शोध आलेख : भक्ति और लोकमानस / योगेन्द्र प्रताप सिंह

भक्ति और लोकमानस
- योगेन्द्र प्रताप सिंह


आस्था और विश्वास मानव जीवन के अभिन्न अंग हैं, जो पृथ्वी पर मनुष्य में भय एवं अनिष्ट की उत्पत्ति के समय से ही समानांतर रूप से निरंतर साथ-साथ चले आ रहे हैं। चूँकि लोक की निर्मिति के केंद्र में मनुष्य रहा है और सुख-दु:ख ऐसे पड़ाव हैं जिनसे प्रत्येक मनुष्य को गुज़रना पड़ता है। लोक और व्यक्ति अन्योन्याश्रित हैं। लोक के बिना व्यक्ति और व्यक्ति के बिना लोक की कल्पना निरर्थक है। तमाम परेशानियाँ और बवंडर व्यक्ति के जीवन से जुड़े रहते हैं जिनके निवारण के लिए मनुष्य किसी न किसी का सहारा लेता रहा है। इसी कारण आस्था और विश्वास लोक के मूलाधार बनते हैं। ये एक पड़ाव तक आते-आते भक्ति में तब्दील हो जाते हैं और यहीं से देवत्त्व की अवधारणा की उत्पत्ति होती है। धीरे-धीरे इसी अवधारणा के विकासक्रम में हमें नाना प्रकार के देवी-देवता और पूजा-पद्धतियाँ देखने को मिलती हैं।

            हमारा अभीष्ट भक्ति के वातायन से लोक में विद्यमान देवी-देवताओं और उन पर हमारे मानव समाज की निर्भरता से आपको परिचित कराना है। भक्ति के उदय से लेकर और आज तक हम भक्ति का जो स्वरूप देख रहे हैं, क्या भक्ति का वास्तविक स्वरूप यही था? जो आज प्रचलित है या तब की अपेक्षा आज उसके मायने बदल गए हैं? एक वक़्त तक भक्ति के केंद्र में भय और अनिष्ट रहता था। क्या भक्ति का इस्तेमाल आज भी इन्हीं उद्देश्यों के लिए हो रहा है? क्या आज भाँति -भाँति के स्वार्थों और लाभ के अलावा राजनीतिक उद्देश्य इस पर हावी नहीं हैं? मसलन पहले बजरंगबली की पूजा अनिष्टकारी शक्तियों के विनाश के लिए होती थी। परंतु आज बजरंगबली धड़ल्ले से राजनीतिक उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल किए जा रहे हैं। मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम से लेकर पैग़म्बर मुहम्मद साहब तक अब एक सामान्य व्यक्ति की सच्ची आस्था और विश्वास का केंद्र न रहकर पूँजीपतियों और राजनेताओं के लाभ लिए इस्तेमाल किए जा रहे हैं। किसी भी नेता को जब भी अपनी ज़मीन खिसकती दिखाई पड़ती है तो वह समाज में वैमनस्य फैलाने के लिए 'सांस्कृतिक पीक' मारने में कोई कोताही नहीं करता और बड़ी आसानी से इनका इस्तेमाल कर लेता है तथा हमारी भावनाएँ इतनी सस्ती हो गई हैं कि किसी के अनर्गल प्रलाप भर से आहत हो जाती हैं और हम लड़ने-मरने पर आमादा हो जाते हैं।

            जो भी है, मुख्य धारा के जितने भी देवता हैं, उनकी सबकी स्थिति कमोबेश यही है। जो हमारे पतन की ओर इशारा करता है। हालांकि इनसे एक समूचा जनमानस अनुप्राणित है और ये देवता हमारे जनमानस के लिए शक्तिपुंज हैं और इनमें अनन्य आस्था रखते हैं। इस आस्था पर हमारा कोई सवाल नहीं है। पर आस्था-विश्वास और धर्म में राजनीति का अनैतिक हस्तक्षेप एक दिन हमारे पतन का सबब बनेगा। अलबत्ता हमारा उद्देश्य लोक में प्रचलित देवी-देवताओं और लोकभक्ति से सम्बन्धित है। तो हम उन पर बात करेंगे। आज के इस आधुनिक मशीनी और यांत्रिक युग आप सब देखते हैं कि ख़ासकर शहरों में तो पूजा-पाठ और तीज-त्योहार एक ट्रेंड के अनुसार प्रायोजित हो रहे हैं। बाज़ार का भाव एवं देश-काल-वातावरण बहुत कुछ निर्धारित करने लगा है। पर जब हम अपने गाँवों की तरफ़ चलते हैं तो मुझे ऐसा लगता है कि पुराने आस्था और विश्वास आज भी जीवित हैं। लगभग प्रत्येक गाँव का एक लोकदेवता होता है तथा तमाम लोकदेवताओं की पूजा आसपास के क्षेत्रों में देखने को मिलती है और यही नहीं उनके साथ दृढ़ आस्था और अटूट विश्वास जुड़ा हुआ है। वे मनौतियाँ माँगते हैं। भले ही ये मनौतियाँ उनके अपने कर्मों द्वारा ही पूरी हुई हों, अलबत्ता वे पूरा श्रेय अपने लोक के देवी-देवताओं को ही देते हैं और अपने वादे के अनुसार मनौतियाँ पूरी होने पर पूजा-पाठ, हवन इत्यादि के अलावा सामूहिक भोज का भी प्रबंध करते हैं। संक्षिप्त में कहें तो इन देवी-देवताओं से एक समूचा जनमानस प्रभावित है और इनसे उर्जा भी ग्रहण करता है। यह भक्ति सहज-सरल और तमाम राग-द्वेषों से परे है। लोक इन्हें अपने हृदय में सर्वोच्च स्थान देता है।

            हम अपने आसपास के क्षेत्रों में प्रचलित लोक देवी- देवताओं के बारे में जानने का प्रयास करेंगे और उन पर सरसरी निगाह भी डालेंगे। लोकदेवताओं के वर्गीकरण के विषय में डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल ने वेद और लोक की कोटियों के आधार पर वैदिक देवताओं के दो वर्ग बनाए हैं। उनके अनुसार, " वैदिक देवता टकसाली और पद-प्रतिष्ठा में बहुत ऊँचे हैं। जबकि दूसरे छुटभैये देवता हैं। क्योंकि इनका संबंध आदिम जातियों से है अथवा उनकी परंपरा सामान्य लोक में है।"1 लेकिन उनकी इस टिप्पणी पर डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त प्रतिवाद करते हुए लिखते हैं कि, "एक सीमा तक तो श्री अग्रवाल की टिप्पणी अपना औचित्य रखती है,पर लोकदेवताओं और लोकदेवियों को छुटभैये कहना इसलिए ठीक नहीं है कि वे लोक द्वारा स्वीकृत देवता हैं। जबकि वैदिक देवता एक विशिष्ट वर्ग या समुदाय द्वारा मान्यता प्राप्त होते हैं”2 लोकदेवताओं को निम्न वर्गों में रखा जा सकता है -

1- प्रकृतिपरक देवता- वृक्ष,भूमि, पर्वत,नदी, पवन, सूर्य, चंद्र आदि।

2- अनिष्टकारी देवता- अग्नि,सर्प, भूत-प्रेत, आँधी, मृत्यु आदि।

3- आदिवासियों के देवता- बड़ा देव, ठाकुर देव, नारायन देव,घमसेन देव आदि।

4- स्थलपरक देवता- गाँव की देवी, खेरमाई, मिड़ोइया ( खेत की मेड़ के देवता ), घटोइया ( घाट के देवता ),पौंरिया बाबा आदि।

5- जातिपरक देवता- कारसदेव,ग्वालबाबा और गुरैयादेव( अहीरों के देवता ), मसानबाबा (तेलियों के),भियाराने ( काछियों के ), गौंड़बाबा आदि।

6- अतिप्राकृत देवता- यक्ष, गंधर्व, भूत, राक्षस या दानव, नाग आदि।

7- स्वास्थ्यपरक देवता- शीतलामाता,मर‌ईमाता,गंगामाई आदि।

8- अर्थ या समृद्धि परक देवता- मणिभद्र, कुबेर, लक्ष्मी, नाग आदि।

9- विवाहपरक देवता- दूलादेव, हरदौल, पार्वती या गौरा, गणेश आदि।

10- शक्तिपरक देवता- शिव, दुर्गा, काली, हनुमान, चंडिका, भैरोंदेव आदि।

11- वरदायी देवता- शिव, इंद्र, वासुदेव, राम, शारदामाई, दशारानी आदि।

12- कुलदेवता- गोसाईं बाबा, सप्तमातृकाएँ, खुरदेवबाबा आदि।

13- संतानरक्षक देवता- रक्कस बाबा, बीजासेन, षष्ठी देवी,बेइया माता आदि।

14- विघ्नहरण देवता- गणेश, पितृदेव,संकटादेवी आदि।


            इन लोक देवी-देवताओं की पूजा पुराने समय से ही चली आ रही है। रामचरितमानस में जिस समय राम के राजतिलक की तैयारी चल रही होती है तो कल्याण और मंगल के लिए कौशल्या ग्राम देवी-देवताओं की पूजा करती हैं। तुलसीदास लिखते हैं -

"पूजी ग्राम देबि,सुर,नागा। कहेउ बहोरि देन बलिभागा”

            ये लोक देवी-देवता आदिकाल से ही लोक में पूजित हो रहे हैं। कोई भी समय रहा हो,कितने भी आक्रांता आए हों वे इस लोकभक्ति को डिगाने में नाकामयाब रहे।

            प्रागैतिहासिक काल में 'पाशुपत' की पूजा होती थी जो लोकदेवता के रूप में प्रसिद्ध था। उसी दौरान कृषि के विकास के साथ मातृपूजा को भी प्रधानता मिली। भू-देवी प्रमुख देवी बनीं। क्योंकि अच्छी उपज देने की मान्यता होने के कारण लोक के लिए अत्यंत उपयोगी हुईं। उनकी पूजा आज भी भुइँया रानी या भियाँरानी के रूप में होती है। बाणभट्ट की कादम्बरी में शबर पूजित चण्डिका का वर्णन किया गया है। उन्हें रुधिर-बलि चढ़ाई जाती थी।

            लोकदेवी लक्ष्मी का उल्लेख तो ऋग्वैदिक काल से मिलता है। जहाँ वह 'श्री देवी' के रूप में सौंदर्य, ऐश्वर्य और सौभाग्य की प्रतीक लोकदेवी थीं। जिनके संदर्भ में श्री सूक्त की रचना हुई। इस सूक्त में वह कमलासना, कमलवर्णा और कमलमालिनी हैं। लक्ष्मी राज्य और संपत्ति के प्रतीकात्मक रूप में बहुचर्चित होती ग‌ईं। हर्षवर्द्धन काल में रचित बाणभट्ट के 'हर्षचरित' और 'कादम्बरी' में राजलक्ष्मी का उल्लेख क‌ई बार आया है। कादम्बरी में इन्हें धन के रूप में व्याख्यायित किया गया है। कादम्बरी में लक्ष्मी की मृण्मूर्ति का भी उल्लेख है। डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त लिखते हैं कि, "प्रत्येक देवी-देवता एक ख़ास उद्देश्य की पूर्त्ति के लिए होता है। तभी लोक उसे अपनाता है। लक्ष्मी से क‌ई वर्गों के अनेक उद्देश्य सधते थे। राजाओं के लिए राजलक्ष्मी, वैष्णव हिंदुओं के लिए देवीलक्ष्मी,परिवार और उसके मुखिया के लिए गृहलक्ष्मी और सभी के धनलक्ष्मी। देवता की पूजा में नारियों का हिस्सा ज़्यादा होता है, इसलिए उनके लिए सुहाग या सौभाग्य लक्ष्मी। यही सबसे प्रमुख कारण कि लक्ष्मी लोकदेवी होती ग‌ईं और सभी जगह उनकी पूजा होती है”3

प्रमुख लोक देवी-देवता

लोकदेवता कारसदेव -

            कारसदेव बुंदेलखंड की पशुपालक जाति के एक वीर देवता हैं। इन्हें अहीरों, गड़रियों और गूजरों आदि का देवता मानते हैं। बुंदेलखंड में सभी जगह कारसदेव के गोल-मटोल चबूतरे पाए जाते हैं। कारसदेव और उनके भाई सूरजपाल की प्रतीक मूर्त्ति स्वरूप दो गोल-मटोल पत्थर की बट‌इयाँ इन चबूतरों पर प्रतिष्ठित होती हैं। चबूतरे के पास दो-चार घोड़े(मिट्टी के बने) खड़े कर दिए जाते हैं। सफेद कपड़े के ध्वज बाँसों में लगे होते हैं। कृष्ण चतुर्थी और शुक्ल चतुर्थी को रात में पूजा होती है और उनके आह्वान के लिए घुँघुरू लगी ढोलक(ढाँक) पर गीत गाए जाते हैं जिन्हें ‘गोट’ कहते हैं। पूजा के लिए एक ‘घोल्ला’ होता है जिसपर कारसदेव आते हैं।

            गोरक्षक, पशुरक्षक एवं लोकरक्षक देवता कारसदेव के विषय में क‌ई किम्वदन्तियाँ मिलती हैं। इनका जन्मकाल 11-12 शती के मध्य माना गया है। इनका जन्म बुंदेलखंड के ग्राम झाँज के गूजर परिवार में एक नि:संतान 'सरनी' माँ को 12 वर्ष की शिव की तपस्या के बाद प्राप्त हुए। इसका उल्लेख इनकी पूजा में गाई जाने वाली गोटों में मिलता है -

"बारा बरस तपिया तपी,करे न अन्न आहार

सरनी गई स्नान खों, अहेले तला के पार।

कमल पर पौढ़ौ राजकुमार।

उठा सरनी ओली लये, कारस को पुचकार

जप, तप सब पूरन भ‌ए, मोरी शिव ने सुनी पुकार।"4


            कारसदेव से जुड़ी मान्यता है कि पशु-पक्षियों के उपचार एवं रूप से गौ-धन-भैंस आदि जानवरों को किसी कीड़े द्वारा काटने, सर्प द्वारा डसने, किसी भी तंत्र-मंत्र, औघड़-मसान द्वारा प्रताड़ित करने पर उस जानवर की फ़रियाद कारसदेव के चबूतरे पर करने से उस पशु का दूध अर्पित करने से वह जानवर स्वस्थ हो जाता है।

लोकदेवता रक्कस बाबा -

            रक्कस स्थानीय बोली का शब्द है,जो रक्षक का ही अपभ्रंश रूप है। यह वंशबेलि बढ़ाने वाले तथा रक्षा करने वाले देवता हैं और लगभक सभी के यहाँ पूजे जाते हैं। बुंदेलखंड के हिंदुओं की सभी जातियों के यहाँ रक्कस लगता है। रक्कस बाबा की पूजा जिसे कलेऊ देना कहते हैं- मेंड़े पर अर्थात् बस्ती या गाँव के बाहर खेत की मेड़ पर पूजा की जाती है। बरिया या नीम के पेड़ के नीचे रक्कस बाबा का थान चबूतरे के आकार में बना होता है और उस पर बाबा की मठिया बनी होती है। पूजा को या कलेऊ देने को रक्कस देना कहते हैं। लड़के के सात रक्कस दिए जाते हैं। लड़कियों को रक्कस देने का उल्लेख कम मिलता है। पूड़ी, गुड़ का हलवा और कंकड़ रखकर, दिया जलाकर हवन किया जाता है। पूजा के दौरान गीत गाए जाते हैं -

"रक्कस बाबा के दये ललना
मचल रये मोर अँगना"


            सातवें रक्कस का बहुत महत्त्व है, किसी शादी के पहले 'मड़वा' अथवा तेल पूजन क दिन इतवार या बुधवार को देना आवश्यक है। रक्कस बाबा के लिए गीत गाए जाते हैं -

"डारे गुरज पे डेरा, रक्कस बाबा बड़े अलबेला
सोने की थारी में भोजन परोसें,अरे जेवत में डाल आए सेला
रकस बाबा बड़े अलबेला।"


लोकदेवता हरदौल -

            डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त, हरदौल को निर्विवाद रूप से 17वीं शताब्दी के ओरछा नरेश वीरसिंह देव का द्वितीय पुत्र माने जाते हैं। इतिहासकार पं. गोरेलाल तिवारी के अनुसार, उनकी माता का नाम गुमानकुँवरि था और ये इन्हीं रानी से उत्पन्न चार भाई थे- हरदौल, भगवंतराय, चंद्रभान और बिसुनसिंह। इनकी एक बहन भी थी जिसका नाम कुंजकुँवरि या कुंजावती था।

            लोक में प्रचलित गाथा के अनुसार- ओरछा नरेश जुझारसिंह की रानी चम्पावती अपने देवर हरदौल से बहुत अधिक स्नेह करती थी और हरदौल भी अपनी भौजाई को माता के समान मानते थे। जुझार सिंह के मुग़ल-दरबार या मुग़ल-सेना में रहने पर हरदौल ही ओरछा का राजकाज सँभालते थे। वे न्यायप्रियता, सत्यवादिता आदि गुणों के कारण समाज में बहुत लोकप्रिय हो गए थे। इस कारण ईर्ष्यालु दरबारियों और मुग़ल-प्रतिनिधियों ने मिलकर राजा के कान भरे और षड़यंत्र रूप में देवर-भाभी के विशुद्ध प्रेम को अनैतिक और लांछित बताया। शक की कोई दवा नहीं होती। फलस्वरूप राजा ने रानी के पतिव्रत धर्म की परीक्षा लेनी चाही और उसे देवर को विष देने के लिए विवश किया।रानी ने विष मिला भोजन हरदौल को परोसा तो, पर उनकी आँखें बरस पड़ीं। पूछने पर उन्होंने सच्ची बात बता दी। अब हरदौल की परीक्षा थी और वे उसमें सोलह आने खरे उतरे। भोजन करने पर प्राण-पखेरू उड़ गए।

            डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त ने 'बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास', प्रकाशक लोककला एवं बोली विकास अकादमी,भोपाल, पृष्ठ- 394 में हरदौल से जुड़े लोकगीतों का उल्लेख किया है -

"हरदौले विष दै दै नारी
पतिव्रता को जोई धरम है,करै पती को कैना री।"


            हरदौल के प्रेत के विषय में किम्वदन्तियाँ लोकमानस में प्रचलित हैं। हरदौल की बहन कुंजावती अपनी बेटी के विवाह का निमंत्रण लेकर ओरछा आई थी। ओरछा नरेश जुझारसिंह को हत्यारा मानकर उन्हें निमंत्रण न देते हुए वह जहाँ हरदौल की चिता जली थी, वहीं निमंत्रण रख देती है और कहती है- कि मेरी पुत्री का भात आपको भरना है। कहा जाता है कि, हरदौल का प्रेत तमाम सामान लेकर भात भरने गया था और पूरा घर भर दिया था। बहन के आग्रह पर उन्होंने साक्षात दर्शन दिए।

            इन सभी घटनाओं को गहराई से परखने पर यह प्रकट होता है कि हरदौल को लोकदेवता बनाने में दो प्रसंग ही प्रमुख हैं। एक तो भौजी-देवर के प्रेम को बहुत ऊँचाई पर ले जाने के लिए हरदौल का प्राणोत्सर्ग और दूसरा भाँजी के विवाह में सहायक होकर लोकमानस पर विजय। दूसरा प्रसंग चमत्कारी है और चमत्कार देवता की आवश्यक शर्त है। शायद इसीलिए लोक को अधिक प्रभावी लगा। इसी कारण प्रत्येक परिवार आज भी विवाह के पहले हरदौल के चबूतरे पर निमंत्रण रखता है और बाद में उनकी पूजा करता है। इस रूप में हरदौल विवाहों के देवता ठहरते हैं। ऐसा लगता है कि भौजी-देवर के पवित्र प्रेम से उत्पन्न हरदौल का देवत्त्व लोकमानस में विवाह के वरदाता के रूप में बदल गया है। आज भी गीत गाए जाते हैं -

" गाँउन-गाँउन चोंतरा उर देसन-देसन नाँव
लाला तोरो भलो है लछारो नाँव"


महोबे के मनियाँ देव -

            मनियाँ देव महोबे के चंदेलों आदि के लोकदेवता थे। इनकी बड़े स्तर पर पूजा होती है। कोई भी शुभ कार्य बग़ैर इनकी पूजा के पूरा नहीं होता था। जगनिक द्वारा रचित 'परमाल रासो' में इनका उल्लेख मिलता है। उत्तर भारत में गाए जाने वाले आल्हा में 'मनिया सुमिरि महोबे क्यार' आह्वान पंक्ति आती है। साथ ही साथ ‘पारस पूजा’ का भी उल्लेख मिलता है जो राजा परमाल के पास थी। आल्हा में गाया जाती है कि -

"पारस बटिया ह‌इ महुबे मा। लोहा छुए सोन हुइ जाय।"

            कहा जाता है कि यह बटिया राजा परमाल को चंद्रदेव या यक्ष ने प्रदान की थी।


भुजरिया पर्व -

            मालवा, बुंदेलखंड और महाकौशल क्षेत्र में भुजरिया पर्व बड़े पैमाने पर आज भी मनाया जाता है। रूठों को मनाने, बारिश के लिए रक्षाबंधन के अगले दिन यह पर्व मानाया जाता है। इस त्योहार के पीछे की दो कहानियाँ मिलती हैं, जिसमें महोबे के राजा परमाल की बेटी चंद्रावली भुजरियाँ सिराने के लिए गयी थी जहाँ पृथ्वीराज ने अपहरण करने की नीयत से महोबे पर चढ़ाई कर दी थी। तब ऊदल और लाखन ने चंद्रावली और महोबे की रक्षा की थी। उसी के विजयदिवस के रूप में यह पर्व मनाया जाने लगा। दूसरी कहानी राजा भोज के समय की है कि एक बार सूखा पड़ने पर किन्नरों ने मंदिरों और मस्जिदों की पूजा की थी,तब बारिश हुई। तभी से यह पर्व मानाया जाने लगा।

            इसके अलावा इस क्षेत्र में दूल्हादेव, गुरैया देवी, घटोरिया बाबा, खेरापति, शीतला देवी की पूजा शीतलता, शांति तथा बच्चों को जब ‘स्मॉल पोक्स’ निकल आती है तब की जाती है। इसके अतिरिक्त भुईंया बाबा, भैरव बाबा, कुलदेवता बाबू आदि की पूजा भी बड़े पैमाने पर प्रचलित है, जिसका उद्देश्य मंगलकामना ही है। दूल्हादेव गोड़ों के देवता माने जाते हैं तथा बुंदेलखंड में अहीरों के देवता माने गए हैं।

            लोक देवी-देवताओं का एक बड़ा वर्ग उत्तर प्रदेश के अवध प्रांत से लेकर पूर्वी उत्तर प्रदेश तक 'बरमबाबा', हालाँकि इनकी पूजा लगभग प्रत्येक हिस्से में की जाती है। लेकिन इस क्षेत्र में यह लगभग प्रत्येक गाँव में पाए जाते हैं। पीपल के पेड़ के नीचे ईंटों के बने चबूतरे पर यह स्थापित होते हैं जहाँ लाल झण्डा चढ़ाया जाता है और व्यक्ति के जन्म से लेकर मृत्यु तक सभी मंगल कार्य बग़ैर इनकी पूजा के संपन्न नहीं होते हैं। एक बड़ा तबका इनके साथ जुड़ा हुआ है। इसके अलावा मराठा मैया, भगौती मैया, नटबीर बाबा, डीह बाबा,दादा मियाँ की मज़ार, नागबाबा, घूमसेनी माता, बालगिरि बाबा, दाने बाबा, बाबा तुरंतनाथ आदि देवताओं की पूजा समूचे अवध क्षेत्र और आस-पास के हिस्सों में बड़े पैमाने पर होती है। सीतापुर और हरदोई ज़िला इसके मुख्य उदाहरण हैं। इसके साथ 'काली मैया का थाना, कोथरावल माई, लोहरामाई आदि लोकदेवियों की पूजा भी अवध के सुल्तानपुर और अमेठी आदि ज़िलों और उनके आसपास के क्षेत्रों में होती है। काली मैया के थाना की पूजा रक्षा करने वाली देवी के रूप में होती है। कोथरावल माई के स्थान पर ग‌ए बिना वैवाहिक कार्य पूरा नहीं माना जाता,अमंगल की आशंका लगी रहती है।

            इसके साथ-साथ अवध क्षेत्र में ख़ासकर सीतापुर और हरदोई में 84 कोसीय परिक्रमा एक बड़े पैमाने पर प्रचलित है। जिसके कुल 11 पड़ाव हैं। सात पड़ाव सीतापुर ज़िले में और 4 हरदोई में। यह परिक्रमा फाल्गुन मास की अमावस्या के दिन नैमिषारण्य में पूजा के उपरांत परिक्रमा समिति के अध्यक्ष के डंका बजाने से अगले दिन तड़के शुरू हो जाती है और अंतिम पड़ाव महर्षि दधीचि नगरी मिश्रिख ( सीतापुर ) में पंचकोसीय (पाँच दिन) परिक्रमा करके समाप्त होती है। ये ग्यारह पड़ाव क्रमशः कोरौना, हर्रैया, नगवा-कोथावाँ, उमरारी, साखिन गोपालपुर, देवगवाँ, मड़रुआ, जरिगवाँ, नैमिषारण्य, चित्रकूट (कोल्हुआ बरेठी) तथा मिश्रिख हैं। यह परिक्रमा देश-विदेश तक प्रचलित है। बड़ी संख्या में श्रद्धालु भाग लेते हैं और इन स्थानों पर आकर पूजा करते हैं। यह परिक्रमा लगभग आधा महीने चलती है। ग्यारहवें पड़ाव मिश्रिख में पहुँचकर पाँच दिन की पंचकोसीय परिक्रमा से समाप्त हो जाती है। किंवदन्ती है कि एक बार अंग्रेज़ी हुकूमत ने इस परिक्रमा को रोकने का प्रयास किया था और तमाम पाबंदियाँ लगाते हुए महंतों और श्रद्धालुओं को क़ैद कर लिया था। लेकिन उनके तमाम प्रतिबंधों के बाद भी फाल्गुन मास की अमावस्या के दूसरे दिन तड़के सुबह अपने आप ही डंका बज उठा था और लाखों की संख्या में मौजूद श्रद्धालु परिक्रमा पर निकल पड़े। अंग्रेज़ों की सारी कोशिशें नाकाम हुई थीं। यह भी कहा जाता है कि यह परिक्रमा सतयुग से चली आ रही है।‌ इसके पीछे के तर्क-वितर्क और सच्चाई क्या है? इस पर कुछ कहना इसे विवादास्पद बनाना होगा। क्योंकि एक बड़ा तबका इसमें आस्था रखता है और इससे अनुप्राणित है। इस क्षेत्र में चूँकि यह परिक्रमा फाल्गुन मास की अमावस्या से शुरू होती है और होली फाल्गुन की पूर्णिमा को होती है,तो पूरे महीने भर उत्सव का माहौल रहता है।

            इसके अतिरिक्त ख़ासकर तहसील मिश्रिख में मुल्लाभीरी बाबा, डगरहा बाबा, हर्रैया धाम, महास्यान डेंगरा स्थान, महोठे रानी तथा चमखरि सती का स्थान भी अत्यंत प्रसिद्ध है। मुल्लाभीरी बाबा का जन्म कुर्मी परिवार और डगरहा बाबा का जन्म स्थान के समीप के ही गाँव के एक गड़रिया परिवार में हुआ था। इन दोनों ने अपने नेक कर्मों से ही सिद्धि पाई और आज आसपास के समूचे जनमानस में पूजे जाते हैं। साथ ही यह किसी से भी दान-दक्षिणा नहीं लेते थे। हर्रैया धाम अपने महंत यादवदास जी के माध्यम से प्रसिद्धि पाता है। कहा जाता है कि एक बार एक दस्यु महंत की परीक्षा लेने के लिए शेर पर बैठकर आया था। महंत उस समय बीमार थे। लेकिन उन्होंने उसका स्वागत किया था। जब वह द्वार पर आया था तो बीमारी के चलते महंत एक दीवाल पर बैठे थे। उन्होंने दीवार से अनुरोध किया कि चार क़दम चलो तो वह दीवार चार क़दम चली थी। महंत ने उसके शेर को गौशाला में बॅंधवाया था। यह जानकर वह राक्षस बहुत ख़ुश हुआ कि अब तो शेर इनकी गायों को खा जाएगा। किंतु हुआ इससे उल्टा। एक गाय ने उस शेर को निगल लिया। यह जानकर उस राक्षस को महाराज जी से क्षमा माँगनी पड़ी तब महंत के कहने पर उसी ने उस शेर को ज़िंदा उगल दिया था। यह गाथा लोक में प्रचलित है। इस स्थान से स्थानीय लोग अनन्य आस्था रखते हैं। चमखरि एक गाँव है जहाँ एक स्त्री अपने पति के साथ सन् 1951 के आसपास सती हुई थी। यह घटना शासन-प्रशासन और पुलिस की मौजूदगी में हुई थी। प्रत्यक्षदर्शियों के मुताबिक उस स्त्री ने पुलिस के सामने ही हाथ पर काजल पारा था और आग स्वतः ही प्रज्वलित हो गई थी जितने कपड़े जलते उतना ही शरीर जलता था। ‘चमखरि की सती’ की पूजा आसपास के क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर होती है और भव्य मेले का आयोजन भी किया जाता है। महास्यान और महोठे रानी का संबंध क्षत्रिय परिवार से था। इन्हीं की स्मृति में इन स्थानों की पूजा होती है।

            उत्तराखंड तथा आसपास के पहाड़ी क्षेत्रों में भी लोक देवी-देवताओं की बड़े पैमाने पर पूजा की जाती है। इन देवताओं में गोलू देवता,कलुवावीर, कठपुड़िया देवी, कंडारदेवी, ऐड़ी,ओवलिया,उल्कादेवी,उजियारी देवी,जातरी/मातरी परिया, अन्यारी देवी, अटरिया देवी, अकितरि, कर्णदेवता, कसार देवी, कलाबिष्ट, कालासिण, कुमासेण देवी, कैलावीर या कालावीर,कोकरसी,क्यूँसर देवता, गढ़ देवी, गंगनाथ देवता, घड़ियाल आदि देवी-देवता प्रमुख हैं।

            इनमें गोलू देवता का सम्बन्ध राजा झालुराई से है। जिनकी राजधानी धूमाकोट थी। ये, राजा झालुराई के सात पत्नियों के नि:संतान रहने पर भैरव बाबा के वरदान से आठवीं शादी करने पर रानी कलिंगा से उत्पन्न हुए थे। ईर्ष्यावश इन्हें पहली सातों रानियों द्वारा मारने के प्रयास में काली नदी में बहा दिया गया था। जहाँ बहते हुए वह गौरीहाट के भाना मछुआरे को प्राप्त हुए। बाद में पोल खुल जाती है। ये फिर धूमाकोट जाते हैं। वहाँ यह एक रक्षक देवता के रूप में पूजे जाते हैं।

            कलुवावीर एक नाथपंथी सिद्ध था, जो अन्य नाथपंथी संतों की तरह परोपकार के कार्यों में लगा रहता था। बाद में इन्हें लोक देवता के रूप में ख्याति मिली। कठपुड़िया देवी कुमाऊँ मंडल पूर्वी ‘शौका जनजाति’ द्वारा पथ रक्षिका देवी के रूप पूजित हैं। कठिन पहाड़ी रास्तों विशेषकर दर्रों में इनकी स्थापना की जाती है। कंडारदेव की पूजा उत्तरकाशी जनपद के उत्तरी क्षेत्र में की जाती है। ‘ऐड़ी देवता’ पूरे उत्तराखंड में पूजे जाते हैं। इन्हें मुख्य रूप से पशुपालकों का देवता माना जाता है। मान्यता है कि यह घने जंगलों में उल्टे पाँव वाली आछरियों के साथ विचरण करते हैं। ‘ओवलिया’ पिथौरागढ़ की महरपट्टी के भारकोट के आसपास के देवता हैं। जागरों में इन्हें ‘हरु देवता’ का अनुयायी माना जाता है। ‘उज्यारी देवी’ कुमाऊँ क्षेत्र में मान्यता प्राप्त देवी है। इन्हें ‘ज्वालामुखी’ और ‘कोट कांगड़ा’ की देवी कहा जाता है।

            माना जाता है कि जो कुँआरी लड़कियाँ अतृप्त इच्छाओं के साथ मृत्यु को प्राप्त हो जाती हैं। वे ‘आछरी’ बन जाती हैं। ये ऊँचे पहाड़ों,घने जंगलों, नदी के किनारों पर विचरण करती हैं। ‘आछरी’ को लोकदेवी की मान्यता प्राप्त है। उत्तराखंड के टिहरी ज़िले में श्वेत पर्वत इनका प्रमुख स्थान माना जाता है। ‘कैलावीर या कालावीर’ एक मुस्लिम पीर हैं। इनकी पूजा गढ़वाल मंडल में लोकदेवता के रूप में की जाती है। इसे बहुत शक्तिशाली देवता माना जाता है। धूरा देवी को दुर्गम पहाड़ी क्षेत्रों में उन रास्तों पर पूजा जाता है जहाँ से कभी भोटिया लोग व्यापार के लिए तिब्बत जाते थे।

            ‘गंगनाथ देवता’ अल्मोड़ा के आसपास के लोकदेवता हैं। लोककथाओं के अनुसार ये नेपाल के राजकुमार थे। यह अल्मोड़ा के जोशीखोला की कन्या भाना के प्रेम में वशीभूत होकर अल्मोड़ा आए। वहाँ इनको और भानुमती को मार दिया जाता है। इनकी आत्माएँ सबको परेशान करने लगती हैं। क्षेत्र में त्राहि-त्राहि मच जाती है, फिर मन्नत-मनौती की जाती है और तभी से इनकी पूजा की जाने लगी। गंगनाथ एक लोककल्याणकारी देवता हैं। मान्यता है कि जो दुःखिया इनकी शरण में आता है,उसका कल्याण अवश्य करते हैं।

            इसके अलावा राजस्थान और आस-पास के क्षेत्रों में भी लोकदेवताओं की बड़ी मान्यता है। नागौर तो संतों और लोकदेवताओं के लिए प्रसिद्ध है। इन देवताओं में सर्वप्रथम मारवाड़ के पंच पीर आते हैं। जो निम्न हैं- रामदेव जी, गोगा जी, पाबूजी, हरभू जी और मेहा जी।

1- बाबा रामदेव जी -

रामदेव जी हिंदू और मुसलमान दोनों में समान रूप से लोकप्रिय हैं। मुस्लिम इन्हें 'रामसापीर' के नाम जानते हैं। इन्हें 'पीरों का पीर' कहा जाता है। इन्हें कृष्ण का अवतार माना जाता है। ये इकलौते देवता हैं जो कवि भी थे। इनकी ध्वजा ‘नेजा’ कहलाती है, जो सफेद या पाँच रंगों का होता है। रामदेव जी का गीत सबसे लंबा लोकगीत है। बालनाथ इनके गुरु थे। इनका प्रमुख स्थल रामदेवरा, पोकरण तहसील (जैसलमेर) है। रामदेव जी का मेला भाद्र शुक्ल दूज से भाद्र शुक्ल एकादशी तक चलता है। इसका मुख्य आकर्षण तरहताली नृत्य है। इन्होंने जातिगत छुआछूत व भेदभाव को मिटाने के लिए 'जम्मा जागरण' अभियान चलाया था।

2- गोगा जी -

गोगा जी का जन्म स्थान ददरेवा ( जेवर ग्राम), राजगढ़ तहसील (चुरू) तथा इनकी समाधि गोगामेंड़ी, नोहर तहसील (हनुमानगढ़) है। इनको सांपों का देवता तथा ‘जाहरपीर’ भी कहा जाता है। ‘जाहरपीर’ नाम महमूद गजनवी ने दिया था। गोगा जी ने महमूद गजनवी से युद्ध लड़ा था। यह भी हिंदू और मुसलमानों में बराबर पूज्य हैं। गोगामेंड़ी का निर्माण फिरोजशाह तुग़लक ने करवाया था। वर्तमान स्वरूप ( पुनर्निर्माण ) महाराजा गंगा सिंह ने करवाया था। भाद्र कृष्ण नवमी (गोगा नवमी) को मेला भरता है। इनके गुरु गोरखनाथ थे। गोगामेंड़ी का आकार मकबरेनुमा है। धुरमेड़ी के मुख्य द्वार पर 'बिस्मिल्लाह' अ़कित है। इनके लोकगीतों में डेरु नामक वाद्य यंत्र बजाया जाता है। किसान खेत में बुआई करने से पहले गोगा जी के नाम से राखड़ी 'हल' तथा 'हाली' दोनों को बाँधते हैं। यहाँ का पशु मेला राज्य का सबसे लंबी अवधि तक चलने वाला मेला है।

3- पाबूजी -

ये 13 वीं शताब्दी में जोधपुर में जन्मे थे। इन्हें ऊँटों, प्लेग रक्षक, राइका/रेबारी जाति आदि का देवता माना जाता है। राइका/रेबारी जाति मुख्यतः सिरोही से है। पाबूजी के लोकगीत 'पवाड़े' कहलाते हैं। 'माठ' वाद्य का प्रयोग होता है। पाबूजी का मेला चैत्र अमावस्या को कोलूग्राम में भरता है। हाथ में भाला लिए अश्वारोही इनका प्रतीक चिह्न है। इनकी जीवनी 'पाबु प्रकाश' आशिया मोड़ द्वारा रचित है। पाबूजी ने देवल चारणी की गायों को अपने बहनोई जिंदराव खींची से छुड़वाया था।

4- हरभू जी -

हरभू जी का जन्म नागौर में हुआ था। यह रामदेव जी के मौसेरे भाई थे। साँखला राजपूत परिवार से जुड़े हुए थे। इनका मंदिर बेंकटी ग्राम (जोधपुर) में है। मण्डोर को मुक्त कराने के लिए ‘हरभू जी’ ने राव जोधा को कटार भेंट की थी। मण्डोर को मुक्त कराने के अभियान में सफल होने पर राव जी ने बेंकटी ग्राम हरभू जी को अर्पण कर दिया था। हरभू जी शकुन-शास्त्र के ज्ञाता थे। हरभू जी के मंदिर में इनकी गाड़ी की पूजा होती है। इनके गुरु बालीनाथ जी थे।

5- मेहा जी -

ये मांगलियों के इष्टदेव थे। इनका मुख्य मंदिर बापणी गाँव ( जोधपुर) में स्थित है। घोड़े का नाम 'किरड़ काबरा' था। मेला भाद्र कृष्ण अष्टमी को लगता है।

            इनके अलावा ‘वीर तेजाजी’ जो जाटों के आराध्य देव हैं। ‘लाछां गुजरी’ की गायों को मेर के मीणाओं से छुड़ाने के लिए संघर्ष किया व वीरगति को प्राप्त हुए। ये हाड़ौती, ब्यावर, सौंदरिया, भावंता तथा सरसरा के क्षेत्रों में पूजे जाते हैं। वीर तेजाजी के नाम पर लगने वाले पशु मेले से राज्य सरकार को सर्वाधिक आय होती है। देवनारायण जी गुर्जर जाति के आराध्य देवता हैं।‌ इनके मंदिर में एक ईंट की पूजा होती है। ये विष्णु के अवतार माने जाते हैं। ‘वीर कल्ला’ जी की मीराबाई बुआ थीं। यह योगाभ्यास और जड़ी बूटियों के देवता थे। दक्षिण राजस्थान में इनकी ज़्यादा मान्यता है।

            इसके साथ-साथ मल्लिनाथ जी, डूँगजी-जवाहर (शेखावाटी क्षेत्र के लोकप्रिय देवता), वीर बग्गा जी, पंचवीर जी, पनराज जी, मामादेव जी, इलोजी जी, तल्लीनाथ जी, भोमिया जी, केसर कुँअर जी, वीर फता जी इत्यादि लोकदेवताओं की पूजा भी बड़े पैमाने पर होती है।

            इसी तरह बिहार, झारखंड तथा नेपाल के तराई क्षेत्रों में लोक देवी-देवताओं का अत्यधिक महत्त्व है। इन देवी-देवताओं में स्थानीय लोगों की अटूट आस्था है। इन देवताओं में डीहवार बाबा, सदरपुर, बड़हड़िया, सिवान, जिन्हें बरहम बाबा भी कहा जाता है। बिहार के लोकधर्म के सर्वाधिक प्रखर प्रतीक हैं। डीहवार-डिहवारिनी,भोर के निकट गोपालगंज, बरहमस्थान (श्रीपुर, समस्तीपुर), बरहमस्थान (लोहाना, झंझारपुर,मधुबनी) इसी प्रकार के लोकदेवता हैं।

            इनका स्थान गाँव के सार्वजनिक धार्मिक क्रियाकलापों का केंद्र होता है। नियमानुसार पीपल के पेड़ के नीचे गाँव के बाहर पश्चिम में बरहम स्थान होना चाहिए। बरहम को गाँव का मुख्य संरक्षक माना जाता है। बरहम के बारे में यह भी कहा जाता है कि ये गाँव के आसपास भटकने वाली आत्माओं, भूत-पिशाचों को अपने नियंत्रण में रखते हैं। दूसरी संस्थाओं की तरह इनका भी ब्राह्मणीकरण हुआ है। वर्तमान में माना जाता है कि यदि कोई ब्राह्मण बालक यज्ञोपवीत के बाद और विवाह से पहले किसी दुर्घटना के कारण मर जाता है,तो वही गाँव का बरहम बन जाता है। प्रदीप कांत चौधरी कहते हैं कि,"इनकी मूल अवधारणा अवैदिक और जनजातीय लगती है। ग्राम-स्थापना और वास्तुपूजा के जनजातीय कर्मकाण्डों में इसके सूत्र खोजे जा सकते हैं। बरहम बाबा को लोग मिट्टी के बने घोड़े, कलश,धोती, जनेऊ, मिठाई, पान, फूल आदि चढ़ाते हैं। घर में विवाह आदि अन्य शुभ अवसरों पर यहाँ आकर पूजा-प्रणाम किया जाता है”6

            इस अंचल में ‘सिरकटी माई’ और ‘गढ़ी माई’ का भी उल्लेख मिलता है। सिर और धड़ के रूप में अलग-अलग देवियों की पूजा दक्षिण भारत में रेणुका-पेलम्मा संप्रदाय के रूप में काफ़ी चर्चित है। लेकिन उत्तर भारत में ऐसी लोकदेवियाँ बहुत कम हैं। यह ग़ौर करने की बात है कि ताम्रपाषाण काल से सिरकटी देवी-देवताओं के चलन होने का पता चलता है। आमतौर पर ऐसी देवियों का चलन शिकारी-भोजन संग्राहक समाज की उत्पत्ति थी। पश्चिम चंपारण के नरकटियागंज के मथुरा गाँव में छोटे से मिट्टी के टीले पर खेत के एक किनारे बने इस देवी स्थान का महत्त्व इसके नाम में छुपा है। सिरकटी माई की पूजा भी एक पिंडी के रूप में होती है जो हज़ारों साल के इतिहास को छुपाए हुए है।

            ‘गढ़ी माई’ का संप्रदाय राजपूत और थारू समुदायों के साथ जुड़ता है। इसकी मुख्य विशेषता मिट्टी के ऊ‌ॅंचे टीले पर बनी पिंडी होती है। ‘गढ़ी माई’ का स्थान पश्चिमी बिहार और नेपाल की तराई में क‌ई जगह मौजूद है। इनके टीले बलूचिस्तान में नवपाषाणकालीन ‘झोब संप्रदाय’ की याद दिलाते हैं। जिसे सिंधु सभ्यता के विकास और नगरीकरण का श्रेय दिया जाता है। यह गंगा नदी के बाढ़ प्रभावित क्षेत्र में घुमंतू, पशुचारी समुदायों का स्थायी बस्तियों में बसने से संबंधित हो सकता है।

            इसके अतिरिक्त इस अंचल में सलहेस ( मुज़फ़्फ़रपुर, पूर्वी चंपारण), दीना बद्री ( मधेपुरा, सुपौल), बिसहरा (कटिहार, सहरसा), सँपहा बाबा (सारण), बघौत बाबा (पूर्वी चंपारण), कारु खिरहर (सहरसा), जोगी बाबा (वैशाली), केवल सिंह (समस्तीपुर), अमर सिंह (इनरवा के नज़दीक), नरसिंह स्थान (मुज़फ़्फ़रपुर) आदि लोकदेवताओं की पूजा भी बड़े पैमाने पर होती है।

            उत्तरी बिहार और नेपाल की तराई के इलाक़ों में दुसाध जाति के देवता ‘सलहेस’ की पूजा की जाती है। ‘सलहेस’ की गाथाओं का संकलन डॉ. ग्रियर्सन ने 1882 ई. में कराया था। ‘सलहेस’ को राजा माना जाता है। इसलिए इसके स्थान को गुहवर या गुहार लगाने का स्थान माना जाता है। फ्रांसिक बुकानन द्वारा उद्धृत कुछ कथाओं में इसे 'मोरंग का प्रसिद्ध डाकू' भी कहा गया है।

            ‘दीना भद्री’ की गाथाओं में वीर और प्रेम रस का माधुर्य है, जिसका भगतों द्वारा गायन आप मिथिला और नेपाल की तराइयों में सुन सकते हैं। मुसहर जाति के लोगों में इसकी पूजा होती है। ‘दीना भद्री’ की गाथाओं का प्रकाशन भी ग्रियर्सन ने 1885 ई. में करवाया था।

            बिहार के पूर्वी हिस्से में ‘बिसहरा स्थान’ का बड़ा महत्त्व है। पश्चिमी हिस्से में ‘बरहम’ का जो स्थान है लोकधर्म पर इसका भी वैसा ही महत्त्व है।

            पश्चिमी बिहार में ‘सँपहा बाबा’ की पूजा होती है। ‘बघौत बाबा’ की अवधारणा बहुत रोचक है। उत्तर बिहार में बहुत सारे ऐसे देवता हैं जिनको लोकदेवता इसलिए कहा जाता है क्योंकि उन्होंने बाघ से लड़ाई की थी। इससे संबंधित क‌ई मिथक जनजातीय समाज में मिलते हैं। जिसके अनुसार यदि किसी व्यक्ति को बाघ मार देता है तो न केवल बाघ की आत्मा भटकती है बल्कि उस बाघ में भी वह आत्मा प्रवेश कर जाती है। इससे बाघ को मनुष्य का दिमाग़ मिल जाता है और बाघ पहले से ताक़तवर हो जाता है। इसीलिए जंगल में जहाँ किसी व्यक्ति को बाघ मार देता, वहाँ पत्थर की ढेरी बना दी जाती थी और हर आने-जाने वाला व्यक्ति उस ढेरी पर एक पत्थर चढ़ा देता था ताकि उसकी आत्मा संतुष्ट रहे। ‘बघौत बाबा’ की अवधारणा जनजातीय समाज से जाति आधारित समाज में सांस्कृतिक रूपांतरण का सशक्त प्रमाण है। यदि आप इस इलाक़े में प्रचलित केवलसिंह, अमरसिंह, दीना-भद्री, फेकूराम, मनसाराम, लल्लन बाबा,रघुनाथ,जीवाराम-बुलाकी आदि क‌ई लोकदेवताओं को देखें तो पता चलता है कि इनकी कथा बाघ से लड़ने के दौरान मारे जाने से जुड़ी हुई है। एक अर्थ में ऐसे स्मारक अपने मवेशियों की रक्षा करते हुए शहीद वीरों की स्मृति में बने दक्षिण भारतीय वीरागत के समरूप हैं। ‘कारु खिरहर’ की पूजा मवेशियों में फैली महामारी को समाप्त करने के कारण होती है।

            ‘जोगी बाबा’ का संबंध नाथपंथियों से था। इनकी मूर्त्ति ऊँट पर सवारी करते बनाई जाती है, जिससे यह संकेत मिलता है कि इनका संप्रदाय पश्चिमी भारत से आया था। ‘अमरसिंह-केवलसिंह’ की पूजा मुख्य रूप से मिथिला के मल्लाह जाति के लोग करते हैं। अमरसिंह की प्रसिद्धि इस बात से भी है कि उसने ब्राह्मण कुल की कन्या कमला नदी को ‘बदला चमार’ की गिरफ़्त से बचाया। जो हड्डी का बाँध बनाकर कमला को घेरना और फिर उससे विवाह करना चाहता था। अमरसिंह को कमला से सिद्धि प्राप्त हुई और मल्लाह उसे पूजने लगे। केवलसिंह ने स्थानीय ज़मींदार के चंगुल से पाँच मल्लाहों को मुक्त कराया और बेगारी प्रथा को चुनौती दी। लोहार, बढ़ई और कुछ दूसरी कारीगर जातियों में नरसिंह का संप्रदाय बहुत प्रचलित है। ग़ौर से देखने पर इसमें दो-तीन धाराओं का मेल दिखाई देता है। बरहम बाबा,वृक्ष पूजा,वैष्णव मत और नरसिंह की परंपरा सभी मिश्रित हैं। यहाँ बलि नहीं होती है।

छठ पूजा -

            ‘छठ पर्व’ या ‘षष्ठी पूजा’ कार्तिक शुक्ल पक्ष की षष्ठी को मानाया जाने वाला एक महत्त्वपूर्ण एवं सुप्रसिद्ध लोकपर्व है। सूर्योपासना का यह अनुपम लोकपर्व मुख्य रूप से बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल, पूर्वी उत्तर प्रदेश और नेपाल के तराई क्षेत्रों के साथ-साथ अब तो लगभग समूची देश-दुनिया में मनाया जाने लगा है, जहाँ-जहाँ भारतीय मूल के लोग रहते हैं। ये एक मात्र ही बिहार या पूरे भारत का ऐसा पर्व है जो वैदिक काल से चला आ रहा है। मैथिल, मगध और भोजपुरी लोगों का यह सबसे बड़ा पर्व है और यही उनकी संस्कृति है। ऊगते सूरज के पुजारी तो बहुत लोग मिलते हैं लेकिन ये ढलते सूरज की पूजा करने वाला पर्व है।

            ऐसी मान्यता है कि छठ पर्व पर व्रत करने वाली महिलाओं को पुत्र रत्न की प्राप्ति होती है। पुत्र की चाहत रखने वाली तथा पुत्र की कुशलता के लिए सामान्य तौर पर महिलाएँ यह व्रत रखती हैं। पुरुष भी पूरी निष्ठा के साथ अपने मनोवांछित कार्यों की सफलता के लिए व्रत रखते हैं। मूलतः सूर्य षष्ठी व्रत होने के कारण इस छठ कहा जाता है। यह छठ व्रत चार दिन चलता है और व्रती को चारों दिन उपवास करना होता है। भोजन के साथ सुखद शैय्या का भी त्याग किया जाता है। छठ पर्व को शुरू करने के बाद सालों-साल तक करना होता है जब तक कि अगली पीढ़ी की विवाहिता महिला इसके लिए तैयार न हो जाए। घर में किसी की मृत्यु हो जाने पर यह पर्व नहीं मनाया जाता है। छठ व्रत के संबंध में अनेक कथाएँ प्रचलित हैं। उनमें से एक कथा के अनुसार जब पांडव अपना सारा राजपाट जुए में हार गए, तब श्रीकृष्ण द्वारा बताए जाने पर द्रौपदी ने छठ व्रत रखा। तब उनकी मनोकामनाएँ पूरी हुईं तथा पांडवों को उनका राज-पाट वापस मिला। लोकगाथाओं के अनुसार सूर्य देव और छठी मैया का संबंध भाई-बहन का है। लोक मातृका षष्ठी की पहली पूजा सूर्यदेव ने ही की थी।

            एक अन्य कथा के अनुसार प्रथम देवासुर संग्राम में जब असुरों के हाथों देवता हार गए थे तब देवमाता अदिति ने तेजस्वी पुत्र की प्राप्ति के लिए देवारण्य के देव सूर्य मंदिर में रनबे (छठी मैया) अपनी पुत्री की आराधना की थी। तब प्रसन्न होकर छठी मैया ने उन्हें सर्वगुण संपन्न तेजस्वी पुत्र होने का वरदान दिया था। इसके बाद अदिति के पुत्र हुए त्रिदेव रूप आदित्य भगवान, जिन्होंने असुरों पर देवताओं की विजय दिलवाई।

            छठ पूजा सूर्य, प्रकृति, जल,वायु और उनकी बहन छठी मैया को समर्पित है। छठी मैया को मिथिला में रनबे माय, भोजपुरी में सबिता माई और बंगाली में रनबे ठाकुर बुलाया जात है। पर्यावरणविदों का दावा है कि छठ सबसे पर्यावरण-अनुकूल हिंदू त्योहार है। एक समूचा जनमानस इस त्योहार से जुड़ा हुआ है और उससे ऊर्जा ग्रहण करता है। यह लोक आस्था का पर्व है जिसमें अपार श्रद्धा, भक्ति एवं आस्था देखने को मिलती है।

            इसी तरह से हमें हिंदी साहित्य में भी तमाम लोक देवी-देवताओं का उल्लेख मिलता है। तुलसीराम कृत 'मुर्दहिया' में ‘चमरिया माई’ एवं ‘डीह बाबा’ की 'पुजैया' का उल्लेख मिलता है। इसके पीछे की आस्था यही थी कि गाँव में कोई भीषण बीमारी या आपदा नहीं आएगी। हरिवंशराय बच्चन की आत्मकथा 'क्या भूलूँ क्या याद करूँ' में भी चकेसरी देवी और भुइयाँ रानी का उल्लेख मिलता है। भुइयाँ रानी वंध्या को पुत्र देती हैं तथा लुंज-पुंज, लूले-लंगड़ों के वहाँ की मिट्टी लपेटकर तालाब में नहाने से ठीक होने की मान्यता का उल्लेख है। ‘चकेसरी देवी’ भी मन्नतें पूरी करती हैं। इस आत्मकथा में मनौती पूरी होने पर उनको नेवज चढ़ाने का उल्लेख है। फणीश्वरनाथ रेणु की कहानी 'तीसरी क़सम उर्फ़ मारे गए गुलफ़ाम' में परमार नदी और महुआ घटवारिन की कथा का उल्लेख मिलता है। हीरामन गीत गाकर हीराबाई को महुआ घटवारिन की कथा सुनाता है जहाँ ‘महुआ घटवारिन’ को सौतेली माता के द्वारा एक सौदागर को बेच दिया जाता है। ‘महुआ घटवारिन’ नदी में कूदकर अपनी जान दे देती है। लोक कथाओं तथा लोक देवी-देवताओं से जुड़े अनेक प्रसंग हमें साहित्य में जगह-जगह दिखाई पड़ते हैं।

निष्कर्ष : तमाम विविधताओं से भरे-पूरे देश में हमें लोक के भी विविध रंग देखने को मिलते हैं। भारत देश आस्था-विश्वास, आचार-व्यवहार, श्रद्धा-भक्ति,भावना तथा विविध संस्कृतियों का संगम है। यह एक ऐसा बग़ीचा है जिसमें तरह-तरह के रंग-बिरंगे फूल हैं और यही इसकी विशेषता भी है। उसी क्रम में लोक आस्था से जुड़े तमाम पहलुओं पर एक संक्षिप्त एवं सरसरी निगाह डालने का प्रयास किया गया है। समग्रता से मूल्यांकन कर पाना अपने आप में एक बड़ा और असंभव-सा काम है। आज के दौर में हम भक्ति के जिस मौलिक और वास्तविक स्वरूप की बात करते हैं तो मुझे ऐसा लगता है कि वह लोक में ही बची हुई है। बाक़ी तो बाज़ारीकरण का शिकार हैं। ये लोक देवी-देवता न तो किसी चंदे के मोहताज हैं और न ही इनका राजनैतिक इस्तेमाल होता है। क्योंकि ये न तो किसी को वोट दिला सकते हैं और न ही सरकार बनवा पाते हैं। ये युगों-युगों से अपने लोक से निर्लिप्त भाव से जुड़े हुए हैं। लोक भी इन्हें अपने हृदयस्थल में सर्वोच्च स्थान प्रदान करता है और इनसे ही अनुप्राणित होता है। लोक इनमें अनन्य एवं अटूट आस्था रखता है।

संदर्भ :

1. गुप्त नर्मदा प्रसाद, बुंदेलखंड की लोक संस्कृति का इतिहास, प्रकाशक- इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र, प्रथम संस्करण-1995
2. गुप्त नर्मदा प्रसाद ,बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास, लोककला एवं बोली विकास अकादमी भोपाल,पृष्ठ –394
3. उत्तराखंड के देवी-देवता, देवभूमि दर्शन-गूगल
4. राजस्थान में लोकदेवता-गूगल
5. चौधरी प्रदीप कांत ,पूर्व एसोसिएट प्रोफेसर, दिल्ली यूनिवर्सिटी, रिपोर्ट- बिहार के लोकदेवताओं के बारे में आप कितना जानते हैं?, बीबीसी न्यूज़ हिंदी-27 जून 2016


योगेंद्र प्रताप सिंह

हैदराबाद विश्वविद्यालय, हैदराबाद (तेलंगाना)

yogendrapratapsingh1094@gmail.com 8576058749



चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-50, जनवरी, 2024 UGC Care Listed Issue
विशेषांक : भक्ति आन्दोलन और हिंदी की सांस्कृतिक परिधि
अतिथि सम्पादक : प्रो. गजेन्द्र पाठक सह-सम्पादक :  अजीत आर्यागौरव सिंहश्वेता यादव चित्रांकन : प्रिया सिंह (इलाहाबाद)
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