ये विषय ऐसा है जिसके संबंध में हम अध्यापकों, शोधार्थियों, विद्यार्थियों को बहुत आरंभिक कक्षाओं से ही जानकारी प्राप्त होना शुरू हो जाता है। भक्ति आंदोलन के बारे में हम बहुत आरंभिक कक्षाओं से जानना शुरू कर देते हैं। थोड़ा-बहुत। उत्तर भारतीय भक्ति आंदोलन के संबंध में विडंबना ये है कि उसकी जो पहचान है, जैसा कि अभी अजीत ने कहा वो थोड़ी आधी-अधूरी और अपर्याप्त पहचान है। विडंबना यह है कि इतने समय बाद भी उस पर पुनर्विचार की, या उसके पहचान पर पुनर्विचार की कोई बड़ी पहल यूँ जिसे समेकित पहल कहते हैं वह अभी तक नहीं हुई है। वैसे तो लोगों ने अलग-अलग कवियों अलग-अलग संतों और अलग-अलग भक्तों पर ख़ूब लिखा है। उनकी वैयक्तिक पहचानों पर पुनर्विचार का प्रस्ताव या आग्रह किया है। किन्तु इससे भक्ति आंदोलन की एक समेकित पहचान बने, ऐसा कोई प्रयास अभी तक देखने में नहीं आया।
मुझे लगता है कि ये पहचान मुख्यतः आरंभिक पहचान है यद्यपि वो पहचान अब नहीं है फिर भी भक्ति आंदोलन की जो पहचान हमारे सामने है वह उपनिवेश काल में बनी। हमारे सभी सांस्कृतिक और साहित्यिक रूपों की पहचान कमोबेश उपनिवेश काल में ही बनी। आरंभिक अध्येता जो थे सारे के सारे उपनिवेशकालीन, यूरोपीय विद्वान थे और उन्होंने इसकी एक छवि तैयार की। कभी-कभी लगता है उन्होंने बहुत मनोयोग और निष्ठा से यह काम किया। ख़ासतौर पर जैसे गिलक्राइस्ट, थॉमस कोलब्रुक, जार्ज ग्रियर्सन, गार्सा द तासी साथ ही राजस्थान में दो विद्वान काम कर रहे थे लेफ्टिनेंट कर्नल टॉड, टेस्सीटोरी। इसी तरह भारत के विभिन्न भू-भागों में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के बहुत से अधिकारी अपनी रूचि से बहुत सारे काम कर रहे थे जबकि उनका ये पेशा या व्यवसाय भी नहीं था। किन्तु अब उनकी बनायी पहचान और मूल्यों पर आपत्ति की जानी चाहिए। उनकी निष्ठा और मंशा पर मुझे कोई संदेह नहीं है लेकिन उनकी दृष्टि में एक तो संस्कार, दूसरा एक औपनिवेशिक साम्राज्यवादी स्वार्थ कहीं न कहीं अंतनिर्हित है। इस बात को लेकर आजकल विद्वानों में विऔपनिवेशीकरण की चर्चा बहुत है। तो हम हिन्दी वालों को भी भक्ति आंदोलन की जो पहचान उपनिवेशकाल के दौरान बनी, उस पर तार्किक बहस अवश्य करनी चाहिए। जार्ज ग्रियर्सन की कुछ स्थापनाओं पर बाद में हजारी प्रसाद द्विवेदी ने आपत्ति की थीं। इस प्रकार किन्हीं साहित्यिक स्थापनाओं को देखें तो धीरे-धीरे कुछ चीज़ें बदली हैं। लेकिन अभी भी बहुत सारी चीजें ऐसी हैं जिन्हें बदलने की ज़रूरत है। ऐसा इसलिए भी क्योंकि औपनिवेशिक विद्वानों की कुछ धारणाएं बद्धमूल थीं। एक तो वे मानते थे कि भारतीय समाज ठहरा हुआ और गतानुगतिक है। कबीर हों, मीरा हों, जायसी हों या तुलसी हों या अन्य कोई भी कवि हो उनके लिये वे भारतीय समाज की गतिशीलता का एक रूप नहीं है। क्योंकि उनके मन और मस्तिष्क में यह छवि बनी हुई है कि भारतीय समाज ठहरा हुआ और गतानुगतिक है। यदि कबीर हैं तो हाशिये का स्वर है, मीरा हैं तो हाशिये का स्वर हैं। इसी तरह यदि कोई मुख्यधारा से अलग काम कर रहा है, कुछ भिन्न होकर अपने स्वर को मुखर कर रहा है तो ये मानकर चल रहे हैं कि ये समाज के हाशिये का स्वर हैं। ये समाज का केंद्रीय और मुख्य स्वर नहीं है।
ये धारणा बद्धमूल औपनिवेशिक विद्वानों में थी। जैसे लेफ्टिनेंट जेम्स टॉट मीरा की छवि बनाते हैं जो कमोबेश वैसी ही है। कबीर की जो छवि बनती है यही है, तुलसी की जो छवि बनती है, ऐसी ही है।क्योंकि भारतीय समाज को देखने का यह नज़रिया उनके स्वभाव और परंपरा में शामिल था। समाज का जो असाधारण है, अद्भुत है, रहस्य- रोमांस, कौतूहल, अद्भुत इन असाधारण तत्वों को उन्होंने प्राथमिकता दी। समाज के सामान्य स्वरों को उन्होंने प्राथमिकता नहीं दी। भक्ति का विवेचन करते समय, भक्ति की पहचान बनाते समय भी उनकी यही दृष्टि निर्णायक रही थी। इसके लिए उनकी मंशा पर संदेह मत करिये। लेकिन उनकी समझ और संस्कार यूरोपीय थे। वास्तव में कहा जाए तो यूरोप में भारत की छवि कमोबेश आज भी वही है। उसमें कोई बड़ा रद्दोबदल अब तक नहीं हुआ है। जो लोग इस पर विचार करते हैं,वे यह जानते हैं। हमारी जो भारत विद्या है ख़ासकर इंडिक स्टडीज, उसमें बहुत सारे यूरोपीय विद्वान बिना किसी औपनिवेशिक स्वार्थ के काम कर रहे हैं। लेकिन भारतीय समाज को, भारतीय साहित्य को, भारतीय सांस्कृतिक रूपों को देखने का नजरिया और संस्कार उनके वही हैं जो कभी उपनिवेश काल में बने थे। ख़ासतौर पर जार्ज ग्रियर्सन की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका है। एक तो उन्होंने भाषा वैज्ञानिक अध्ययन किया था और हमारी भाषाओं का अध्ययन एवं वर्गीकरण किया। इस क्रम में उन्होंने बहुत सारे साहित्यकारों के बारे में ज्ञान एकत्रित किया, संत कवियों से संबंधित जानकारी को एकत्र किया। सबसे अधिक विस्तार से उन्होंने तुलसी पर लिखा।
एक जिस तरीके का वैविध्य हमारे समाज में है, सांस्कृतिक वैविध्य हमारे समाज में है उसकी आदत और संस्कार यूरोपीय विद्वानों को नहीं थी। उनके यहाँ इस तरह का सांस्कृतिक वैविध्य नहीं है। किन्तु हमारे यहाँ भक्ति में बहुत वैविध्य है। यह विडंबना ही है कि इसके क्षेत्रीय वैशिष्ट्य की बहुत अवहेलना हुई। उसको नज़रअंदाज़ किया गया। जिसका एक कारण है कि उनके यहाँ (यूरोप में) इस तरह का वैविध्य नहीं था, सांस्कृतिक वैविध्य नहीं था, भाषाई वैविध्य नहीं था, सरोकारों का भी वैविध्य भी नहीं था। जबकि यह हमारे आपके यहां ख़ूब मिलता है। आप थोड़ी ही दूर जाएंगे एक भक्त की चिंता और सरोकार बदल जाएंगे, दूसरे संत के सरोकार बदल जाएंगे। कबीर की चिंता और सरोकार अलग हैं, मीरा की चिंता और सरोकार अलग हैं, तुलसी के अलग हैं। एक क्षेत्र में रहते हुए भी हो सकता है कि उनकी चिंता और सरोकार अलग-अलग हों। दूसरी, एक बात और है जिसकी ओर ध्यान दिया जाना चाहिए ख़ासतौर पर आग्रहपूर्वक कि उस समय तक स्रोत सामग्री बहुत सीमित थी।दरअसल भक्ति आंदोलन की पहचान बनाने में भारतीय विद्वानों का भी योगदान है जिनकी समझ और संस्कार कमोबेश यूरोपीय हैं। वे भी कुछ सीमित संसाधनों के आधार पर, सीमित स्रोत सामग्री के आधार पर भक्ति आंदोलन की एक छवि बना रहे हैं। धीरे-धीरे शोधकार्य हुए, कुछ विश्वविद्यालयों में हुए, कुछ विश्वविद्यालयों से बाहर हुए।कई शोध संस्थानों में हुए, बहुत सारी संस्थाएँ जैसे नागरी प्रचारिणी सभा, उदयपुर का साहित्य संस्थान, राजस्थान का प्राच्य विद्या संस्थान और भी बहुत सारी संस्थाएँ हैं जिन्होंने देश भर में बिखरी हुई पांडुलिपियों को संकलित किया। उनमें से कई पांडुलिपियों पर अभी भी काम नहीं हुआ।जबकि बहुत पांडुलिपियों पर महत्वपूर्ण काम हुए हैं। ख़ैर, वे जितनी भी सामग्रियां एकत्रित हुईं उन सभी के साथ बाद में मिली सामग्री और शोध सामग्री हमें उपलब्ध हुईं, वे सभी भक्ति आंदोलन की पारंपरिक पहचान में रद्दोबदल का आग्रह करती है।
इसलिए भक्ति आंदोलन की दो बातों पर पुनर्विचार की ज़रूरत है। एक तो ये कि आरंभिक जो विद्वान थे, सारे के सारे चाहे वे भारतीय हों या यूरोपीय हों उन सबके समझ या संस्कार कमोबेश यूरोपीय है। हमारी शिक्षा में ही देखिए… औपनिवेशीकरण केवल देश का नहीं होता, चेतना का भी होता है और चेतना का औपनिवेशीकरण भारतीय विद्वानों का भी हुआ।हमारे साहित्य को भी देखने-समझने का नजरिया, ख़ासकर आरंभिक विद्वानों का नजरिया वैसा ही है। इस पुनर्विचार की जो दूसरी बात है- स्रोत सामग्री। संसाधन बहुत सीमित हैं। पांडुलिपियाँ सामने नहीं आयीं थीं, रचनाएँ सामने नहीं आयीं थीं, संत और कवियों का जीवन, उनकी जीवन की विकास यात्रा सामने नहीं आयी थी। बहुत सारी नई चीज़े अब सामने आ गयी हैं। लेकिन हम भक्ति आंदोलन की पुरानी पहचान पर अभी ठहरे हुए हैं।
अब इस व्याख्यान के दूसरे पड़ाव पर आते हैं। भक्ति आंदोलन की ये पहचान जो अभी तक बनी हुई है। जैसा अजीत ने कहा कि हम उत्तर भारतीय ख़ासतौर पर उसमें भी हिन्दी समाज भक्ति आंदोलन को कबीर, सूर, तुलसी और कभी-कभी मीरा के नाम से जानता है। भक्ति आंदोलन का बहुत समय और स्थान दोनों की दृष्टि से उसके विस्तार का, उसके वैविध्य का दायरा बहुत विस्तृत और बड़ा है। विडंबना यह है कि भक्ति आंदोलन को अभी हम इस रूप में नहीं जानते हैं। ये एक देशव्यापी और लगभग 12-13 शताब्दियों के विस्तार में फैला हुआ आंदोलन है। आप सोचिए कि बारह-तेरह शताब्दियाँ, जहां एक शताब्दी भी महत्वपूर्ण होती है। वहां एक आंदोलन बारह-तेरह शताब्दियों में फैला हो, उसकी विकास यात्रा कैसी रही होगी। हम भक्ति आंदोलन को उसकी फलश्रुति के रूप में जानते हैं कि उसने हमें क्या दिया। लेकिन ये जो दिया वह सबकुछ एक विकास-यात्रा से गुजरकर हम तक आया है। हम उस यात्रा के बारे में अभी नहीं जानते हैं।देश के विभिन्न भागों में पाँचवीं से सत्रहवीं शताब्दी तक यह आंदोलन निरंतर चला। ये पहला आंदोलन है जिसने हमारी चेतना को आंदोलित भी किया और जिसने हमारी समझ व संस्कार को कई मायनों में बदला। यह आप मानकर चलिये कि भक्ति आंदोलन हमारे संस्कार और स्मृति में अब भी हैं। हजारीप्रसाद द्विवेदी ने एक बहुत अच्छी बात कही है, आप ये मानकर चलते हैं बौद्ध धर्म ख़त्म हो गया लेकिन ऐसा नहीं हुआ। बौद्ध धर्म ख़त्म नहीं हुआ, वह हमारे विचार में, दैनंदिन जीवन में किसी न किसी तरह से अब भी शामिल है।
इसी तरह भक्ति आंदोलन भी है हम सोचते हैं कि सत्रहवीं शताब्दी में उसका समापन हो गया, ऐसा नहीं है। हमारे जीवन के नैतिक मूल्यों में, आचरण की कसौटी पर उसके कहीं न कहीं अवशेष हैं, उसके संस्कार, उसकी स्मृति बची हुई है। भक्ति आंदोलन... दक्षिण और उत्तर भारत को हम थोड़ा सा अलग स्थितियों में देखते हैं... वैसे तो इसमें एक निरंतरता है और जो सांस्कृतिक एकता हैं वो भी भक्ति आंदोलन के दौरान ही हुई। लेकिन इस अर्थ में थोड़ा-सा अलग करते हैं कि भक्ति आंदोलन की शुरूआत दक्षिण भारत में हुई। पाँचवीं-छठी शताब्दी से यह शुरू हुआ और नवीं-दसवीं शताब्दी तक दक्षिण भारत में विविध रूपों में निरंतर जारी रहा। भक्ति आंदोलन का कोई एक रूप नहीं है। यदि आप भक्ति आंदोलन को सार्वदेशिक और उसकी किसी एक पहचान में समझना चाहेंगे तो बहुत मुश्किल काम है। ए के रामानुजन जोकि भक्ति साहित्य के बड़े विद्वान हैं ने एक जगह लिखा, मैं जो कह रहा हूँ वो मेरे क्षेत्र से संबंधित है, जो मैं कह रहा हूँ वह जिस कवि को मैं जानता हूँ या जिस भक्त संत को मैं जानता हूँ उसके संबंध में है, ये और किसी के संबंध में नहीं है। यदि आप दक्षिण भारत में बैठकर किसी उत्तर भारतीय संत भक्त के बारे में स्थापना दे रहे हैं तो बहुत सावधानी की ज़रूरत है। इसी तरह आप उत्तर भारत में बैठकर दक्षिण भारत के संत भक्त के बारे में निष्कर्ष निकाल रहे हैं तो ये मुश्किल काम है। दक्षिण भारत में 12 आलवार संत हुए, 63 नयनार हुए। जिसमें दो रचनाएँ महत्वपूर्ण हैं, एक जिसे हम कहते हैं तमिल प्रबंधम, एक तिरुमदई। तमिल प्रबंधम की ख्याति तो पाँचवे वेद के रूप में है दक्षिण भारत में। बहुत महत्वपूर्ण रचना है। अब तो इसका हिन्दी अनुवाद भी हो गया है। जयराम ने सभी आलवार संतों की वाणियों का हिन्दी अनुवाद करके, उसका हिन्दी रूपांतरण करके प्रकाशित करवा दिया। हम प्रायः आलवार संतों के बारे में नहीं जानते हैं। लेकिन भक्ति आंदोलन के संस्कार और स्मृति में कहीं न कहीं आलवार संत रहते हैं।
हम अक्सर कहते तो हैं भक्ति द्राविड़ उपजी। लेकिन भक्ति द्रविड़ प्रदेश में उत्पन्न होकर उत्तर भारत में किस रूप में प्रसारित हुई, किस रूप में फैली, क्या-क्या उसमें रूपांतरण हुए, कैसे आयी इस बारे में हम लोग कम जानते हैं। उत्तर भारत में चौदहवीं शताब्दी से लेकर सत्रहवीं शताब्दी तक इसका विकास हुआ। लेकिन कहीं भी ये मत कहिए कि चौदहवीं शताब्दी में इसकी शुरुआत हुई। क्योंकि ये एक निरंतरता में विद्यमान है... आप यदि अपभ्रंश, पालि में जाएंगे तो भी है, आप यदि अपभ्रंश में जाएंगे तब भी है, प्राकृत में भी है और यदि बहुत दूर तक जाएंगे तो ऋग्वैदिक काल से हमारे यहाँ किसी न किसी तरह एक निरंतरता में है। अक्सर यूरोपीय विद्वानों ने ये किया कि उन्होंने इस निरंतरता में बार-बार एक विच्छेद लाने की कोशिश की। अभी-अभी वे यही करते हैं। वे बाइनरी में खड़ा करते हैं। वे देशभाषाओं को संस्कृत के विरुद्ध खड़ा करते हैं, वे प्राकृत को देशभाषाओं के विरुद्ध खड़ा करते हैं, पालि को प्राकृत के विरुद्ध खड़ा करते हैं। लेकिन ये सारी विकास की प्रक्रिया एक निरंतरता में है और इसे निरंतरता में ही समझा जाना चाहिए। देखिए, कोई भी आंदोलन जब जनसाधारण में चलता है तो सबसे पहले जो प्रयास शुरू होते हैं उसे दार्शनिक आधार देने के प्रयास शुरू होते हैं। भक्ति आंदोलन को भी, ख़ासतौर पर दक्षिण भारत में जब ये बहुत लोकप्रिय हुआ..... बाद में क्या होता है कि फलश्रुति के दौरान कभी-कभी हम केवल उसके दार्शनिक आधार पर चले जाते हैं, केवल उसका दार्शनिक पक्ष देखना शुरू कर देते हैं। ऐसा नहीं है। भक्ति आंदोलन पहले एक जन आंदोलन है, पहले वह लोक में फैला हुआ, लोक की ज़रूरतों के अनुसार बना हुआ आंदोलन है। ये फलश्रुति में जो उसे दार्शनिक आधार देने के प्रयत्न हुए हैं, ये केवल उस तक सीमित आंदोलन नहीं है। लेकिन भक्ति आंदोलन को दक्षिण में ही एक दार्शनिक आधार देने की कोशिश हुई है। उसमें बहुत सारे लोग शामिल हैं। रामानुजाचार्य, मध्वाचार्य वल्लभाचार्य, निम्बार्काचार्य। एक बात और समझ लीजिए ये जो दार्शनिक आधार देने वाले विद्वान हैं इनका योगदान, इनका अवदान इस अर्थ में महत्वपूर्ण है कि उन्होंने भक्ति केवल द्विजेन्द्रों के लिए थी, सीमित थी लेकिन धीरे-धीरे फलश्रुति तक आते-आते वह केवल प्रपत्ति तक रह जाती है। ये बहुत महत्वपूर्ण परिवर्तन है। ये एक साथ ही नहीं हुआ। ये क्रमशः धीरे-धीरे हुआ।
सबसे पहले रामानुजाचार्य ने, रामानुजाचार्य वैदिक और पौराणिक धर्म के समर्थक थे। जब ज्ञान और भक्ति केवल द्विजों तक सीमित थी। लेकिन रामानंद, रामानुजाचार्य के विरुद्ध खड़े व्यक्ति नहीं हैं, रामानुजाचार्य मध्वाचार्य के विरुद्ध खड़े व्यक्ति नहीं हैं, इन्होंने क्रमशः एक निरंतरता में थोड़ा-थोड़ा करके भक्ति आंदोलन की नागरिकता का दायरा बड़ा किया। उसको द्विजों से निकालकर सबके लिये सुलभ किया। नाथ मुनि जिन्होंने ये संकलन तैयार किया और प्रमुख आलवार संतों में से एक हैं उन्होंने एक बात कही थी, हे भगवान न मैं द्विज हूँ, न मुझे वेद आते हैं, न मैंने कभी इंद्रिय निग्रह किया लेकिन मैं आपके चरणों में समर्पित हूँ। आप मेरा उद्धार कर दीजिए। इस भक्ति की चौथी योग्यता है प्रपत्ति, समर्पण, निष्ठा और प्रेम। प्रपत्ति के जितने ही रूप हैं भक्ति को वहाँ तक लाने का श्रेय दक्षिण के बहुत सारे आचार्यों को है। उत्तर भारत में जब भक्ति आती है तो प्रपत्ति उसमें शामिल है।
भक्ति आंदोलन में क्षेत्रीय भिन्नताएँ बहुत हैं, दक्षिण भारत में भी है। आराध्य को लेकर, पूजा को लेकर, साधना को लेकर, धारणाओं को लेकर, मान्यताओं को लेकर बहुत वैविध्य है। ये वैविध्य इसलिए है कि हमारे अलग-अलग क्षेत्रों की सामाजिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक ज़रूरतें अलग-अलग हैं। आप आश्चर्य करेंगे महाराष्ट्र में भक्ति ने अलग रूप धारण किया। वहाँ की सांस्कृतिक ज़रूरतें अलग प्रकार की थीं। और आप आश्चर्य करेंगे पंजाब में जाकर भक्ति में शौर्य और पराक्रम के लिए कोई गुंजाइश नहीं थी, हिंसा के लिए कोई गुंजाइश नहीं थी, भक्ति में यह भी जुड़ गया। शस्त्र भक्ति में शामिल नहीं था। लेकिन पंजाब में जाकर वो सिख धर्म के साथ आया। उड़ीसा, छत्तीसगढ़, कश्मीर इन विभिन्न क्षेत्रों की सांस्कृतिक और सामाजिक ज़रूरतों के तहत भक्ति आंदोलन ने अलग-अलग रूप धारण किया। बाद में इन पर कई... ख़ासतौर पर उत्तर मध्यकाल में ऐसे कई संप्रदाय अस्तित्व में आए। छत्तीसगढ़ में, पंजाब में, महिमा, सिख, बहुत सारे संप्रदाय राजस्थान में रामस्नेही संप्रदाय, विश्नोई संप्रदाय, कई संप्रदाय अस्तित्व में आये। ये भक्ति आंदोलन का ही संस्थानीकरण था एक तरह से। इस संस्थानीकरण को भी हम कभी-कभी नकारात्मक अर्थ में देखते हैं। लेकिन भक्ति आपके लिए वैयक्तिक मोक्ष का साधन थी, वैयक्तिक उद्धार का साधन थी। लेकिन ये आंदोलन संस्थानीकरण का रूप लेकर सामाजिक प्रक्रिया में हस्तक्षेप का साधन भी बना। यदि भक्ति का संस्थानीकरण नहीं होता तो सामाजिक प्रक्रिया में हस्तक्षेप करना संभव नहीं होता। इन संगठित संप्रदायों ने पूरी की पूरी जातियाँ बनाईं। आप कभी-कभी देखते हैं कि... गुरु घासीदास संप्रदाय है, बहुत रैडिकल किस्म की, बहुत क्रांतिकारी किस्म की स्थापनाएँ इन आंदोलनों ने दी। इसके जो पंथों और संप्रदायों में इसका जो संस्थानीकरण है भक्ति आंदोलन का कभी-कभी उसको हम नकारात्मक अर्थ में लेते हैं।
लेकिन अगर आपको सामाजिक प्रक्रिया में हस्तक्षेप करना है, यदि आपको सामाजिक रूपांतरण करना है, जातिगत भेदभाव के खिलाफ़ एक मूवमेंट करना है, यदि आपको लोगों की आदतें बदलनी हैं, लोगों में नये प्रकार के संस्कार डालने हैं तो मुझे लगता है संस्थानीकरण ही एकमात्र विकल्प था। उत्तर मध्यकाल में ख़ासतौर पर जो संस्थान अस्तित्व में आये उन्होंने ये काम किया। सभी के संप्रदाय बने। कबीर के भी बने, दादू के बने, जम्बो जी के बने, जसनाथ, दरिया, महिमा, तुकाराम कई संत भक्तों के संप्रदाय बने। उनके अनुयायियों के संगठन बने। उन्होंने सामाजिक प्रक्रिया में बहुत निर्णायक ढंग से हस्तक्षेप किया। उनके कारण बहुत बड़ा परिवर्तन भी आया। ख़ासतौर पर दलित और पिछड़ी जातियों में इन संगठित संप्रदायों ने बहुत काम किया। किन्तु