शोध आलेख : मन के परिष्करण और उन्नयन में संत रैदास का योगदान / मुदिता तिवारी

मन के परिष्करण और उन्नयन में संत रैदास का योगदान
- मुदिता तिवारी

        लोक की उक्तिमन के हारे हार है ,मन के जीते जीत’, वेदों कातस्मै मनः शिवसंकल्पमस्तुया वर्तमान में मन को सकारात्मक करने का प्रशिक्षण देने वाली कुकुरमुत्तों की तरह उगी संस्थाएं, सब सफलता के लिए  आज तक सुधरे मन को ही अनुशासित और परिष्कृत करने की कोशिश करती आई हैं| मानव 5 ज्ञानेन्द्रियों, 5 कर्मेन्द्रियों का उपयोग मन के माध्यम से ही करता है| यक्ष युधिष्ठिर संवाद में इस मन की गति संसार में सर्वाधिक तेज कही गयी है| मुक्ति के लिए संत रैदास ऐसे चंचल मन को अनुशासित और परिष्कृत करने की बात करते हैं| उनका यह अनुभव रहा कि मन को परिष्कृत करने से ही ईश्वर से मिलन संभव होता है|

            मन क्या है ? इस बात पर प्रकाश डालते हुए वह कठोपनिषद सा रूपक चुनते हैं|वह  पाँच तत्त्व से निर्मित शरीर रुपी रथ में[1] मन का निवास बताते हैं, जो शरीर और बुद्धि के थकने पर मंगल गान नहीं करता है|[2] यह मन अपनी प्रकृति में चंचल है और एकाग्रता के अभाव में यह किसी विषय पर स्थिर नहीं रहता है|[3] यह मन लोभ और मोह में पड़ा रहता है और इन्द्रियों के विषय रस को निरंतर पाना चाहता है|[4]काम वासना के जाल में फंसकर यह अपनी कुल- मर्यादा छोड़कर बिक चुका है|[5] काम,क्रोध,मद,लोभ,मोह को संत रैदास यमदूतों के समान मानते हैं जिनसे मन विकृत हो जाता है | इन्द्रियों के विषय में ,सांसारिकता में, पूर्णता को ढूँढना ही रैदास के अनुसार माया है|[6] प्रश्न यह उठता है कि यदि इन्द्रियजन्य विषयों में पूर्णता नहीं है तो मन उधर भागता क्यों है और संत रैदास इससे बचने का क्या उपाय बताते हैं?

            संत रैदास का कहना है कि जैसे सोने के आभूषण और सोने में अज्ञानता रुपी भ्रम के कारण द्वैत प्रतीत होता है  वैसे ही मनुष्य के मन में यह भ्रम उपजता है कि अद्वैत के स्थान पर द्वैत का अस्तित्व है| उसे लगता है वह ईश्वर से भिन्न सत्ता है ,[7]और सर्वनियामक है| जीव के मन का यह भ्रम ही अहंकार को जन्म देता है।[8] इस अहंकार के कारण ही वह ईश्वर को विस्मृत कर देता है[9]| अहंकार विवेक का हरण कर लेता है| रैदास कहते हैं ,पूर्व कृत पुण्य से दुर्लभ मानव योनि में जन्म तो मिल गया लेकिन अविवेक के कारण यह व्यर्थ हो जाएगा|[10] विवेक के कमज़ोर पड़ते ही इन्द्रियाँ बलवती हो जाती हैं[11] और विषय वासना में लिप्त होकर मनुष्य अनेक पाप-कर्मों में लिप्त हो जाता है|[12] विषय वासनाओं के कारण वह कामनाओं के जाल में उलझ जाता है जिससे निकलकर ईश्वर स्मरण करना उसके लिए दुष्कर हो जाता है क्योंकि वह अपने मूल स्वभाव से च्युत हो जाता है|[13]कुएं के मेढक के समान वह विकारों के परे अस्तित्व से अनजान, सांसारिक लिप्सा में ही जीवन व्यतीत कर देता है|[14]

            यह मन ईश्वर का ही अंश है लेकिन जैसे अमावस्या को चन्द्रमा आकाश में होते हुए भी दिखता नहीं है उसी भांति साधना से परिष्कृत मन के बिना ईश्वर की अनुभूति नहीं होती है| अपने ही समान सांसारिक जीवों की संगति के कारण अविवेकी मन वाले व्यक्ति की सोच परिष्कृत नहीं होती है|[15] वह काम ,क्रोध में लिप्त रहते हैं[16], नश्वर धन और यौवन के मद में ईश्वर को विस्मृत कर देते हैं[17]| अहंकारी ,लोभी ,पर-निंदा में लिप्त व्यक्ति की ईश्वर सेवा व्यर्थ जाती है|[18]

            संत रैदास का मानना है कि किसी भी जाति ,धर्म ,सम्प्रदाय का मनुष्य अनुशासित मन लेकर पैदा नहीं होता है |वह निरंतर साधना से उसे पवित्र कर स्वयं पवित्र होता है|[19] अर्थात अपवित्रता तन के साथ ही मन की भी होती है | सभी संत कवियों का मानना है कि तन की मलिनता तो स्नानादि से उतर जाती है लेकिन जीव के मन के विकार इससे नष्ट नहीं  होते| गंगा स्नान ,छुआछूत आदि के व्यवहार से भी व्यक्ति की मानसिक मलिनता नष्ट नहीं होती, वह अपवित्र ही रह जाता है| ऐसी मनःस्थिति में नहलाये गए हाथी की भांति वह रह-रह कर स्वयं को ही मैला करता रहता है|[20] ज्ञान रूपी आँखों के बिना मन कुमार्ग पर चलता ही रहेगा|[21]

            मन ही इन्द्रियों के विषय में लिप्त होकर जीव के विकास में बाधा डाल रहा है ,और जीव के उत्थान  में भी मन ही सहायक होगा | संत रैदास कहते हैं वह अपने मन को भंवरा बनाना चाहते हैं जिससे वहराम रसायनका भरपूर रस चख सकें | तब सवाल यह उठता है कि ईश्वर में अनुरक्त अनुशासित ऐसे मन को प्राप्त कैसे करें ? रैदास ज्ञान की प्राप्ति के कुछ उपाय बताते हैंगुरु ज्ञान, योग साधनाअद्वैत ज्ञान, सत्संगतिराम नाम जप/स्मरण, बाह्याचारों ,झूठे गर्व का त्याग आदि|

            गुरु ज्ञान की महत्ता सभी भक्ति कवियों ने बताई है | संत रैदास का मानना था कि पूर्व जन्मों के  पुण्य से ही पारस रूपी गुरु की प्राप्ति होती है ,उस गुरु की  शिक्षा से मन अनुशासित होकर उनमनी अवस्था में पहुँच जाता है [22]| क्या यह ज्ञान सभी को सहज रूप में उपलब्ध था ? क्या सभी शिष्य मुक्त होने की पात्रता रखते थे ? दादू दयाल इस भ्रम को तोड़ते हैं कि नाम जप से सभी की मुक्ति हो जाएगी | वह कहते हैं , सभी शिष्यों में पात्रता नहीं होती |यदि शिष्य जड़ है तो गुरु भी उसको मुक्ति नहीं दिला सकता है |[23]


दादू वैद विचारा क्या करें, जै रोगी रहे साच।
मीठा षारा चरपरा, मांगै मेरा बाछ

 

            मुक्ति के लिए प्राचीन काल से चार मार्गों का उल्लेख किया जाता रहा है ,ज्ञान ,योग ,कर्म और भक्ति | संत रैदास ने भी मुक्ति हेतु मनुष्य के मन के परिष्करण के लिए चारों मार्गों का उल्लेख किया है लेकिन बल भक्ति पर अधिक है | संत कवियों पर सिद्धों और नाथों की साधना का प्रभाव कई विद्वानों ने सिद्ध किया है |रैदास में भी हमें ऐसे वर्णन मिलते हैं | नीचे उद्धृत पद में श्वास-प्रश्वास के माध्यम से कुण्डलिनी को जाग्रत करके सुषुम्ना नाड़ी से ऊपर को उठाते ,अनहत नाद को सुनते हुए मन के शून्य मंडल में निरंजन में लय होने की बात  है | परन्तु ऐसा करने के लिए जो आवश्यक तरीका अपनाया जाना चाहिए उसका कोई वर्णन ,इसमें बरती जाने वाली सावधानियों आदि का कोई उल्लेख किसी संत भक्त के यहाँ वर्णित नहीं है |


ऐसा ध्यान धरौं बनवारी। मन पवन दिड़ि सुखमन नाडी
सोई जपु जपौं जो बहुरि जपना। सोई तपु तपौं जो बहुरि तपना
सोई गुरु करौ जो बहुरि करना। ऐसी मरौं जो बहुरि मरना
उलटी गंग जमुन में लयावो। बिनही जल मजन है आवौं
लोचन भरि भरि बियंब निहारौं। जोति बिचारि और विचारों
पिंड परे जीव जिस घरि जाता। शब्द अतीत अनाहद राता
जा पर किरपा सोई भल जानै। गूंगौ साकर कहा बखानै
सुन्न मण्डल में तेरा बासा। ताथै जाव में रहौं उदासा
कह रविदास निरंजन ध्याउ, जिस घरि जाओ हौ बहुरि आउ ||

 

            यौगिक अभ्यास के साथ यह माना जा सकता है कि गुरु के पास बैठकर ही सीखना और अभ्यास करना चाहिए इसलिए इसकी विधियाँ आदि वर्णित नहीं हैं |इसीलिए इन पदों को पढने मात्र से कोई मनुष्य यह साधना सीखने में असमर्थ है |ऐसे पद बिना गुरु के शब्द मात्र हैं |

            योग मार्ग के पश्चात बात करें ज्ञान मार्ग की | अद्वैत /ज्ञान मार्ग ,सत्य के बार-बार स्मरण से मन को संस्कारित करने की राह पर ले जाता है | जन्म से प्राप्त श्रेष्ठता का दंभ साथ ही जन्म से अछूत होने की दृष्टि झूठी है | बाह्याचार और आडम्बर से नहीं; सच्चे भावों से मन संस्कारित होता है | बाहरी संसार में पूर्णता नहीं है ;आंतरिक ईश्वर से एक होना ही पूर्णता है ,ऐसे सत्य के बार-बार स्मरण से आम आदमी अहंकार ,लोभ ,माया आदि से स्वयं को बचाते हुए ,अपने मन को ग्रंथियों से मुक्त कर ,मन को संस्कारित करने का प्रयास कर सकता है |

            भक्ति के क्षेत्र में मन के परिष्करण हेतु संत रैदास बाह्याचारों का त्याग कर नाम जप ,ईश्वर स्मरण करने पर बल देते हैं | संत रैदास कहते हैं , पाँच विकारों (काम, क्रोध, माया, अहंकार और ईर्ष्या ) के कारण जीव सत्य से दूर जा रहा है क्योंकि ये संशय या भ्रम की गांठ खुलने नहीं दे रहे हैं |[24] मन को इन विकारों से छुड़ाने का सामर्थ्य वह केवल राम नाम स्मरण में मानते है |[25] तुलसीदास भी ऐसे ही विचार व्यक्त करते हैं -


काम क्रोध मद लोभ सब नाथ नरक के पंथ।
सब परिहरि रघुबीरहि भजहु भजहिं जेहि संत॥[26]
सभी संत भक्त नाम जप को प्राथमिकता देते हैं | नानक कहते हैं ,
नानक नाम जहाज है चढ़े सो उतरे पार |
संत पलटूदास कहते हैं ,
पलटू अंधियारा मिटी ,बाती दीन्हीं बार ||
दीपक बारा  नाम का ,महल भया  उजियार ||[27]

 

रैदासऔरअर्थात राम का नाम प्रेम की पाटी पर सुरति की लेखनी से लिखना सिखा रहे हैं  –


चलि मन हरि चटसाल पढ़ाऊँ
गुर की साटि ज्ञान का अच्छर बिसरै तों सहज समाधि लगाऊँ
प्रेम पाटी सुरति लेखनि करिहौ ररा ममा लिखि आंक दिखाऊ
येह बिधि मुक्त भये सनकादिक रिदै बिदारि प्रकाश दिखाऊँ

 

            सुरति शब्द यौगिक अभ्यास में बौद्ध परम्परा से आया है जिसका अर्थ आतंरिक ध्वनियों को सुनते ,मौन जप ,ध्यान आदि से ब्रह्मसाक्षात्कार की अनुभूति है |अर्थात यह राम नाम जप भी आम आदमी के जप से भिन्न है क्योंकि यह मन को अनुशासित और परिष्कृत करने में समर्थ है |अन्यथा माला फेरने प्रकारांतर से एकनिष्ठ भाव से करने वाले जप की  निंदा करके कबीर भी राम नाम जप पर बल देते | कबीर का प्रसिद्ध दोहा है -


माला तो कर में फिरै, जीभि फिरै मुख माँहि।
मनुवाँ तो दहुँ दिसि फिरै, यह तौ सुमिरन नाहिं।

 

            यहाँ एक प्रश्न मन में उठता है कि यदि माला फेरते समय मन दसों दिशाओं में भाग रहा है तो नाम जप से यह भागना कैसे छोड़ देगा ? किसी शब्द पर एकाग्रता लाना और भाव विकसित करना सहज नहीं है | मन तो क्षण भर भी टिक कर नहीं रहता | यदि माला फेरना आडम्बर है तो एकग्रता और भाव के अभाव में नाम जप भी आडम्बर ही है ? इस संदर्भ में बार-बार एक उल्लेख मिलता है कि शब्द गुरु से मिला है | राम शब्द तो बहुत प्रचलित है बिना गुरु के भी ले सकते हैं, लेकिन कबीर हों या रैदास इस बात पर बहुत बल देते हैं कि यह शब्द गुरु से मिला हैसंत रज्जब कहते हैं -


गुरु सु दिखावे शब्द में, रमता रामति और
देखने को दर्पण इहै, जन रज्जब निज ठौर

 

            तात्पर्य है ,राम वह है, जो संसार में रमा हुआ है। अतः गुरु इस रमे हुए राम को और जिसमें वह रमा हुआ है, उस संसार को भी अपने प्रकाशवान शब्दों और निज अनुभव से पृथक दिखा देते हैं [28] यानी नाम जप की कोई विधि भी है जिससे नाम जप सुरति रुपी कुदाली बन जाता है | कुछ पद ऐसे भी मिलते हैं जिनमें यौगिक क्रियाओं ,बाह्याचारों ,6 शास्त्रों ,वेद आदि के अभ्यास से भी मुक्ति संभव नहीं दिखायी गयी है लेकिन सच्चे गुरु से यह संभव है | समर्थ गुरु कुछ तो ऐसा सिखा रहे हैं जिससे व्यक्ति अपने मन को अनुशासित करके भीतर स्थित ईश्वर से  एकाकार हो रहा है |

 

गुरु सभु रहसि अगमहि जानैं
ढूंढै कोउ षट सासत्रन मंहि, किंधू को वेद वशानै
सांस उसांस चढ़ावै बहु विधि, बैठहिं सुंनि समाधी
फांटियो कानु भभूत तनि लाई, अनिक भरमत वैरागी
तीरथ बरत करयि बहुतेरे, कथा बसत बहु सानै
कहि रविदास मिलियौ गुर पूरे, जिहि अंतर हरि मिलानै ||

 

            संत रैदास के वचनों में मन को संस्कारित करने हेतु जो सर्वग्राह्य और सर्वसुलभ बात है ,जिस पर सभी भक्त कवि बहुत बल देते थे वह है, सत्संगति | स्वामी विवेकानंद का कहना था ,यदि किसी में कोई गुण नहीं है तो बस वह सत्संगति करे | मन की निर्मिति में भावों और विचारों का अहम् योगदान है |अच्छी पुस्तकें भी इसका विकल्प हैं लेकिन पुस्तकें सवाल पूछने और जवाब पाने के आयाम से मुक्त है |अतः सत्संगति को जीवन में प्राथमिकता देनी चाहिए | रैदास का मानना था कि जैसे पूर्व पुण्यों के प्रताप से सच्चा गुरु मिलता है वैसे ही ईश्वर कृपा से सत्संगति प्राप्त होती है| वह कहते हैं -


साध संगति बिना भाउ नही उपजै
भाव बिनु भगति नही होई तेरी

 

            जीवन में सत्संगति के महत्व पर संस्कृत सुभाषित भरे पड़े हैं | भक्त कवियों ने भी इस पर बहुत बल दिया है | ‘जैसा खाये अन्न वैसा होय मनयह कहावत तो बहुत प्रचलित है, लेकिन मन के बनने में भाव और विचार का अन्न से कहीं अधिक योगदान है | सत्संगति से जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण विकसित करना सहज रूप से घटित होने लगता है |मानव की मूल प्रवृत्ति नकारात्मक है तो एक प्रवृत्ति नकल की या दुहराव की भी है ,स्मृति की भी है ,नयी आदतों के विकास की भी है  | सद्विचारों ,सद्भावों के निरंतर श्रवण ,मनन से मन भी उस अनुरूप ढलने लगता है | रैदास का मानना है कि गुरु या सत्संगति दोनों ही पूर्व जन्मों के पुण्य और ईश्वर कृपा से मिलती है | अतःबेहतर होने की चाहसर्वाधिक महत्वपूर्ण कारक है |यदि साधक में स्वयं को निखारने की चाह होगी तो गुरु उसकी प्रवृत्ति के अनुरूप ज्ञान ,योग,भक्ति या कर्म की राह पर उसे दीक्षित कर सकता है |


सन्दर्भ :


 [1] अनु .श्रीमती सरबजीत कौर , जगद्गुरु रविदास अमृतवाणी ,निशान साहिब रविदासिया कौम , पाँच तत्त्त को यहू रथ साज्यो ,83 पद  संख्या ,श्री गुरु रविदास जन्म स्थान चेरीटेबल ट्रस्ट
[2]वही , जब रथ रहे सारथी थाकै तबको रथहि चलावै ।
नाद बिंद सबै ही थाकै मन मंगल नहि गावै ॥ 83 पद  संख्या
[3] वही ,ऐसा ही हरि क्यूं पइवो, मन चंचल रे भाई ।  चपल भयो चहुंदिस धावइ, राख्यो रहाई।।127 पद संख्या
[4] वही , ‘लोभ मोह महि रहयो रूझानौ, नित विषया रस रीझयो’ , 127 पद संख्या
[5] वही ,काम लुबधु को बसि परयौ, कुलकांनि छांड़ि बिकायो ,127 पद संख्या
[6] वही ,मन मोरा माया महि लपटानो
बिसासक्त रह्यो निस बासर ,अजहूँ नहीं अघानो ,पद संख्या 124
[7] वही ,कनक कुटक सूत पट जुदा रजु भुअंग भ्रम जैसा ॥
जल तरंग पाहन प्रतिमा ज्यों, ब्रह्म जीव दुति ऐसा ॥ पद संख्या 87
[8] वही ,संसा सद हिरदै बसै कउनु हिरै अभिमानु ॥ पद संख्या 6
[9] वही ,मैं तैं तैं मैं देखि सकल जग, मैं तैं मूल गंवाई। पद संख्या44
[10] वही ,दुलभ जनमु पुंन फल पाइओ बिरथा जात अबिबेके ॥ पद संख्या 16
[11] वही ,इंद्री सबल निबल बिबेक बुधि परमारथ परवेस नहीं || वही
[12]वही , इंद्रियादिक दुख दारन असंख्यादिक पाप । पद संख्या 68
[13]वही , केहि बिधि अब सुमिरौ रे अति दुलभ दीन दयाल ॥ मैं महा विषई अधिक आतुर कामना की झाल ॥ पद संख्या 85
[14]वही , कूपु भरिओ जैसे दादिरा कछु देसु बिदेसु न बूझ ॥ ऐसे मेरा मन बिखिआ बिमोहिआ कछु आरा पारु न सूझ || पद संख्या 5
[15] वही ,मेरी संगति पोच सोच दिनु राती ॥
मेरा करमु कुटिलता जनमु कुभांती ॥ पद संख्या 2
[16] वही ,काम क्रोध लंपट मन मोरा।
कैसे भजन करूं मैं तोरा ॥ पद संख्या 113 
[17] वही ,धन जोवन की झूठी आसा ।
सत सत भाखै जन रविदासा ॥ पद संख्या 114
[18] वही ,काम न विसरयौ डियंभ न त्यागयो, लौभ न बिसारयो देवा ।
 पर निंदा मुख तै नहिं छाडि, निफल भयि सभु सेवा ।। पद संख्या 111
[19] वही ,ब्रहमन बैस सूद अरु ख्यत्री डोम चंडार मलेछ मन सोइ
होइ पुनीत भगवंत भजन ते आपु तारि तारे कुल दोइ ॥ पद संख्या 29
[20] वही ,बाहरु उदकि पखारीऐ घट भीतरि बिबिधि बिकार ।
सुध कवन पर होइबो सुच कुंचर बिधि बिउहार ॥ पद संख्या 6
[21] वही ,चख बिहुन कतार चलतु है तिनहु अंस भुज दीजै || पद संख्या 103
[22] वही ,परम परस गुरु भेटीऐ पूरब लिखत लिलाट ।
उनमन मन मन ही मिले छुटकत बजर कपाट || पद संख्या 6
[23] सं रामबक्ष ,दादू दयाल ,पृ 55 ,साहित्य अकादेमी ,नई दिल्ली ,2003
[24] जगद्गुरु रविदास अमृतवाणी ,देह संसै गांठि न छूटै / काम क्रोध माइआ मद मतसर इन पंचहु मिलि लूटै ॥
[25] वही ,जन को तारि तारि नाथ रमईया ।
कठिन फँद परियो पंच जमईया ॥115 पद संख्या
[26] तुलसीदास ,रामचरितमानस ,सुन्दरकाण्ड ,दोहा  38
[27] सं डॉ बलदेव वंशी ,संत पलटूदास ,पृ 44 , राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, नई दिल्ली,2017
[28] सं डॉ बलदेव वंशी ,संत रज्जब , पृ 25 ,राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, नई दिल्ली,2017

 

डॉ मुदिता तिवारी
असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, आर्य कन्या डिग्री कॉलेज, संघटक इलाहाबाद विश्वविद्यालय

चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-50, जनवरी, 2024 UGC Care Listed Issue
विशेषांक : भक्ति आन्दोलन और हिंदी की सांस्कृतिक परिधि
अतिथि सम्पादक : प्रो. गजेन्द्र पाठक सह-सम्पादक :  अजीत आर्यागौरव सिंहश्वेता यादव चित्रांकन : प्रिया सिंह (इलाहाबाद)
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