब आम्बेडकर जैसे विद्वानों की विचारधारा से भी होती है। अत: भारतीय संदर्भ में कविवर विद्यापति की तुलना पाश्चात्य नारीवादी विचारक रूसो एवं मैरी वुलस्टोनक्राफ्ट से किया जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।

विद्यापति एक महान विद्वान कवि थे। उनकी लेखनी भारत विद्याशास्त्र की तरह है जिसमें भारत की नारी स्थिति का स्पष्ट चित्रांकन प्रस्तुत है। परंतु कवि ने अपनी रचना में एक पक्षीय नारीवादी दृष्टिकोण को आत्मसात किया है। वे हमेशा दमित एवं निम्न जातियों की स्त्री को प्रेम प्रसंगयुक्त भोग्या के रूप में उल्लेख किया है। कवि ये नहीं बताया है कि समाज में उच्च जाति यथा ब्राह्मण स्त्री की दशा कैसी थी। चूंकि वे स्वयं ब्राह्मण थे, अतः पूर्वाग्रह उनकी लेखनी में झलकता है। शायद इन्हीं कारणों से कवि विद्यापति आलोचित हुए है। डॉ. उमेश मिश्रा के अनुसार कुछ लोग इस मैथली कवि को देवता इसलिए मानते है क्योंकि उन्होंने कविता के शब्द और संगीत को प्रभुत्व वर्ग की संस्कृति करार दिया है, साथ ही अपनी कविता को हिन्दू धर्म के साथ जोड़ने का प्रयास किया है। इसी तरह डॉ. ग्रियर्सन पहले विद्वान थे जिन्होने कवि की मन चरित्र साहित्यकार सहयोग को पहचाना है। डॉ. ग्रियर्सन लिखते है, "विद्यापति हमेशा अपने संरक्षक के कहने पर लिखता था। फिर भी कवि का रचनात्मक मस्तिष्क हमेशा हिन्दुओं में व्यस्त रहता था। वे मुस्लिम आक्रमणों के बाद हिन्दूओं को पवित्र अनुष्ठानों और भक्ति के तौर तरीकों से समर्थन प्रदान किया।(15)

यह ठीक है कि विद्यापति की रचना में कुछ त्रुटि रह गई है। इसका मतलब यह कतई स्वीकार नहीं किया जा सकता कि कविवर विद्यापति की रचना आज के युग में अप्रासंगिक है, क्योंकि दुनिया में कोई भी शास्त्र या विचारक के विचार त्रुटिरहित हो ऐसा नहीं है। बावजूद इसके विद्यापति की रचना को अभी तक वह ख्याति प्राप्त नहीं हुआ है जिसके वे हकदार थे।

निष्कर्ष :

कवि युग पुरूष होते है। विद्यापति की लेखनी तत्कालीन समाज की देन है। अत: कवि का काव्य ग्रामीण संरचना की तस्वीर प्रस्तुत करती है। उनका शृंगार रस नारीवाद की संकल्पना पर आधारित है। वास्तव में नारीवाद के समर्थक युवा विद्यापति है जिन्होंने नारी की जनजीवन को उजागर किया है। उनका काव्य लोक परंपरा से ओतप्रोत है। गरीबी, बेरोजगारी, बाल विवाह, वेश्यावृत्ति, जाति-व्यवस्था, मानव तस्करी आदि भारतवर्ष में विद्यमान सामाजिक समस्या को विद्यापति के काव्य में देखा जा सकता है। विद्यापति एक जागरूक कवि थे। उन्होंने समाज में जो कुछ भी देखा यथावत चित्रण किया है। कवि की रचना में धार्मिकता का पाठ और सांस्कृतिक पुनरुत्पादन की प्रक्रिया भी समाहित है। बतौर कवि उन्होंने नारी अन्याय को जिया है। वैश्विकरण एवं उत्तर-आधुनिकता के बावजूद कवि की रचनात्मक शैली वर्तमान सामाजिक परिदृश्य को समझने में सहायक सिद्ध होता है। विद्यापति की 'वीरभोग्यावसुन्धरा' उक्ति नारीवाद के चतुर्थ लहर #मिटू को समर्थन प्रदान करती है।  

सन्दर्भ :
1. britannica. (n.d.), britannico, Retrieved from Britannica:
https://www.britannica.com/biography/Vidyapati-Indian-writer-and-poet
2. . जे० पी० सिंह : आधुनिक भारत में सामाजिक परिवर्तन : 21वीं सदी में भारत, PHI Learning Private Limited, New Delhi, 2019, पृ. 276
3. नारायण कुमार : हिन्दी गीतकाव्य और विद्यापति, जानकी प्रकाशन, पटना, 1990, पृ. 175 - 176
4. वही, पृ. 179-180
5. अमर नाथ झा : विद्यापति गीत रत्नाकर, विश्व मैथिलीयम् प्रकाशन, कोलकाता, 2008, पृ. 286
6. Bharatkosh.(n.d.) : कत बिधि सृजीं नारि जग माहीं Retrieved from Bharatkosh:
https://bharatdiscovery.org/india/%E0%A4%95%E0%A4%A4_%E0%A4%AC%E0%A4%BF%E0%A4%A7%E0%A4%BF_%E0%A4%B8%E0%A5%83%E0%A4%9C%E0%A5%80%E0%A4%82_%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%BF_%E0%A4%9C%E0%A4%97_%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B9%E0%A5%80%E0%A4%82
7. वही, पृ. 22
8. वही, पृ. 131
9. वही, पृ. 178
10. पूनम मिश्र (n.d.) : विद्यापति गीत, Retrieved from Indira Ghandi National Centre for the Arts: http://ignca.nic.in/coilnet/vp021.htm
11. Wordpress.com : विद्यापति गीत, विदेह, प्रथम मैथिली पाक्षिक पत्रिका, 2009
12.हिन्दवी (n.d.) : कखन हरब दुख मोर हे भोलानाथ, Retrieved from hindwi: https://www.hindwi.org/pad/kakhan-harab-dukh-mor-he-bholanath-vidyapati-pad
13. बी. के.नागला : भारतीय समाजशास्त्रीय चिंतन, रावत प्रकाशन, नई दिल्ली, 2010, पृ. 59
14. जे० पी० सिंह : समाजशास्त्र : अवधारणाएँ एवं सिद्धांत, Learning Private Limited, New Delhi, 2019, पृ. 458
15. L. P. Misra : A Critical Note on Vidyapati, JSTOR, 1966, 126 -138.

 

अम्बेदकर कुमार साहु
शोधार्थी, विश्वविद्यालय समाजशास्त्र विभाग, ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय, दरभंगा।
aksahu1414@gmail.com  MOB:-7296015554 

 अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
अंक-49, अक्टूबर-दिसम्बर, 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : डॉ. माणिक व डॉ. जितेन्द्र यादव चित्रांकन : शहनाज़ मंसूरी

1 टिप्पणियाँ

  1. विद्यापति के साहित्य में तत्कालीन समाज में स्त्रियों की स्थिति पर अच्छा शोध आलेख है। बधाई।

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