शोध आलेख : तमिल वैष्णव कवियों की भक्ति का स्वरुप और आंदाल / राहुल वर्मा

तमिल वैष्णव कवियों की भक्ति का स्वरुप और आंदाल
राहुल वर्मा

शोध सार : प्रस्तुत शोध आलेख 'तमिल वैष्णव कवियों की भक्ति का स्वरुप और आंदाल' के अंतर्गत तमिल साहित्य में भक्ति के उदय के सामाजिक व राजनैतिक पक्ष को उजागर किया गया है और बताने का प्रयास किया गया है कि किस प्रकार भक्ति साहित्य को दृढ़ और मजबूत आधार प्राप्त हुआ। आलवार शब्द के तात्विक अर्थ पर विचार करते हुए इन कवियों की भक्ति के स्वरुप और भावना पर विचार किया गया है। इसके अतिरिक्त तमिल साधिका आंदाल की जन्म से सम्बंधित किवदंति, उनमें  उत्पन्न भक्ति की भावना व पृष्ठभूमि की चर्चा करते हुए उनके पदों में कृष्ण के प्रति जो भक्ति है उसके स्वरुप पर विचार किया है।

बीज शब्द : वैष्णव, आलवार, कन्नन, मायोन्, नपिन्नै, गोदा, भक्ति, तिरुप्पावै, नाच्चियार प्रबंधम्

मूल आलेख : मध्यकालीन धर्मसाधना का मेरुदंड भक्ति है। साहित्यिक अध्येताओं और चिंतकों ने भक्तिकालीन साहित्य में भक्ति को विशेष महत्व दिया है। वैष्णव भक्ति पद्धति में आराधना की आधार शिला भगवतभक्ति ही है। मध्यकालीन हिंदी साहित्य के अध्येताओं ने प्रायः भक्ति काव्य के प्रणयन का आधार उन दार्शानिक आचार्यों को दिया है जो दक्षिण भारत में अद्वैतवाद के विरोध में अपने-अपने दार्शनिक मतों और सिद्धांतो का प्रचार-प्रसार कर रहे थे। रामानुजाचार्य, मध्वाचार्य, निम्बकाचार्य आदि आचार्यो ने अपने मतों को सुदृढ़ आधार प्रदान करने के लिए ईश्वर के सगुण-साकार रूप को स्वीकार किया और भगवत् विग्रह एवं अवतारवाद की उपासना भक्ति का प्रतिपादन किया। भक्ति के क्षेत्र में यह दार्शनिक विचार सामान्य लोगों के हृदय में गहरे रूप से समा गया कि भक्ति का सर्वजन ग्राह्य रूप इन आचार्यों की ही देन है किन्तु इस धारणा का विरोध तमिल भाषा के अध्येताओं और भक्तिकालीन तमिल साहित्य चिंतकों ने मुखरता से किया और उसका प्रमाण दिया कि भक्ति साहित्य की नींव द्रविड़ देश(दक्षिण भारत) में पहले पड़ चुकी थी। वैष्णव भक्ति का मूल उत्स भी वही प्रदेश है। आलवार भक्तों की सुदीर्घ परम्परा के आधार पर भक्ति के उद्भव के सम्बन्ध में यह सूक्ति प्रचलित हो गई है- ‘उत्पन्ना द्रविड़ेसाहम्।’(श्रीमदभगवत् : माहात्म्या, अध्याय 1 श्लोक 48) इसी उक्ति के आधार परभक्ति द्राविड़ उपजी लाए रामानंदआदि वाक्य भी इसी आधार पर प्रचलन पर गए।

सामान्य रूप से द्रविड़ देश से आशय उन प्रदेशों से है जो वर्तमान समय में तमिलनाडु, केरल, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक और तेलंगाना की सीमाओं से बंधे हुए है। इस विस्तृत भूभाग में तमिलनाडु मुख्य प्रदेश है, जहाँ आलवार भक्तों की रचनाओं ने भक्ति मार्ग को मजबूत और सुदृढ़ आधार प्रदान किया। इस संदर्भ में श्री चंद्रकांत ने अपने लेख 'तमिल के संघकालीन साहित्य में भक्ति के विभिन्न स्वरुप' के अंतर्गत इस बात का स्पष्टता के साथ उल्लेख किया है कि "विष्णु-भक्ति और  शैव-भक्ति का प्रचार तमिल प्रदेश में संघकाल से विघमान था। विष्णुभक्ति की चर्चा और मंदिरों की  सूचना इस काल के ग्रंथों अहनानूरु, पुरनानूरु, पदिट्रपुत्तु, कलित्तोहै, पेरूमबाणाट्रप्पडै, शिरूपाणाट्रप्पडै आदि ग्रंथो में पाई जाती है।"(भारतीय साहित्य : अप्रैल अंक -1957) तमिल भाषा में उपलब्ध 'संघ-साहित्य' को आलवार भक्तों से पूर्व की रचना माना जाता है। संघ-साहित्य में विष्णु के जिन गुण और रूपों का परिचय दिया गया है, वह विष्णु के सर्वशक्तिशाली, सर्वगुण सम्पन्न, सर्वव्यापक, अजर-अमर, सर्वदृष्टा सम्पूर्ण लोक के स्वामी के रूप में अपना परिचय देते है। जिसे आलवार भक्तों ने स्वीकार कर अपने उपास्य देव के रूप में व्यापक फलक पर प्रतिष्ठा प्रदान की। विष्णु की भक्ति से परिपूर्ण भक्ति संघ साहित्य के अंतर्गत 'परिपाडल' शीर्षक से मिलती है। 'परिपाडल' में विष्णु के उसी रूप का उल्लेख किया है, जिस रूप का उल्लेख पुराणों में है किन्तु आलवार भक्तों ने विष्णु के जिस स्वरुप का उल्लेख कर अपनी उपासना और भक्ति का केंद्र स्थापित किया है। वह पूर्ववर्ती रूप से भिन्न और अलग है जो परवर्ती काल में सर्वजन के लिए सुलभ और सर्वसामान्य रूप में है।

कृष्ण भक्ति की जो परम्परा हिंदी साहित्य में प्राप्त होती है, ठीक वही स्थिति लगभग 800 वर्ष पूर्व आलवार भक्तों के यहाँ है। हिंदी साहित्य में कृष्ण भक्त कवि जिस माधुर्य भाव के उपासक है, राधा-कृष्ण की भक्ति का जो रूप वर्णन किया है वही रूप-वर्णन, लीला-गायन, राधा-कृष्ण के परिणय-सम्बन्ध आदि आलवार भक्तों ने  अपने पदों में किया है। आलवार कवियों के पदों में कृष्ण की प्रेमिका राधा का नाम 'नपिन्नै’ है। आलवार कवियों के पदों में कृष्ण की बाल सुलभ चेष्टाओं, लीलाओं का वर्णन बड़े सुन्दर और मोहक सलीके से किया गया है। यह कृष्ण के चरित्र को वही विविधता प्रदान करता है जो हिंदी साहित्य में वल्लभ संप्रदाय के अष्टछापी कृष्ण भक्त कवियों ने प्रदान किया है।

आलवार -

तमिल प्रदेश में वैष्णव संत का सामान्य अभिधान 'आलवार' है, आलवार का अर्थ है- 'भगवत् भक्ति रस में लीन व्यक्ति' या 'अध्यात्मज्ञानरूपी समुद्र में गहरा गोता लगाने वाला व्यक्ति'। श्री रा.श्री देशिकन् ने अपनी पुस्तक Grains of Gold में आलवार शब्द के अर्थ की व्याख्या  करते हुए लिखा है कि "  'प्रभु की भक्ति में पूर्ण रूप से लीन', ईश्वरीय प्रेम की मादकता में सराबोर भक्त।"2 किन्तु अन्य विद्वानों, अध्येताओं तथा श्री.टी. बरो एवं एम. बी. एमिनो द्वारा संपादित व्युत्पत्तिपरक अर्थकोश के आधार पर सर्वसम्मति से आलवार का अर्थ प्रभु प्रेम में मग्न भक्त है। परमात्मा का साक्षात्कार करके उनके परम तत्व गुणों को बताने वाले यह आलवार भारतीय चिंतनधारा के प्रमुख स्तम्भ माने जाते हैं। पाराशर भट्ट ने बारह प्रसिद्ध आलवार भक्तों के नाम कुशलतापूर्वक एक पद में समाहित किए हैं।

“भूतं सरशच महदाह्रयभट्टनाथ—
श्रीभक्तिसार -कुलशेखर -योगिवाहान्।
भक्ताडिन्  घ्ररेणु -परकाल -यतीन्द्रमिश्रान्
श्रीमत् परांकुशमुनि प्रणतोडस्मि नित्यम्।।”3 (भागवत संप्रदाय, बलदेव उपाध्याय, पृष्ठ.178)

 

नालियार दिव्य प्रबंधम् -

भारतीय वैष्णव भक्ति साहित्य में आलवार 'नालियार दिव्य प्रबंधम्' का विशिष्ट स्थान है। आलवार भक्त कवियों का युग विस्तृत रूप से महाकाव्य लिखने का नहीं था। इसका मुख्य कारण उस समय की धार्मिक और राजनैतिक परिस्थितियाँ थीं क्योंकि उस समय में  तमिल राजा धार्मिक रूप से काफ़ी उदार थे जिसके कारण उन्होंने सभी धर्मों को समान  रूप से बढ़ने की सुविधा दी थी। तमिल साहित्य के अध्येताओं ने माना है कि संघ-काल की समाप्ति का समय दूसरी शताब्दी तक है। इसके पश्चात तमिल में जो साहित्य मिलता है, वह प्रायः जैनियों और बौद्ध के द्वारा रचित है। अतः कहा जा सकता है कि तमिल साहित्य में भक्ति काल के पूर्व का जो काल है वह कालखंड   बौद्ध-जैन काल है। इस दौरान जैन और बौद्ध मतालम्बियों ने अनेक रचनाओं का प्रणयन किया। प्रारम्भ में इन रचनाओं का मुख्य उदेश्य केवल साहित्य सृजन का रहा किन्तु बाद में धर्म प्रचार के उद्देश्य से साहित्य सृजन करने लगे। उस समय शैव और वैष्णव धर्म का खंडन करना ही उनका मुख्य लक्ष्य रहा।

सम्राट अशोक के समय में दक्षिण भारत के राज्यों में बौद्ध धर्म का प्रचार मुखरता से किया जा रहा था। हालांकि तमिलवासियों ने इसका विरोध किया। ईसा पूर्व 206 के बाद सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए अनेक प्रचारक दलों को अलग-अलग क्षेत्रों में सुदूर दक्षिण भारत में भेजा. "बौद्ध-भिक्षुओं ने तमिल प्रदेश में ताम्रपर्णी नदी के किनारे 'कोर्के' नामक स्थान में अपने मत का प्रचार जोर से किया।"(Oxford history of india-V. A SMITH, PAGE NO 75)

तत्कालीन समय में बौद्ध और जैन धर्म के प्रचारकों में बड़े-बड़े संस्कृत के विद्वान थे। उन्होंने जैन और बौद्ध धर्म से सम्बंधित तमाम धार्मिक ग्रंथों की रचना संस्कृत और पालि भाषा में की थी। इन प्रचारकों ने अपने बुद्धि-कौशल और चातुर्य से तमिलभाषी जनता की रूचि के अनुसार तमिल भाषा में रचना की जिससे उन्हें अपने धर्म प्रचार में सहयोग प्राप्त हो और लोग उनके आचरण और धर्म का अनुगमन करे। जैसा कि पाश्चात्य विद्वान ने लिखा है- " बौद्ध और जैन प्रचारक संस्कृत के बड़े विद्वान  थे और उन्होंने अनेक ग्रन्थों का संस्कृत और पालि भाषा में प्रणयन किया। उन्होंने एक और महत्वपूर्ण बात यह की कि साधारण जनता को जो तमिल भाषा बोलती थी उसे आकर्षित करने के लिए तमिल भाषा में साहित्य रचना का प्रारम्भ कर दी।" (history OF Indian literature : winternitz, Vol. ll, page no. 475)

तमिल प्रदेश में ईसा की तीसरी शताब्दी से लेकर नौवीं शताब्दी तक पल्लव वंश के राजाओं का शासन था। जिस समय तमिल साहित्य में भक्ति आंदोलन प्रारम्भ हुआ वह समय पल्लव राजाओं का अंतिम समय था और इन पल्लववंशी राजाओं का मुख्य केंद्र था कांचीपुरम। पल्लववंशी राजा संस्कृत प्रेमी थे जिसके कारण तमिल भाषा को कोई विशेष संरक्षण प्राप्त नहीं था लेकिन उदारता के कारण थोड़ा बहुत संरक्षण देते थे। जैन मतावलम्बियों ने  प्रारम्भ से ही पल्लवों को अपनी और आकर्षित  कर लिया था और बाद में राजाओं का आश्रय प्राप्त करके धर्म का तीव्रता से प्रचार किया और आम जनता में अत्याचार करना शुरू कर दिए थे। "मध्यकाल में पल्लव तो संस्कृत प्रेमी थे इसलिए उस काल में उनके द्वारा तमिल को विशेष आश्रय नहीं मिला। लेकिन अंतिम काल में पल्लव शासक तमिल में साहित्य सृजन को प्रोत्साहन देते रहे। जैन मतावलम्बियों ने प्रारम्भ में अनेक पल्लव राजाओं को प्रभावित किया और राज्याश्रय प्राप्त किया। जब उनको राज्याश्रय प्राप्त हुआ था वे धर्म प्रचार में तीव्रता दिखाने लगे और अत्याचार का काण्ड भी यही से प्रारम्भ हुआ।"( आलवार भक्तों का तमिल-प्रबंधम् और हिंदी कृष्ण -काव्य: डॉ. मालिक मोहम्मद,पेज न.47)

भक्ति काल में बौद्ध और जैन धर्म का जो व्यापक प्रचार हुआ उससे स्पष्ट है कि उन विपरीत परिस्थितियों में वैष्णव धर्म को बचाने के लिए ही आलवार कवियों ने राम-कृष्ण के कुछ सरस, सौम्य और माधुर्यगुण से युक्त पदों की रचना करना की। 11 वीं शताब्दी में तमिल भाषा में महाकवि कम्बन के द्वारा 'रामायण' लिखी गई परन्तु रामायण को लिखने की यह प्ररेणा महाकवि कम्बन को इन्हीं आलवार कवियों से प्राप्त हुई। कृष्णभक्ति के सम्बन्ध में 'प्रबंधम्' ही तमिल भाषा का सर्वप्रथम एवं मौलिक काव्य है। जिसमें कृष्ण की विभिन्न लीलाओं और प्रसंगो का भावपूर्ण वर्णन किया गया है। आलवार भक्तों की रचनाएँ दीर्घकाल तक मौखिक रुप से प्रचलित रही हैं । ऐसा माना जाता है कि इन कवियों ने अपनी रचनाओं का न तो संग्रह किया और न ही अपनी रचनाओं और पदों को कोई शीर्षक दिया था। इन आलवार भक्त कवियों ने मात्र प्रभु के गुणगान को लक्षित करते हुए काव्य रूप में पदों की रचना की है। इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि सम्पूर्ण आलवार साहित्य आज भी उपलब्ध नहीं है।

आलवार कवियों में भक्ति का स्वरुप -

आलवार भक्त कवियों ने अपनी जीवन दृष्टि और दूरदर्शिता द्वारा यह स्पष्ट किया कि भक्ति का मार्ग सर्वसुलभ है। इन आलवार कवियों का मानना था कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र,(चारों वर्ण) पुरुष और नारी, बालक और वृद्ध, उच्च और निम्न(आर्थिक दृष्टिकोण से) सबका भक्ति पर समान अधिकार है लेकिन तमिल प्रदेश में आलवार और आचार्य दो विशिष्ट वर्ग विकसित हुए। जिसमें आलवार 'ईश्वर प्रेमी उपासक' थे और स्वयं विष्णु के विशुद्ध प्रेम में लीन होकर सम्पूर्ण समाज को इसी भक्तिमार्ग पर चलाने के लिए निरंतर संलग्न रहते थे। वहीं आचार्यों  ने अपने तर्क और बुद्धिमत्ता से भक्ति मार्ग को प्रतिष्ठित करने का प्रयास किया । माया का खण्डन और  ज्ञान की अपेक्षा भक्ति की सरलता का प्रतिपादन करना उनका मुख्य लक्ष्य था । "आलवारों की भक्ति उस पावन सलिला की नैसर्गिक धारा के समान है जो स्वयं उद्वेलित होकर प्रखर गति से बहती जा रही है। आचार्यों की भक्ति उस तरंगिनी के समान है जो अपनी सत्ता जमाए रखने के लिए रुकावट डालने वाले विरोधी पदार्थों से लड़ती-झगड़ती आगे बढ़ती है। आलवार के जीवन का एक मात्र आधार था प्रपत्ति, विशुद्ध भक्ति, परन्तु आचार्यों के जीवन का एक मात्र सार था भक्ति और कर्म का मंजुल समन्वय। आलवार शास्त्र के निष्णात विद्वान न होकर भक्ति रस से सिक्त थे। आचार्य वेदांत के पारंगत विद्वान ही न थे, प्रत्युत तर्क और युक्ति के सहारे प्रतिपक्षियों के मुख-मुद्रण करने वाले पंडित थे। आलवारों में हृदयपक्ष की प्रबलता थी तो आचार्यों में बुद्धिपक्ष की दृढ़ता थी। यही विभेद दोनों की जीवन-दिशा में परिवर्तन करने वाला मार्मिक अंतर था।"(भक्ति का विकास : मुंशीराम, पेज न. 360)

इससे स्पष्ट होता है कि आलवार भक्त कवियों के लिए दास्य भाव से भगवत् सेवा करना ही इनके लिए मोक्ष है। यह भक्त कवि सम्पूर्ण जगत और वस्तु को भगवान के शरीर के रूप में देखते थे। उनका स्पष्ट मानना था कि ईश्वर (श्रीमन्न नारायण) प्रत्येक स्थान पर व्याप्त है अतः हम सबको उन पर ही आस्था रखनी चाहिए।

आलवार साहित्य के आधार पर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि 'मायोन्'(विष्णु) अथवा कन्नन् (कृष्ण) से जुड़ी कथाओं में उनकी प्रेमिका के लिए 'नपिन्नै'(राधा) नाम का उल्लेख किया गया है। आलवार साहित्य में जहाँ भी कन्नन् का वर्णन किया गया है वहाँ नपिन्नै शब्द का इस्तेमाल किया गया है। इससे ज्ञात होता है कि साधारण जनमानस में कन्नन्  अर्थात कृष्ण-राधा की प्रेम लीलाओं एवं उनसे सम्बंधित कथाओं का प्रचलन था। इस धारणा को और अधिक पुष्ट करते हुए डॉ. मालिक मोहम्मद ने अपनी पुस्तक में लिखा है-"बाल लीलाओं के वासुदेव कृष्ण के साथ मिलने पर गोपाल कृष्ण का रूप स्थिर हुआ, तब 'मायोन्' की प्रेमिका 'नपिन्नै' और उन दोनों की प्रेमकीड़ाओं का सम्बन्ध स्थापित करने के लिए एक स्त्री की कल्पना हुई होगी और उसका नाम बाद में 'राधा' पड़ा होगा। कृष्ण और राधा की जो प्रेमलीलाओ की कथाएँ बाद के संस्कृत ग्रंथों में मिलती है, वही कन्नन् और नपिन्नै की कथाओं के रुप में प्राचीन तमिल साहित्य में और बाद में आलवार साहित्य में मिलती है।" (आलवार भक्तों का तमिल प्रबंधम् और हिंदी कृष्णकाव्य : डॉ. मालिक मोहम्मद, पेज न 39)

यह निर्विवाद है कि तमिल प्रदेश की जनता को ठोस और मजबूत धार्मिक चिंतन का  आधार आलवार संतों ने प्रदान किया क्योंकि संघोत्तर काल में जनता के मन में जो नैराश्य छाया हुआ था। उस परिस्थिति में इन संत कवियों के प्रभाव से बड़े स्तर पर मंदिरों का निर्माण हुआ और भक्ति रस से पूर्ण पदों का गायन कर के सुर-सरिता प्रवाहित की। जो आज भी सुहृदय रसज्ञजनों को काव्य निधि के रुप में सिंचित कर रही है।

दक्षिण भारत में भक्ति के तीन प्रमुख तीर्थ स्थल है, जहाँ आज भी आलवार साहित्य के प्रति आस्था के जीवंत प्रमाण मिलते है। श्रीरंगम्, तिरुपति और कांचीपुरम् में शुभ अवसरों पर 'इर्यपा' खंड का परायण होता है। जनमानस में जो स्थान वेदों को प्राप्त था वही स्थान दक्षिण भारत में 'प्रबंधम्' को मिला और विशिष्ट धार्मिक त्यौहारों पर 'तमिलवेद' का पाठ प्रारम्भ हो गया। वैष्णव मंदिरों के उत्सव इत्यादि के अतिरिक्त शुभ कार्यों और अवसरों पर 'प्रबंधम्' के पदों के गायन की प्रथा है। भगवत् विग्रहों के जुलूस के अवसर पर, मार्गशीर्ष मास में प्रातः काल आंदाल द्वारा रचित 'तिरुप्पावै' का गायन, आश्विन मास में 'हिण्डोला उत्सव' पर पेरियालवार तथा कुलशेखर के द्वारा रचित पदों का गायन किया जाता है। विवाह जैसे पवित्र सामाजिक कार्य में आंदाल के 'नाच्चियार तिरुमोलि' के पदों का गायन किया जाता था। इससे बोध होता है कि जीवन के प्रत्येक घटक में,चिंतन में, सुख - दुख में मनुष्य जीवन की प्रत्येक स्थिति व अवसर में आलवार के गीतों का विशेष प्रभाव दिखाई पड़ता है। 

आंदाल -

            अंत:साक्ष्यों और बाह्य साक्ष्यों के आधार पर आंदाल का जन्म 715 ई. के आस पास माना जाता है तथा उनकी रचना 'तिरुप्पावै' का रचना काल 731 ई. के निकट माना जाता है। जनस्रुति के आधार पर कहा जाता है आंदाल का जन्म सामान्य रुप से नहीं हुआ था। पेरियालवार को तुलसी सींचते समय 'पुष्प सदृश्य कोमल कोदेेै रहस्यात्मक तरीके से कन्या की प्राप्ति हुई थी। जिसका नाम 'गोदा' रखा गया तमिल में जिसका अर्थ है 'पुष्पमाल'। बचपन से ही वह गा-गाकर भगवान के लिए प्रेम से माला गूथती थी और वह स्वयं ही पहले माला पहनकर देख लिया करती थी। पिता ने जब इस उपक्रम को देखा तो उन्होंने आंदाल से मना किया । कहा जाता है कि भगवान ने उन्हें स्वप्न में दर्शन देकर आदेश दिया कि उन्हें आंदाल की पहनी हुई माला ही पहनायी जाए। एक दिन भगवान के द्वारा जब आंदाल के पिता को आदेश किया गया कि वह आंदाल को लेकर श्रीरंगम् के मंदिर में उपस्थित हों, जहाँ उनका विधिनुसार पाणिग्रहण किया जाएगा। कहा जाता है जैसे ही आंदाल ने गर्भगृह में प्रवेश किया वैसे ही आंदाल श्रीरंगम में विलीन हो गई। आंदाल ने मीरा की भाँति बचपन से ही  श्रीरंगम के रंगनाथ को अपने पति के रूप में स्वीकार कर लिया था। आंदाल की दो कृतियाँ 'तिरुप्पावै'(30पद) और 'नाचियार तिरुमोलि'(143पद) है।तिरुप्पावै में गोपियों के प्रेम की तीव्र अभिव्यक्ति हुई है तो दूसरी ओर कृष्ण के रुप साैंदर्य का चित्रण है। 'नाचियार तिरुमोलि' में विरह पीड़ा मुखरित हुई है। आंदाल की यह दोनों रचनाएँ 'दिव्य प्रबंधम' में संकलित हैं।

आंदाल का अर्थ है 'जिसने भगवान को प्राप्त किया' या 'भगवान के प्रति प्रबल प्रेम करने वाली'। आंदाल को ‘गोदा’ भी कहा  जाता है।  'तिरुप्पावै' कृति में आंदाल ने स्वयं को गोपकन्या, विल्लिपुतुर नगर को गोकुल, उस नगर की निवासी  स्त्रियों को गोपिकाएँ, वटपत्रशायी के विशाल मंदिर को नंदमहल और उसमें सोने वाले भगवान को  कृष्ण  स्वीकार किया है। इस संदर्भ में डॉ. एन. सुन्दरम् ने अपनी पुस्तक 'मीरा और आंदाल का तुलनात्मक अध्ययन' में उल्लेख किया है कि "तिरुप्पावै में गोदा की भावना का उत्कर्ष गोपी के रूप में श्री विल्लिपुतुर को है ब्रजभूमि समझकर किया गया है,और वटपत्रशायी के मंदिर को ही श्रीकृष्ण भवन माना गया है।"(पेज.57) इस कृति की लोकप्रियता का मुख्य आधार है आंदाल का अपने अनन्य कृष्ण के प्रति एकांतिक आत्मसमर्पण और रागात्मक तन्मयता है। जिन्हें वह कभी 'नारायण', 'सुंदरबाहु', 'शंख चक्रधारी', 'हरि', 'माधव विशुद विमलरूप', 'वटपत्रशायी', 'सर्वेश्वर', 'श्रीमन्ननारायण'  आदि अनेक सम्बोधनों से सम्बोधित करती है। दक्षिण भारत के मंदिरों में जहाँ तमिल निवासी है उन मंदिरों में आज भी आंदाल के पदों का गायन किया जाता है।

आंदाल की भक्ति भावना एवं स्वरुप -

आंदाल कृष्ण भक्त कवयित्री है। आंदाल अपनी परा-भक्ति के द्वारा कृष्ण के विराट तत्व में एकाकार होकर के अधिभौतिक धर्म की उपेक्षा कर आध्यत्मिक सृष्टि की धरा बन गई है। आंदाल का मानना है कि वह कृष्ण के लिए पूर्ण समर्पित है वहाँ किसी अन्य पुरुष (अन्य भक्ति ) के लिए कोई अवकाश नहीं है। आंदाल का कथन है-"मेरा विवाह किसी और के साथ करने की बात चले तो मैं जीवित नहीं रहूंगी। मैं अपने याैवन के सुषमायुक्त शरीर को उस चक्रधारी पुरुषोत्तम कृष्ण को अर्पित करती हूँ। उसी पुरुषोत्तम को उद्देश्य करके उभरे हुए मेरे उरोजों को और किसी के उपयोग्य बनाने की चर्चा भी चले, तो मैं जीवित नहीं रहूँगी।"  इससे ज्ञात होता है कि आंदाल के लिए भौतिक सत्य से ऊपर पारलौकिक सत्य है। वह सांसारिक मोह, माया, शक्ति एवं साधन को क्षणिक मानती है। यही कारण है कि आंदाल की कृष्ण के प्रति माधुर्य भक्ति है। जिसके द्वारा उन्होंने ईश्वरत्व को प्राप्त किया। जैसा कि 'श्रीमदभागवत' में उल्लिखित है कि मुझे योग से प्राप्त नहीं किया जा सकता है। मै सांख्य के द्वारा भी प्राप्य नहीं हूँ। मेरी प्राप्ति का एक मात्र साधन भक्ति है।

"न साधयति मां योगो न सांख्यधर्म उद्भव।
न स्वाध्यास्तपस्त्ययोगो यथा भक्तिर्ममोजिता।।
भक्तयाहमेकता ग्राहा: श्रद्धयाsमा  प्रिय: सताम्।
भक्ति: पुनाति मनिष्ठा श्वपाकानपि संभवात।" (श्री मदभागवत् 1|14|20)

 

 यह निर्विवाद सत्य है कि समाज के वातावरण का मनुष्य की चेतना पर व्यापक प्रभाव पड़ता है। आलवारों ने न केवल वैष्णव धर्म का पालन किया ,अपितु वैष्णव धर्म का प्रचार प्रसार भी किया जिससे वैष्णव धर्म को अधिक गति प्राप्त हुई। आंदाल की चिंतन धारा पूर्व से ही वैष्णव मत से प्रभावित थी जिससे उन्होंने समर्पण भाव से कृष्ण की उपासना की। आंदाल के 'तिरुप्पावै' के प्रत्येक पद में इसी भाव की अभिव्यक्ति हुई है। ‘तिरुप्पावै’ में एक स्थान पर कैकर्य भाव की तीव्र अभिव्यक्ति करते हुए शांति गाथा में वह व्यक्त कर उठती है-

 

" इरैक्कुमेलेल पिरविक्कुम् उन्तन्नोडु

  उरोमे यावोमुनक्के नामटशेयवोम्

   मरै नंकामकळ् मारैलोरेम्पावाय  ।।” (तिरुप्पावै पद स. 21)


अर्थात हे! रंगनाथ, सदा सर्वदा जन्म- जन्म में तुम्हारे साथ ही सम्बन्ध रखने वाली बनेगी और तुम्हारी ही सेवा करेगी, तुम हमारी अपेक्षाओं की पूर्ति करो।

आंदाल ने कृष्ण को अलौकिक प्रेम का प्रतीक मानकर प्रत्यक्ष रुप से सख्य भावों की अभिव्यक्ति की है। यही सख्य भाव कांताभक्ति अथवा मधुरोपासना है। जिससे कृष्ण भक्ति काव्य में राधातत्व का विकास हुआ है। यह राधा तत्व ही मधुरोपासना का प्रदान अंग है इस सम्बन्ध में परशुराम चतुर्वेदी ने लिखा है कि "मधुर रस के अनुसार भक्त उनको होने पति या सर्वस्व रूप में देखता है, इसी कारण उनके साथ उसका सम्बन्ध अत्यंत घनिष्ठता का हो जाता है, कहते हैं कि जो रति व गूढ़ प्रेम प्रेम एक युवती के हृदय में किसी युवक को देखकर जाग उठता है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। इसी कारण भक्त लोग श्री कृष्ण को स्थिर चित्त के साथ पत्नी भाव से ही नित्य भजा करते हैं। स्त्री-पुरुष की ऐसी ही आसक्ति के सम्बन्ध में श्रृंगार रस का भी प्रादुर्भाव होता है, अतएव मधुर रस के भी भाव, विभाव, अनुभावादि प्रायः उसी प्रकार के होते हैं जैसे श्रंगार रस में। किन्तु मधुर रस का विषय अलौकिक एवं भगवान स्वरूप है। अतएव श्रृंगार रस के स्थायी भाव रति का सम्बन्ध यदि स्थूल या लिंग शरीर से है तो मधुर रस एक प्रकार से स्वयं आत्मा का ही धर्म है।"(मीराबाई की पदावली, भूमिका, परशुराम चतुर्वेदी, पेज न 42)

भक्त भगवान से यही प्रार्थना करता है कि वह उसे अपने अलौकिक स्वरुप में एकाकार कर ले और उसकी कामना भी यही रहती रहती है। उसमें ऐसी भावनाओं का उदय हो जिससे वह भगवान को छोड़कर अन्यत्र दूसरे किसी पर आसक्त न हो। परम पद की प्राप्ति पर अचेतन की तरह भगवान का स्वरूप स्वतंत्र और भक्ति भावना की दृष्टि से पूर्णतः परतंत्र हो जाता है और इस प्रक्रिया में विभेद का भाव समाप्त हो जाता है एवं चेतना आत्माेन्मुखी हो जाती है। आंदाल के पदों में इस भाव की व्यंजना निरंतर अभिव्यक्त हुई है। आंदाल के पदों में आत्मनिवेदन का जो भाव परिलक्षित होता है,वह निर्मलता से परिपूर्ण है। आलवार कवियों की मुख्य विशेषता भगवान के अनुग्रह की सीमा और केंद्रीकरण है। आलवारों की दृढ़ मान्यता है कि भगवान की कृपा के बिना भक्त का कल्याण संभव नहीं है। इसी दृष्टिकोण से आंदाल अपने पदों में कृष्ण के स्वरूप की वंदना करते हुए आत्मनिवेदन करती है-

"मैं बार बार दृढ़ता के साथ कहती हूँ कि मेरे यह स्तन गोविन्द को छोड़कर और किसी को नहीं चाहते है। अतः मुझको यहाँ से शीघ्र विदा कर युमना किनारे ले जाकर छोड़ दीजिएगा।"(नाच्चियार तिरुमोलि, पद 12|4… अनुवाद एन. सुन्दरम)

आंदाल ने कृष्ण की उपासना करते हुए अपने जिस रुप का परिचय दिया है। वह उनके लौकिक व अलौकिक दोनों ही स्वरूप का बोध करवाता है। आंदाल ने कृष्ण को अपने समस्त रूप, सौंदर्य एवं सत्य समर्पित कर दिए हैं। कृष्ण के विरह में उनका अस्तित्व प्रेमपूरित है। आंदाल ने कृष्ण के विरह में जिन भावों का संचयन किया है वह उनके अतरंग को तीव्र वेग से आंदोलित करते हैं। इसी कारण से आंदाल की विरहानुभूति में आत्मतत्व की समन्वित अभिव्यक्ति हुई है। जिससे उनका लौकिक प्रेम अलौकिक सत्य का आवरण ओढ़कर प्रकट होता है। वास्तविकता यह है कि राग-विराग की स्थितियाँ व्यक्ति के आंतरिक सुख-दुख को प्रकट करने वाली अनुभूतियाँ है। इसी अन्विति के साथ साथ अनुराग, भक्ति, प्रेम आदि तत्वों का मिश्रण हो जाता है। तब यह स्थितियाँ अभिव्यंजना का रुप धारण कर लेती हैं।

कृष्ण के विराटतत्व से आंदाल की सम्पूर्ण अंत: एवं बाह्य चेतना अभिभूत हुई है। वह संयोग का ही अनुभव नहीं करती है, अपितु अन्य भक्तों के समान विरह की दशा में भी दिखाई देती है। वियोग की इस स्थिति में वह अपने संदेश को परम् आराध्य तक पहुंचाने के लिए प्रकृति के विविध उपकरणों का प्रयोग करती है। आंदाल अपनी विरह वेदना को कृष्ण तक पहुंचाने के लिए प्रकृति का सहारा लेती है। वह आकाश में उमड़ते हुए काले बादलों को देखकर अपने प्रियतम कृष्ण की स्मृति से व्याकुल हो जाती है और इन बादलों से अपने प्रियतम के विषय में जानना चाहती है।

 " क्या मेरे आराध्य देव आ रहे है "( नाच्चियार तिरुमोलि8|65|4)


बादलों से इस प्रश्न का उत्तर न  मिलने पर वह मेघों को अपना दूत बनाकर  विरह सन्देश देती हुई कहती है -

"कण्णीरळ्कळ् मुलैक्कुवटिटळ तुलिसौरच सौरबोनै।

पेण्णीरमैयीडलिक्कुमिढु तमक्कोर पेरूमेये।।" (नाच्चियार तिरुमोलि8|1|)


आंदाल के इस प्रकार के समर्पण भाव को वैष्णव दर्शन शास्त्र में 'उपादान' और 'इज्या' की संज्ञा दी गई है और यह दोनों ही रुप अपने सर्वस्व को समर्पित करने वाले अलौकिक भाव है। जिसे आंदाल अपने रंगनाथ को समर्पित कर एकाकार हो गई है।

प्रकृति उद्दीपकारिणी होती है और यह विरही एवं विरहणि को अधिक उद्दीप्त करती है। आंदाल ने 'नाच्चियार तिरुमोलि' में प्रकृति में विद्यमान उद्दीपक (मेघ, पशु, पक्षी, वन, फूल इत्यादि)के माध्यम से अपने भावों की अभिव्यक्ति कर रंगनाथ के प्रति अपनी विरहानुभूति को प्रकट किया है कि वह किस प्रकार प्रातः काल में आकाश में उड़ रहे पक्षियों को देखकर अपने आराध्य प्रियतम का स्मरण करती है। आकाश में उड़ रहे पक्षियों के चिचियाहट उन्हें ऐसा प्रतीत होता है जैसे स्वयं पक्षीगण तिरुमोलिरूमसोलै के देवता द्वारकानाथ तथा वटपत्रशायी का नामोच्चारण कर रहे है। आंदाल के इस भाव की अभिव्यक्ति इस पद में है जिसमें वह कहती है -

"कोलैमेलुदिरून्दु  करियकुरुविककणडकळ्

मालिन् वरवु सोल्लिमरुल पाडुदळ् मेयमैकीलो।"(नाच्चियार तिरुमोलि9|8)

 आंदाल ने प्रकृति को उद्दीप्तकारी रूपों में ग्रहण किया है और अपने मनोगत भावों को व्यक्त करते हुए अपने आंतरिक सत्य को उद्घाटित करने का प्रयास किया है। आंदाल का यही आंतरिक भाव ही उनके आराध्य श्रीमन्ननरायण के प्रति भक्ति और प्रेम के स्वरुप को स्पष्ट करते है। इस संबंध में डॉ एन. सुंदरम का मत है कि " आंदाल के पदों में आंतरिक सत्य को प्रकट करने की अपूर्व शक्ति है वह इतनी अधिक दुःख में डूब जाती है कि उसकी अभिव्यक्ति में भी तीव्रता के दर्शन होते हैं……उसे अदम्य विश्वास है, वियोग के क्षणों में भी उसका विश्वास टूटता नहीं है, और यही विश्वास उसके प्रियतम का संयोग और मिलन केलि की कल्पना कराकर आंनद प्रदान करता है। "(मीरा और आंदाल का तुलनात्मक अध्ययन, पेज न.135 ) आंदाल को प्रकृति के प्रत्येक तत्त्व शैली में अपने प्रियतम के रूप लावण्य के दर्शन होते हैं। आंदाल खिले हुए पुष्प में प्रभु की मंद मुस्कान और अधरों की स्मृति के दर्शन करती है। इसी  प्रकार कोयल, मयूर, सुगंधयुक्त पुष्पों को देखकर अपने प्रियतम का ही स्मरण होता है। तिरुमालिरूमसोलै के चारों दिशाओं में विकसित उपवन, अरुण लोचन कृष्ण जलद के सुंदर रूप के समान पुष्पों पर मँडरानेवाले भ्रमर समूह, निरंतर प्रवाहित सुंदर झरने से आग्रह करती हुई दिखाई देती है।

उपर्युक्त विवेचन के फलस्वरूप कहा जा सकता है पारलौकिक भक्ति में मग्न साधिका आंदाल में लोक-कल्याण की भावना ईश्वर भक्ति के परिणामस्वरूप है। उन्होंने अपने पदों में सामाजिक उत्सवों और मांगलिक कार्यों का चित्रण किया है जिससे वह अपने आराध्य श्रीमन्ननारायण को प्राप्त कर सके। उन्होंने समग्र रुप से लौकिक भक्ति से अलौकिक सत्य तक पहुँचने का प्रयास किया जो तमिल साहित्य के लिए अनुपम उदाहरण है। कांताभाव से कृष्ण के अलौकिक रुप को समर्पित, आत्मविह्लता से गदगद आंदाल ईश्वरीय अनुभव को दर्शन ज्ञान आदि से परे मात्र अनुभूति की पृष्ठभूमि पर प्रस्तुत करने में सफल हुई है।

संदर्भ :
 
1.     श्रीमदभागवत, माहात्मय, अध्याय 1श्लोक 48
2.     भारतीय साहित्य :अप्रैल अंक 1957,तमिल के संघकालीन साहित्य में भक्ति के विभिन्न स्वरुप : श्री चंदकांत
3.     Grains of gold : श्री रा. श्री. देशिकन्
4.     भागवत संप्रदाय, बलदेव उपाध्याय, पृष्ठ.178
5.     Oxford history of india, V. A smith, पृष्ठ सं.75
6.     History of indian literature, winternitz, vol. 2, पृष्ठ सं.475
7.     आलवार भक्तों का तमिल प्रबंधम् और हिंदी कृष्णकाव्य, डॉ. मालिक मोहम्मद, पृष्ठ सं.47
8.     भक्ति का विकास, मुंशीराम, पृष्ठ सं.360
9.       आलवार भक्तों का तमिल प्रबंधम् और हिंदी कृष्णकाव्य, डॉ. मालिक मोहम्मद,    पृष्ठ सं.39
10.  मीरा और आंदाल का तुलनात्मक अध्ययन, डॉ. ना सुंदरम्, पृष्ठ सं. 57
11.      तमिल और हिंदी का भक्ति साहित्य, डॉ चंद्रकांत,पृष्ठ सं. 160
12.  श्रीमदभागवत, माहात्मय, अध्याय 1|14|20
13.  तिरुप्पावै, आंदाल, पद सं.21
14.  मीराबाई की पदावली, परशुराम चतुर्वेदी, पृष्ठ सं. 42
15.  नाच्चियार तिरुमोलि, आंदाल, पद सं12|4 (अनुवाद, डॉ ना. सुन्दरम् )
16.  वही, पद सं. 8|65|4
17.  वही, पद सं. 8|1
18.  वही, पद सं.9|8
19.  मीरा और आंदाल का तुलनात्मक अध्ययन, डॉ. ना सुंदरम्, पृष्ठ सं. 135

 राहुल वर्मा
शोधार्थी (पी.एचडी), हैदराबाद विश्वविद्यालय
rv567894321@gmail.com 7557314948

चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
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