शोध आलेख : इतिहास, आलोचना और साहित्यिक सृजनात्मकता / डॉ. संगीता कुमारी

इतिहास, आलोचना और साहित्यिक सृजनात्मकता
- डॉ. संगीता कुमारी

 

शोध सार : कोई भी साहित्यिक कृति अपने युग की संवेदनाओं को किस प्रकार प्रकट करती है? साहित्य की प्रासंगिकता क्या उसकी सामाजिक उपादेयता है या समाजशास्त्रीय ढांचे में बंध कर वह समाज का लेखा-जोखा प्रस्तुत करने वाली उपकरण है या महज मनोरंजन और आनंद प्रदान करने वाली विधा। ऐसे में साहित्य की सर्जनात्मकता का निर्धारण कैसे हो, इसे जाँचने के लिए हम कहीं-न-कहीं इतिहास और आलोचना पर निर्भर होते हैं। आधुनिक काल में आलोचना की जरूरत तब और बढ़ जाती है जब साहित्य सिर्फ अपने समय की ऐतिहासिक, सामाजिक, राजनीतिक या नैतिक तथ्यों को प्रस्तुत करने के साथ-साथ अस्मिता की तलाश से जुड़ जाती है। इन प्रश्नों के आलोक में यह आलेख साहित्यिक सृजनात्मकता के साथ आलोचना और इतिहास की जरूरत एवं इनके अंतर्संबंधों को उद्घाटित करने का प्रयास करती है।

बीज शब्द : साहित्यिक सृजनात्मकता, आलोचना, इतिहास, यथार्थ, अनुभूत सत्य, कल्पना, अस्मिता

मूल आलेख : इतिहास वर्तमान एवं अतीत से इतिहासकार और उसके स्रोतों (पुरातात्विक और साहित्यिक) के बीच संवाद की सतत प्रक्रिया है जो अपने अध्ययन में सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक आर्थिक, नैतिक जैसी स्थितियों को आत्मसात करती हुई चलती है। और शायद यही कारण है कि हम कई बार कहते हैं कि तथ्यों के बदलाव से इतिहास बदल सकता है। आज यदि हड़प्पाई लिपि को पढ़ लिया जाए तब इतिहास संबंधित दृष्टिकोण बदल जाएगी। यही नहीं एक ही तथ्य की व्याख्या अलग-अलग इतिहासकार अपने-अपने अनुभव से करते हैं। यानी ‘इतिहास’ कोई शाश्वत सत्य नहीं है जिसमें कभी परिवर्तन नहीं होगा लेकिन यहां महत्वपूर्ण है ऐतिहासिक बोध जो हमें एक नई दृष्टि देता है तथ्यों को देखने की और उस पर विचार करने की। मेरी नजर में कमोबेश आलोचना भी इसी प्रकार का कार्य करती है। किसी रचना में स्थित जीवन और बाहरी दुनिया से उसके संपर्क की प्रस्तुति यथार्थ बोध के साथ है या वह महज तथ्यों का सामाजिक दस्तावेज है यह बतलाने का कार्य कहीं-न-कहीं आलोचना से संबंधित है। कोई भी साहित्यिक कृति अपने युग की संवेदनाओं से किस प्रकार लैस है यह यदि साहित्यिक कोटि का निर्धारक तत्व है तो वहीं इन संवेदनाओं की सर्जनात्मक बुनावट को परखने का कार्य आलोचना करती है। आधुनिक काल में आलोचना की जरूरत तब और बढ़ जाती है जब साहित्य सिर्फ अपने समय की ऐतिहासिक, सामाजिक, राजनीतिक या नैतिक तथ्यों या कोरे मनोरंजन का दस्तावेज प्रस्तुत करने की जगह अस्मिता की तलाश से जुड़ जाती है। पुराने समय में जब सामाजिक गतिशीलता इतनी तीव्र नहीं हुई थी तब तक हम किसी सैद्धांतिक या व्यावहारिक मानदंडों के हवाले से आलोचना के नियामक तय कर सकते थे पर आधुनिक काल में विशेषकर द्वितीय विश्व युद्ध के बाद पूरे विश्व में आए बदलाव एवं लगातार बढ़ रहे आर्थिक उदारीकरण और निजीकरण की नीतियों ने जिस भूमंडलीकरण को बढ़ावा दिया है वहां आलोचना की जरूरत सिर्फ खास वैचारिक धारा या वर्गीय चेतना के आधार पर नहीं की जा सकती बल्कि इसके लिए आवश्यक है समय के अनुरूप ही साहित्यिक सवालों से टकराने की और उसमें निहित सूक्ष्म संवेदनाओं को परखने की।

            नामवर सिंह ने ऐसे ही मंतव्यों पर आचार्य शुक्ल को उद्धृत करते हुए लिखा है कि- “ ‘ऊपरी रंग-ढंग से तो ऐसा जान पड़ेगा कि कवि के हृदय के भीतर सेंध लगाकर घुसे हैं और बड़े-बड़े गूढ़ कोने झांक रहे हैं, पर कवि के उद्धृत पद्यों से मिलान कीजिए तो पता चलेगा कि कवि के विवक्षित भावों से वाग्विलास का कोई लगाव नहीं है।’ लेकिन पिछली पीढ़ी को ऐसे आलोचक जहां भावान्ध होकर ऐसा करते थे, वहां आज के आलोचक की दृष्टि ऐसे स्थलों पर बौद्धिक-विलास से ग्रस्त दिखायी पड़ती है।”[1]

          दोनों ही स्थितियाँ आलोचकीय दृष्टि से ठीक नहीं। किसी रचनाकार के प्रति वैयक्तिक मोह के कारण उनकी रचनाओं के प्रति पक्षपात करना या साहित्यिक सृजनात्मकता को कोरी बौद्धिकता से युक्त मानना; क्योंकि साहित्य महज मनोरंजन और आनंद प्रदान करने की वस्तु नहीं है, न ही यह सिर्फ विरेचन की वस्तु है। साहित्य की भूमिका इतिहास से भी व्यापक होती है। यह सिर्फ तत्कालीन समाज को ही प्रतिबिंबित नहीं करती वरन् उस समय की युगीन प्रवृत्तियों को भी प्रतिबिंबित करती है। जब साहित्यिक इतिहास की बात होती है तब अतीत के साथ-साथ वर्तमान में भी इसकी प्रासंगिकता और यथार्थ से इसका अभिन्न होना भी महत्वपूर्ण हो जाता है। लेकिन ऐसे में यहां एक भ्रामक स्थिति भी उत्पन्न होती है जब साधारणतया हम साहित्य को समाजशास्त्रीय खाँचों में फिट करने लगते हैं।

            आचार्य शुक्ल अपनी पुस्तक ‘रस मीमांसा’ की शुरुआत में ही काव्य की व्याख्या करते हुए लिखते हैं कि- “कविता ही मनुष्य के हृदय को स्वार्थ संबंधों के संकुचित मंडल से ऊपर उठाकर लोक-सामान्य भावभूमि पर ले जाती है जहां जगत की नाना गतियों के मार्मिक स्वरूप का साक्षात्कार और शुद्ध अनुभूतियों का संचार होता है। इस भूमि पर...। उसकी अनुभूति सबकी अनुभूति होती है या हो सकती है। इस अनुभूतियोग के अभ्यास से हमारे मनोविकारों का परिष्कार तथा शेष सृष्टि के साथ हमारे रागात्मक संबंध की रक्षा और निर्वाह होता है।”[2]

            इसके अतिरिक्त साहित्यिक उद्देश्य की व्याख्या करते-करते शुक्ल जी काव्य के मनोरंजन संबंधी उद्देश्यों को भी स्पष्ट करते हैं और कहते हैं कि- “प्रायः सुनने में आता है कि कविता का उद्देश्य मनोरंजन है। पर जैसा कि हम पहले कह आए हैं कविता का अंतिम लक्ष्य जगत के मार्मिक पक्षों का प्रत्यक्षीकरण करके उनके साथ मनुष्य हृदय का सामंजस्य स्थापन है।”[3] यहां आचार्य शुक्ल एक तरफ जहां काव्य को सिर्फ मनोरंजन के दायरे में बांधने पर क्षोभ प्रकट करते हैं वहीं इसकी चित्त को रमाने वाली प्रवृत्ति देखकर संस्कृत के आचार्य पंडित जगन्नाथ का उल्लेख भी करते हैं जिन्होंने रमणीयता को काव्य का साध्य सिद्ध किया वहीं यूरोपीय समीकक्षों द्वारा ‘आनंद’ को काव्य का चरम लक्ष्य ठहराया गया इसका जिक्र भी करते हैं। स्पष्ट है कि आचार्य शुक्ल साहित्य को केवल मनोरंजन या आनंद मानने के पक्ष में नहीं है बल्कि उसे मनुष्यता की उच्च भूमि पर ले जाने वाला साध्य मानते हैं।

            इसी प्रकार निर्मल वर्मा ने अपने लेख ‘कला का सत्य’ में साहित्य की व्याख्या इन रूपों में की है- “हर महान कविता व महान कहानी हमें एक रूढ़िगत विश्वासों से हटकर नये सत्यों के आलोक में लाने के लिए उत्प्रेरित करती है। यह सत्य क्या है? क्या यह समाजशास्त्री के सत्य हैं? शायद इसका एक उत्तर है कि हम एक दूसरे यथार्थ से साक्षात करते हैं जो कला का अपना यथार्थ है। हम एक ऐसे सत्य से साक्षात करते हैं जो सत्य हमें न फिलोसफी दे सकता है, न धर्मशास्त्र दे सकता है, न राजनीति दे सकती। जिस दिन हम समझ लेंगे की ‘देयर इज नो सब्सीट्यूट फॉर लिटरेरी ट्रुथ’ उस दिन हमें साहित्य की अनिवार्यता का पता चलेगा।”[4]

            यह सत्य क्या है? कला का अपना यथार्थ क्या है? निर्मल जी द्वारा उठाए गए यह प्रश्न सिर्फ किसी रचना में सत्य का अनुपात क्या है से संबंधित नहीं है, यह रचना में यथार्थ और यथार्थवाद की जरूरत और उसके अनुपात से भी संबंधित है। सामान्यतः किसी रचना में निहित सच्ची अनुभूति यदि यथार्थ है तब इसकी कलात्मक अभिव्यक्ति यथार्थवाद। यथार्थवाद यदि अभिव्यक्ति है तब यथार्थ उसका स्त्रोत। “अतः यदि समर्थ आलोचना की पहली शर्त यह है कि कलाकृति के अखंडित और स्वायत्त यथार्थ को पहचान सके; तो दूसरी शर्त यह भी है कि वह कलाकृति के बाहर फैले यथार्थ को भी एक संपूर्ण और अविभाज्य रूप में स्वीकार सके; एक ऐसा यथार्थ जिसकी अर्थवत्ता सिर्फ इतिहास और समाज के अनुभवों में ही समाप्त नहीं हो जाती- जो बिना मनुष्य के भी जीवित था और तब भी जीवित रहेगा जब मनुष्य नहीं होगा।”[5] परंतु यहां यथार्थ और यथार्थवाद के विमर्श में उलझना मेरा ध्येय नहीं है। महत्वपूर्ण है साहित्यिक सृजनात्मकता में इतिहास से उसके संबंध टाटा और आलोचना की भूमिका। क्या आलोचना के प्रतिमान फिक्स होने चाहिए और उसके अनुसार रचना होनी चाहिए या अमुक रचना में इन तत्वों का समावेश होना चाहिए आदि-आदि। ऐसे में हमारी सृजनात्मकता कहां जाएगी? मुझे नहीं लगता किसी साहित्यकार के पास इतना अवकाश होता है कि पहले वह आलोचकीय मानदंडों को तय करे, तब रचना करे। रचना किसी व्यक्ति का अनुभूत सत्य, कल्पना, उसके आसपास के वातावरण, उसकी दृष्टि और प्रतिभा पर निर्भर करती है, न कि किन्हीं बाह्य तत्वों पर। आलोचना का कार्य सर्जना के बाद का है इसीलिए उस पर दोहरी जिम्मेवारी होती है। ‘आलोचना’ एक तरह से साहित्य को और उसके इतिहास को समझने और परखने की तकनीक है जिसके सहारे साहित्यिक निरंतरता और विकास को समझा जा सकता है। इस प्रकार आलोचना इतिहास विच्छिन्न नहीं है। बिना ऐतिहासिक बोध के एक आलोचक अपने समाज में होने वाले हलचल, विचारधारा की टकराहट को नहीं पकड़ सकता। मैनेजर पांडेय के शब्दों में आलोचना संस्कृति की जीवंतता का लक्षण है और उसकी प्राणवत्ता का कारण भी। आलोचना रचना में व्यक्त और अव्यक्त मूल्यों तथा विश्वासों की व्याख्या करती है साथ ही वह सामाजिक जीवन में मौजूद और रचना में व्यक्त शक्ति संबंधों की भी पहचान करती है। इस तरह आलोचना एक विचारधारात्मक गतिविधि होती है। विचारधारा से यहाँ मेरा आशय ऐतिहासिक चेतना से है। यह ऐतिहासिक चेतना आलोचक के विवेक को ही नहीं, उसकी संवेदनशीलता को भी प्रभावित करती है। जिसे सौंदर्यबोध कहा जाता है उसका भी विचारधारा से एक रिश्ता बनता है। सौंदर्यबोध जीवन विवेक का अंग होता है और जीवन विवेक का सामाजिक विवेक से तथा सामाजिक विवेक का इतिहास विवेक से गहरा सम्बन्ध होता है। इस प्रक्रिया में साहित्य विवेक इतिहास विवेक से जुड़कर सामाजिक रूप से सार्थक बनता है।”[6]

            स्पष्ट है कि मैनेजर पांडेय साहित्य और समाज के बीच की क्रिया प्रतिक्रिया को समझने के लिए इतिहास बोध को आवश्यक मानते हैं और चूंकि आलोचना का कार्य साहित्य की तात्कालिकता और समसामयिकता में उसकी प्रासंगिकता की जांच करने से है; आलोचना और इतिहास के बीच का सम्बन्ध अन्योन्याश्रय प्रतीत होता है। आलोचना का कार्य यहीं खत्म नहीं होता, रचना और आलोचना के बीच एक सत्ता पाठक की भी होती है। एक आलोचक भी पहले पाठक ही होता है। किसी रचना के मूल्यांकन की क्षमता पाठक की भी होनी चाहिए नहीं तो वह कृत्रिम, भौंडे, मनोरंजन के नाम पर परोसे जाने वाली कृतियों और सामाजिक उपादेयता से जुडी अच्छी कृतियों के बीच का भेद नहीं समझ पायेगा। आलोचना यहाँ सहायक सिद्ध होती है। आलोचना सामान्य पाठक को वह दृष्टि देती है जिससे पाठक सौंदर्यबोध और जीवनबोध को अधिक गहराई से समझ सके।

         आलोचना के इन्ही सौंदर्यबोध सम्बन्धी अवधारणाओं से कलावादी समीक्षा की धारा जुड़ जाती है जो आलोचना में जीवन बोध की अवहेलना कर सिर्फ सौंदर्यबोध को स्थापित करते हैं और कला सिर्फ कला के लिए का नारा बुलंद करते हैं। साहित्य सिद्धांत के विवेचन के साथ-साथ बार-बार यह प्रश्न उठता है कि वास्तव में- "साहित्य का प्रयोजन क्या है? शिक्षा या आनंद? साहित्य के मूल्य क्या हों? इसे किन कसौटियों पर कसा जाना चाहिए? …एरिस्टोफेनीज से लेकर प्लेटो, होरेस, मध्ययुगीन विचारकों, सत्रहवीं-अठारहवीं सदी के साहित्यकारों तथा साहित्यशास्त्रियों सभी ने नैतिक शिक्षा या उपदेश को ही काव्य के प्रमुख प्रयोजन के रूप में मान्यता दी। प्लेटो तथा मध्य युग के धार्मिक कट्टरपंथियों ने तो कला या साहित्य का लगभग बहिष्कार ही किया क्योंकि उनके मत में ये अनैतिकता को प्रश्रय देते हैं।"[7]

            साहित्य और कला सम्बन्धी उपरोक्त मतों के विपरीत कलावादियों ने साहित्य पर साहित्येतर प्रतिमानों के दवाब को ख़ारिज करते हुए कला सौंदर्य को ही अपना चरम उद्देश्य माना और उसके लिए कला से इतर हर प्रतिमान चाहे वह ऐतिहासिक, सामाजिक, राजनीतिक या सांस्कृतिक हो उन्हें अस्वीकार कर दिया। पुनर्जागरण काल में भी कला के प्रयोजनों में शिक्षा की अपेक्षा मनोरंजन या आनंद को ही अधिक महत्व दिया। स्वच्छंदतावादी विचारधारा ने कला तथा सौंदर्य के आनंद पक्ष को महत्व देने की प्रवृति को और भी बढ़ावा दिया। इसके साथ इसे दार्शनिक आधार प्रदान करने का कार्य जर्मन दार्शनिक इमानुएल कांट (1724 -1804 ) ने किया। इन्होंने क्रिटिक ऑफ़ जजमेंट में कहा कि- कला व्यापर का अपना क्षेत्र और महत्व है। उसे ज्ञान और नैतिकता से स्वतन्त्र होना चाहिए। विशुद्ध सौंदर्य शास्त्र के पक्षधर कांट के अनुसार सौंदर्य का अस्तित्व चेतना में होता है, बाह्य विश्व में नहीं।"[8]

            कलावाद की यह पेशकश रूपवादी आलोचकों के लिए भी मार्ग प्रशस्त करती है जिनके लिए कलावादियों की तरह ही शिल्प और रूप विधान सम्बन्धी विशेषताएं ज्यादा महत्व रखती हैं। रूपवादी कहते हैं कि साहित्यिकता को तय उसका विषय नहीं करता उसकी प्रस्तुति करती है। अब ऐसे में सहज ही यह प्रश्न उठता है कि सिर्फ सौन्दर्यपरक मूल्यों की व्याख्या से क्या किसी रचना या कृति की प्रासंगिकता रह जाएगी? बिना भाव के सुन्दर शरीर भी निर्जीव ही प्रतीत होगी।

            कई बार यह प्रश्न भी उठाए जाते हैं कि आलोचना की जरूरत ही क्या है? यदि कोई कृति समय सापेक्ष होगी और साहित्य के तत्व विद्यमान होंगे वह अपना रास्ता खुद तय कर लेगी। और यह सच भी है कि किसी अच्छी कृति को बहुत समय तक नैपथ्य में नहीं रखा जा सकता लेकिन यहां पुनः यह प्रश्न उठता है कि यह अच्छी कृति पाठकों तक कैसे पहुंचे? यह कुछ बुद्धिजीवियों या उनके अपने अकादमिक दुनिया तक सीमित रह जाए या प्रचार-प्रसार कर इसके लिए जगह बनाई जाए। यह एक यक्ष प्रश्न की भांति हमारे समक्ष उपस्थित है, क्योंकि अच्छे साहित्य की रचना किसी भी स्वस्थ समाज की संरचना के लिए आवश्यक है। हम इसे खारिज नहीं कर सकते। कहीं ऐसा ना हो कि इन बहसों में हम अपनी पीढ़ी और आने वाली पीढ़ी को साहित्यिक शून्यता की स्थिति में पहुंचा दें, क्योंकि यह किसी भी कालखंड में किसी भी व्यक्ति की एक नैतिक जिम्मेवारी है कि समाज का संचालन कैसे हो और साहित्य इसमें क्या भूमिका अदा कर सकता है। “जब किसी साहित्य में सार्थक, जीवंत और संयत समीक्षा-पद्धति मुरझाने लगती है, तो उसके साथ अनिवार्यतः एक परजीवी वर्ग, एक साहित्यिक माफिया पनपने लगता है- एक तरफ विश्वविद्यालयों के साहित्यकार समीक्षक, दूसरी तरफ ‘मेरे हमदम मेरे दोस्त’ जैसे अक्खड़, अखाड़ेबाज, आंदोलनकर्ता, तीसरी तरफ साप्ताहिक दैनिकों में नौकरी करने वाले लेखक पत्रकार। इन लोगों का साहित्य और संस्कृति के मूल्यों से सरोकार नहीं, किंतु पिछले वर्षों में इनके हाथों में एक छद्म किस्म की ताकत जमा होती गई है। एक तरह  से भारतीय राजनीति की निर्मूल और मूल्यहीन सत्तावादिता जीवन के हर क्षेत्र को दूषित कर गई है; यह आश्चर्य की बात होगी, यदि साहित्य इससे अछूता रह जाता।”[9]

            उपरोक्त वर्णन से लगभग वह सारी स्थितियां स्पष्ट हो जाती है जो आज के समय में साहित्यिक संकट का रूप ले रही है। यही नहीं साहित्य में जीवन दर्शन की मांग और उसके प्रति उपयोगितावादी दृष्टिकोण कहीं-न-कहीं साहित्य में निहित उसके सर्जनात्मक बोध और कलात्मक संवेदना को प्रभावित कर रही है।

निष्कर्ष एक अच्छा साहित्य हमें जीवन के उन बिंदुओं पर पहुंचाती है जहां सिर्फ सत्य-असत्य, नैतिक-अनैतिक के प्रश्न नहीं बचते बल्कि हम उस सार्वभौमिक स्थिति में पहुंचते हैं जहां हम अपने समय से परे हों। ऐसे में आलोचना का कार्य महत्वपूर्ण होता है कि वह रचना में अंतर्निहित उस मर्म को उजागर करे जो उसमें निहित अनुभूत सत्य के साथ-साथ उसकी पवित्रता को बचाए रखे। और यहाँ एक आलोचक के पास आलोचना की बेहतर समझ के लिए इतिहास की समझ आवश्यक है जो उसे साहित्य के मूल्यांकन की नयी दिशा दे सके।

संदर्भ :
[1] नामवर सिंह, इतिहास और आलोचना, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2014, पृ. 174
[2] आचार्य रामचंद्र शुक्ल, रस मीमांसा, अनु प्रकाशन, जयपुर, संस्करण 2008, पृ. 11
[3] वही, पृ. 25
[4] निर्मल वर्मा, आदि, अंत और आरंभ, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, 2017, पृ. 133
[5] निर्मल वर्मा, शताब्दी के ढलते वर्षों में, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, 2006, पृ. 63
[6] मैनेजर पांडेय, आलोचना कि सामाजिकता, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2008, पृ. 23
[7] निर्मला जैन और कुसुम बांठिया, पाश्चात्य साहित्य चिंतन, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, 2009, पृ. 164
[8] वही, पृ. 165
[9] निर्मल वर्मा, शताब्दी के ढलते वर्षों में, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, 2006, पृ. 322-23


डॉ. संगीता कुमारी
सहायक प्रोफेसर (हिंदी), जे. जे. कॉलेजमगध विश्वविद्यालयगया
sangitakumarijnu@gmail.com+91-9810606585

अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
अंक-49, अक्टूबर-दिसम्बर, 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : डॉ. माणिक व डॉ. जितेन्द्र यादव चित्रांकन : शहनाज़ मंसूरी
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