शोध सार : चीन की एक रामकथा का नाम है “लंका सिप हो”। यह काफी विस्तृत रामकथा है जो चीन के यून-नान प्रांत के ताए जाति के लोगों में हजारों सालों से प्रचलित है। “लंका सिप हो” ताए संस्कृति के रंग में रंगी हुई एक मूल रचना है, सीधा अनुवाद नहीं। इसके अधिकतर व्यक्तिवाचक संज्ञाओं के नाम “वाल्मीकि रामायण” की संज्ञाओं से मिलते-जुलते हैं अर्थात् लिप्यंतरण हैं, तो वहीं कुछ नाम शब्दानुवाद या भावानुवाद प्रतीत होते हैं। कुछ नाम वाल्मीकि रामायण में तो नहीं है, लेकिन अन्य भारतीय रामायणों में प्रयुक्त संज्ञाओं से मिलते-जुलते हैं।
बीज शब्द : चीनी ताए रामायण, लंका सिप हो, वाल्मीकि रामायण, अनुवाद, लिप्यंतरण, शब्दानुवाद, भावानुवाद
मूल आलेख : यह माना जाता है कि चीन में सिर्फ दो मौलिक रामकथाएँ पाई गई हैं जिनके हिंदी नाम हैं —“अनामकम जातकम” व “दशरथ कथानम” (बुल्के, प्रि.58-61), लेकिन 1956 में चीन की ताए जाति की भाषा में एक और रामकथा पाई गई (फू, प्रि. 40), और इस तरह अब तक चीन में कुल तीन मौलिक रामकथाएँ पाई जा चुकी हैं। यह तीनों रामकथाएँ बौद्ध रामकथाएँ हैं, इनकी पृष्ठभूमि व चरित्र— सभी बौद्ध हैं। इनका प्रयोग बौद्ध धर्म के प्रचार- प्रसार के लिए कालांतर में किया गया है।
1938 में संस्कृत के प्रोफेसर रघुवीर व जापानी विद्वान चिक्यो यामामोतो ने सबसे पहले चीन की दो मौलिक रामकथाओं का अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित किया (रघुवीर व यामामोतो) जिनके अनूदित नाम ये थे— “Jataka
of an Unknown King” (हिंदी अनुवाद: अनामकम जातकम) व “Nidana of King Ten Luxuries”(हिंदी अनुवाद: दशरथ कथानम)। वैसे इनमें से पहली रामकथा का फ्रेंच अनुवाद 1904
में ही छप चुका था (उबैर, प्रि.698-701)।
चीन की ताए जाति व ताए भाषा :
चीन में ताए जाति की जनसंख्या, 2020 की जनगड़ना के अनुसार, लगभग तेरह लाख है। इनका मूल निवास चीन के दक्षिण-पश्चिम में स्थित यून-नान प्रांत के शी-श्वाङ-पान-ना व द-हूङ आदि क्षेत्रों में है। ताए समाज मूल रूप से कृषि प्रधान रहा है। अधिकांश बौद्ध धर्म की थेरवाद शाखा के अनुयायी हैं। छठी से आठवीं सदी के बीच, व्यापारियों व बौद्ध भिक्षुओं आदि के माध्यम से थेरवाद भारत से ताए क्षेत्र में पहुँचा था और वहाँ के स्थानीय धर्मों से भी प्रभावित हुआ था (ली, प्रि.
94)।रूचि की बात यह भी है कि ताए भाषा(Tai
Language 傣语) की लिपि भारत की ब्राह्मी लिपि से विकसित हुई है (जगासिंस्की, प्रि.80)।
चीनी ताए रामायण “लंका सिप हो” व चीनी अनुवाद “लानका
शी
ह” :
चीन की ताए भाषा की रामायण का नाम है “लंका सिप हो”[i], जिसका चीनी अनुवाद ताओ
शिङ-फिङ
आदि
द्वारा किया गया जो चीनी सामाजिक विज्ञान संस्थान(एक सरकारी विभाग) द्वारा 1981 में “लानका शी ह”[ii] के नाम से प्रकाशित हो चुका है (लानका शी ह)। पियरे-बर्नार्ड लाफों ने इसका फ्रेंच अनुवाद 2003 में प्रकाशित किया (लाफों)। इसके अंग्रेजी या अन्य भाषाओं में अनुवाद के बारे में जानकारी उपलब्ध नहीं है।
“लंका सिप हो” को “आधुनिक ‘ताए ल’लिपि (New Tai
Lue script新傣仂文)”, में ᦟᧂᦂᦱᦉᦲᧇᦷᦠ
लिखते
हैं।
यहाँ
“लंका”
जगह
का
नाम
है,
“सिप”
का
अर्थ
है
“दस”
और
“हो”
का
अर्थ
है
“सिर”।
तो
“लंका सिप हो” अर्थात् “लंका का दशानन”
यानी
रावण।
इस
ताए
रामायण
की
कई
पांडुलिपियाँ
मिली
हैं
जो
ताड़पत्रों
में
हैं
जिनमें
एक
तो
1312 ईसवी की है, जिसपर रचयिता का नाम “सुदावन” लिखा है (ताओ,
प्रि.218), लेकिन फिर भी अभी तक रचयिता के नाम के बारे में विद्वानों में एकमत नहीं है। “लंका सिप हो” के चीनी अनुवाद में भी किसी रचयिता का नाम नहीं है।
इस शोधलेख का आधार ताए रामायण “लंका सिप हो” का चीनी अनुवाद—“लानका शी ह(兰嘎西贺)”— है। वैसे “लंका सिप हो” की कुछ पांडुलिपियों में अंतर है, और इन अंतरों के साथ इस रामायण के कुछ और भी चीनी अनुवाद हुए हैं लेकिन “लानका शी ह” उनमें सबसे अधिक प्रसिद्ध है। इस शोधलेख में वाल्मीकि रामायण के संदर्भों के लिए इसके समीक्षित संस्करण (Critical Edition) का प्रयोग किया गया है जो प्राचीन पांडुलिपियों के आधार पर छपेहोने के कारण शोधकार्य के सर्वथा अनुकूल माना जाता है।
“लानका शी ह” में प्रयुक्त लिप्यंतरण :
इस ताए महाकाव्य में अधिकतर पात्रों के नाम उनके मूल संस्कृत नामों के लिप्यंतरण हैं। यथा: दशरथ-तातालाता, राम- रामा, लक्ष्मण- लाकाना, भरत- फालाता, शत्रुघ्न- शातालूका, हनुमान-आनुमान, बाली-पालीमो, महाब्रह्म- माहाफङ[iii], इंद्र-इङता, आदि। कुछ नामों के लिप्यंतरण प्रयोग व उच्चारण, आदि की सुविधा के लिए आधे-अधूरे ही कर दिए गए हैं। यथा: मेघनाथ-मीखा, विभीषण-पियाशा, कुंभकर्ण-कुननाफा, आदि (लानका शी ह, परिचय,प्रि.1-2)।
“लानका
शी
ह”में प्रयुक्त शब्दानुवाद :
साहित्य
में
भावानुवाद
पर
अधिक
बल
होता
है।
“लानका शी
ह”
में
भी
भावानुवाद
की
बहुतायत
है,
और
गिने-चुने
शब्दों
का
ही
शब्दानुवाद
हुआ
है। यथा:
“दासी”
का
शब्दानुवाद
“कुङन्वी【宫女】”
किया
गया
है,
जिसका
अर्थ
भी
“दासी”
ही
होता
है (लानका शी ह, परिचय, प्रि.2)। इस
शब्द
की
चर्चा
लेख
में
आगे
भी
की
गई
है।
लक्ष्मण की पत्नी “उर्मिला” के लिए ताए महाकाव्य में “च्वैन-ता (娟达) नाम का प्रयोग हुआ है, जिसका अर्थ “सुंदर” होता है। “उर्मिल” का अर्थ “लहर” होता है, तो “उर्मिला” का अर्थ भी “सुंदर [लहरों जैसी]” हो सकता है (“उर्मिला”)। वैसे ताए महाकाव्य में पात्रों का शब्दानुवाद देखने को नहीं मिलता है, इसलिए यह शब्दानुवाद एक संयोग मात्र भी हो सकता है।
“लानका
शी
ह” में प्रयुक्त भावानुवाद :
“लव” को तो लिप्यंतरित करके “ल्वोमा” लिखा गया है, लेकिन “कुश” को “श्याङ-वा” (相娃)लिखा गया है, जिसका शाब्दिक अर्थ है “प्रतिमूर्ति बालक”। कुश को प्रतिमूर्ति बालक इसलिए कहा गया है कि इस महाकाव्य में उसके जन्म की कथा लव से अलग है। इसमें सिर्फ लव राम जी का औरस पुत्र है, और कुश को लव की प्रतिमूर्ति बताया गया है। उल्लेखनीय है कि आनंद रामायण में भी कुश को लव की प्रतिमूर्ति ही बताया गया है(आनंद रामायणम्, प्रि.311)।
“लक्ष्मण रेखा” का भावानुवाद है “य्वान छवैन (圆圈)” यानी “गोल घेरा”। दरअसल “लानका
शी
ह” में सीता (शीला) जी की सुरक्षा के लिए लक्ष्मण (लाकाना) द्वारा खींची गई रेखा गोलाकार है(लानका शी ह, प्रि.107)। ध्यातव्य रहे कि वाल्मीकि रामायण में “लक्ष्मण रेखा” की चर्चा नहीं है।
“अशोक वाटिका” के लिए “य्वी ह्वा य्वान(御花园)” का प्रयोग हुआ है जिसका शाब्दिक अर्थ है “शाही बाग”(लानका शी ह, प्रि.109)। स्पष्ट है कि लंकापति रावण की अशोक वाटिका को ही “शाही बाग” माना गया है।
“ऐरावत” हाथी के लिए “च्यो-या पाओ-श्याङ(九牙宝象)” शब्द आया है जिसका अर्थ है “नौ दांतों वाला हाथी” (लानका शी ह,प्रि.42)। “ऐरावत” को चतुर्दन्ती माना जाता है (दलाल, प्रि 13), लेकिन चीनी संस्कृति में “चार (四)” शब्द अशुभ मानते हैं, क्योंकि चीनी मंदारिन भाषा में “चार” और “मृत्यु(死)”—दोनों शब्दों का उच्चारण “सी” है। वहीं “नौ” शब्द को बहुत शुभ मानते हैं, क्योंकि “नौ(九)” और “दीर्घायु(久)”— दोनों शब्दों का उच्चारण “च्यो” है। हजारों सालों से ताए क्षेत्र चीन का सीमावर्ती क्षेत्र रहा है, इसलिए अल्पसंख्यक ताए संस्कृति में चीनी बहुसंख्यक संस्कृति का प्रभाव होना स्वाभाविक है। 109 ईसा पूर्व हीवर्तमान यून-नान प्रांत के कुछ क्षेत्रों को चीन के हान राजवंश ने करद राज्य (Tributary State) बना कर परोक्ष रूप से अपने अधीन कर लिया था (इब्रे, प्रि 83)। शी-श्वाङ-पान-ना क्षेत्र भी 1296 में चीन के य्वान राजवंश के अधीन हो गया (मा, प्रि.
20)।
इंद्र के “वज्र” को “शन-फू (神斧)” लिखा गया है जिसका शाब्दिक अर्थ “दिव्य फरसा/ परशु” है (लानका शी ह, प्रि.42)। बौद्ध साहित्य में इंद्र के “वज्र” को डंडाकार (“वज्र”) मानने की परंपरा है, शायद इसीलिए इसे ताए रचयिता ने फरसा मान लिया क्योंकि प्राचीन युद्धों में फरसों का खूब प्रयोग होता था, और उन्हें एक निरीह डंडे को एक विनाशकारी अस्त्र के रूप में दर्शाना थोड़ा अटपटा लगा होगा।
वाल्मीकि रामायण में “दुंदुभि” नामक असुर की चर्चा आई है जिसने भैंसे का रूप धारण कर रखा था (वाल्मीकि, संपा. माकड़, खंड 4.11.7, प्रि.75)। “दुंदुभि” का अंत वानर राज बाली के हाथों हुआ था (वाल्मीकि, संपा. माकड़, खंड 4.11.38-39, प्रि.77)। ताए रामायण में “पाओ-च्याओ न्यो【宝角牛】”का पात्र भी “दुंदुभि” से मिलता-जुलता है (लानका शी ह, प्रि. 88), जिसका शाब्दिक अर्थ है “बेशकीमती सींगों वाला भैंसा”। यह “भैंसा” भी पालीमो के हाथों मारा गया, जो ताए रामायण में बाली के चरित्र के नाम है (लानका शी ह, प्रि.
98)।
“लानका
शी
ह” में एक ही संज्ञा के लिए एकाधिक अनुवाद विधि का प्रयोग :
“चंद्रनखा” का “य्वे याका (月雅嘎)” के रूप में अनुवाद हुआ है (लानका शी ह, परिचय,प्रि.
1)। यहाँ य्वे (月)शब्द का अर्थ है चंद्र, जबकि याका है नखा का लिप्यंतरण। यहाँ यह स्पष्ट करना भी आवश्यक है कि सुर्पनखा को ही विमलसूरी की जैन रामायण में चंद्रनखा कहा गया है (पौमचरियम,प्रि.312) और चीनी ताए रामायण में भी सुर्पनखा के चरित्र को युएयाका अर्थात् चंद्रनखा लिखा गया है।
“पुष्पक विमान” के लिए दो नाम आए हैं— “फूसालति शन छ [甫萨乐低神车]” (लानका शी ह,प्रि.103) व “फेई छ[飞车]”(लानका शी ह, प्रि.28)। ““फूसालति शन छ” के लिए लिप्यंतरणव भावानुवाद, दोनों का ही प्रयोग किया गया है। लिप्यंतरण: पुष्पक– फूसालति। “विमान” का भावानुवाद है “शन छ [神车] (यहाँ “शन छ” शन 【神】व छ【车】, दो शब्दों का मेल है, जिसका अर्थ है “दिव्य गाड़ी”। प्राचीन चीनी साहित्य में विमान के लिए कोई समानार्थक एकल शब्द नहीं पाया गया है।)।“पुष्पक विमान” का दूसरा भावानुवादहै—“फेई छ”, जिसका शाब्दिक अर्थ है “उड़न गाड़ी”।
“संजीवनी बूटी” के लिए भी दो नाम आए हैं— “श्येन याओ 【仙药】(लानका शी ह, प्रि.167) व “सुवान-ना फाता [苏万纳帕达]” (लानका शी ह, प्रि.166)। “श्येन याओ” का अर्थ है “दिव्य दवा”। “सुवान-ना फाता” नाम “संजीवनी बूटी” का नहीं, बल्कि “स्वर्ण बूटी” का लिप्यंतरण प्रतीत होता है। इसका कारण दोनों ध्वनियो में समानता मात्र ही नहीं है, बल्कि इस बूटी का स्रोत एक स्वर्ण पर्वत बताया गया है। इस स्वर्ण पर्वत का नाम कानता-माताना [干塔马塔纳] है (लानका शी ह,प्रि.166),जो “गंधमर्दन” पर्वत का लिप्यंतरण हो सकता है।
दिलचस्प बात यह है कि “सीता” का लिप्यंतरण “शीला【西拉】” किया गया है(लानका शी ह, परिचय, प्रि.2), जो सिर्फ एक लिप्यंतरण नहीं, बल्कि एक भावानुवाद भी जान पड़ता है। “शीला” अर्थात्, बौद्ध “शील” को धारण करने वाली।
“लंका सिप हो” में कथा संक्षेपण व अनुवाद :
“लंका सिप हो” एक संक्षिप्त रामायण है जिसमें कई पात्रों का बिना नामकरण किए सिर्फ उनका पद या कार्य या फिर उस पात्र से संबद्ध घटना विशेष को ही बताया गया है। ऐसा करने से रचयिता उस पात्र के विस्तृत परिचय से बच जाते हैं। यथा: “सुमंत्र” को “शाला-थी [沙腊梯]” (लानका शी ह, प्रि.80) लिखा गया है जो “सारथी” का लिप्यंतरण प्रतीत होता है। वैसे “सुमंत्र” को “सूमन-ना [苏门纳]” भी लिखा गया है जिसे महामंत्री बताया गया है (लानका शी ह,प्रि. 73)। अर्थात् “शाला-थी” व “सूमन-ना”— दोनों दो पृथक चरित्र हैं। स्पष्ट है कि ताए महाकाव्य के रचयिताताए समाज के तानेबाने के अनुरूप, “सुमंत्र” को सारथी व मंत्री—दोनों बताने में सहज नहीं थे। विदित हो कि वाल्मीकि रामायण में सुमंत्र को दशरथ-सारथी बताया गया है (वाल्मीकि, संपा. भट्ट, खंड 1.8.5, प्रि.60) और मंत्री भी (वाल्मीकि, संपा. भट्ट, खंड 1.7.2, प्रि. 55)।
“श्रवण कुमार” के लिए “फालासी【帕拉西】” शब्द का प्रयोग हुआ है (लानका शी ह, प्रि.44)जो “बनवासी” का लिप्यंतरण प्रतीत होता है। ताए समाज में वनों या पहाड़ों के तपस्वियों को “फालासी” (लानका शी ह,प्रि.6)कहा जाता है।
“मंथरा” के लिए “तासी【达西】” नाम का प्रयोग हुआ है (लानका शी ह, प्रि.70),जो “दासी” का लिप्यंतरण प्रतीत होता है। उसे “कुङ न्वी【宫女】” लिख कर राजमहल की दासी के रूप में दर्शाया जरूर गया है। चूँकि ताए महाकाव्य में “मंथरा” के चरित्र की चर्चा बहुत ही संक्षिप्त व सरल है, उसके कार्यानुसार ही उसका नामकरण कर दिया गया है।
निष्कर्ष : उपर्युक्त चर्चा से इस निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकता है कि चीन की ताए रामायण “लंका सिप हो (लानका शी ह)” भारतीय रामायणों से प्रेरित है। इसमें प्रयुक्त अधिकांश व्यक्तिवाचक संज्ञा संबद्ध संस्कृत नामों के लिप्यंतरण हैं, तो वहीं कई संज्ञा संबद्ध संस्कृत नामों के भावानुवाद प्रतीत होते हैं। ये भावानुवाद न सिर्फ ताए साहित्य व संस्कृति की झलक दिखलाते हैं, बल्कि ताएभाषा व साहित्य को और समृद्ध भी करते हैं। हाँ, ताए रामायण में संज्ञाओं के शाब्दिक अनुवाद लगभग नगण्य हैं।
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