योरोपीय इतिहास में ‘मिडल एजेज़’ की जगह पर ‘मध्ययुग’ शब्द गढ़ तो लिया गया है, परंतु ‘यूरोप’ के इतिहास में जिस काल को मध्ययुग कहा जाता है, उसकी प्रारम्भिक शताब्दियों को भारतीय इतिहास का ‘स्वर्ण युग’ कहा जाता है। यह बात संपूर्ण रूप से तथ्य के अनुकूल नहीं कही जा सकती, इसके बावजूद इतना तो सत्य है कि भारतीय इतिहास में गुप्त नरपतियों का उत्कर्ष काल बहुत महत्वपूर्ण रहा है। वस्तुतः यूरोप के इतिहास में जहाँ से मध्ययुग का प्रारंभ होता है, वहाँ भारतीय इतिहास में नवीन उत्साह और नवीन जोश का उदय हुआ। मध्यकालीन बोध की सबसे प्रमुख विशेषता है अवतारवाद और भक्ति। पूर्व के सभी धर्मों एवं परस्पर विरोधी दार्शनिक सिद्धांतों में एक समानांतर विकास लक्षित होता है। संपूर्ण भक्तिकालीन नवजागरण लोक-चेतना की जागृति का परिणाम था। इसका सर्वप्रथम संकेत सिद्धों, नाथों एवं जैनों की रचनाओं में मिलता है, जिसके मूल में बौद्ध एवं जैन धर्म का जनता में उत्साह का अभाव था। सगुण-भक्ति काव्य में एक भिन्न स्तर पर लोक-चेतना प्रस्फुटित हुई, जिसके मूल में जन जागरण था। जैन-बौद्धकाल में भी संपूर्ण लोक की करुणा को धर्म ने वहन किया था। भक्ति-आंदोलन से पूर्व तमिल में जैनों और-बौद्धो का साहित्य मिलता है। तमिल से ही वैष्णव भक्त कवि आलवार और शैव भक्त नयनार अवतरित होते हैं। आलवार कुशल गायक थे। कुल आलवारों की संख्या बारह है, जिसमें अंडाल भी सम्मिलित हैं। इनकी रचनाओं का संग्रह ‘दिव्यप्रबंधम’ में हुआ। अंडाल ने भक्ति के मूल में दांपत्य प्रेम माना है, वह कहती है ‘ईश्वर के साथ भक्त संबंध दांपत्य संबंध की तरह ही होना चाहिए।’
सृष्टि की संरचना के मूल में प्रकृति और पुरुष का एक साथ योगदान है। एक के अभाव में दूसरे की परिकल्पना अधूरी है और इसकी एक महत्वपूर्ण इकाई है समाज। साहित्य समाज का दर्पण है, इस दर्पण में देखते हुये हम अस्वस्थ हो जाते है कि समाज जैसा होगा ठीक वैसा ही प्रतिबिंब उभरकर सामने आयेगा। हिन्दी साहित्य का प्रारंभ वीरगाथा या आदिकाल से माना जाता है। इसमें साहित्य के केंद्र में राजाओं की वीरगाथात्मक रचनाए रही हैं। उस काल में स्त्रियाँ भोग विलास की सामग्री थी, उनके सौंदर्य को लेकर राजाओं के बीच युद्ध हुआ करते थे। उस समय की रचनाओं को अगर देखा जाए तो पता चलता है कि रचनाकार स्त्री को सौंदर्य की परिधि में ही घेरे रहे। यह कैसा घेराव था जो पुरुष वर्ग की मानसिकता को अभिव्यक्त कर रहा था। ऐसा कौन से कारण थे जिसकी वजह से ऐसी स्थिति सामने आई। साहित्य में {विशेष कर आदिकाल व मध्यकाल में} कुछ स्त्री कवयत्रियों ने अपनी वाणी को मुखर किया लेकिन उनकी संख्या बहुत कम है। ऐसे कौन से कारण थे जिससे स्त्रियाँ मुखर रूप में साहित्य लेखन सामने न आ सकी। हिन्दी साहित्य का इतिहास अनेक आलोचको ने लिखा, जिसमें किसी भी काल की सामाजिक,राजनीतिक,सांप्रदायिक परिस्थितियों को सामने रखते हुये साहित्य के बदलाव का तुलनात्मक अध्ययन किया,जिसमें रामचंद्र शुक्ल का हिन्दी साहित्य का इतिहास एक उदाहरण है। रामस्वरूप चतुर्वेदी ‘हिन्दी साहित्य और संवेदना का विकास’ में जब भक्ति-धारा की विकास प्रकिया की बात करते है तो लिखते हैं ‘ग्रियर्सन,रामचंद्र शुक्ल और हजारीप्रसाद द्विवेदी भक्ति के उदय की व्याख्या तीन भिन्न रूपों में कराते है। ‘ग्रियर्सन, के लिए वह एक बाह्य प्रभाव है, रामचंद्र शुक्ल के लिए वह बाहरी आक्रमण की प्रतिक्रिया है और हजारीप्रसाद द्विवेदी उसे महज भारतीय परंपरा का स्वतः स्फूर्त विकास मानते है। ये क्रमशः विदेशी,देशी और लोक-पक्ष को महत्त्व देने की अलग अलग परिणतियाँ हैं’।1 आदिकाल में सामाजिक परिवर्तन के कारण सिद्ध,जैन, नाथ साहित्य निकाल कर सामने आता है। आचार्य शुक्ल लिखते हैं- ‘बौद्ध धर्म विकृत होकर वज्रयान संप्रदाय के रूप में देश के पूर्वी भागों में बहुत दिनों से चला आ रहा था। इन बौद्ध धर्म के बीच वामाचार अपनी चरम सीमा को पहुँचा।’2
इसी तरह भक्तिकाल के उद्भव एवं विकास प्रकिया के साथ ही साथ आचार्य शुक्ल ने भक्ति धारा के विभाजन को भी स्पष्ट किया। “भक्ति का जो सोता दक्षिण भारत की ओर से धीरे-धीरे उत्तर भारत की ओर पहले से ही आ रहा था उसे राजनीतिक परिवर्तन के कारण शून्य पड़ते जनता के हृदयक्षेत्र में फैलने के लिए पूरा स्थान मिला। रामानुजाचार्य से शास्त्रीय पद्धति से जिस सगुण भक्ति का निरूपण किया था उसकी ओर जनता आकर्षित होती चली आ रही थी। गुजरात में स्वामी माध्वाचार्य ने अपना द्वैतवादी वैष्णव संप्रदाय चलाया, जिसकी ओर बहुत लोग झुके... उत्तर या मध्य भारत में एक ओर तो ईसा की 15 वीं शताब्दी में रामानुजाचार्य की शिष्य परंपरा में स्वामी रामानंदजी हुए जिन्होंने विष्णु के अवतार राम की उपासना पर ज़ोर दिया और एक बड़ा भारी संप्रदाय खड़ा किया ,दूसरी ओर बल्लभाचार्य जी ने प्रेममूर्ति कृष्ण को लेकर जनता को रसमग्न किया। इस प्रकार रामोपासक और कृष्णोपासक भक्तों की परम्पराएँ चलीं जिनसे आगे चलकर हिन्दी कवि को प्रौढ़ता पर पहुँचने वाले जगमगाते रत्नों का विकास हुआ। इन भक्तों ने ब्रह्म के सत और आनंद स्वरूप का साक्षात्कार राम और कृष्ण के रूप में इस जगत के व्यक्त क्षेत्र में किया।”3
इस तरह आचार्य शुक्ल ने भक्त कवि की विभिन्न धाराओं के उद्भव और विकास प्रकिया के विषय में विस्तार से बात की। लेकिन क्या उनके इतिहास में यह देखने को मिलता है कि भक्ति आंदोलन की पृष्ठभूमि में स्त्रियों का क्या योगदान रहा। यही बात हजारी प्रसाद द्विवेदी,रामस्वरूप चतुर्वेदी आदि इतिहासकारों के इतिहास में अभाव देखने को मिलता है। आलवार सन्तों की जब बात की जाती है तब सिर्फ भक्त कवयित्री अंडाल एवं रामानन्द की शिष्य परंपरा में पद्मावती और सुरसुरी आदि का नाम लेकर ही कुछ इतिहासकारों ने अपनी भूमिका को नाम भर में ही सीमित कर दिया। क्या स्वर्णयुग कहे जाने वाले भक्तिकाल में मीराबाई को छोड़ कर कोई भी भक्त कवयित्री ने किसी भी प्रकार की अपनी प्रतिक्रिया नहीं दी? सारी की सारी स्त्रियों ने शासन व्यवस्था को ज्यों का त्यों स्वीकार कर लिया। जबकि शासन व्यवस्था में या धर्म में जब परिवर्तन आया है तब स्त्रियों को ही पहला शिकार बनाया गया। मठों में स्त्रियों का निषेध कर व्यभिचार से बचाने की बात की गई। क्या यह व्यभिचार स्त्रियों द्वारा उत्पन्न था या पुरुषों द्वारा, इस पर ध्यान देना चाहिए।
आदिकाल में सामंतवादी परिवेश में स्त्री का स्वरूप बहुत ही सिमटा हुआ था। सिद्धों, नाथों एवं जैन साहित्य में स्त्रियों की चर्चा न के बराबर थी। सिद्धों ने महासुखवाद को स्त्री भोग से जोड़ कर देखा। मध्यकाल में आकर यह स्थिति और भी विकराल रूप में सामने आती है। जिसके अनेक रूप सामने आ रहे थे। भक्ति, प्रेम, नीति, गुरु महिमा के कारण भक्ति काल को स्वर्णयुग कहा जाता है। इस स्वर्णयुग की चमक में स्त्रियों की जो वास्तविक चमक थी वह कहाँ विलुप्त हो गई उसका किसी को अभास भी नहीं हुआ जिस ईश्वर की भक्ति में हम लीन हो गए और स्त्री को माया,ठगनी की संज्ञा देने लगे, हमने यह नहीं सोचा कि जिसकों हम माया कह रहे हैं उसी ने नौ महीने कोख में रखकर अपने खून से हमे बनाया है, हमने यह नहीं सोचा जिस कुरान की पंक्ति में खुदा अपने बंदों से कह रहा है कि मैं तुमको अपने जमे हुए खून से तैयार कर रहा हूँ, वही एक स्त्री अपने माँ के रूप में खुदा के बराबर या उससे भी बढ़कर वह एक नवजात शिशु को जन्म देती है। यह कहा जाता है कि जितनी बार एक स्त्री एक बच्चे को जन्म देती है उतनी बार उसका नया जन्म होता है। जिस पीड़ा से जगत का निर्माण होता है वह पीड़ा स्वर्णयुग में क्यों देखने को नहीं मिलती। क्या कारण है कि महाकवियों ने नारी के नारीत्व को लेकर संकोच किया। इस्लाम का आक्रमण, परिस्थितियों का छिन्न-भिन्न होना इन सारे तत्वों का असर स्त्रियों पर दिखाई पड़ता है। शिवकुमार मिश्र लिखते हैं- ‘इस्लाम का भारत में प्रवेश इतना आकस्मिक और अकाल्पनिक था कि भारतीय मनीषा को जबरदस्त धक्का लगा। इसी के परिणामस्वरूप हिन्दू धर्ममत को इस्लामी मज़हब के प्रदूषण से अपने को बचाने के हेतु कठोर होना पड़ा। कठोरता या कट्टरता, किसी भी धर्म या मजहम की हो, उसका सबसे पहला शिकार स्त्री होती है। मध्ययुग में सनातन धर्म या हिन्दू धर्ममत की अपनी अस्तित्व- रक्षा के लिए जिस कठोर ढांचे की जरूरत पड़ीं, उसके परिणाम या दुष्परिणाम सबसे अधिक स्त्री-जाति को ही भोगने पड़े’।4
कबीर के निर्गुण- पंथ में या कबीर के अपने कहे हुए के जो साक्ष्य है उसमें स्त्री को साधना के पथ में बाधा माना गया है। उसे माया, ठगिनी न जाने कितने नामों से पुकारा गया है। उसे परमात्मा के मार्ग से जीवात्मा को भरमाने-भटकाने वाली कहा गया है, और साधक को उसकी छाया तक से दूर रहने की सलाह दी गई है। ‘नारी की झाई’ परत अंधा होत भुजंग’ नारी महाविकारी है, वह अपने मोह जाल में जीव को बांध लेती है और सांसारिक चक्करों में उसे उलझाए रखती है और वे उससे मुक्त नहीं हो पाए हैं। उनके विवेक ने उन्हें सवर्ण- असवर्ण के भेद को वे अमान्य नहीं कर सके। उनके विवेक पर उनके संस्कार विजयी हुए। यही कबीर के चिंतन का द्वित्व है’।5
कबीर ने एक तरफ स्त्रियों को माया बताया वही दूसरी तरफ स्त्री बनकर भक्ति का भाव भी प्रगट किय। यह कैसा विरोधाभास है? सती स्त्री को सम्मान व उदाहरण के रूप में प्रगट करते है जो शास्त्र का अनुसरण मात्र है। वही जायसी के यहाँ स्त्री कोई विमर्श का विषय नहीं अपितु वह भाव का स्वरूप है। जायसी की रचना ‘पद्मावत’ जो सूफी काव्य परंपरा की श्रेणी में आती है, जिसमें स्त्री प्रेम और ब्रह्म के रूप में सामने आई है। कुछ आलोचक रानी नागमति को दुनियाँ धंधा से जोड़कर देखते हैं, यह क्या काव्य को पढ़ते हुये जायसी यही कहना चाहते तो क्यों नागमती को वियोग की अवस्था में उसका ह्रदय विस्तार कराते। शिवकुमार मिश्र लिखते हैं- “ वस्तुतः सगुण कृष्ण-भक्ति के काव्य में ही, हिन्दी कविता में पहली बार स्त्री अपने वजूद के साथ, कम से कम अपनी दो प्रधान भूमिकाओं में बहुत प्रगट होकर सामने आई है- एक अपने सबसे उद्दत- जननी या माँ के रूप में और दूसरी प्रेमिका के रूप में- भले ही उनके प्रेम के आलंबन श्रीकृष्ण हों। इसके पहले जायसी के पद्मावत को छोड़ दें तो हिन्दी कविता में स्त्री अपने वजूद, अस्मिता के साथ ही नहीं थी। आदिकाव्य में वीरगाथाओं में वह सुंदरी मात्र हैं जिसे लेकर युद्ध होते हैं, लौकिक काव्य में उनका प्रेमिका- रूप है, परंतु बहुत उल्लेखनीय नहीं। 6
भक्तिकाल में प्रेम का स्वरूप बहुत प्रखर रूप में सामने आया। जिसमें कबीर,जायसी, सूर, तुलसी के साथ मीरा खड़ी थी, जिनका आलंबन भी प्रेम था और सामंतवादी व्यवस्था का विरोध भी प्रेम। जिस तरह कबीर,सूर तुलसीदास को अपने भाव को व्यक्त करने के लिए किसी न किसी प्रतीक को खड़ा किया वही मीरा ने प्रतीकों का सहारा न लेते हुये भी अपने प्रेम को समाज के सामने चुनौती के रूप में स्वीकार भी करती हैं और चुनौती देती भी हैं। मीरा की वेदना उस समय की संपूर्ण स्त्री जाति की भावानुभूति का प्रतीक है। जिस चार दीवारी के भीतर स्त्री जाति की कल्पना की जा रही थी उस कल्पना को मीरा ने साधुओं की संगत में बैठ कर चूर चूर कर दिया।
अपने घर का परदा कर लें, मैं अबला बैरानी।।7
मीरा की अनुभूति ही मीरा का काव्य है, मीरा के काव्य की आत्मा प्रेम है, मीरा अपने भाव की कसौटी प्रेम को मानती है तो अपने संघर्ष को भी। यह संघर्ष मीरा का नहीं अपितु संपूर्ण मध्यकालीन मानसिकता के विरोध में स्त्रियों का यह सामूहिक आह्वान था। मीरा उच्च कुल की स्त्री का प्रतीक थी जहाँ स्त्रियाँ सजावट की वस्तु से अधिक कुछ नहीं थी। वहाँ मीरा अपने गिरधर नागर के प्रेम को खुले स्वर में स्वीकार करती है। यह एक ऐसा प्रेम था जहाँ शारीरिक मिलन की कभी आकांक्षा थी ही नहीं, वह प्रेम मीरा की भक्ति भी थी और शक्ति भी। इसी प्रेम की वजह से मीरा कहती है
राणा जी म्हणे या बदनामी लगे मीठी। । 8
मीरा अपने को बिगड़ी हुई मानती है, मीरा गिरधर नागर के हाथों बिकने की बात को स्वीकार करती है। मीरा का स्वर कहीं न कही हमारे आने वाले समय की ध्वनि थी जो आज प्रखर और मुखर रूप में समाज के सभी जन से संवाद करती है। समकालीन साहित्य में आज स्त्री स्वर मुखर रूप में सामने आने लगा है लेकिन आज भी बहुत से बिन्दु ऐसे हैं जिनपर हम संवाद नहीं कर रहे हैं। आज समय के अनुसार बहुत से बदलाव समाज के सामने उपस्थित हैं, आज तक जो परिधि पर थे वह केंद्र में आकर संवाद कर रहे हैं। उन संवादों में कितनी मुखरता और तीव्र वेदना है वह स्पष्ट ही सामने आ रही है। आज जिस स्त्री विमर्श के नाम पर लेखन किया जा रहा है उसकी वास्तविकता किस हद तक प्रमाणिक है यह संज्ञान में रखने की जरूरत है। जिस तरह संपूर्ण जीवन की अनुभूति को हम मीरा का काव्य नाम देते हैं वह सही मायने में मीरा का जीवन है। आज की कविता या काव्य जीवन की अनुभूति और शिल्प की अभिव्यक्ति के द्वंद्व में फंसकर रह गयी है।
मीरा का काव्य संपूर्ण लोक जागरण का काव्य है। यह एक ऐसे समय में निद्रा का त्याग था, जहाँ कोई भी व्यक्ति स्त्री की पीड़ा को न महसूस कर रहा था और न ही उसके स्वर में अपना स्वर मिला रहा था। उस समय मीरा का आगमन संपूर्ण साहित्य में एक नयी और सार्थक दिशा की ओर बढ़ना था। रामस्वरूप चतुर्वेदी लिखते हैं- “मीरा के कृतित्व में प्रेम और भक्ति के पक्ष सहज भाव से घुल मिल गए हैं। यह संपृक्त अनुभूति जो कबीर और जायसी में अलग- अलग रहस्यवादी पद्धति में ढ़लती है, और सूर में कृष्ण–राधा का प्रणय चित्र बनाती है वही मीरा में सहज आत्मानुभूति का गीत बन जाती है।9 सूर का काव्य जहाँ उन्मुक्त संवाद का काव्य है वहीं सूर की गोपियाँ समस्त सामन्तवादी समाज में उन्मुक्त एवं तर्कात्मक संवाद करती है। सूरदास ने पहली बार स्त्री के सभी रूपों को सामने रखा है। जिसमें माता रूप के साथ, प्रेमिका एवं पत्नी रूप को अत्यंत सशक्त ढंग से प्रस्तुत किया है। समस्त वर्जनाओं को तोड़ प्रेम का निष्कलुष-निर्मल रूप सामने आया। आचार्य शुक्ल ने सूर के काव्य को जीवन-महोत्सव का काव्य माना है। सूर की रचनाओं का आधार प्रेम है, वह प्रेम जो ज्ञान पर भी भारी पड़ता है। आचार्य शुक्ल सूर के काव्य की तुलना अपने प्रिय कवि तुलसीदास से करते हुये लिखते हैं-‘तुलसी के समान सूर का काव्यक्षेत्र इतना व्यापक नहीं कि उसमें जीवन की भिन्न-भिन्न दशाओं का समावेश हो पर जिस परिमित पुण्यभूमि में उनकी वाणी ने संचरण किया उसका कोई कोना न छूटा। गोस्वामी तुलसीदास ने गीतावली में बाललीला को इनकी देखादेखी बहुत अधिक विस्तार ही सही, उसमें बालसुलभ भावों और चेष्टाओं की वह प्रचुरता नहीं आई, उसमें रूप वर्णन की ही प्रचुरता रही। बालक चेष्टा के स्वाभाविक मनोहर चित्रों का इतना बड़ा भंडार और कहीं नहीं’।10 शिवकुमार मिश्र लिखते है-‘ आचार्य शुक्ल का सहृदय अपना सारा मर्यादावाद विस्मृत कर यहाँ सूर की कविता और कला पर मुग्ध हो उठता है। नारी मुक्ति की यह वह परिकल्पना है जो सामन्ती समाज में नारी की स्थिति को लक्ष्य कर सूर ने अपने यहाँ प्रस्तुत की है। नारी अस्मिता को पहचानने वाला और नारी मन के स्वप्नों, उसकी आशाओं-आकांक्षाओं को मानवीय संवेदना की समूची गहराई तथा व्याप्ति के साथ उभरने और अंकित करने वाला इतना बड़ा रचनाकार उस युग में दूसरा नहीं है’।11
सूरदास का नारी विषयक दृष्टिकोण संपूर्ण हिन्दी साहित्य में नारी के विभिन्न रूपों का भावुक और तार्किक विवेचन हैं। गोपियों के प्रेम, भक्ति, नीति, ज्ञान का संवाद स्थापित कर सूर ने नारी के उदात्त तत्वों का वरण किया है। तुलसीदास का नारी विषयक दृष्टिकोण अत्यंत विवादित रहा है कोई तुलसी की पंक्तियों को बिना संदर्भ लिए व्याख्या करता हैं, कोई प्रसंग को साथ लेकर। कुछ पंक्तियों को तुलसीदास ने लिख कर नारी को क्या सिद्ध करना चाहा है यह एक लोकवादी और मर्यादावादी कवि के लिए विचारणीय विषय है। भले ही किसी भी प्रकार की नारी या किसी भी प्रसंग और संदर्भ में क्यों न आया हो। जैसे –जिमि स्वतंत्र होइ बिगरहि नारी’ यह पंक्ति किस प्रकार की नारी को केंद्र में रख कर लिख रहे थे, यह एक उदाहरण स्वरूप है, जिसको जानने की जिज्ञासा मेरे में हमेशा बनी रहती है।
इस तरह मध्यकाल के भक्ति साहित्य में स्त्री का निरूपण अनेक दृष्टिकोण से हुआ,परंतु स्त्री कवयित्री का कोई स्थान विस्तार या हिन्दी साहित्य में योगदान नहीं दिखा। यह अगर कहा जाए कि मध्यकाल में स्त्रियों ने मौन व्रत धारण कर लिया था या उस समय वह अपने भावों को अभिव्यक्त तो कर रही थी लेकिन उसको अनुभूति करने वाला क्या कोई सहृदय नहीं था!
संदर्भ :
1- ‘हिन्दी साहित्य और संवेदना का विकास रामस्वरूप चतुर्वेदी, लोकभारती प्रकाशन संस्करण पृ0 30}।
2- हिन्दी साहित्य का इतिहास रामचंद्र शुक्ल नमन प्रकाशन संस्करण पृ 4}
3- हिन्दी साहित्य का इतिहास रामचंद्र शुक्ल नमन प्रकाशन संस्करण पृ 36}
4- भक्ति-आंदोलन और भक्ति-काव्य, शिवकुमार मिश्र, लोकभारती प्रकाशन, संस्करण पृ-262}
5- वही पृ -265}
8- वही पद 34
9- हिन्दी साहित्य और संवेदना का विकास रामस्वरूप चतुर्वेदी, लोकभारती प्रकाशन संस्करण पृ0 49}
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-50, जनवरी, 2024 UGC Care Listed Issue
विशेषांक : भक्ति आन्दोलन और हिंदी की सांस्कृतिक परिधि
अतिथि सम्पादक : प्रो. गजेन्द्र पाठक सह-सम्पादक : अजीत आर्या, गौरव सिंह, श्वेता यादव चित्रांकन : प्रिया सिंह (इलाहाबाद)