शोध आलेख : भारत में हांथ से मैला ढोने की प्रथा एवं सामाजिक न्याय : एक विधिक विश्लेषण / सुवेक सिंह चौहान एवं डॉ. अनीस अहमद

भारत में हांथ से मैला ढोने की प्रथा एवं सामाजिक न्याय : एक विधिक विश्लेषण
- सुवेक सिंह चौहान एवं डॉ. अनीस अहमद

शोध सार : सामाजिक न्याय को सुनिश्चित करना किसी भी विधिक व्यवस्था की प्रारंभिक जिम्मेदारी होती है।  सामाजिक न्याय के माध्यम से समाज के सभी वर्गों के साथ -साथ देश की प्रगति भी सुनिश्चित की जा सकती है। सामाजिक न्याय की महत्ता को स्वीकृत करते हुए ही भारतीय संविधान  में एक न्यायपूर्ण समाज की स्थापना के लक्ष्य की प्राप्ति हेतु विविध प्रावधान किए गए हैं। भारत में हांथ से मैला उठाने की प्रथा सामाजिक न्याय प्राप्ति में बहुत बड़ा संकट है। धर्मान्तरण धार्मिक आधार पर होने वाले उत्पीड़न रूपी यह सुरक्षा -कवच धीरे-धीरे एक कुप्रथा में परिवर्तित हो गया। भारत में हांथ से मैला उठाने की इस कुप्रथा को रोकने हेतु विधिक एवं नीतिगत स्तर पर बहुत से प्रयास किए गये जो अंशत: प्रभावी हुए। आज जब हम स्वतंत्रता के 75 वर्ष पूर्ण होने पर आज़ादी का अमृत महोत्सव मना रहे हैं, जोकि हमारे सर्वांगीण उपलब्धियों का द्योतक है। ऐसे समय में हमें हांथ से मैला उठाने वाले लोगों के भी मानव अधिकारों पर ध्यान केंद्रित कर  वैधता से यथार्थता की ओर आगे बढ़ना होगा। वास्तविक अर्थों में तभी हम एक सामाजिक न्यायपूर्ण समाज की स्थापना कर आज़ादी का अमृत महोत्सव को सार्थकता प्रदान कर सकेंगे। प्रस्तुत आलेख में हम भारत में हांथ से मैला उठाने की कुप्रथा का सामाजिक न्याय आधारित विधिशास्त्रीय विश्लेषण विधिक एवं नीतिगत प्रयासों को दृष्टिगत रखते हुए करेंगे।

बीज शब्द : सामाजिक न्याय, मानवाधिकार, कुप्रथा, अस्पृश्यता,‌ विधायन, नीतियां, संविधान, स्वच्छता, शुष्क-शौंचालय, मैनुअल स्कैवेंजर।

मूल आलेख : आजादी के पचहत्तर वर्षों के बाद भी भारत का एक महत्वपूर्ण संवैधानिक वादा 'सामाजिक न्याय' और बुनियादी मानवाधिकारों की प्राप्ति अभी भी समाज के कुछ वर्गों के लिए दूर की कौड़ी है। सामाजिक न्याय से वंचित ऐसे लोग आज भी गरिमापूर्ण मानव जीवन के लिए संघर्षरत हैं। वे अस्पृश्यता इत्यादि भेदभावों का सामना आज भी कर रहे हैं वास्तव में मैला ढोने की प्रथा ऐतिहासिक रूप से अस्पृश्यता की प्रथा से जुड़ी हुई है और यह संविधान के अनुच्छेद 17 के तहत निषिद्ध है। इसके अतिरिक्त शुष्क शौचालयों की मौजूदगी और हाथ से मैला ढोने की निरंतर प्रथा इस देश में गंभीर स्वच्छता एवं स्वास्थ्य संकट भी उत्पन्न कर रही हैं। यह प्रथा अधिक आक्रामक होने के साथ-साथ भव्य भारत में सभी लोगों के लिए स्वच्छता के मानव अधिकार का उल्लंघन भी है। भारतीय संविधान में प्रावधानित समतावादी लक्ष्यों की प्राप्ति  हेतु 'एम्प्लायमेण्ट ऑफ मैनुअल स्कैवेंजिंग एण्ड कंस्ट्रक्शन ऑफ ड्राई लैट्रिन्स (प्रोहिबिशन) एक्ट, 1993' भारतीय संसद द्वारा पारित करके संवैधानिक इच्छा को व्यावहारिक रूप प्रदान करने का प्रयास किया गया। हालाँकि, यह देखा गया कि दो दशकों की यात्रा के बाद भी यह अधिनियम प्रभावी कार्यान्वयन के अभाव में अपने उद्देश्यों को पूर्ण करने में विफल रहा। इसके अलावा सरकार की विभिन्न नीतियां और योजनाएं भी मैनुअल स्कैवेंजर्स के कल्याण और उनके सामाजिक-आर्थिक समावेशी विकास के लिए चलायी गयी। प्रायः जैसा कि किसी भी सामाजिक कल्याण विधान के साथ होता है, कार्यपालिका और विधायिका कानून और प्रथा के बीच के अंतर से बेखबर थे। मैला ढोने की समस्या पर काम करने वाले  संगठनों के अथक प्रयासों से बाध्य होकर विधायिका ने उनकी मांगों को आभासी रूप से विधायन बनाकर पूर्ण कर दिया परन्तु कार्यपालिका द्वारा इसके उचित कार्यान्वयन के अभाव में अपेक्षित लक्ष्य प्राप्त नहीं हो पाये। वर्ष 1993 में  पारित विधायन की कमियों को दूर करते हुए मैला ढोने की प्रथा को खत्म करने और मैला ढोने वालों के मानवाधिकार को संरक्षित करने हेतु भारतीय संसद द्वारा 'प्रोहिबिशन ऑफ एम्प्लॉयमेंट ऐज़ मैनुअल स्कैवेंजर्स एण्ड देयर रिहैबिलिटेशन एक्ट, 2013' को पारित किया गया। जून 2023 में भारत सरकार के सामाजिक न्याय मंत्रालय द्वारा देश में मैनुअल स्कैवेंजिंग पर प्रकाशित रिपोर्ट में बताया गया कि अभी तक देश के कुल 766 जिलों में से मात्र 508 जिले (66 प्रतिशत) ही पूर्णतः मैनुअल स्कैवेंजिंग से मुक्त हो सके हैं। यह बहुत ही शर्मनाक है कि देश की आबादी का एक बहुत बड़ा हिस्सा आज भी अपने गरिमापूर्ण मानव जीवन के मूल अधिकार के लिए संघर्ष कर रहा है। संविधान लागू हुए 74 वर्ष एवं हांथ से मैला उठाने की कुप्रथा को समाप्त करने हेतु पारित विशेष कानूनों को लागू हुए क्रमश: लगभग 31 एवं 11 वर्ष पूर्ण हो चुके हैं परन्तु फिर भी अपेक्षित परिणाम प्राप्त नहीं हो सके हैं। हमे अब वैधता से यथार्थता का मंत्र अंगीकृत करना होगा तभी हम आपेक्षित परिणाम प्राप्त कर पायेंगे।

हांथ से मैला उठाने की प्रथा एवं अच्छे स्वास्थ्य का अधिकार

मानव अपशिष्ट निपटान (मानव मल) की मौजूदा प्रणाली में समाज की विशेष जाति को प्रमुख रूप से देखा जा सकता है।19वीं सदी के अंत में बढ़ते शहरीकरण के साथ हाथ से मैला ढोने की प्रथा एक व्यापक प्रथा बन गई। सरकारी आँकड़ों के अनुसार, भारत में अनुमानित दस लाख दलित हाथ से मैला ढोने वाले हैं (उनमें से अधिकांश महिलाएँ हैं) जिनके काम में सार्वजनिक और निजी शौचालयों और खुले सीवरों से मल साफ़ करना और मृत जानवरों का निपटान शामिल है। वास्तविक संख्या का अनौपचारिक अनुमान बहुत अधिक है। 400 से अधिक सीटों वाले सार्वजनिक शौचालयों को दैनिक आधार पर महिला श्रमिकों द्वारा झाड़ू और टिन की प्लेट का उपयोग करके साफ किया जाता है। मल को टोकरियों में ढेर कर दिया जाता है जिन्हें सिर पर रखकर एक स्थान पर ले जाया जाता है जो शौचालय से चार किलोमीटर दूर तक हो सकता है। हर समय, और विशेष रूप से बरसात के मौसम में, टोकरी की सामग्री मेहतर के बाल, कपड़े और शरीर पर टपकेगी। 2009 में एशियाई विकास बैंक द्वारा लगाए गए एक अनुमान के अनुसार 700,000 से अधिक भारतीय अभी भी मैला ढोने का काम करके अपनी आजीविका कमाते हैं।

यह जानकर निराशा होती है कि योजना आयोग द्वारा 2007 तक मैनुअल स्कैवेंजिंग के पूर्ण उन्मूलन के लिए एक राष्ट्रीय कार्य योजना तैयार करने और इसे ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना के अंत तक बढ़ाए जाने के बाद भी इस सामाजिक बुराई का पूर्णतः उन्मूलन नहीं किया जा सका है। इसके बाद बारहवीं पंचवर्षीय योजना के दौरान इस अधूरे एजेंडे को पूरा करने हेतु प्राथमिकता के आधार पर प्रयास किए गये थे। भारत की जनगणना, 2011 ने स्पष्ट किया है कि भारत में हाथ से मैला ढोने की अमानवीय प्रथा अभी भी जारी है। जनगणना के आंकड़ों के अनुसार देश में अभी भी 7,94,390 शुष्क शौचालय हैं जहां मानव मल को हाथ से साफ किया जाता है। इनमें से 73 प्रतिशत ग्रामीण क्षेत्रों में हैं जबकि 27 प्रतिशत शहरी क्षेत्रों में हैं। इनके अलावा, 13,14,652 शौचालय हैं जहां मानव मल को खुली नालियों में बहाया जाता है। कुल मिलाकर, देश में 26 लाख (2.6 मिलियन) से अधिक शुष्क शौचालय हैं जहाँ हाथ से मैला ढोने की प्रथा अभी भी प्रचलित है।

इसके अलावा, हाउस लिस्टिंग और हाउसिंग जनगणना, 2011 के अनुसार, देश में 7.94 लाख शौचालय थे जिनकी सफाई का काम मनुष्यों द्वारा द्वारा हाथों से मल-अपशिष्ट को हटाया जाता है। हालाँकि, अभी भी मैला ढोने के काम में लगे लोगों की संख्या उपलब्ध नहीं है। ग्रामीण भारत में चल रही सामाजिक आर्थिक जाति जनगणना (एसईसीसी), 2011, अन्य बातों के अलावा, गैर-वैधानिक शहरों सहित ग्रामीण क्षेत्रों में मैनुअल मैला ढोने वालों के बारे में डेटा एकत्र कर रही है। प्रमुख शहरों में हाथ से मैला ढोने वालों के नए सिरे से सर्वेक्षण की प्रक्रिया शुरू की गई है। मैला ढोने वालों की मुक्ति और पुनर्वास के लिए राष्ट्रीय योजना के कार्यान्वयन के दौरान, 1992 से 2005 तक, राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों द्वारा 7.70 लाख मैनुअल मैला ढोने वालों और उनके आश्रितों की पहचान की गई थी। इसके बाद, बचे हुए मैला ढोने वालों और उनके आश्रितों को कवर करने के लिए जनवरी, 2007 में मैला ढोने वालों के पुनर्वास के लिए स्व-रोज़गार योजना शुरू की गई, जिसके तहत राज्यों/केंद्रशासित प्रदेशों ने 1.18 लाख मैला ढोने वालों और उनके आश्रितों की पहचान की थी, जिनमें से सभी 79,454 पात्र एवं इच्छुक लाभार्थियों को सहायता प्रदान की गई थी। इसके अलावा, नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सीएजी) की रिपोर्ट में यह भी पाया गया कि योजना अपने उद्देश्यों को प्राप्त करने में विफल रही है और इसके लिए धन उपलब्ध था, लेकिन इसका अधिकांश हिस्सा खर्च नहीं किया गया या कम उपयोग किया गया। एक रिपोर्ट के अनुसार, अपर्याप्त स्वच्छता के आर्थिक प्रभाव से भारत को लगभग रु. 2.4 ट्रिलियन या उसके सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 6.4 प्रतिशत खर्च करना पड़ रहा है।

संवैधानिक दृष्टिकोण

किसी भी राष्ट्र के संविधान को देश का मौलिक कानून माना जाता है। यह सरकार और उसके नागरिकों के संबंधों को विनियमित करने के लिए बुनियादी सिद्धांतों को निर्धारित करता है और योजना और पद्धति को भी निर्धारित करता है जिसके अनुसार देश के सार्वजनिक मामलों को प्रशासित किया जाता है। भारतीय संविधान के समतावादी लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14, 17, 19 और 21 के तहत हमेशा गहरी चिंता व्यक्त की जाती है। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 17 अस्पृश्यता उन्मूलन की संकल्पना पर जोर देता है और प्रावधान  करता है: अस्पृश्यता को समाप्त कर दिया गया है और किसी भी रूप में इसका अभ्यास निषिद्ध है। अस्पृश्यता के आधार पर  किसी भी प्रकार का भेदभाव करना  कानून के अनुसार दंडनीय अपराध होगा।

यह सुनिश्चित करने के लिए कि मौलिक अधिकारों की उचित रूप से रक्षा की जाए और इसे लागू किया जाए, संविधान ने भारत के सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों को अनुच्छेद 32 और 226 के प्रावधानों के तहत, जब भी ऐसे अधिकारों का उल्लंघन होता है, सबसे प्रभावी उपचार देने की शक्ति प्रदान की है। जब अनुच्छेद 21 का उदारतापूर्वक निर्वचन किया जाता है तो यह गरिमायुक्त मानव जीवन के लगभग सभी आयामों को अपने में समाहित कर लेता है। हालांकि अनुच्छेद 21 के तहत विशेष रूप से जीवन के अधिकार के रूप में मौलिक अधिकारों के दायरे की पूरी खोज की गई एवं मानवाधिकार न्यायशास्त्र के मद्देनजर संवैधानिक अधिकारों के दायरे का विस्तार किया जा रहा है, जिसमें अलग-अलग सामग्रियों के साथ एक विकसित अवधारणा में सम्मान के साथ जीने का अधिकार शामिल है। इसमें केवल नागरिक और राजनीतिक अधिकार बल्कि सामाजिक और आर्थिक अधिकार भी शामिल  हैं। दूसरी ओर, भाग IV के तहत राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत देश के शासन के मौलिक चार्टर के रूप में राज्य पर सभी के लिए सामाजिक-आर्थिक न्याय के लिए सकारात्मक कार्रवाई करने का कर्तव्य आरोपित करते हैं। जैसा कि ग्रैनविले ऑस्टिन ने निर्देशक सिद्धांतों का वर्णन किया है कि यह भारतीय जनता को समाज में सदियों से व्याप्त सामाजिक कुरीतियों को समाप्त कर एक गरिमायुक्त जीवन हेतु आदर्श वातावरण प्रदान करता है। अनुच्छेद 38, 39, 39, 41, 43 और 46  समानता और न्याय पर आधारित एक सामाजिक व्यवस्था निर्मित कर सामाजिक न्याय सुनिश्चित करते हैं।

हाथ से मैला ढोने वालों के लिए विधायन और नीतियां

विभिन्न संवैधानिक प्रावधानों के अलावा, भारत सरकार ने नागरिक अधिकार संरक्षण अधिनियम, 1955, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989, मैनुअल स्कैवेंजर्स का रोजगार और निर्माण जैसे कुछ विधायी ढांचे बनाए हैं। हाथ से मैला ढोने वालों के कल्याण के लिए शुष्क शौचालय (निषेध) अधिनियम, 1993 और हाथ से मैला ढोने वालों के रूप में रोजगार का निषेध और उनका पुनर्वास अधिनियम, 2013 परन्तु यहां मैला ढोने की समस्या से संबंधित केवल दो विशिष्ट अधिनियमों पर चर्चा करना उचित प्रतीत होता है।

() विधायी प्रयास

(i) मैनुअल स्कैवेंजर्स का रोजगार और शुष्क शौचालयों का निर्माण (निषेध) अधिनियम, 1993:

        संविधान की प्रस्तावना में निहित भाईचारे और व्यक्ति की गरिमा को बढ़ावा देने के लिए, और अनुच्छेद 47 के तहत अपने लोगों के पोषण के स्तर को बढ़ाने, जीवन स्तर और सार्वजनिक स्वास्थ्य में सुधार के संबंध में राज्य को दिए गए संवैधानिक निर्देशों के लिए। औरमैनुअल मैला ढोने वालों के रोजगार के साथ-साथ शुष्क शौचालयों के निर्माण या जारी रखने और जल सील शौचालयों के रखरखाव पर प्रतिबंध। भारतीय संसद ने अनुच्छेद 252 के संवैधानिक आदेश के तहत एक समान कानून मैनुअल स्कैवेंजर्स का रोजगार और शुष्क शौचालयों का निर्माण (निषेध) अधिनियम, 1993 पारित किया है। इस अधिनियम में पांच अध्याय (05) और चौबीस (24) धाराएं हैं। प्रस्तावना का अभिकथन हाथ से मैला ढोने वालों के रोजगार पर रोक लगाने के साथ-साथ शुष्क शौचालयों के निर्माण या जारी रखने और जल-सील शौचालयों के रखरखाव और उससे जुड़े मामले का संकल्प करता है। देश भर में प्रचलित हानिकारक और अप्रिय प्रथा को खत्म करने के लिए, यह स्वास्थ्य और मानवीय गरिमा के लिए बेहद आक्रामक है। इन उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए अधिनियम विभिन्न प्रावधानों को नियोजित करता है। राज्य सरकार क्षेत्रों का सीमांकन कर सकती है और कुछ क्षेत्र, श्रेणी या भवन, या व्यक्तियों के वर्ग में अधिनियम के आवेदन को प्रतिबंधित कर सकती है।

अधिनियम के अध्याय III के तहत किए गए महत्वपूर्ण प्रावधान, जिसमें अन्य बातों के साथ-साथ कार्यकारी अधिकारियों की नियुक्ति और उनकी शक्तियां और कार्य, शौचालयों को जल सील शौचालयों में बदलने या निर्माण और रखरखाव को विनियमित करने के लिए योजनाएं बनाने की शक्ति और पुनर्वास शामिल हैं किसी भी क्षेत्र में हाथ से मैला ढोने वालों के रूप में नियोजित व्यक्तियों की संख्या, निर्देश जारी करना, निरीक्षकों की नियुक्ति और प्रवेश और निरीक्षण, कुछ मामलों में पर्यावरण प्रदूषण को रोकने हेतु, वित्तीय सहायता, शुल्क लगाना, राज्य द्वारा समितियों का गठन करना इत्यादि सम्मिलित है। सरकार.अधिनियम का नियामक ढांचा मुख्य रूप से आदेश और निषेध सिद्धांतों पर आधारित है, जिसके तहत प्रवर्तन एजेंसियां इस अधिनियम के तहत प्रत्येक अपराध को संज्ञेय मानती हैं और जुर्माना और आपराधिक मुकदमा चलाती हैं। किसी भी प्रावधान के उल्लंघन के मामले में अधिनियम में एक वर्ष तक की कैद या दो हजार रुपये तक का जुर्माना या किसी भी आदेश, निर्देश और योजनाओं का पालन करने में विफलता के लिए अतिरिक्त जुर्माना जो एक सौ रुपये प्रति दिन तक बढ़ाया जा सकता है या दोनों का प्रावधान किया गया है।

(ii) मैनुअल स्कैवेंजर्स के रूप में रोजगार का निषेध और उनका पुनर्वास अधिनियम, 2013

        उपरोक्त पुराने अधिनियम का विश्लेषण करने के बाद यह पाया गया कि इस अधिनियम को मुख्य रूप से हाथ से मैला ढोने वालों की गरिमा की रक्षा और इस प्रथा से मुक्ति तथा उनके पुनर्वास के कानून के रूप में देखा जाता है लेकिन व्यवहार में ऐसा नहीं है। इसके अलावा, यह भी पाया गया है कि अधिनियम की पाठ्य भाषा में सभी प्रकार के प्रासंगिक प्रावधान हैं, लेकिन कानून की कार्यप्रणाली से पता चलता है कि इसके कानूनी जीवन के 19 वर्षों के बाद भी अधिनियम के तहत एक भी दोषसिद्धि नहीं देखी गई है। घृणित व्यवस्था पर असर डालने में अधिनियम की विफलता को केंद्र और राज्य सरकारों की उदासीनता के लिए जिम्मेदार ठहराया जाता है। जहां केंद्र को इस अधिनियम को अधिसूचित करने में चार साल लगे, वहीं राज्य सरकारों को इसे अपनाने में तीन साल और लग गए। 2001 तक कई राज्यों में अधिनियम लागू होने के बाद भी, शुष्क शौचालयों या हाथ से मैला ढोने वालों की संख्या में कोई उल्लेखनीय गिरावट दर्ज नहीं की गई है। विडम्बना यह है कि 2005 से 2012 तक सुप्रीम कोर्ट द्वारा लगातार इस कानून को लागू करने के आदेश दिये गये लेकिन स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया। इसमें कोई संदेह नहीं है कि इस अधिनियम में कुछ खामियां और कमियां हैं जैसे कि हाथ से मैला ढोने वालों की परिभाषा, केवल स्वच्छता और पर्यावरणीय पहलुओं पर ध्यान केंद्रित करना, इस तरह के अभ्यास में संलग्न व्यक्तियों की पहचान के लिए तंत्र की कमी और महत्वपूर्ण मुद्दों पर प्रतिक्रिया नहीं देना। मैला ढोने वालों के अधिकार और स्वच्छता से संबंधित।सरकारी पहलों के बावजूद मैला ढोने की प्रथा का पूर्ण उन्मूलन नहीं हो पाया है। इस प्रकार, इस अधिनियम का कार्यान्वयन अपर्याप्त और अनुचित रहा है और इसके परिणामस्वरूप इस पुराने अधिनियम के स्थान पर नए कड़े कानून के लिए आंदोलनों का उदय हुआ है।

हालाँकि, भारत के सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप और सफाई कर्मचारी संगठनों की मांगों के कारण 3 सितंबर 2012 को लोकसभा में एक नया विधेयक पेश किया गया, जिसका उद्देश्य हाथ से मैला ढोने के नियमन को और अधिक प्रभावी बनाने के लिए कानून में बदलाव करना था। खामियों को दूर करें औरपहले के कानून की कुछ कमजोरियों को ठीक करता है।अंततः, मैनुअल स्कैवेंजर्स के रूप में रोजगार पर प्रतिबंध और उनका पुनर्वास अधिनियम, 2013 7 सितंबर, 2013 को संसद के दोनों सदनों द्वारा पारित किया गया और 18 सितंबर, 2013 को राष्ट्रपति की सहमति प्राप्त हुई। वर्तमान अधिनियम में आठ अध्याय और तीस शामिल हैं नौ अनुभाग. अधिनियम का शीर्षक ही इसके मुख्य उद्देश्यों को दर्शाता है जैसे कि मैला ढोने वालों के रूप में रोजगार पर रोक, मैला ढोने वालों और उनके परिवारों का पुनर्वास और उससे जुड़े मामलों का उल्लेख किया गया है। हालाँकि, इस नए कानून की प्रस्तावना की भाषा अपने स्रोत में थोड़ी भिन्न है, अर्थात् यह संविधान के भाग III और अनुच्छेद 46 के लोकाचार के साथ-साथ मैनुअल स्कैवेंजर्स द्वारा झेले गए ऐतिहासिक अन्याय और अपमान को ठीक करने पर आधारित है। नया कानून पिछले अधिनियम की तुलना में अधिक व्यापक है क्योंकि यह एक केंद्रीय अधिनियम है, जो सभी राज्यों के लिए बाध्यकारी है, कि राज्य का कानून है जिसके लिए राज्य विधानसभाओं द्वारा समर्थन की आवश्यकता होती है। अधिनियम का पारिभाषिक हिस्सा इतना व्यापक है कि इसमें कई शब्द और अभिव्यक्तियाँ समाहित हैं। उदाहरणार्थ 'समुचित सरकार', 'अस्वच्छ शौचालय', 'स्थानीय प्राधिकरण' और 'मैला ढोने वाले' आदि को वर्तमान संदर्भ में नए अर्थ प्रदान किए गए हैं।

अस्वच्छ शौचालय, स्थानीय प्राधिकरण और मैला ढोने वाले आदि को वर्तमान संदर्भ में नए अर्थ प्रदान किए गए हैं। यह अधिनियम किसी भी अन्य कानून के प्रभाव से स्वतंत्र हैं तथा अन्य कानूनों पर प्रभावी है। नए अधिनियम में सबसे पहले स्थानीय अधिकारियों को अपने अधिकार क्षेत्र के भीतर अस्वच्छ शौचालयों का सर्वेक्षण और पहचान करने के लिए अधिकृत किया गया है, जिन्हें रिपोर्ट प्रकाशित करनी होगी और शौचालय के कब्जे वाले को नोटिस देना होगा। इसके बाद कब्जाधारियों को अधिनियम के प्रारंभ होने की तारीख से छह महीने के भीतर अपनी लागत पर या तो उन्हें ध्वस्त करना होगा या उन्हें स्वच्छता शौचालयों में परिवर्तित करना होगा। यदि कब्जाधारी ऐसा करने में विफल रहता है, तो स्थानीय प्राधिकरण शौचालय को परिवर्तित कर देगा और इसकी लागत पूर्व से वसूल करेगा। स्थानीय प्राधिकारी अधिनियम के प्रारंभ होने से नौ महीने की अवधि के भीतर सामुदायिक स्वच्छता शौचालयों का निर्माण करेगा और हर समय स्वच्छता बनाए रखेगा। अध्याय III के तहत, अधिनियम अस्वच्छ शौचालयों के निर्माण और मैनुअल स्केवेंजर के रोजगार और नियुक्ति पर प्रतिबंध लगाता है। अधिनियम ने इसके प्रारंभ होने से पहले किए गए मैनुअल स्कैवेंजिंग से संबंधित किसी भी समझौते को शून्य घोषित कर दिया। अधिनियम सीवर और सेप्टिक टैंकों की खतरनाक सफाई के लिए व्यक्तियों की नियुक्ति या रोजगार पर प्रतिबंध लगाने का प्रावधान करता है और प्रावधानों के किसी भी उल्लंघन पर दंड का प्रावधान है। किसी भी प्रावधान के उल्लंघन के मामले में अधिनियम में दो साल तक की कैद या एक लाख रुपये तक का जुर्माना या दोनों की सजा का प्रावधान है और बाद में किसी भी उल्लंघन के लिए कारावास की सजा जिसे पांच साल तक बढ़ाया जा सकता है या जुर्माना जो पांच लाख रुपये तक बढ़ाया जा सकता है, या दोनों से दंडित किया जा सकता है। . अधिनियम स्थानीय शासन अर्थात शहरी क्षेत्रों में नगर पालिका एवं  ग्रामीण क्षेत्रों में पंचायतों पर यह कर्तव्य आरोपित करता है कि  शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में मैनुअल स्केवेंजरों की पहचान के लिए नगरपालिका तथा पंचायतों द्वारा सर्वेक्षण किया जायेंगे और अधिनियम के तहत निर्धारित समय के भीतर ही उनके पुनर्वास हेतु उचित व्यवस्था की भी जायेगी।

अधिनियम का अध्याय V यह प्रावधान  करता है कि समुचित सरकार इस अधिनियम को  प्रभावी ढंग से लागू करने हेतु स्थानीय प्राधिकारियों एवं जिला मजिस्ट्रेट को शाक्तियां प्रदान कर सकती है और उनके लिए इस हेतु कर्तव्य भी निर्धारित कर सकती हैं। इसके साथ ही साथ समुचित सरकार अधिनियम  के प्रभावी क्रियान्वयन हेतु निरीक्षकों की नियुक्ति कर सकती है और उन्हें यथोचित शक्तियां भी प्रदान कर सकती हैं।   इस अधिनियम के अन्तर्गत अपराधों के विचारण हेतु न्यायिक मजिस्ट्रेट (प्रथम श्रेणी ) सशक्त किया गया है जो संक्षिप्त विचारण प्रक्रिया अपनाते हुए मामलों का निपटारा करेगा। इस अधिनियम के अन्तर्गत अपराधों को संज्ञेय और गैर-जमानती बनाया गया है। इसके अतिरिक्त इस अधिनियम के प्रभावी कार्यान्वयन के लिए उप-मंडल, जिला, राज्य और केंद्र स्तर पर सतर्कता और निगरानी समितियों का गठन किए जाने का प्रावधान किया गया है। पहली बार इस अधिनियम के अन्तर्गत अधिनियम के कार्यान्वयन की निगरानी हेतु राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी आयोग को जिम्मेदारी सौंपी गयी है।। इन प्रावधानों के अलावा अधिनियम के अध्याय VIII में कुछ विविध प्रावधान हैं जिनमें एक महत्वपूर्ण प्रावधान यह है कि सीवर आदि की सफाई के लिए आधुनिक तकनीक का उपयोग करना प्रत्येक स्थानीय अधिकारियों और अन्य एजेंसियों का कर्तव्य होगा। कुल मिलाकर इस अधिनियम में हाथ से मैला ढोने की मौजूदा प्रथा को रोकने के लिए सभी प्रकार के प्रावधान किए गए हैं, परन्तु वास्तविकता में उपलब्ध प्रावधान को व्यावहारिक स्वरूप प्रदान करना अभी भी एक विवादास्पद प्रश्न बना हुआ है।

() नीतियां और कार्यक्रम :

हाथ से मैला ढोने वालों की मौजूदा वंशानुगत घृणित और अमानवीय स्थिति को देखते हुए, भारत सरकार ने उनके सामाजिक-आर्थिक विकास के लिए विभिन्न नीतियां और कार्यक्रम तैयार किए हैं:

(i) संपूर्ण स्वच्छता अभियान, 1999

1980 के दशक के विश्व जल दशक में ग्रामीण स्वच्छता का विकास और विकास भारत सरकार के ध्यान में आया। ग्रामीण क्षेत्रों में स्वच्छता सुविधाएं प्रदान करने के लिए 1986 में केंद्रीय ग्रामीण स्वच्छता कार्यक्रम शुरू किया गया था। यह एक आपूर्ति संचालित, अत्यधिक सब्सिडी और बुनियादी ढांचा उन्मुख कार्यक्रम था।

इन कमियों और कम वित्तीय आवंटन के परिणामस्वरूप, सीआरएसपी का इस विशाल समस्या पर बहुत कम प्रभाव पड़ा। .कुछ राज्यों में समुदाय-संचालित, जागरूकता पैदा करने वाले अभियान आधारित कार्यक्रमों के अनुभव और सीआरएसपी के मूल्यांकन के परिणामों के कारण, 1999 में संपूर्ण स्वच्छता अभियान (टीएससी) दृष्टिकोण तैयार किया गया, जो ग्रामीण स्वच्छता क्षेत्र के सुधारों में एक ऐतिहासिक विकास था। भारत। यह "सब्सिडी के बराबर" के सिद्धांत का पालन करता है, जहां ग्रामीण गरीब परिवारों को शौचालयों के निर्माण के लिए प्रोत्साहन के रूप में नाममात्र की सब्सिडी दी जाती है। टीएससी पंचायती राज संस्थानों (पीआरआई), समुदाय आधारित संगठनों (सीबीओ), और गैर सरकारी संगठनों (एनजीओ) आदि की भागीदारी के साथ प्रभावी व्यवहार परिवर्तन के लिए सूचना, शिक्षा और संचार (आईईसी), क्षमता निर्माण और स्वच्छता शिक्षा पर जोर देता हैप्रमुख हस्तक्षेप क्षेत्र व्यक्तिगत घरेलू शौचालय (आईएचएचएल), स्कूल स्वच्छता और स्वच्छता शिक्षा (एसएसएचई), सामुदायिक स्वच्छता परिसर, ग्रामीण स्वच्छता मार्ट (आरएसएम) द्वारा समर्थित आंगनवाड़ी शौचालय हैं।

(ii) वाल्मिकी मालिन बस्ती आवास योजना (VAMBAY)

यह योजना भारत सरकार द्वारा 2001 के दौरान शहरी मलिन बस्तियों में गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोगों के लिए आश्रय प्रदान करने और मौजूदा आश्रय को उन्नत करने के उद्देश्य से शुरू की गई थी, जो शहरों को मलिन बस्ती मुक्त बनाने में मदद करती है। यह योजना राज्यों के साथ 50:50 के आधार पर साझा की जाती है। महिला मुखिया वाले परिवारों को प्राथमिकता दी जाती है। सरकार ऋण के साथ 1:1 के आधार पर सब्सिडी जारी करती है।

(iii) निर्मल ग्राम पुरस्कार योजना

टीएससी में ताकत जोड़ने के लिए, जून 2003 में, भारत सरकार ने पूरी तरह से स्वच्छ और खुले में शौच मुक्त ग्राम पंचायतों, ब्लॉकों और जिलों के लिए एक प्रोत्साहन योजना शुरू की, जिसे 'निर्मल ग्राम पुरस्कार' कहा जाता है। प्रोत्साहन प्रावधान पंचायती राज संस्थानों (पीआरआई) के साथ-साथ उन व्यक्तियों और संगठनों के लिए है जो पूर्ण स्वच्छता कवरेज के लिए प्रेरक शक्ति हैं। 2012 में केंद्रीय ग्रामीण विकास, पेयजल और स्वच्छता मंत्रालय ने माना कि 1999 में शुरू किया गया संपूर्ण स्वच्छता अभियान (टीएससी) "एक सांकेतिक स्वच्छता अभियान था, कि संपूर्ण स्वच्छता अभियान। इसलिए, उन्होंने भारतीय जनता में क्रांति लाने के लिए सामाजिक आंदोलन के रूप में ग्राम पंचायत में एक नया कार्यक्रम निर्मल भारत अभियान शुरू किया।

(iv) हाथ से मैला ढोने वालों के पुनर्वास के लिए स्व-रोज़गार योजना

यह सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय की एक बहुत ही प्रमुख योजना है जो मैनुअल स्कैवेंजर्स के पुनर्वास के लिए बनाई गई है। योजना का उद्देश्य शेष बचे सफाईकर्मियों को पुनर्वास के लिए सहायता प्रदान करना है, जिन्हें अभी तक सहायता प्रदान की जानी है। सफाईकर्मी और उनके आश्रित, चाहे उनकी आय कुछ भी हो, जिन्हें भारत सरकार/राज्य सरकार की किसी भी योजना के तहत पुनर्वास के लिए सहायता प्रदान की जानी है, सहायता के लिए पात्र होंगे।

(V) मानवाधिकार आधारित दृष्टिकोण

राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने पहली बार 1996-97 में मैला ढोने का मुद्दा उठाया था। इसके बाद आयोग ने नियमित रूप से इस मुद्दे से निपटने के लिए किए गए प्रयासों का ब्योरा दिया है। पहले कदम के रूप में, आयोग ने सिफारिशों को विस्तृत करने और एक निश्चित समय सीमा के भीतर मैला ढोने की प्रथा को खत्म करने की योजना को आगे बढ़ाने के लिए एक उच्च स्तरीय समिति का गठन किया, जो स्वास्थ्य और मानव गरिमा के लिए बेहद हानिकारक है। विशेष रूप से आयोग ने सभी राज्य सरकारों और केंद्र शासित प्रदेशों से अधिनियम को लागू करने के लिए अधिक दृढ़ संकल्प के साथ काम करने का आग्रह किया है, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि अमानवीय प्रथा को प्रभावी ढंग से रोका जा सके। अब तक, 26 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों ने या तो केंद्रीय कानून को स्वीकार कर लिया है या अपने स्वयं के कानून बनाए हैं। आयोग ने दोहराया है कि इस अस्वीकार्य प्रथा को समाप्त करने के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति और दृढ़ संकल्प की कमी कानून बनाए जाने के बावजूद बनी रहेगी। इसलिए यह सुनिश्चित करने के लिए राजनीतिक कार्यकर्ताओं और सामाजिक कार्रवाई समूहों को संगठित करने की आवश्यकता है कि यह प्रथा, जो मानवाधिकारों का घोर उल्लंघन है और मानवीय गरिमा पर हमला है, पूरी तरह से बंद हो जाए। इसलिए, आयोग ने इस मामले में केवल केंद्र सरकार के स्तर पर बल्कि राज्य सरकारों के साथ भी उचित कार्रवाई की वकालत करना जारी रखा है। कार्रवाई की श्रृंखला में 6 जनवरी, 2003 को 13 राज्यों के शहरी विकास सचिवों के साथ एक बैठक आयोजित की गई थी। चर्चा करने के लिएमैला ढोने की प्रथा के उन्मूलन में प्रगति हुई है।आयोग ने इस बात पर जोर दिया कि राज्यों और केंद्र सरकार को यह सुनिश्चित करने के लिए अपने संसाधनों को एक साथ लाने की जरूरत है कि हाथ से मैला ढोने की प्रथा हमेशा के लिए खत्म हो जाए।

हाल के दिनों में, आयोग ने इस संबंध में समय-समय पर केंद्र और राज्य सरकारों के प्रतिनिधियों और अन्य हितधारकों के साथ कई बैठकें की हैं, जिसमें इस खतरे को समाप्त करने के लिए समग्र दृष्टिकोण पर जोर दिया गया है। मैनुअल स्कैवेंजिंग और स्वच्छता पर अंतिम समीक्षा कार्यशाला 11 मार्च, 2011 को न्यायमूर्ति श्री के.जी. की अध्यक्षता में नई दिल्ली में आयोजित की गई थी। बालाकृष्णन, अध्यक्ष, एनएचआरसी और विस्तृत विचार-विमर्श से उभरी सिफारिशों को आवश्यक कार्रवाई करने और कार्रवाई रिपोर्ट भेजने के लिए केंद्र/राज्य सरकारों को भेजा गया था। केवल 19 राज्यों/केंद्रशासित प्रदेशों ने प्रमाणित किया है कि उनके राज्यों/केंद्रशासित प्रदेशों में मिट्टी को मैन्युअल रूप से संभालने की प्रथा प्रचलित नहीं है। ये राज्य/केंद्र शासित प्रदेश हैं अरुणाचल प्रदेश, गोवा, मिजोरम, नागालैंड, सिक्किम, बिहार, छत्तीसगढ़, कर्नाटक, मणिपुर, ओडिशा, मेघालय, तमिलनाडु, त्रिपुरा, केरल और केंद्र शासित प्रदेश चंडीगढ़, लक्षद्वीप, पुडुचेरी, अंडमान और निकोबार द्वीप समूह और एनसीटी। दिल्ली। हरियाणा, जम्मू और कश्मीर, राजस्थान, उत्तराखंड (पिथौरागढ़ जिले को छोड़कर जो मैनुअल स्कैवेंजिंग से मुक्त है), पश्चिम बंगाल, गुजरात, पंजाब, दादरा और नगर हवेली और दमन और दीव के राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों ने अभी तक अपनी कार्रवाई प्रस्तुत नहीं की है। आयोग को रिपोर्ट करें। इस पृष्ठभूमि में, आयोग ने 21 फरवरी, 2014 को विज्ञान भवन नई दिल्ली में मैनुअल स्कैवेंजिंग और स्वच्छता पर फिर से एक राष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन किया। सम्मेलन हाल ही में पारित मैनुअल स्कैवेंजर्स के रूप में रोजगार पर प्रतिबंध और उनके पुनर्वास अधिनियम, 2013 के प्रभावी कार्यान्वयन से संबंधित मुद्दों को उठाएगा और अधिनियम के आधार पर मॉडल नियम तैयार करने के लिए इनपुट भी प्रदान करेगा।

(Vl)  न्यायिक दृष्टिकोण

भारतीय न्यायपालिका को संविधान के तहत राज्य के एक स्वतंत्र अंग के रूप में दो अन्य अंगों के कामकाज पर नियंत्रण प्रदान करने के लिए एक अद्वितीय स्थान प्राप्त है। अपने कामकाज के लगभग 75 वर्षों में अदालतों की भूमिका में व्यापक परिवर्तन अनुभव किया गया है। भारतीय न्यायपालिका सामाजिक सुधारों की दिशा में एक गतिशील संस्था के रूप में कार्य करते हुए नागरिक, राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक अधिकारों के  क्षेत्र में नागरिकों के व्यक्तिगत और सामूहिक अधिकारों को  विस्तृत करने एवं प्रभावी रूप से सुनिश्चित करने में सक्रिय भूमिका का निर्वहन कर रही है। इसके अतिरिक्त  सर्वोच्च न्यायालय ने न्यायिक नवाचार द्वारा मूल लोकतांत्रिक मूल्यों पर नए विचार देने और अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य बहिष्कृत समुदायों के सामाजिक अन्याय, जातिगत भेदभाव और शोषण को दूर करने के लिए सामाजिक रूप से संवेदनशील न्यायशास्त्र को बढ़ावा देना शुरू कर दिया है।

हालाँकि, यह जस्टिस वी.आर.कृष्णा अय्यर और जस्टिस पी.एन. भगवती जैसे न्यायाधीशों, जिन्होंने समतावादी समाज की स्थापना, सामाजिक समानता एवं न्याय तक सभी की पहुंच को भारतीय संविधान के आधारभूत ढांचे के रूप में मान्यता प्रदान कर संवैधानिक मूल्यों की रक्षा की।  इसके अतिरिक्त भारतीय न्यायपालिका द्वारा न्याय तक सभी की पहुंच के उद्भव के साथ न्यायशास्त्र को एक नई जीवन शक्ति प्रदान की गयी। अनुच्छेद 32 एक ऐसा मौलिक अधिकार है‌ जिसके द्वारा किसी भी प्रकार से संवैधानिक प्रावधानों के उल्लंघन से होने वाले सामाजिक अन्याय का निवारण न्यायपालिका द्वारा प्रभावी ढंग से किया जा सकता है। सर्वोच्च न्यायालय और विभिन्न उच्च न्यायालयों के निम्नलिखित निर्णय स्पष्ट रूप से जीवन और मानवीय गरिमा के अधिकार को मान्यता देते हुए हांथ से मैला उठाने जैसी सामाजिक कुप्रथा पर प्रभावी नियंत्रण की दिशा में महती भूमिका का निर्वहन करते हैं।

सी..एस.सी. लिमिटेड बनाम सुभाष चंद्र बोस  के  मामले में न्यायमूर्ति के. रामास्वामी ने अपनी असहमतिपूर्ण राय में कहा कि: मिट्टी जोतने वालों, मजदूरी करने वालों, मजदूरों, लकड़ी काटने वालों, रिक्शा चालकों, मैला ढोने वालों और झोपड़ी में रहने वालों के लिए नागरिक और राजनीतिक अधिकार महज दिखावटी अधिकार हैं। जीवन के सार्थक अधिकार की बुनियादी आकांक्षाओं को साकार करने के लिए सामाजिक-आर्थिक और सांस्कृतिक अधिकार उनके साधन हैं और उनके लिए प्रासंगिक हैं।

पुनः कर्नाटक राज्य बनाम अप्पू बालू इंगले के मामले में जिसमें न्यायमूर्ति केरामास्वामी ने अनुच्छेद 17 और नागरिक अधिकार संरक्षण अधिनियम, 1955 के समाजशास्त्रीय और संवैधानिक प्रावधान में विचार व्यक्त किए:

अनुच्छेद 17 और अधिनियम का जोर, समाज को अंध और अनुष्ठानिक पालन और पारंपरिक विश्वास से मुक्त करना है जिसने सभी कानूनी या नैतिक आधार खो दिए हैं, यह समाज के लिए आम जनता के बराबर दलित समानता, विकलांगता की अनुपस्थिति के लिए नया आदर्श स्थापित करना चाहता है। , प्रतिबंध याजाति या धर्म के आधार पर निषेध, अवसरों की उपलब्धता और राष्ट्रीय जीवन की मुख्य धारा में भागीदार होने की भावना।

न्यायालय ने आगे फैसला सुनाया:अधिनियम की व्याख्या करते समय, न्यायाधीश को अधिनियम के संवैधानिक लक्ष्यों और उद्देश्यों के प्रति सचेत रहना चाहिए और उन्हें हमेशा अपने दिमाग में रखना चाहिए और इस प्रकार अस्पृश्यता को खत्म करने के लिए अधिनियम के प्रावधानों की व्याख्या करनी चाहिए। दलितों और जनजातियों को अधिकारसमानता, सामाजिक एकता एक फल है और भाईचारा एक वास्तविकता है।

सफाई कर्मचारी आंदोलन बनाम भारत संघ मामले में सफाई कर्मचारी आंदोलन और छह अन्य सहयोगी संगठनों द्वारा दायर एक जनहित याचिका में बताया गया कि हाथ से मैला ढोने की खतरनाक प्रथा कई राज्यों में मौजूद है और यहां तक कि सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में भी इसे जारी रखा जा रहा हैजैसे कि भारतीय रेलवे.उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय से सभी व्यक्तियों के पुनर्वास के लिए व्यापक योजनाओं के निर्माण और कार्यान्वयन के साथ-साथ हाथ से मैला ढोने की प्रथा को खत्म करने के लिए प्रभावी कदम उठाने के लिए भारत संघ और विभिन्न राज्यों को समयबद्ध निर्देश जारी करने का आग्रह कियामैनुअल स्केवेंजर के रूप में कार्यरत हैं।

प्रवीण राष्ट्रपाल बनाम मुख्य अधिकारी, कादी नगर पालिका मामले में गुजरात उच्च न्यायालय ने माना कि सीवेज कर्मचारी इस देश के नागरिक हैं और वे भारत के संविधान में दिए गए जीवन और सम्मान के मौलिक अधिकार का आनंद लेने के हकदार हैं। इसके उपरांत 2011 में दिल्ली जल बोर्ड बनाम सीवरेज और संबद्ध श्रमिकों की गरिमा और अधिकारों के लिए राष्ट्रीय अभियान के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कानूनी रिक्तता को भरने के लिए विस्तृत दिशानिर्देश जारी किए।

निष्कर्ष : उपरोक्त चर्चा से यह कहना होगा कि मैला ढोने की समस्या से संबंधित समय-समय पर विभिन्न नए राष्ट्रीय कानूनों और नीतियों को बनाने के लिए किए गए प्रयासों के बावजूद, पिछले कई वर्षों में मैला ढोने की अमानवीय प्रथा को समाप्त किया जा सका है। लेकिन यह प्रथा देश के विभिन्न हिस्सों में अभी भी जारी है।इसमें कोई संदेह नहीं है कि 1993 के अधिनियम और 2013 के नए अधिनियम के साथ-साथ कई योजनाओं और नीतियों में मैला ढोने की समस्या से प्रभावी ढंग से निपटने की पर्याप्त क्षमता है लेकिन समस्या निष्क्रिय विधायिका और उदासीन कार्यपालिका है। आम आदमी के सामाजिक-आर्थिक अधिकारों की प्राप्ति की योजना में राज्य और नागरिक समाज को सक्रिय भागीदार बनने के लिए मंच प्रदान करने के लिए इस संबंध में न्यायिक प्रतिक्रिया संतोषजनक है। इसके अलावा, देश ने 2013 में 1993 के अधिनियम को प्रतिस्थापित करके इसके दायरे, अर्थ, प्राधिकरणों में महत्वपूर्ण बदलाव और अधिक कठोर दंडात्मक प्रावधानों के साथ नया कानून बनाया। नए कानून की कार्यप्रणाली के बारे में अभी कुछ भी कहना जल्दबाजी होगी लेकिन पिछले एक साल में इसके लागू होने के कोई सकारात्मक संकेत नजर नहीं आए हैं। इसमें कोई संदेह नहीं है कि छोटे भारतीयों के मानवाधिकारों और विशेष रूप से हाथ से मैला ढोने वालों के अधिकारों को साकार करने के लिए प्रवर्तन और कार्यान्वयन पहलू अभी भी सरकार और नीति निर्माताओं के सामने एक बड़ी चुनौती हैं। एक न्यायाधीश ने अपने निर्णय में ठीक ही कहा था कि 'सिर्फ कानून बनाना तब तक पर्याप्त नहीं है जब तक उसे उसकी मूल भावना के अनुरूप लागू और कार्यान्वित किया जाए।'

 

सन्दर्भ :
1. मोहम्मद जफर महफूज नोमानी और अनीस अहमद, बदबूदार अस्तित्व, छेड़छाड़ किए गए कानून और दागी प्रवर्तन: भारत में मानव अधिकारों और गरिमा के लिए मैनुअल स्केवेंजर्स की लड़ाई का एक अध्ययन, (संस्करण) 21वीं सदी में मानव अधिकार, (2008) 264
2.  एस. विश्वनाथन "एक घृणित प्रथा को उजागर करना " 23(3), फ़रवरी 11-24 फ्रंटलाइन मैगज़ीन पृष्ठ 81 (2005)
3.  हर्ष मंदर, मानव गरिमा के लिए एक कानून, हिंदू डेली: लखनऊ संस्करण, पत्रिका अनुभाग, 06 अक्टूबर 2013, पृष्ठ संख्या 02
4. हिंदू डेली: दिल्ली संस्करण, 06 जून 2023, 10.42बजे https://www.thehindu.com/news/national/only-66-districts- पर उपलब्ध।
5.  सुभाष कश्यप, हमारा संविधान: भारत के संविधान और संवैधानिक कानून का एक परिचय, नेशनल बुक ट्रस्ट, भारत (2010) पृष्ठ संख्या 55-145
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7.  मोहम्मद जफर महफूज नोमानी, स्वास्थ्य का अधिकार: एक सामाजिक-कानूनी परिप्रेक्ष्य, उप्पल प्रकाशन नई दिल्ली, (2004) पृष्ठ संख्या 56
8.  एस.मुरलीधर, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों के क्षेत्र में कार्यान्वयन न्यायालय के आदेश: भारतीय न्यायपालिका के अनुभव का एक अवलोकन, 2002, पृष्ठ 1 यह पेपर यहां उपलब्ध है: http://www.ielrc.org/content/w0202.pdf.
9.  एस.एन. ध्यानी "न्यायशास्त्र के बुनियादी सिद्धांत: